शिवेन्द्र राणा
यतो धर्मस्ततो जय: अर्थात् जहाँ धर्म है, वहाँ जय है। इस ध्येय वाक्य के साथ स्वतंत्र भारत में न्यायपालिका की स्थापना हुई थी। इस विश्वास के साथ कि वह भारत के संविधान और देश के हर नागरिक में न्याय के प्रति आस्था को ज़िन्दा रखेगी; उसकी उम्मीद का केंद्र होगी। लेकिन आज आज़ादी के क़रीब 77 वर्षों में जब हम अतीत की अपनी यात्रा का सिंहावलोकन करते हैं, तो इस न्यायिक निर्णय और न्याय की उम्मीद, दोनों की तस्वीर बड़ी धुँधली नज़र आती है।
इसमें कोई शक नहीं कि स्वतंत्रता के हर बीतते दशक के साथ भारत की संसद, लोकसेवा आयोगों, पुलिस प्रशासन जैसी प्रत्येक संस्था में नैतिक गिरावट आयी है, जो समय के साथ बढ़ती चली गयी। किन्तु इसमें सबसे दु:खद न्यायपालिका की पतनशीलता है। आपातकाल में और अब फिर से जिस प्रकार प्रकार माननीय न्यायाधीशों ने सत्ताओं के समक्ष घुटने टेके हैं, वो एक विभाजक रेखाओं के रूप में भी दिखी हैं। न्यायपालिका की गरिमा की अवहेलना एवं सत्ता की शक्ति और निजी स्वार्थ के चलते आज गणतंत्र दिवस के 75 वर्ष पूरे होने के बाद यह महसूस होता कि नकारात्मक परंपरा एक व्यवस्थित रूप ले चुकी है, जो दिनोंदिन और ढलान की ओर है। आज न्यायपालिका के अनैतिक-असंगत निर्णय और न्यायाधीशों के अनियंत्रित-अमर्यादित आचरण की एक लंबी फ़ेहरिस्त है, जिससे स्पष्ट होता है कि न्यायपालिका की प्रतिष्ठा आहत है।
इसी परिप्रेक्ष्य में न्यायपालिका के कुछ करामाती निर्णयों पर एक नज़र डालिए। जून, 2024 में राजस्थान हाईकोर्ट के जज अनूप कुमार ने बलात्कार के आरोपी को राहत देते हुए अपने निर्णय में कहा कि लड़की के अंत:वस्त्र उतारना, नंगा करना और ख़ुद नंगा होना बलात्कार का प्रयास नहीं है। इसी प्रकार पिछले दिनों उड़ीसा हाईकोर्ट ने छ: साल की बच्ची के बलात्कार के आरोपी मोहम्मद आकिल के लिए ख़ुद कहा कि वो पाँच व$क्त का नमाज़ी है। उसे सुधरने का समय दीजिए। वहीं दिल्ली हाईकोर्ट ने पिछले साल इस्लामिक क़ानून का हवाला देते हुए एक 15 साल की लड़की के निकाह को जायज़ ठहरा दिया। अरे भाई! संवैधानिक नियम किसलिए हैं? जब निर्णय धार्मिक-पंथीय आस्थाओं के आधार पर ही देना है, तो फिर सभी आरोपियों और अपराधियों के साथ यही होता रहेगा और वे अपराध करते रहेंगे। जजों के निर्णय ही नहीं, बल्कि उनके कारनामे भी नित्य चर्चा में हैं। बांदा के मुख्य न्यायिक मजिस्ट्रेट भगवान दास गुप्ता द्वारा उनके आवास के बिजली के लंबित बिल की वसूली के लिए जाने वाले कर्मचारियों पर फ़ज़ीर् मुक़दमा दर्ज करा दिया गया। मामले की सुनवाई के बाद इलाहाबाद हाईकोर्ट ने इसे पद में दुरुपयोग का मामला मानते हुए कहा कि यह व्यक्ति जज बनने लायक नहीं है। फिर क्या? न्यायालय मात्र एक तल्ख़ टिप्पणी करके रह जाता है। यदि एक टिप्पणी करने भर से ऐसे व्यक्ति को ब$ख्शते हुए उसे न्यायिक प्रणाली का हिस्सा बने रहने दिया जाए, तो कल्पना करिए कि ऐसे लोग शुद्ध एवं पवित्र न्याय की भावना का मान कैसे रखेंगे?
