शत्रुता का भाव

अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प ने दोबारा जबसे अमेरिका की कमान सँभाली है, भारत उनकी आँखों में तिनके की तरह चुभ रहा है। इसके चलते प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का उनसे दोस्ती का दावा अब उन्हें भी समझ आने लगा है, जो नमस्ते ट्रम्प के आयोजन में भारत सरकार के 100 करोड़ रुपये के ख़र्च पर भी उछल-उछलकर इसे मोदी की बहुत बड़ी उपलब्धि बता रहे थे। लेकिन ये लोग चुप हैं। बिलकुल प्रधानमंत्री मोदी और उनके मुरीद भाजपाइयों की तरह। क्या कहेंगे? जवाब ही नहीं है। लंगोटिया दोस्ती की पोल खुल गयी और बोलने जैसा कुछ किया नहीं है। इसलिए सबको गुमराह करने के लिए रगों में गर्म सिंदूर दौड़ा दिया। चीन के अतिक्रमण, पाकिस्तान की हिमाक़त, अमेरिका की धौंस और देश में व्याप्त अराजकता, भ्रष्टाचार, महँगाई, ग़रीबी, बेरोज़गारी, अपराध पर जवाब देने के लिए हक़ीक़त में 56 इंच का सीना चाहिए।

कहा जाता है- नीयत साफ़, तो मंज़िल आसान। सारा खेल नीयत का है। नीयत में खोंट हो, तो आदमी कहीं बोलने लायक नहीं होता; और अगर कहीं बोलता भी है, तो उसे झूठ का सहारा लेना पड़ता है। नाटक करना पड़ता है। यह किसी एक व्यक्ति विशेष की बात नहीं है। संसार में ऐसे लोगों की भरमार है। निजी अनुभव के आधार पर कहा जा सकता है कि छ: तरह के लोग आँखों में आँखें डालकर बात करने लायक नहीं रहते- धोख़ेबाज़, क़ज़र्दार, दलाल, ग़ुलाम, अहसान में दबे हुए और जिनकी नग्नता जगज़ाहिर हो। अब तो भारत में ऐसे-ऐसे लोग हैं, जो इन लक्षणों से कहीं आगे बुराइयों का पहाड़ बने हुए हैं।

आज भारत के दुश्मन देशों की संख्या लगातार बढ़ती जा रही है। जो देश कभी अंग्रेजों के ख़िलाफ़ भारत की आज़ादी के लिए लड़ने को तैयार थे, वे भी आज भारत को पीठ दिखा रहे हैं। पड़ोसी देशों ने भारत को इतना कमज़ोर मान लिया है कि वे गाहे-ब-गाहे भारत को आँख दिखाने की कोशिश करते रहते हैं। चीन की लगातार भारत के सीमावर्ती राज्यों में घुसपैठ, पाकिस्तान के द्वारा लगातार सीजफायर और आतंकवादियों के हमले, अमेरिका का भारत के ख़िलाफ़ लगातार बयानबाज़ी करना और कमज़ोर देशों का आँख दिखाना भारत की मौज़ूदा सरकार के मिकम्मेपन की वो मिसालें हैं, जिन्हें इतिहास माफ़ नहीं करेगा।

इसके अलावा देश में तमाम तरह की समस्याएँ बढ़ती जा रही हैं, जिनमें धर्म और जाति के नाम पर सरेआम हो रही हत्याएँ, मारपीट और बलात्कार की घटनाएँ, बेरज़गारी, हर तरफ़ बढ़ती नफ़रत, तनाव, कई पुलिसकर्मियों का क्रूर चेहरा, लगातार होता भ्रष्टाचार, बढ़ती ग़रीबी, कालाबाज़ारी, बढ़ता कालाधान, पूँजीपतियों को फ़ायदा पहुँचाने की सोच, नेताओं के शर्मनाक बयान और उनकी क्रूरता एवं अश्लीलता के वीडियो, सरकार से सवाल करने वालों के ख़िलाफ़ कार्रवाई जैसी तमाम घटनाएँ भारत की गरिमा को धक्का पहुँचाने वाली हैं। इस सबके बावजूद प्रधानमंत्री मोदी का चुनावों में डूबे रहना और देश-विदेश की यात्राएँ करते रहना इस बात के सुबूत हैं कि उनकी नसों में बह रहा गर्म सिन्दूर अपने ही लिए घातक है, बाहर वालों के लिए नहीं। वह बिना सोचे-समझे कुछ भी बोल देते हैं। इसलिए अब उनके किसी भी बयान को लोग गंभीरता से नहीं लेते हैं। देश-विदेश में बहुत-से लोग तो उनकी हँसी उड़ाने लगे हैं।

कम-से-कम आज़ादी के बाद भारत के इतिहास में यह पहली बार है, जब प्रमुख संवैधानिक पद पर बैठे किसी व्यक्ति का इस तरह दुनिया भर में मज़ाक़ उड़ रहा है। कितने ही लोग प्रधानमंत्री पद की गरिमा का सम्मान करके भी प्रधानमंत्री मोदी का सम्मान नहीं कर रहे हैं और सार्वजनिक तौर पर उन्हें भला-बुरा कह रहे हैं। लेकिन इसके लिए ज़िम्मेदार कौन है? क्या लोग इसके लिए ज़िम्मेदार हैं? लोग तो आख़िर वही हैं, जिन्होंने 2014 में मोदी का ज़ोरदार स्वागत किया था और लगातार चुनकर केंद्र की सत्ता में पहुँचाया भी है। एक समय था, जब कोई मोदी के बारे में ज़रा-सी भी नकारात्मक टिप्पणी कर देता था, तो ज़्यादातर लोग उससे झगड़ जाते थे। फिर महज़ 11 साल में ऐसा क्या हो गया कि देश के ज़्यादातर लोग प्रधानमंत्री के ख़िलाफ़ खड़े नज़र आने लगे हैं? अभी हाल ही में एक सर्वे रिपोर्ट में यह दावा किया गया है कि देश के 70 प्रतिशत लोग प्रधानमंत्री मोदी के टी.वी. पर आते ही चैनल बदल देते हैं। मन की बात के सुनने वाले घटते जा रहे हैं।

कहा जाता है कि अपनी इज़्ज़त अपने हाथ में होती है। लेकिन अपनी इज़्ज़त भी बचाना तभी संभव है, जब व्यक्ति समझदार और ईमानदार हो। केवल ताक़त के भरोसे इज़्ज़त बचाना अगर संभव होता, तो बड़े-बड़े धनवान फ़क़ीरों के चरणों में नतमस्तक नहीं होते। संसार में धनवानों का सम्मान लोग अपनी ज़रूरत और धन के कारण ही करते हैं। इस हृदयविहीन सम्मान की पूरी इमारत स्वार्थ और डर पर टिकी होती है। लेकिन ज्ञानी कमज़ोर भी हों, तो भी उनका सम्मान होता है। इसलिए प्रधानमंत्री मोदी को चाहिए कि वह सोच-समझकर बोलें और देश की समृद्धि एवं विकास के लिए काम करें; सिर्फ़ स्व-सत्ता के लिए नहीं।