सीतापुर… उत्तरप्रदेश का एक छोटा-सा शहर. जैसे कई जनपद हैं, जनपदीय मुख्यालय हैं, कुछ उसी आकार-प्रकार का शहर. लेकिन यह कुछ अलग है, कुछ खास. उत्तरप्रदेश के एक कोने में बसा है लेकिन जानता इसे पूरा देश है, और उत्तर व पूर्वी भारत में तो गांव-गांव तक सीतापुर को जाननेवाले लोग मिलेंगे. भले ही वे सीतापुर गए हों या नहीं लेकिन सीतापुर का नाम लेते ही कहेंगे कि वही सीतापुर न, आंखवाला शहर! यह लोकप्रियता इस शहर को ऐसे ही अर्जित नहीं हुई है बल्कि उसकी ठोस वजह भी रही है. आंखों के अस्पतालवाला शहर के रूप में यह तब से लोकमानस में स्थापित हुआ, जब आंखों के अस्पताल गिने-चुने हुआ करते थे. अब तो हर शहर में बेहतर आंख अस्पताल हो गए हैं लेकिन एक समय था, जब देश के कोने-कोने में रोशनी पाने की उम्मीद उत्तरप्रदेश के इसी शहर में बंधती थी. हालांकि मिथ और कहानियों के घालमेल से इस शहर की और भी कई पहचान रही है लेकिन यथार्थ के धरातल पर यह रोशनी देनवाला शहर ही कहलाया.
सीतापुर के बारे में यह कहते हैं कि यह 88 हजार ऋषियों की तपस्थलीवाला इलाका रहा है. धार्मिक आस्थावाले इस धर्मधरा भी कहते हैं और उसके पीछे नैमिष नगरी मां ललिता के वास का हवाला देते हैं तो दूसरी ओर महर्षि दधीचि के अस्थि दान की गौरवकथा और गाथा को बताते हैं. और सीतापुर के दरी उद्योग की चर्चा भी हर कोई शहर में करता है. यहां के खैराबाद कस्बे में बड़े मखदूम साहब और बिसवां कस्बे में टक्करी बाबा गंगा-जमुनी तहजीब के दो बड़े नाम हैं जिनकी मजार पर आज भी प्रत्येक वर्ग, सम्प्रदाय के अकीदतमंद जाकर नतमस्तक होते हैं.
गांजरी अंचल से होकर गुजरनेवाली शारदा व घाघरा सरीखी बड़ी नदियां और ऐतिहासिकता को समेटे मनवा कस्बे के टीले इस जनपद की यशोगाथा का ही वाचन करते हैं. और इन सबके बीच यहां के मूंगफली, तम्बाकू, किवाम, प्लाई व ताजिया का कारोबार भी जेहन में अभी ताजगी के साथ छाया रहता है लेकिन इन तमाम पहचारों पर भारी पड़ती है इस शहर का रोशनी देनेवाली पहचान. सीतापुर आंख अस्पताल आज भी अंधता निवारण में मील का पत्थर साबित हो रहा है. और यहां का अस्पताल तो इस हालत में है कि मरीजों के इलाज में आज विश्व स्तर पर विशेषज्ञ भी इस अस्पताल के मुरीद हैं.
सीतापुर का एक अस्पताल के जरिये रोशनी देनेवाला शहर बन जाने की कहानी भी अलग किस्म की है. डॉ. महेश प्रसाद मेहरे ने 1926 में सीतापुर के खैराबाद में एक छोटी सी डिस्पेंसरी खोलकर मरीजों का इलाज शुरू किया था. डाॅ मेहरे मूल रूप से इलाहाबाद के थे और जब यह काम शुरू कर रहे थे तब उनकी उम्र महज 26 साल की थी. उनका जन्म 1900 में हुआ था. आंखवाली डिस्पेंसरी में विश्वसनीयता बढ़ती गई. डाॅ मेहरे जाति-धर्म-समुदाय का बोध भुलाकर बस मरीजों की सेवा में लगे रहे और 1939 में वह समय आया जब सीतापुर में आंख अस्पताल की स्थापना कर दी गई.मिथकीय ऋषियों के नगर में डाॅ. मेहरे असल ऋषि बन गए. डॉ. मेहरे के प्रयास से चिकित्सक व संसाधन बढ़ते गए. धीरे धीरे ख्याति बढ़ती गई और सीतापुर आंख अस्पताल एशिया में प्रसिद्ध हो गया.
लेकिन खासियत यह रही कि यह स्थापना के समय भी गरीबों से लेकर अमीरों तक के लिए अस्पताल था और आज भी इसकी पहचान उसी रूप में है. 21 नवंबर 1964 को राष्ट्रपति डॉ सर्वपल्ली राधाकृष्णनन ने सीतापुर आंख अस्पताल के नए भवन का शिलान्यास किया था. तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने 8 दिसंबर 1968 को नेत्र संस्थान का उद्घाटन किया. और फिर तो एक-एककर कारवां ही बनता गया. अहमदाबादवालों ने गुजराती वार्ड बनवाए, राजा बलरामपुर पटेश्वरी ने आॅपरेशन वार्ड बना दिए, राष्ट्रपति वीवी गिरि और प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू भी आये तो कुछ न कुछ देकर गए. यह भी गजब है कि एक व्यक्ति की लगन से आज यह शहर आंखों का शहर बन गया, जिसकी पहचान दूसरी थी. वर्तमान में सीतापुर आंख अस्पताल की शाखाएं उत्तर प्रदेश के 21 जिलों के अलावा उत्तरांचल के 10 जिलों में एक शाखा श्रीनगर में भी स्थापित हैं. और आज भी जब सीतापुर जाएंगे तो देखेंगे कि आंखोंवाले इस शहर में आंख के अस्पताल ने कितने किस्म के रोजगार के द्वार खोले हैं.