अच्छी खासी राजनीति कर रहे थे आप, फिर अचानक से संन्यास क्यों ले लिया?
संन्यास जैसा कुछ नहीं कह सकते इसको. मैंने कहा कि चुनाव नहीं लड़ूंगा अब. राजनीति तो रग-रग में है, वह तो करता ही रहूंगा. मैं इधर-उधर आदर्श की बातें नहीं करूंगा. साफ-साफ बताता हूं. अभी लोकसभा चुनाव तो होगा नहीं. मेरी उम्र 72 की हो चुकी है. इस साल विधानसभा चुनाव होनेवाला है बिहार में और मेरी इच्छा कहीं से नहीं कि मैं अब एसेंबली का चुनाव लड़ूं. पांच साल बाद जब लोकसभा चुनाव होगा, तब तक मेरी उम्र 77 की हो जाएगी. उस उम्र में किससे टिकट मांगूंगा मैं. पिछले साल लोकसभा चुनाव में जरूर इच्छा थी कि लड़ूं. हार या जीत तो अपनी जगह. जब नीतीश कुमार की पार्टी से दरकिनार किया गया तो लालू प्रसाद से इच्छा जाहिर की कि बक्सर या बेतिया से लड़ना चाहता हूं. लालू प्रसाद टिकट बांट चुके थे. उन्होंने बेतिया में रघुनाथ झा को टिकट दे दिया था. बाद में लालू प्रसाद ने कहा कि बाबा आइए और पार्टी की कमान थामिए, तो मैं क्यों उनकी पार्टी की कमान थामने जाता.
लोकसभा नहीं लड़े. राज्यसभा के लिए तो संभावनाएं बची हुई थीं. लोग कब्र में पांव लटकने तक संन्यास नहीं लेते.
नीतीश कुमार ने अपनी पार्टी में सभी को दो-दो बार मौका दिया. राज्य के विधानपरिषद के सदस्यों को भी देख लीजिए, लेकिन इस बार उन्होंने ठान लिया था कि मुझे दोबारा नहीं भेजना है. इस फेर में उन्होंने मेरे साथ एनके सिंह और साबिर अली को भी नहीं भेजा. जब तक राज्यसभा में था, जितना अनुभव और क्षमता थी, उसके आधार पर मैंने जदयू का पक्ष रखा, समाजवादी राजनीति और लोहिया-जेपी की धारा को आगे बढ़ाया. यहां तक कि शरद और नीतीश के टकराव में नीतीश का पक्ष लिया. संसद में महिला आरक्षण बिल पर दोनों के बीच मतभेद हुआ, नीतीश महिला आरक्षण के समर्थक थे, जबकि शरद आरक्षण में भी आरक्षण के. ऐसे में मैंने पार्टी की ओर से राज्यसभा में नीतीश की बातों को मजबूती से रखा. नीतीश उस दिन मीडियावालों से मुस्कुराते हुए कह रहे थे कि शिवानंद भाई ने जो आज कहा है, वही हमारी पार्टी की लाइन है. दो दिनों बाद पटना में एक बड़ा आयोजन हुआ. वहां भी नीतीश कुमार मुक्तकंठ से मेरी प्रशंसा करते रहे, लेकिन तब शायद वे शरद यादव के परास्त होने से खुश थे, क्योंकि राजगीर सम्मेलन के बाद वही शिवानंद तिवारी उनके लिए सबसे बड़ा कांटा हो गए.
मैंने राजगीर सम्मेलन में कोई गलत बात नहीं कही थी. पार्टी के सम्मेलन में वास्तविक स्थिति सबके सामने रखी थी कि नरेंद्र मोदी को हल्के में न लें. सामाजिक आंदोलन के नाम पर सिर्फ पिछड़ा-पिछड़ा कहकर उन्हें नहीं घेरा जा सकता, क्योंकि मोदी भी पिछड़ा ही हैं. आज खुद नीतीश हर जगह उसी बात को मानते हैं. मैंने लोकसभा चुनाव के पहले हर विधानसभा में कार्यकर्ताओं के साथ मीटिंग की थी, उसके आधार पर कहा था कि संगठन की हालत खस्ता है. कार्यकर्ताओं का मनोबल टूटा हुआ है, वे बिखरे हुए हैं. सच कह दिया, तो उसकी सजा मिल गई.
तो सिर्फ राजगीर सम्मेलन में दिए गए बयान की वजह से आपके साथ ऐसा व्यवहार हुआ?
