देश में धड़ाधड़ समाचार चैनल बंद हो रहे हैं, हजारों की संख्या में टेलीविजन प्रोफेशनल बेरोजगार हैं. वॉयस ऑफ इंडिया नाम के टाइटेनिक के डूबने से शुरू हुआ यह सिलसिला बदस्तूर कायम है। सीएनईबी, पी 7, भास्कर न्यूज ,जिया न्यूज और फॉर रियल न्यूज जैसे न जाने कितने नाम हैं जो इस परंपरा को आगे बढ़ा रहे हैं. कई बार मीडिया के साथियों से बातचीत में इस त्रासदी में सरकारी दखल की जरूरत की बात सामने आती है. बात ठीक भी लगती है कि इतने जिम्मेदार व्यवसाय की इतनी दुर्गति और पत्रकारों की जीविका पर बार बार आने वाले इस संकट के लिए सरकार को कुछ करना चाहिए. लेकिन सरकारी मीडिया यानी सरकार की फंडिंग से चलने वाले स्वायत्त मीडिया की हालत देखकर बदलाव की उम्मीदें धराशाई हो जाती हैं. दूरदर्शन को लेकर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने जिस प्रकार की बातें की थी उससे लगता था कि काॅरपोरेट मिल्कियत वाले मीडिया में ना सही सरकारी मीडिया के तो हालात सुधरेंगे. विचार और कलम की क्रांति भले ही दम तोड़ दे लेकिन रोजगार का जरिया तो बना रहेगा. लेकिन कुछ सलाहकारों (वैचारिक) की नियुक्तियों के अलावा दस महीने में ऐसा कोई काम नहीं हुआ जिससे उम्मीद कायम रहे. यहां तक कि दूरदर्शन के लिए पूर्णकालिक महानिदेशक खोजना और किसान चैनल की शुरुआत भी सरकार के लिए पहाड़ चढ़ने जैसा मुश्किल काम नजर आ रही है. खैर महानिदेशक खोजेगा भी कौन, इस महकमे के लिए तो मंत्री जी के पास ही फुलटाइम नहीं है, फायनेंस बड़ा मामला है और उसके सामने सूचना प्रसारण को कौन तरजीह दे?
माना जा सकता है कि सबसे वरिष्ठ और सबसे काबिल मंत्री जी ने दूरदर्शन को पुराना मर्ज मानकर नौकरशाहों के हवाले छोड़ रखा है. लेकिन लोकसभा और राज्यसभा टीवी जैसे नए प्रयोगों का हाल तो इससे भी बुरा नजर आता है. हाल ही में तहलका के वेब एडिशन पर प्रकाशित एक खबर के मुताबिक राज्यसभा चैनल पर 2011 से हुई शुरुआत के बाद से अब तक सैकड़ों करोड़ रुपये खर्च किए जा चुके हैं. पांच साल के अनुभव वाले गुरदीप सप्पल का कांग्रेसी नेताओं के आशीर्वाद से सीईओ बनना और लाखों रुपये की तनख्वाह उठाना. मनमर्जी से से लोगों की नियुक्तियां और अनापशनाप खर्चे इस चैनल की प्रसिद्धि के सबसे बड़ा कारण रहे हैं. इस सरकारी मीडिया पर सवाल उठाना भी आसान नहीं है. देश की व्यवस्था देश की संसद के प्रति जवाबदेह होती है लेकिन उच्च सदन के सभापति से जवाब की तो बात ही छोड़ दीजिए सवाल पूछना भी मुमकिन नहीं है. समय लगातार सरकार के हाथ से फिसल रहा है लेकिन कुछ बदल नहीं रहा है. उच्च सदन की कार्यवाही दिखाना इस चैनल का प्राथमिक उद्देश्य है, लेकिन इसमें बाकायदा न्यूज बुलेटिन और न्यूज बेस्ड डिस्कशन कार्यक्रम भी होते हैं. समाचार के लिए डीडी न्यूज जैसे एक बड़े सरकारी मीडिया के होते हुए इस कंटेंट का कोई तुक नहीं समझ नहीं आता. लोकसभा टीवी के सीईओ और सलाहकारों की नियुक्ति की कहानियां तो पहले से ही सार्वजनिक हैं.
दूरदर्शन के करीब चालीस चैनल हैं, राज्यसभा, लोकसभा और आकाशवाणी को मिलाकर करीब पचास हजार लोग इस सरकारी मीडिया में काम करते हैं. योजना आयोग को नीति आयोग में बदलकर व्यवस्था परिवर्तन का दम भरने वाली सरकार क्या इन सभी संस्थाओं में नियुक्तियों के लिए कोई नई प्रक्रिया नहीं ला सकती. क्या यह सड़ा गला सिस्टम दुरुस्त नहीं हो सकता? क्या इस सरकारी मीडिया की सार्वजनिक जवाबदेही तय नहीं की जा सकती? क्या राजनेता, दलालों और नौकरशाहों के गठजोड़ से पत्रकार इन संस्थानों को बचा नहीं सकते?