इन सबसे बढ़कर चर्चित मामला रहा पुणे पोर्श मामला, जहाँ शराब के नशे में दो युवा इंजीनियरों को कार से कुचलकर मार डालने वाले रईस नाबालिग़ को मात्र 15 घंटों के अंदर ही सड़क दुर्घटनाओं के प्रभाव और उनके समाधान पर 300 शब्दों के निबंध लिखने, किसी नशा मुक्ति केंद्र में जाकर रिहैबिलिटेशन लेने, ट्रैफिक नियमों को पढ़ने जैसी शर्तों पर कोर्ट से जमानत मिल जाती है। वहीं दिल्ली के कथित शराब घोटाला मामले में राउज एवेन्यू कोर्ट की जज न्याय बिन्दु द्वारा दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल को जमानत देते ही ईडी ने दिल्ली हाईकोर्ट जाकर उनकी जमानत रुकवा दी। और सीबीआई ने आनन-फ़ानन में गिरफ़्तारी अपने हाथ में ले ली। बाद में पता चला कि ईडी के वकील और हाईकोर्ट के जज सगे भाई हैं। इसे लेकर 157 वकीलों ने हाईकोर्ट के फ़ैसले को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दे दी, तब जाकर मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल को अंतरिम जमानत मिली; लेकिन सीबीआई मामले में अभी कुछ नहीं हुआ हैं। ऐसे ही महाठग सुकेस को बॉम्बे हाई कोर्ट से जमानत मिल जाती है।
न्यायपालिका के दरवाज़े पर एक ओर न्याय के लिए एड़ियाँ रगड़ते लोगों की ज़िन्दगी गुज़र जाती हैं और दूसरी तरफ़ पिछले वर्षों में ऐसे कई मामले सामने आये हैं, जिनमें प्रभावशाली, ख़ास तौर पर आपराधिक मामलों में फँसे सत्तापक्ष के समर्थकों को जमानतें मिल रही हैं। इनमें से एक है एचडी रेवन्ना, जो हज़ारों महिलाओं के बलात्कार का आरोपी है। उसे आराम से अंतरिम जमानत मिल जाती है। इस तरह अदालतें लगातार असमानतापूर्ण न्यायिक प्रणाली के उदाहरण दे रही हैं। वर्तमान में न्यायपालिका जिस तरह फ़ैसले दे रही है, यदि आगे वह इसमें सुधार का प्रयास नहीं करती है, तो यक़ीन मानिए अगले कुछ ही दशक में उसकी विश्वसनीयता रसातल में होगी।
इसी तरह पहले भी कई रसूख़दारों को तो आरोप तय होने के बाद भी अग्रिम जमानत मिलती रही है। पहलवान बेटियों के द्वारा आरोपित बृजभूषण सिंह के मामले में ही कौन-सी अदालत ने उन्हें जेल का रास्ता दिखाया? लेकिन आन्दोलनकारी किसानों पर झूठे मुक़दमे और उन्हें जेल में डाले जाने पर कोई सुनवाई नहीं है। क्या जो सुविधा सत्ता तक पहुँच वालों और रसूख़दारों को उपलब्ध है, वही सुविधा आम भारतीयों को भी हासिल है? यह समझना ज़रा कठिन है। असल में स्थिति ऐसी है कि इस देश में क़ानून का स्वरूप एक-सा ज़रूर है; लेकिन वह व्यक्ति की पृष्ठभूमि के अनुरूप अलग-अलग तरीक़े से काम करता है। वेदांत अग्रवाल के मामले (पुणे पोर्श कांड) में ही इस देश की न्यायिक और प्रशासनिक व्यवस्था का वह रूप दिखा, जो धन-बल के समक्ष नंगा खड़ा था। इस मामले में दो चीज़ें एक स्पष्ट थीं- पहली, इस देश में आम, मेहनतकश लोगों के जान की कोई क़ीमत नहीं है। क्योंकि यदि आपकी मौत किसी धनवान-तथाकथित संभ्रांत परिवार के बिगड़ैल बच्चे के एडवेंचर का हिस्सा है, तो उसके धनबल से अभिभूत देश का क़ानून और प्रशासन इसे सड़क के कुत्ते की मौत से अधिक नहीं मानता। और दूसरा, यदि आप शक्तिशाली वर्ग यानी धन और वर्ग से संपन्न हैं, तो इस देश में आपको कुछ भी करने की इजाज़त है; यहाँ तक कि शराब पीकर किसी के ऊपर गाड़ी चढ़ाकर उसे मार डालने की भी। अब नीट पेपर घोटाले का मामला ही लें, तो सर्वोच्च न्यायालय का इसे रद्द करने का असमंजस समझना कठिन है। सरकार का कहना और कोर्ट का सुनना कि इसे रद्द करने से बच्चों का भविष्य ख़राब होगा; पूर्णत: अस्वीकार किया जाना चाहिए। यदि सरकार को, पुलिस-प्रशासन को, परीक्षा एजेंसी को लगता है कि पेपर लीक हुआ है, परीक्षा में धाँधली हुई है; चाहे एक या दो जगह, चाहे कम या अधिक, तो फिर उसे निरस्त करने में न्यायालय को क्या समस्या है? एक ओर हज़ारों बच्चे अपने भविष्य