दूसरी कोई वजह ही नहीं. सबसे ज्यादा बात यह चुभी कि मैंने कार्यकर्ताओं वाली बात उठाई. कहा कि सरकार के जो भी महादलित विकास से लेकर दूसरे लोकप्रिय कार्यक्रम चल रहे हैं, वह सीधे-सीधे प्रशासनिक तंत्रों के सहारे चल रहे हैं, यह ठीक नहीं है. प्रशासन के लोग यथास्थितिवाद के पोषक होते हैं. वे साथ नहीं देंगे. अंत में जरूरत कार्यकर्ताओं से ही पड़ेगी. कार्यकर्ता क्या करेंगे. अधिकारियों को सीधे-सीधे कह दिया गया है कि वे कार्यकर्ताओं का किसी तरह का हस्तक्षेप बर्दाश्त न करें. जनता सीधे कार्यकर्ता के पास अपनी समस्या लेकर जाती है और कार्यकर्ताओं की इतनी हैसियत नहीं रह गई है कि वे छोटी-मोटी पैरवी तक कर सकें. जिन्होंने पैरवी करने की कोशिश की, उन पर रंगदारी मांगने से लेकर न जाने कितने तरीके के मुकदमे कर दिए गए. जिन कार्यकर्ताओं ने 15-20 साल में अपनी पहचान जनता के बीच बनाई, जो घरों से निकालकर मतदाताओं को बूथ तक लाते रहे, उनकी औकात को कम कर देना तो सीधे-सीधे उनकी पहचान को खत्म करनेवाली बात है. यह एक किस्म का राजनीतिक अपराध है. यही सब तो कहा था जिसकी मुझे सजा मिली.
शरद यादव किसी तरह से लोकसभा या राज्यसभा में बने रहना चाहते हैं. वही उनका इकलौता मकसद है. बाकी उन्हें पार्टी से कोई लेना-देना नहीं है
यानी नीतीश कुमार सार्वजनिक सवालों को भी व्यक्तिगत सवाल बनाकर राजनीति करते हैं?
मैं यह नहीं कह रहा कि व्यक्ति का या व्यक्तिवाद का महत्व नहीं है. एक नेता तो होना ही चाहिए, जिसके नाम पर टीम काम करे, लेकिन उस व्यक्ति को यह नहीं भूलना चाहिए कि उसके बनने या बने रहने में टीम की भी भूमिका है.
यह भी कहा जाता है कि नीतीश कुमार लोगों को बर्दाश्त नहीं कर पाते हैं.
टॉलरेंस लेवल है ही नहीं. नीतीश कुमार से मेरा कोई आज का संबंध नहीं है. इनको राजनीति में स्थापित करने में मैंने कोई कम भूमिका नहीं निभाई. मैं 60 के दशक में ही जेल जा चुका था. जब ये राजनीति में आए, तब तक मैं बिहार में युवा नेता के रूप में स्थापित हो चुका था. इतने वर्षों तक साथ दिया, लेकिन एक बार सार्वजनिक रूप से पार्टी के बारे में बात कह दी, तो उन्होंने ठेलकर वहां पहुंचा दिया, जहां से सिर्फ भाजपा में जाने का रास्ता ही बचा था मेरे पास. जब जदयू से मेरी दूरी बढ़ी, तो भाजपा से प्रस्ताव आया और मुझसे पूछा गया कि क्या आप चुनाव लड़ना चाहते हैं? तो मैंने सीधे कह दिया कि यह अपराध होगा मेरे लिए. मैं जानता था कि भाजपा से चुनाव लड़कर जीत भी जाऊंगा. शुरुआत से समाजवादी राजनीति के साथ रहा था, इसलिए अब भाजपा से चुनाव नहीं लड़ सकता था. लेकिन नीतीश ने वहां तक तो पहुंचा ही दिया था.
आप अपने मामले को छोड़ दें तो और कब लगा कि नीतीश कुमार लोगों को टॉलरेट नहीं कर पाते?
तमाम उदाहरण हैं. अब पिछले लोकसभा चुनाव में ही देखिए. जदयू के इकलौते मुस्लिम सांसद मोनाजिर हसन थे बेगुसराय से. नीतीश ने किसी वजह से मोनाजिर को नापसंद किया होगा, तो भाजपा से अलगाव के बाद नीतीश पर प्रगतिशील बनने का इतना भूत सवार हुआ कि इकलौते मुस्लिम सांसद की सीटिंग सीट भी सीपीआई को दे दी. सीटिंग सीट पर इकलौते मुस्लिम सांसद का टिकट काटकर गंगा स्नान करने लगे. वह सीट तो नीतीश हार ही गए, मोनाजिर भी भाजपा में चले गए.
