वो दिन कहाँ गए?
एक ज़माना था जब विश्वविद्यालयों के कैंपस गूंज उठते थे—”इंकलाब जिंदाबाद!”, “हम लाए हैं तूफान से कश्ती निकाल के!” के नारों से। विश्वविद्यालयों की दीवारें सिर्फ पत्थर नहीं, विचारों की आग से लाल होती थीं। बीएचयू, इलाहाबाद, दिल्ली, लखनऊ—हर कैंपस में बहसें होती थीं, छात्र नेताओं के भाषणों में आग होती थी। आज? सन्नाटा। सिर्फ फुसफुसाहटें। क्या हमारा लोकतंत्र सो गया है? क्रांति के वारिस अब ‘स्वाइप’ करते हैं इतिहास। 1960-70 का दशक याद कीजिए। अमेरिका में वियतनाम युद्ध के खिलाफ छात्रों ने कैंपस जलाए। फ्रांस में ‘मई 1968’ की क्रांति ने सरकार को झुकाया। भारत में जेपी आंदोलन ने इमरजेंसी को धूल चटाई। लेकिन आज? युवा “रिफॉर्मर्स”नहीं, “इन्फ्लुएंसर्स” बनना चाहते हैं। उनके हाथों में पोस्टर नहीं, स्मार्टफोन हैं। वे सत्ता से नहीं, “स्टोरीज और लाइक्स” से टकराते हैं। “हमारे युवा अब सड़कों पर नहीं, मेटावर्स में विरोध करते हैं,” एक प्रोफेसर ने मायूसी से कहा, “वे ‘ट्रेंडिंग हैशटैग’ को क्रांति समझ बैठे हैं!”
भ्रष्टाचार, परिवारवाद और अवसरवाद ने युवाओं का भरोसा तोड़ दिया है।
“नेता बनने के लिए अब विचार नहीं, सरनेम चाहिए,” एक छात्र ने व्यंग्य किया। सोशल मीडिया का झूठा सुकून: “रील्स बनाने से सिस्टम नहीं बदलता,” पर युवा “स्लैक्टिविज्म” (आलसी सोशल एक्टिविज्म) के शिकार हैं।
लोकतंत्र की वर्तमान उदासी और युवाओं की सियासत से दूरी।
क्यों खामोश हैं विश्विद्यालयों के कैंपस और क्यों नहीं उभर रहे नए नेता?”
बृज खंडेलवाल द्वारा
क्या हमारा लोकतंत्र थक गया है? क्या बदलाव की चिंगारी बुझ चुकी है? बीते दशकों में और आजादी के संघर्ष के दौरान जिस ऊर्जा और जुनून से छात्र आंदोलनों ने लोकतंत्र को दिशा दी थी, वह आज पूरी तरह से ग़ायब है।
भारत हो या अमेरिका, फ्रांस हो या दक्षिण अफ्रीका—कहीं से भी अब वह युवा सैलाब नहीं उठता जो सत्ता के गलियारों को हिलाकर रख दे। हमारे कैंपस अब खामोश हैं जो कभी इंकलाब के अड्डे थे। JNU का सन्नाटा चौंकाने वाला है।
बीएचयू, इलाहाबाद, लखनऊ जैसे कैंपस, जो कभी विचारों की प्रयोगशालाएं थे, अब मद्धम पड़ चुके हैं। छात्र संघ चुनाव या तो पूरी तरह बंद कर दिए गए हैं या उन्हें नाममात्र की रस्म में तब्दील कर दिया गया है। इससे युवा न सिर्फ सियासत से दूर हो रहे हैं, बल्कि नेतृत्व के जरूरी अनुभव से भी वंचित रह जाते हैं।
हमारा आज का नौजवान क्रांति के सपने नहीं देखता। उसका फोकस सिर्फ विदेश निकलना रह गया है। शैक्षिक गलियारे बेशर्म फैशन परेड या ड्रग, दारू, फ्री सेक्स के साथ नई एज लाइफ स्टाइल्स प्रमोट कर रहे हैं। पढ़ा-लिखा, नौजवान, ग्लोबल, डिजिटल हो गया है, लेकिन सियासी रूप से ‘स्विच ऑफ’ मोड में है। करियर, स्टार्टअप्स, विदेश जाने की प्लानिंग, रील बाजी, यू ट्यूबिंग, इंस्टाग्राम पर ब्रांडिंग—इन सब में वह इतना व्यस्त है कि उसे ये भी नहीं लगता कि बदलाव की लड़ाई उसकी जिम्मेदारी है।
शायद इसमें उसका दोष भी नहीं है। राजनीति को जिस तरह से करप्शन, अवसरवाद और वंशवाद से जोड़ा गया है, उसने नौजवानों का भरोसा तोड़ा है। वे इसे ‘गटर’ मानते हैं, और ‘सेल्फ-ग्रोथ’ को तरजीह देते हैं।
सियासत में ताजा खून नहीं आ रहा है?
