न्यायमूर्ति के घर में नक़दी का अजीब मामला

विलियम शेक्सपियर ने ‘जूलियस सीज़र’ में लिखा था कि ‘सीज़र की पत्नी को संदेह से परे होना चाहिए।’ यह पंक्ति इस अपेक्षा को रेखांकित करती है कि अधिकार के पदों पर बैठे लोगों को अनुचित कार्यों की थोड़ी-सी झलक से भी दूर रहना चाहिए। यह सिद्धांत न्यायपालिका में विशेष रूप से महत्त्वपूर्ण है, जहाँ विश्वास और निष्ठा न्याय की नींव तैयार करते हैं। हालाँकि हाल ही में दिल्ली उच्च न्यायालय के न्यायमूर्ति यशवंत वर्मा के सरकारी आवास के एक स्टोर रूम में कथित रूप से बेहिसाब नक़दी मिलने से गंभीर चिन्ता पैदा हो गयी है। सर्वोच्च न्यायालय ने पारदर्शी और त्वरित जाँच के लिए पंजाब एवं हरियाणा उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश न्यायमूर्ति शील नागू, हिमाचल प्रदेश उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश न्यायमूर्ति जी.एस. संधावालिया और कर्नाटक उच्च न्यायालय के न्यायाधीश न्यायमूर्ति अनु शिवरामन की सदस्यता वाली एक जाँच समिति बनायी है।

न्यायमूर्ति वर्मा, जिन्हें अक्टूबर, 2014 में इलाहाबाद उच्च न्यायालय में नियुक्त किया गया था और अक्टूबर, 2021 में दिल्ली उच्च न्यायालय में स्थानांतरित किया गया था; 2031 में सेवानिवृत्त होने वाले हैं। अगर उन्हें सर्वोच्च न्यायालय में पदोन्नत किया जाता है, तो उस स्थिति में उनका कार्यकाल 2034 तक बढ़ जाएगा। स्थिति की गंभीरता को देखते हुए सर्वोच्च न्यायालय ने दिल्ली उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश द्वारा प्रस्तुत जाँच रिपोर्ट को सार्वजनिक रूप से उपलब्ध कराकर एक अभूतपूर्व क़दम उठाया है। रिपोर्ट के निष्कर्ष कि ‘पूरे मामले की गहन जाँच की आवश्यकता है’ ने जाँच को और भी तीव्र कर दिया है। इसके अलावा अभी भी सुलगते हुए स्टोर रूम में जले हुए नोटों के ढेर को इकट्ठा करते हुए एक फायर फाइटर की छोटी वीडियो रिकॉर्डिंग इस मामले में रहस्य का तत्त्व जोड़ती है।

इस विवाद के मूल में न्यायपालिका की विश्वसनीयता और निष्ठा निहित है। न्यायमूर्ति वर्मा ने कहा है कि न तो वह और न ही उनके परिवार के सदस्य नक़दी रखने के लिए ज़िम्मेदार हैं। इससे गंभीर प्रश्न उठता है कि क्या पैसा उनकी जानकारी के बिना वहाँ रखा गया था? अगर ऐसा है, तो क्या यह न्यायमूर्ति की प्रतिष्ठा को धूमिल करने और उन्हें फँसाने की एक बड़ी साज़िश का हिस्सा है? अगर इसमें कोई गड़बड़ी शामिल है, तो इसे किसने अंजाम दिया?

न्याय के संरक्षक होने के नाते न्यायपालिका को किसी भी प्रकार की अस्पष्टता नहीं रहने देनी चाहिए। न्यायपालिका से जुड़ी वित्तीय अनियमितताओं का यह पहला मामला नहीं है। मार्च, 2025 में पंजाब और हरियाणा उच्च न्यायालय की पूर्व न्यायाधीश न्यायमूर्ति निर्मल यादव को एक अन्य न्यायाधीश के आवास पर मिले 15 लाख रुपये से जुड़े 17 साल पुराने भ्रष्टाचार के मामले में बरी कर दिया गया। इसी तरह सन् 2019 में भारत के पूर्व मुख्य न्यायाधीश रंजन गोगोई के ख़िलाफ़ यौन उत्पीड़न के आरोपों ने गंभीर चिन्ता पैदा कर दी थी, जब उन्होंने अपने स्वयं के मामले की कार्यवाही में भाग लिया था, जिसके कारण आंतरिक समिति ने आरोपों को ख़ारिज कर दिया था। इसी तरह सन् 2020 में आंध्र प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री जगन मोहन रेड्डी द्वारा न्यायमूर्ति एन.वी. रमना के ख़िलाफ़ लगाये गये आरोपों को एक आंतरिक जाँच के माध्यम से निपटाया गया था, जिसके निष्कर्षों का कभी ख़ुलासा नहीं किया गया।

इस मामले में खुलेपन के महत्व को नज़रअंदाज़ नहीं किया जा सकता। अंतत: न्यायपालिका को उच्चतम नैतिक मानदंडों को क़ायम रखना चाहिए तथा यह सुनिश्चित करना चाहिए कि न्याय न केवल हो, बल्कि न्याय होता हुआ दिखे भी। इस मामले का परिणाम भारतीय न्यायिक प्रणाली की ईमानदारी, निष्पक्षता और पारदर्शिता के प्रति प्रतिबद्धता के लिए एक महत्त्वपूर्ण लिटमस टेस्ट के रूप में काम करेगा।