आपके बारे में भी कहा जाता है कि आप पेंडुलम की तरह कभी लालू, तो कभी नीतीश के पाले में आते-जाते रहे. इस तरह पाला बदलने की क्या मजबूरी थी?
लालू और नीतीश के साथ ही जाते रहे. और तो कहीं नहीं गए न! दोनों एक ही जमीन की उपज हैं. दोनों के हित टकराए थे, तो ये अलग हो गए थे. दोनों लोहिया-जेपी का ही नाम लेते रहे हैं, कभी हेडगेवार या सावरकर का नाम तो इन्होंने नहीं लिया. दोनों सामाजिक न्याय की राजनीति करते रहे और मैं उसका पक्षधर हूं, तो दोनों के साथ रहा. मुझ पर तो यही एक आरोप है. लेकिन कभी उन दोनों नेताओं से भी पूछा जाना चाहिए कि मेरे जैसे आदमी को, जिसने अपना सब कुछ उन्हें दिया, वे क्यों एकोमोडेट नहीं कर पाते थे.
खैर! आप तो दोनों के साथ पिछले तीन दशक से हैं. दोनों की राजनीति में क्या बेसिक फर्क देखते हैं?
मैंने नीतीश की तुलना में लालू के लिए ज्यादा किया और लालू से ही ज्यादा जुड़ाव भी रहा. कोई आज का या सिर्फ राजनीतिक संबंध नहीं है लालू से. लालू जब स्कूल में पढ़ते थे, तब से उनसे संबंध है और निहायत ही व्यक्तिगत रिश्ता भी है उनसे. लालू की खासियत है कि चाहे जितना भी मनमुटाव हो जाए, अलगाव हो जाए, वे संवाद बंद नहीं करते. वे जब चोट करते हैं तो ऊपरी घाव लगता है, लेकिन नीतीश सिर्फ संवाद ही बंद नहीं करते, बल्कि वे जब चोट देते हैं तो अंदर तक बेधनेवाली पीड़ा देते हैं. यदि किसी ने नीतीश के मन की बात नहीं की, तो वे उसी दिन से उसकी राजनीतिक हत्या करने के लिए पूरी उर्जा लगा देते हैं. लालू ऐसे नहीं हैं.
अब तो वर्षों बाद दोनों मिल रहे हैं. क्या फर्क पड़ेगा बिहार की राजनीति पर दोनों के मिलने से?
हमें तो बहुत उम्मीद नहीं दिख रही, क्योंकि दोनों कोई नई बात कह नहीं पा रहे. पिछले दस साल से जो कह रहे हैं, उसी को दोहरा रहे हैं, जबकि स्थितियां बदल गई हैं. 65 फीसदी आबादी अब उन लोगों की हो गई है, जिनकी उम्र 35 साल से कम है, उनके लिए क्या है इनके पास. उन युवाओं के अपने सपने हैं, उनकी अपनी आकांक्षा है और मोदी उन सपनों पर बात कर रहे हैं. उन्हें लग रहा है कि उनकी आकांक्षा पूरी होगी. ऐसा होगा या नहीं, यह नहीं कह सकता. मोदी ने सपनों का उभार शुरू किया है. इन लोगों के पास तो रोडमैप भी नहीं है.
बात तो पूरे देश के समाजवादियों के मिलन की हो रही है. क्या जनता परिवार जैसा कुछ बनेगा?
कौन समाजवादी भाई? कैसा समाजवादी? चौटाला कैसे समाजवादी हैं, जो जेल के अंदर हैं. उनका प्रभाव क्या है हरियाणा के बाहर? मुलायम यूपी के बाहर क्या कर लेंगे? लालू और नीतीश बिहार के बाहर क्या कर पाएंगे? देवगौड़ा कब से समाजवादी हो गए? लोग बेवकूफ हैं क्या, जो नहीं जान रहे कि इनका मिलन समाजवादी राजनीति को बढ़ाने के लिए नहीं हो रहा, बल्कि मोदी से घबराकर अपने वजूद को बचाने के लिए हो रहा है.
बिहार में तो यह देखा जा रहा है कि लालू प्रसाद मौन साधे हुए हैं, नीतीश ज्यादा बेचैन हैं.
बेचैनी दोनों में बराबर है.
