विश्व जनसंख्या दिवस के मौक़े पर 11 जुलाई को केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्री जे.पी. नड्डा ने कहा कि छोटे परिवार बनाकर विकसित भारत का लक्ष्य हासिल किया जा सकता है। प्रधानमंत्री मोदी सन् 2047 तक भारत को विकसित भारत में तब्दील करने की बात कर रहे हैं; लेकिन एनडीए के अहम घटक दल टीडीपी के मुखिया चंद्रबाबू नायडू जे.पी. नड्डा के छोटे परिवार की पैरवी से उलट नज़रिया जनता के सामने रख रहे हैं। क्या वह विकसित भारत की राह में रोड़े डाल रहे हैं? 19 अक्टूबर को मुख्यमंत्री नायडू ने कहा कि राज्य सरकार परिवारों को अधिक बच्चे पैदा करने के लिए क़ानून बनाने पर विचार कर रही है, जो जनसंख्या नियंत्रण के उद्देश्य से पहले की नीतियों को पलट देगा।
नायडू ने संकेत दिया है कि दो से अधिक बच्चों वाले परिवारों के लिए संभावित प्रोत्साहन सहित आगे के उपाय भी किये जा रहे हैं। इधर 21 अक्टूबर को तमिलनाडु के मुख्यमंत्री एम.के. स्टालिन ने एक सामूहिक विवाह समारोह में कहा कि अब नव-विवाहित जोड़े कम बच्चे पैदा करने का विचार त्याग सकते हैं। जैसा कि लोकसभा निर्वाचन क्षेत्रों में कमी का परिदृश्य है, यह सवाल उठता है कि हमें ख़ुद को कम बच्चे पैदा करने तक सीमित क्यों रखना चाहिए? दोनों मुख्यमंत्रियों की चिन्ता कम होती आबादी व उससे पैदा हो रही समस्याओं को लेकर है। बेशक दोनों मुख्यमंत्रियों के कारण अलग-अलग हैं; लेकिन दोनों ही जनता से अधिक बच्चे पैदा करने की अपील करते नज़र आ रहे हैं। मुख्यमंत्री नायडू ने एक सभा में कहा कि राज्य में विकास दर बढ़नी चाहिए। सभी को इस बारे में सोचना चाहिए। पहले मैंने जनसंख्या नियंत्रण की वकालत की थी; लेकिन अब हमें भविष्य के लिए जन्म दर बढ़ाने की ज़रूरत है।
इस समय आंध्र के कई गाँवों में केवल बुजुर्ग ही बचे हैं। युवा आबादी शहर चली गयी है। दूसरी तरफ़ एम.के. स्टालिन ने अधिक बच्चों की ज़रूरत को लोकसभा सीटों के परिसीमन से जोड़ दिया। परिसीमन का आधार आबादी है। दक्षिण राज्य केरल, कर्नाटक, आंध्र प्रदेश, तमिलनाडू और तेलगांना में नेताओं को अपनी आबादी घटने का ख़तरा महसूस होने लगा है और अब वे परिवार नियोजन के विपरीत बच्चे पैदा करने की ढील की वकालत करते नज़र आ रहे हैं। ध्यान देने वाली बात यह है कि केरल सन् 1988 में सबसे पहले कुल प्रजनन दर का लक्ष्य हासिल करने वाला पहला राज्य बना, उसके बाद तमिलनाडू ने सन् 1993 में, आंध्र प्रदेश ने सन् 2001 में और कर्नाटक ने सन् 2005 में अपनी आबादी को तेज़ गति से बढ़ने से रोक दिया।
वर्तमान में भारत में प्रति महिला से जन्म लेने वाले औसत जीवित बच्चों की गणना के हिसाब से कुल प्रजनन दर घटकर दो बच्चे प्रति महिला हो गयी है। केरल, तमिलनाडु, कर्नाटक, आंध्र प्रदेश, तेलंगाना में कुल प्रजनन दर राष्ट्रीय औसत दर दो बच्चों से कम है, जबकि बिहार, उत्तर प्रदेश, झारखण्ड, मेघालय व मणिपुर में यह राष्ट्रीय औसत से ज़्यादा है। दक्षिण राज्यों ने आबादी को नहीं बढ़ने में सफलता तेज़ी से हासिल की; लेकिन अब वहाँ बुजुर्गों की आबादी और राज्यों की तुलना में अधिक है। दक्षिण राज्यों के लिए आबादी कम होना इसलिए भी चिन्ता का विषय है; क्योंकि इसके आर्थिक व सियासी प्रभाव भी हैं। देश में जनसंख्या के हिसाब से संसाधनों का वितरण किया जाता है, जिसका ख़ामियाज़ा दक्षिण राज्य भुगत रहे हैं। उदाहरण के तौर पर वित्त आयोग यह निर्धारित करता है कि आबादी के आधार पर राज्यों के बीच राजस्व कर कैसे साझा किया जाए। इस वर्ष उत्तर प्रदेश को 31,962 करोड़ रुपये मिले, जो कि पाँच दक्षिण राज्यों को कुल मिलाकर दी गयी रक़म 28,152 करोड़ रुपये से अधिक है। जबकि हक़ीक़त यह है कि इन राज्यों का योगदान भारतीय राजस्व में उत्तर प्रदेश से कहीं अधिक है।
देश में जनगणना की शुरुआत अगले साल 2025 में होगी और 2026 में परिसीमन होगा। इस प्रक्रिया में निर्वाचन क्षेत्रों की संख्या आबादी के हिसाब से फिर से तय होने की चर्चा है। इसके मद्देनज़र दक्षिणी राज्यों की चिन्ता है कि उत्तरी राज्यों की तुलना में संसद के दोनों सदनों में उनका प्रतिनिधित्व कम हो जाएगा। यानी जिन राज्यों ने आबादी को क़ाबू में रखने और सामाजिक विकास के सूचकांक बेहतर रखने में सफलता हासिल की है, वो लोकसभा व राज्यसभा में संख्या की दृष्टि से पीछे रह सकते हैं। वहीं दूसरी ओर नये परिसीमन के बाद अधिक जनसंख्या वाले राज्यों के सांसदों की संख्या लोकसभा व राज्यसभा में अधिक हो जाएगी। इससे दक्षिण राज्यों के लिए दिल्ली और भी दूर हो सकती है। सवाल सियासी ताक़त का भी है। सियासत में संख्याबल बहुत बहुत मायने रखता है।