की चिन्ता में सड़कों पर आन्दोलन कर रहें हैं, तो फिर न्यायपालिका एक त्वरित और कठोर निर्णय से परहेज़ करके आख़िर किसका भविष्य बचाना चाहती है? इन न्याय-निर्णयन की विसंगतियों के अतिरिक्त बहुत-से ऐसे मुद्दे हैं, जिनमें न्यायपालिका का आचरण अनुचित है। जैसे आज भी ब्रिटिश परंपरा के अनुरूप न्यायधीश कई ह$फ्तों के ग्रीष्म और शीत अवकाश पर चले जाते हैं। उस देश में, जिसका जनमानस समस्याओं, मुक़दमों के बोझ तले श्वास लेने में घुटन महसूस कर रहा है। यानी अंग्रेजी सत्ता की विदाई के सात दशकों बाद भी न्यायपालिका की औपनिवेशिक मानसिकता यथावत् है। पूरे देश को संवैधानिक मूल्यों का पाठ पढ़ाने वाली न्यायपालिका को आत्ममूल्यांकन का भी प्रयास करना चाहिए। वो कोलिजियम सिस्टम, जिसे संविधान सभा ने ख़ारिज किया; उसे न्यायपालिका ने 1993 में लागू कर दिया और इसके बाद परिवारवाद-वंशवाद का नंगा खेल शुरू हो गया। 2014 में संसद के दोनों सदनों ने भारी बहुमत से राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग अधिनियम को पारित किया; लेकिन सर्वोच्च न्यायालय ने इसे मूल ढाँचे के विरुद्ध बताते हुए ख़ारिज कर दिया। क्या न्यायपालिका को लगता है कि इस देश में मात्र वही सत्यता की प्रतिमान है? या वह स्वयं को संसद के समानांतर सत्ता का केंद्र मानती है? जो भी हो, किन्तु उसका यह एकांगी आचरण संवैधानिक मर्यादा के अनुरूप नहीं है।
इतना ही नहीं, आज जजों में सत्ताधारी दलों से संपर्क साधकर मानवाधिकार आयोग जैसे सांविधिक निकायों में पद हथियाने की होड़ लगी है। ऊपर से माननीय न्यायधीशों की विधानमण्डलों में पहुँचने की महत्त्वाकांक्षा ने न्यायपालिका की विश्वसनीयता को खोया है। पूर्व मुख्य न्यायाधीश रंजन गोगोई का सेवानिवृत्ति के तुरंत बाद राज्यसभा के मनोनीत सदस्य का पद स्वीकारना सरासर अनुचित निर्णय था। हालाँकि ये कोई नयी बात नहीं है। इससे पूर्व रंगनाथ मिश्र, मोहम्मद हिदायतुल्ला, बहरुल इस्लाम जैसे कई न्यायाधीश और आज के कई न्यायिक और ग़ैर-न्यायिक पदाधिकारी सत्ता और सत्ताधारी दलों की कृपा से राज्यसभा तक पहुँच चुके हैं। लेकिन इनमें कलकत्ता हाईकोर्ट अभिजीत गंगोपाध्याय तो सबसे विशिष्ट निकले। वह अपने पद से इस्तीफ़ा देकर एक बड़ी राजनीतिक पार्टी में शामिल हो गये। कहने का तात्पर्य यह है कि न्यायमूर्तियों की सत्ता-सुख में शामिल होने की अशुभ त्वरा न्यायपालिका की साख को चोटिल कर रही है।
हालाँकि आज भी कोई आम भारतीय जब सरकार, प्रशासन, धनिकों, बाहुबलियों और अपराधियों से पीड़ित-प्रताड़ित होकर ख़ुद को संघर्ष के लिए खड़ा करता है, तो इसके पीछे उसका यही विश्वास होता है कि न्यायपालिका उसकी आवाज़ ज़रूर सुनेगी और न्याय के इस मंदिर में उसे इंसाफ़ ज़रूर मिलेगा। लेकिन विडंबना देखिए, कई जज ही उत्कोच के वशीभूत होकर याचियों की पुकार और उनकी पीड़ा को नज़रअंदाज़ कर देते हैं। क्या आम लोगों की वेदना से उपजा क्रोध इस पूरी न्यायिक मान्यता को ही संकट ग्रस्त नहीं कर देगा? वर्तमान संकट केवल यह नहीं है कि देश की प्रमुख संवैधानिक संस्था का इक़बाल ढह रहा है, बल्कि उसकी विश्वासनीयता दाँव पर लग गयी है, जिसे संविधान का एक आधार स्तम्भ, उसके मूल्यों का संरक्षक और व्याख्याकार माना जाता है।
जे. कृष्णमूर्ति कहते हैं- ‘जब शुद्ध भावनाएँ बुद्धि द्वारा दूषित हो जाती हैं, तब जीवन बहुत मामूली दर्जे का होता है।’ न्यायपालिका में पैठ कर चुकी भौतिक स्वार्थ और पद-सत्ता की लालसा ने न्याय के मंदिर की प्रतिष्ठा को दाँव पर लगा दिया है। हालाँकि अभी भी देश के करोड़ों लोगों ने इससे अपनी आस्था का त्याग नहीं किया है। क्योंकि जिस दिन ऐसा होगा, उसी दिन राष्ट्र और समाजों का संतुलन बिगड़ जाएगा। यदि मी लार्ड सुन रहे हैं, तो उनसे गुज़ारिश है- ‘हुज़ूर! अपनी गरिमा बचाइए।’