समाजवादी सबसे ज्यादा बिखरे हैं और प्राइवेट लिमिटेड कंपनियों की तरह अपनी पार्टियां चला रहे हैं. क्या समाजवादी राजनीति के बुनियादी प्रशिक्षण में ही कोई गड़बड़ी रही?
यह सिर्फ समाजवादियों की दिक्कत नहीं है. लोकतंत्र का जो पैटर्न अपने यहां है, उसी में गड़बड़ी है. एमएन रॉय जैसे चिंतक ने तभी कहा था कि यह समाज को खंड-खंड में बांट देगा. गांधी कहते थे कि यह बांझ है. लोकसभा और विधानसभा को छोड़ दीजिए तो भी आज कितने किस्म के चुनाव हो रहे हैं देश में. पंचायत के, मुखिया के, जिला परिषद के, शिक्षा समिति के. जाति के बीच जाति का बंटवारा हो गया है. गली-गली और टोले-टोले को बांट चुके हैं ये चुनाव. रही बात समाजवादियों की, तो यह तो शुरू से देखना होगा. इस लोकतांत्रिक प्रणाली में अपनी आलोचना सुनने की आदत तो विकसित हो ही नहीं पाई. कोई विरोध न करे, सिर्फ अपनी मर्जी चले, इसके लिए इतनी पार्टियां बनती गईं. यह सब कांग्रेस की देन है. जवाहरलाल के जमाने में पटेल के जाने के बाद कौन रहा, जो उनकी बातों को काट पाता या उचित को उचित और अनुचित को अनुचित कह पाता.
नीतीश जिनको चाहें, वही विधायक-सांसद बन जाएं और कभी-कभार शरद के भी एक-दो लोग खप जाएं, बस इसी तरह दुकान चलती है
राजगीर सम्मेलन के बाद शरद यादव मुझसे बोले कि आपने जो बोला, वह पार्टी लाइन नहीं है. मैंने कहा कि आप जो बोलते हैं, वह पार्टी लाइन कैसे हो जाता है या नीतीश जो बोलते हैं, वह पार्टी लाइन कैसे होता है. किस मीटिंग में यह तय होता है कि पार्टी लाइन क्या होगी? जदयू के संविधान में लिखा हुआ है कि एक संसदीय बोर्ड होगा, जो पार्टी के राजनीतिक फैसले लेगा, लेकिन जदयू में आज तक संसदीय बोर्ड का गठन ही नहीं हुआ. नीतीश जिनको चाहें, वही विधायक बन जाए, वही सांसद बन जाए और कभी-कभार शरद के भी एक दो लोग खप जाएं, उनके लोगों पर भी कृपा हो जाए, बस इसी तरह दुकान चलती है. अब जैसे केसी त्यागी सांसद बने. शरद यादव उनके लिए वर्षों से लगे हुए थे, अंत में नीतीश ने कृपा कर दी.
आपने कहा कि आपको भाजपा से ऑफर मिला, लेकिन अपराधबोध के कारण आप नहीं गए. जब जदयू का भाजपा से गठबंधन हो रहा था, तब आप भी उसके पक्षधर थे, जबकि गठबंधन बाबरी ध्वंस के बाद हो रहा था.
हां, मैं पक्षधर था. भाजपा उस समय आर्थिक नीतियों में स्वदेशी मॉडल की बात कर रही थी. ऐसा लग रहा था कि वह अगर सत्ता में आई, तो स्वदेशी मॉडल से देश चलेगा.
आपके मुताबिक लोकतंत्र में गड़बड़ी है. तो सही रास्ता क्या है? सभी पार्टियों को देखा-आजमाया जा चुका है. समाजवादी व्यक्तिवादी हो गए हैं, कांग्रेस ने इतने साल के शासन में जो दिया वह सबके सामने है और भाजपा सांप्रदायिक ही है.
मैंने लोकतंत्र को खारिज नहीं किया. उसकी अपनी खासियत है. उसी की देन है कि आज चाय बेचनेवाला देश का प्रधानमंत्री बन गया. ललुआ-ललुआ, जिसे लोग कहते थे, गाय चरानेवाले का बेटा बिहार का मुख्यमंत्री बन गया. अस्थायी ठेका मजदूर रघुवर दास मुख्यमंत्री बन गए. यह सब लोकतंत्र की वजह से ही तो हुआ. सबसे बड़ी बात है कि लोकतंत्र से पिछड़ों का, वंचितों का, दलितों का गहरा जुड़ाव है. वह है, तभी यह लोकतंत्र चल रहा है. वह समूह जानता है कि संभावनाएं इसी प्रणाली में बची हुई हैं. उसके लिए स्पेस इसी प्रणाली में है, वरना जो अभिजात्य वर्ग है, वह तो कब का इस लोकतंत्र से चिढ़ चुका है. उसे बिल्कुल अच्छा नहीं लगता कि कोई चाय बेचनेवाला पीएम बन जाए, मजदूर सीएम बन जाए, गाय चरानेवाला बड़ा नेता बन जाए.
