यह सही है कि छात्र राजनीति की पहली प्राथमिकता अध्ययन है, लेकिन जो सामाजिक-राजनीतिक समस्याएं हैं, उन पर भी निगाह रखनी चाहिए और सभी विचारधाराओं से परिचित होना चाहिए. छात्रों के अपने कर्तव्य और अधिकार हैं. राष्ट्र या समाज के समक्ष कोई गंभीर समस्या आने पर छात्रों को देश सेवा के लिए भी उद्यत रहना चाहिए. छात्रों को व्यावहारिक दलगत राजनीति में नहीं पड़ना चाहिए लेकिन विद्यार्थी को सभी विचारधाराओं का अध्ययन जरूर करना चाहिए. हालांकि, आदर्श रूप में हम यह बातें कहते हैं कि छात्र को राजनीति से दूर रहना चाहिए और राजनीतिक दलों को छात्रों के बीच दखल नहीं देना चाहिए. लेकिन व्यावहारिक पक्ष यह है कि भारत में युवकों की संख्या ज्यादा है. आज पूर्णतया उनको जबरन राजनीति से अलग रख पाना संभव नहीं है. राजनीतिक दलों में सत्ता के लिए संघर्ष चलता है. इसलिए उनसे भी यह अपेक्षा करना अव्यवहारिक होगा कि छात्रों को वे खुद से दूर रखें.
मैं इलाहाबाद विश्वविद्यालय छात्रसंघ का अध्यक्ष रहा. लेकिन मैंने एमए में टॉप भी किया. दोनों में सामंजस्य स्थापित करना बहुत जरूरी है. उस समय तक छात्र राजनीति में राजनीति दलों का हस्तक्षेप प्रभावी हो चला था लेकिन मैं राजनीतिक दलों से दूर रहा. मैंने खुद को किसी दल के प्रतिनिधि के रूप में पेश नहीं किया. आज की व्यवस्था में छात्रों को दलों से दूर रहने को बलात लागू नहीं कर सकते. मुझे याद है कि मैं विद्यार्थी जीवन में था, तब 18 साल की उम्र में मताधिकार की मांग उठी थी. हमने आवाज उठाई. जगह-जगह इस पर भाषण दिए, लेख लिखे. जब मैं प्रभाव डालने की स्थिति में पहुंचा तो जितना मुझसे हो सकता था, मैंने इसमें वह भूमिका निभाई. प्रत्येक विद्यार्थी का फर्ज है कि वह मुद्दों पर अपनी राय साफ करके अपना ध्येय बनाकर चले.
आज छात्र राजनीति में राजनीतिक दलों का दखल बढ़ गया है. क्योंकि समय के साथ राजनीतिक सामाजिक व्यवस्था बदलती रहती है. आपके सामने जब ऐसा उद्देश्य हो जिस पर सब एकमत हों, तब वह उद्देश्य हासिल कर पाना आसान हो जाता है. स्वतंत्रता आंदोलन में ऐसा ही हुआ. तब देश के सामने एकलक्ष्य था आजादी. सत्तासुख भोगने के अवसर कम थे, लोग राजनीति में इसलिए आते थे कि देश और समाज को कुछ देना है. वे त्याग की भावना से राजनीति में आते थे. अब राजनीति में लोग हिस्सेदारी के लिए आते हैं. लोकतंत्र लूटतंत्र बन गया और लोग इस लूटतंत्र का हिस्सा बनने के लिए आते हैं. उस वक्त के संघर्ष की तुलना आज के संघर्ष से नहीं की जा सकती. वह संघर्ष देश के लिए था, आज का संघर्ष निजी है, क्योंकि राजनीति का स्वरूप बदल गया है. वह सत्तासुख भोगने का जरिया बन गई. निजी स्वार्थ हावी हो गए.
यह कहना गलत है कि सिर्फ राजनीति का ही पतन हुआ. सभी संगठनों, व्यवसायों का और समाज का भी चारित्रिक पतन हुआ. छात्र राजनीति को इससे अलग करके नहीं देख सकते. राजनीतिक दलों की जो भूमिका हो गई है, छात्र जीवन और छात्र राजनीति पर उसका प्रभाव पड़ेगा ही.
(लेखक इलाहाबाद विश्वविद्यालय के पूर्व छात्रसंघ अध्यक्ष एवं पूर्व लोकसभा सचिव हैं )