राजनीतिक पार्टियों ने युवाओं को सिर्फ पोस्टर चिपकाने या ट्रेंड चलाने की मशीन बना दिया है। पारंपरिक दलों में बूढ़े चेहरों का वर्चस्व है। जो युवा नेता दिखते भी हैं, वे या तो परिवारवाद की देन हैं या सोशल मीडिया प्रोजेक्ट।
हकीकत ये है कि कोई राहुल गांधी हो या अखिलेश, तेजस्वी यादव, उनकी उम्र भले कम हो, लेकिन वे उस सिस्टम का ही हिस्सा हैं जो युवा सोच को दबाता है।
दरअसल ये एक यूनिवर्सल ट्रेंड है, सिर्फ भारतीय समस्या नहीं है। ये खालीपन सिर्फ भारत तक सीमित नहीं है। अमेरिका में कभी प्रगतिशील राजनीति को युवा ऊर्जा मिली थी, लेकिन पार्टी स्ट्रक्चर ने उसे किनारे कर दिया। ब्रिटेन में लेबर पार्टी लंबे समय से युवा वर्ग से कट गई है। फ्रांस और लैटिन अमेरिका में बिखरे हुए विरोध हैं, लेकिन संगठित आंदोलन नहीं।
टेक्नोलॉजी: दोधारी तलवार
जहां 70 के दशक में क्रांति के लिए सड़कों पर उतरना जरूरी था, वहीं आज आंदोलन ‘#’ में सिमट गए हैं। डिजिटल एक्टिविज्म आसान है, लेकिन उसमें वो धड़कन नहीं जो शासन को चुनौती दे सके। रील्स और रिट्वीट से क्रांति नहीं होती।
क्या हो अब?
यूनिवर्सिटियों को चाहिए कि छात्रसंघ चुनाव बहाल करें, बिना सरकारी दखल और डर के। राजनीतिक दलों को अपने दरवाजे युवाओं के लिए खोलने होंगे — न कि सिर्फ दिखावे के लिए। स्कूल और कॉलेज स्तर पर लोकतांत्रिक शिक्षा को पुनर्जीवित करना होगा।
विचारधाराओं को फिर से प्रासंगिक बनाना होगा—सिर्फ चुनाव जीतने की रणनीतियों से राजनीति नहीं चलती।
आज जब हम चारों ओर तानाशाही प्रवृत्तियों, सेंसरशिप और पॉपुलिज्म का उभार देख रहे हैं, तो यह खामोशी खतरनाक है। जब युवा सवाल पूछना बंद कर दें, तो सत्ता बेलगाम हो जाती है।
इसलिए, अब वक्त है—फिर से कैंपस में बहस हो, पोस्टर लगें, नारों की गूंज उठे। नहीं तो लोकतंत्र की यह धीमी धड़कन एक दिन थम भी सकती है।