जहां तक दूसरों को आजमाने की बात है, तो मुझे लगता है कि मोदी इस देश के आखिरी प्रधानमंत्री होंगे, जो इसी आर्थिक व्यवस्था को चलाना चाहेंगे या पुरजोर कोशिश करेंगे, लेकिन उनके बाद व्यवस्था बदलेगी. जब तक आर्थिक नीतियों में बदलाव नहीं होगा, किसी को आजमाते रहने से कुछ नहीं होगा. एक वैकल्पिक व्यवस्था उभरेगी.
आप तो जदयू में लंबे समय तक रहे हैं. शरद और नीतीश के स्टैंड में फर्क दिखता है. शरद यादव की भूमिका क्या है पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष के तौर पर?
शरद यादव की राजनीति का एजेंडा क्या है, यह पहले जानिए. वह किसी तरह लोकसभा या राज्यसभा में बने रहना चाहते हैं, वही उनका इकलौता मकसद है. बाकी उन्हें बहुत लेना-देना नहीं है पार्टी से. वे जबलपुर से सांसद हुए थे 1974 में. 1977 में जब जनता पार्टी की प्रचंड लहर थी, तो उनकी जीत का मार्जिन वहां से कम गया और 1980 में वहां से उनकी जमानत ही जब्त हो गई. तब मुलायम की शरण में गए और उसके बाद फिर बिहार आ गए. और तब से उनका बिहार से वास्ता बस किसी तरह सांसद बने रहकर सुविधाओं का इस्तेमाल करना है. वह एक बार मुझसे कहने लगे कि मैं 40 सालों से संसद में हूं. यही बात उन्होंने कई बार बोली, तो मुझे गुस्सा आ गया. मैंने कहा कि क्या 40 साल रट रहे हैं. 40 सालों में आपने कौन-सी क्रांति कर दी. दूसरे दलों के साथ मिलकर एकाध बार बंद करने के अलावा आपने और क्या किया 40 सालों के संसदीय जीवन में. रही बात राष्ट्रीय अध्यक्ष के तौर पर काम करने की, तो शरद तो हमेशा अपना दुखड़ा रोते रहे हैं. मुझसे भी दुखड़ा रोते रहे हैं कि उनकी चलती ही नहीं.
शरद की तो इच्छा नहीं थी कि बिहार में जदयू का भाजपा से अलगाव हो. क्या यह सही है?
हां, शरद नहीं चाहते थे. वह एनडीए में बने रहना चाहते थे. देखिए यह तो सच है न कि नीतीश ने बिहार को जिंदा किया. एक सकारात्मक माहौल दिया. जब नीतीश ने बिहार मंे काम शुरू किया, तो देशभर में चर्चा हुई. अमर्त्य सेन और रामचंद्र गुहा जैसे लोगों ने नीतीश में भावी पीएम की छवि देखनी शुरू कर दी. नीतीश को भी ऐसा लगने लगा. वह सोचने लगे कि देश का जो उदारवादी वर्ग है, वह तब तक उनके साथ नहीं आएगा, जब तक वह भाजपा का साथ छोड़ नहीं देते. नीतीश कुमार खुद को प्रधानमंत्री के रूप में देखने लगे और उसके लिए भाजपा का साथ छोड़ना उन्हें जरूरी लगा. यह काम नरेंद्र मोदी के नाम पर हुआ. लेकिन मुझे लगता है कि नीतीश ने वक्त को नहीं समझा. सही समय का चयन नहीं किया. 2010 के चुनाव के पहले ही अगर वह भाजपा का साथ छोड़ देते और अकेले चुनाव लड़ते, तो भाजपा इतनी बड़ी पार्टी नहीं बन पाती और आज इस तरह चुनौती नहीं बनती बिहार में. मैंने उसी समय नीतीश को कहा भी कि अब क्या बचा है, अलग रास्ता अपनाओ, लेकिन नीतीश दुविधा में रहे.
तो दुविधा और जिद की वजह से ऐसा हुआ.
भ्रम के साथ-साथ अहंकार की वजह से. नीतीश को लगता है कि वह जो सोचते हैं, वही सही है और सबसे बड़ी दिक्कत यही है. वह सिर्फ अपना आभामंडल चमकाना चाहते हैं. मैंने भी राजगीर सम्मेलन में नीतीश के सामने कहा था कि आप पार्टी के बड़े नेता हैं. इतनी तंगदिली ठीक नहीं है. नीतीश की दिक्कत है कि उन्हें लगता है कि सबकी बात सुनेंगे तो वह छोटे नेता हो जाएंगे.
क्या नीतीश का शुरू से ही ऐसा स्वभाव रहा है?
शुरू से क्या रहेगा. 1994 में जब वह लालू प्रसाद से अलग हुए और समता पार्टी बनी, लोगों की भीड़ आनी शुरू हुई, तो नीतीश में अचानक बदलाव हुआ और उन्हें लगने लगा कि वह बड़े नेता हैं. वरना नीतीश तो बहुत दब्बू नेता थे. नीतीश के करियर में बिहार में हुई कुर्मी चेतना रैली अहम रही है. उसी से नीतीश कुमार की राजनीति बदली. उसमें वह जाना चाहते थे, लेकिन लालू यादव नहीं चाहते थे कि नीतीश जाएं. मैंने नीतीश पर लगातार दबाव बनाया और अपनी गाड़ी से लेकर गया. वह तो समता पार्टी बनी, तो नीतीश कुमार पहली सभा में आरा-बक्सर गए. कई सीनियर नेता भी साथ थे. अब्दुल गफूर साहब, सैयद शहाबुद्दीन साहब, हरिकिशोर सिंह वगैरह-वगैरह. अचानक भीड़ देख लेने के बाद नीतीश ने इनसे ठीक से बात करना भी छोड़ दिया, तो हमने भी डांटा कि क्या हो गया है आपको. ये सीनियर लोग हैं, इनकी तो इज्जत होनी चाहिए.
और लालू प्रसाद यादव. उनको भी तो आपने शुरू से देखा है?
यह तो लालू प्रसाद भी जानते हैं और बार-बार कहते भी रहे हैं कि उनके राजनीतिक जीवन में मोड़ पटना विश्वविद्यालय चुनाव से आया. 1970 में पटना विश्वविद्यालय में छात्र संघ के महासचिव के चुनाव में मैं साथ नहीं होता, तो लालू प्रसाद कहां होते पता भी नहीं चलता. हुआ यह था कि उस साल पटना विश्वविद्यालय में छात्र संघ का चुनाव सीधे-सीधे हो रहा था. सीधे मतदान से. वहां दबंगों का कब्जा था. मुझे कोई रुचि नहीं थी. मैं तो दूसरी राजनीति कर रहा था. विश्वविद्यालय में दबंगों का वह समूह मिल गया. मैंने कहा कि यार, पहली बार सीधे चुनाव हो रहा है, लड़ने दो बच्चों को. उन लोगों से बहस हो गई. मैंने पैनल बनाया कि अब तो इस चुनाव में सक्रिय भूमिका निभानी है. लालू प्रसाद महासचिव पद के प्रत्याशी थे. बिना लालू से मिले उनका प्रचार करने लगा. लालू बाद में एक दिन मिले, तो सहमे-सहमे उन्होंने कहा िक बाबा, मैं जहां जाता हूं, वहां लोग कहते हैं कि आपके लिए वोट मांगने बाबा आए थे. उसी समय शंकराचार्य पर केस करके मैं चर्चा में आ गया था. पुरी के शंकराचार्य ने पटना की एक सभा में कहा था कि दलित तो जन्म से ही अछूत होते हैं. इसी पर केस किया था. पटना का एक अखबार आर्यावर्त तब ब्राह्मणों का गढ़ था. वह शंकराचार्य का पक्ष ले रहा था. उसके विरोध में मैंने एक मार्च आयोजित किया. यह उसी समय की बात है, जब पटना विश्वविद्यालय का चुनाव हो रहा था. विरोध जुलूस में मैंने लालू को बुलाया कि आओ और सड़क पर उतरकर जिंदाबाद-मुर्दाबाद करो. लालू पहली बार किसी सभा में शामिल हुए थे तब. रामविलास पासवान उस केस में हमारी ओर से गवाह बने थे. लालू 70 में महासचिव बने, 74 में विश्वविद्यालय के अध्यक्ष, 77 में एमपी और बाद में बिहार के मुख्यमंत्री. 70 में वह हार गए होते, तो कहा नहीं जा सकता कि आज कहां होते. लेकिन फर्क यह है कि लालू आज भी इस बात को मानते हैं और मान देते हैं.
नीतीश ने सही समय का चयन नहीं किया. 2010 के चुनाव के पहले ही अगर वह भाजपा का साथ छोड़ देते, तो वह बिहार में इतनी बड़ी पार्टी नहीं बन पाती
जब लालू से इतना गहरा रिश्ता था, तो छोड़ते क्यों रहे बीच-बीच में उनको? आपने उनके विरोध में समता पार्टी के निर्माण में भी योगदान दिया.
हमने छोड़ा कि लालू ने छोड़ा हमको? यह तो उनसे भी पूछा जाना चाहिए. वैसे समता पार्टी के बनने की कहानी अलग है. लालू और नीतीश दोनों सामाजिक न्याय और आंदोलन को उभारनेवाले नेता थे. 1990 में सत्ता संभालने के कुछ सालों बाद ही लगने लगा था कि लालू प्रसाद से ज्यादा योग्य नीतीश कुमार हैं. नीतीश को कहा जाने लगा कि अलग राह अपना लो, लेकिन नीतीश यहां भी साहस नहीं दिखा रहे थे.
लेकिन नीतीश को आगे बढ़ाने में, समता के गठन में जॉर्ज फर्नांडिस की भी भूमिका रही थी और नीतीश ने उनको भी दरकिनार कर दिया.
नीतीश को हर उस व्यक्ति से परेशानी है, जो बोलता हो. जॉर्ज भी बेचारे बिहार की राजनीति पर कम ही बोलते थे, लेकिन बाद में बोलने लगे, तो परेशानी होने लगी. दूसरी परेशानी यह हुई कि जॉर्ज पर स्व. दिग्विजय सिंह का प्रभाव ज्यादा था. नीतीश को लगता था कि जॉर्ज और दिग्विजय की ज्यादा बनती है और दिग्विजय काफी तेज तर्रार नेता थे, तो नीतीश ने दोनों का पत्ता काटा. दिग्विजय का पत्ता काटना तो सबको हैरत में डालनेवाला था. मैंने भी नीतीश से पूछा तो उन्होंने कहा कि हम नहीं जानते, शरद यादव जानते हैं. दरअसल जॉर्ज को किनारेकर उन्होंने शरद का नेतृत्व इसीलिए स्वीकार किया कि जब-जब मनमानी करनी होगी, शरद को सामने लाएंगे, क्योंकि शरद को साधना आसान था.
समता पार्टी ही क्यों, चारा घोटाले का केस करवाने में भी आप आगे रहे.
हां, वह तो अभी भी है. अभी भी लालू से ज्यादा सरोकारी संबंध है. कहा न कि लालू से राजनीतिक संबंध भर नहीं है. बैठकी वाला रिश्ता है. वह मेरे घर आते हैं, मैं उनके घर जाता हूं. रही बात चारा घोटाला केस की, तो उसकी अपनी कहानी है. जब चारा घोटाले का केस होना था, तो रविशंकर प्रसाद, सुशील मोदी, सरयू राय आदि सक्रिय थे. उस समय समता पार्टी और भाजपा में होड़ थी कि कौन इसका श्रेय ले, लेकिन नीतीश कुमार इस मामले में पड़ना ही नहीं चाहते थे. न जाने क्यों, वह वकालतनामे पर दस्तखत से भी इंकार कर गए. साहस ही नहीं जुटा पा रहे थे. ऐसे में जॉर्ज साहब ने मुझसे दिल्ली में कहा कि जहाज का टिकट कटवा रहे हैं, जाइए और साइन कीजिए और मैं भागा-भागा पटना पहुंचा था. नीतीश तो यही पूछते थे कि कागज-पत्तर है या सब हवा में है. बाद में जब चारा घोटाले का जिन्न बाहर निकला और बोलने की सहूलियत हो गई, तो नीतीश इसे अपना मसला बनाने लगे, वरना वह तो वकालतनामे पर साइन तक करने का साहस नहीं जुटा पाए थे.
आपको बैकरूम पॉलिटिशियन क्यों कहा जाता है?
कौन कहता है? इंटर पास करने के बाद रांची गए थे पढ़ने, तब से सड़कों पर ही राजनीति करते रहे. सीधे-सीधे चंद्रशेखर जी की चुनौती स्वीकार करके मैंने चुनाव लड़ा, हार गया. बिंदेश्वरी दुबे, जो बिहार के मुख्यमंत्री हुए, के खिलाफ मैंने चुनाव लड़ा था, हार गया था. हार-जीत अपनी जगह है. 56 साल की उम्र में पहली बार विधायक बना, लेकिन कभी सड़क नहीं छोड़ा. यह कहता कौन है, यह तो बताइए.
‘चारा घोटाले में नीतीश कुमार वकालतनामे पर दस्तखत से पीछे हट गए, तब जॉर्ज साहब ने मुझे दिल्ली से इस पर दस्तखत करने के लिए भेजा था’
दूसरी बात करते हैं. लालू-नीतीश का अब विलय हो रहा है तो आप किस तरह की मुश्किलें देखते हैं?
मुश्किलें तो होंगी, लेकिन दोनों मिलेंगे, क्योंकि दोनों की मजबूरी है और दोनों अपनी औकात देख चुके हैं. लालू प्रसाद मुस्लिम-यादव समीकरण को ही मूल आधार मान बैठे थे, वह टूट चुका है और नीतीश कुमार भी बैठकर विकास का प्रतिशत, अतिपिछड़ा का प्रतिशत, महादलित का और महिलाओं का प्रतिशत जोड़ते रह गए. लोकसभा चुनाव में दोनों देख चुके हैं कि घर में बैठकर जोड़ने से कुछ नहीं होगा. इसलिए दोनों की मजबूरी है कि अब मिलें. वे देख रहे हैं कि जातियों की राजनीति पर कब्जा करना होगा. धर्मनिरपेक्षता की बात करेंगे, लेकिन मेरा मानना है कि जो जातिनिरपेक्ष नहीं हो सकता, वह धर्मनिरपेक्ष तो कतई नहीं हो सकता.
और अब तो एक छोर जीतन राम मांझी भी हैं!
बेचारे नीतीश कुमार ने तो मांझीजी के इस रूप की कल्पना भी नहीं की होगी. उन्होंने सोचा होगा कि पहले वाले ही मांझी रहेंगे, जब चाहेंगे, जैसे चाहेंगे, इस्तेमाल करेंगे. लेकिन आज हकीकत यह है कि मांझी देशभर में चर्चित नेता हो चुके हैं और उन्होंने नीतीश-लालू से अलग अपना एक खास समूह तैयार किया है. आपने देखा होगा कि पिछले माह पटना के मिलर हाई स्कूल में महादलितों का एक सम्मेलन हुआ था. नीतीश भी थे और मांझी भी. नीतीश ने बोलना शुरू किया, तो महादलितों ने विरोध शुरू कर दिया. मांझी मुस्कुराते रहे. उन्होंने एक बार भी मना नहीं किया कि हल्ला क्यों कर रहे हो. दरअसल मांझी दिखाना चाहते थे नीतीश को कि भ्रम में मत रहिए. हमारा अपना आधार है, जिसमें अब आप स्वीकार्य नेता नहीं हैं. अब लालू मिलें या नीतीश मिलें, लेकिन बड़ा सवाल यह हो गया है कि क्या मांझी के बजाय किसी दूसरे के नेतृत्व में चुनाव होगा, तो मांझी के समर्थक उसे स्वीकार करेंगे? मुझे ऐसा नहीं लगता.
क्या ऐसा नहीं लगता कि मांझी के उभार से बिहार की राजनीति उत्तर प्रदेश की राह पर है, जहां पिछड़े और दलित की राजनीति दो ध्रुवों में बंटेगी? एक ओर नीतीश-लालू होंगे तो दूसरी ओर मांझी?
यह कहना जल्दबाजी होगी, लेकिन एक बात साफ है कि नीतीश या लालू के नेतृत्व में चुनाव होगा, तो वे फिर हारेंगे और बुरी तरह से हारेंगे, क्योंकि वे पहले से ही परास्त सेनापति हैं. और यह कहीं से समझदारी नहीं होगी कि परास्त सेनापति को फिर से नेतृत्व देकर सैनिकों को लड़ाई लड़ने के लिए कहा जाए. बेहतर होगा कि मांझी ही नेतृत्व करें.
आखिरी सवाल. माना जा रहा है कि मांझी भाजपा के साथ भी जा सकते हैं.
यह नहीं कह सकता. लेकिन यह जो मिलन और विलय हो रहा है, उससे कुछ नहीं होगा. राजनीति मांझी के इर्द-गिर्द घूमेगी और वह एक अहम छोर बने रहेंगे. उन्हें कोई नजरअंदाज नहीं कर सकता.