रमजान में कुछ खास तस्वीरों से अखबार मनोरंजक हो उठते हैं और समाचार चैनल सिनेमाई भव्यता पा जाते हैं. इस बार भी वही नजारा है. इफ्तार पार्टियों में सेकुलर कहे जाने वाले लीडरान चारखानेदार काफिए, गमछे गले में डाले, गोल जालीदार टोपियां लगाए रोजेदारों के साथ हाथ उठाए दुआ कर रहे हैं, निवाला तोड़ रहे हैं, खैरियत पूछ रहे हैं, खिलखिला रहे हैं. चारा सामने है, भाई मिल रहे हैं. वे साथ फोटो खिंचाने के लिए अचूक ढंग से हर बार कोई धार्मिक रंगत वाला चेहरा वैसे ही छांट लेते हैं जैसे आसमान में उड़ती चील अपने लिए कोई चूजा चुनती है.
इस रोचकता का एक कारण तो वह परिवर्तन है जो दीन के लगभग दीवाने मुसलमान का मेकअप और अभिनय करने के कारण इन नेताओं के चेहरों पर नुमायां हो जाता है. बरबस ख्याल चला आता है, अगर ये वाकई मुसलमान होते तो क्या ऐसे ही दिखते? वे लोग झूठे साबित होते लगते हैं जो दावा करते हैं कि वे किसी मुसलमान को शक्ल से पहचान लेते हैं. अगर हुलिए में ऐसा साफ नजर आने वाला कोई अंतर होता तो पहचान के उन पक्के तरीकों की जरूरत क्यों पड़ती जो दंगों के समय किसी की जान लेने से पहले आजमाए जाते हैं. तभी दिमाग बिल्कुल दूसरे छोर पर जाता है. देश में बहुत से मुस्लिम नेता भी हैं. वे कभी नवरात्र में कलश स्थापना के समय किसी मंदिर या घर में धोती पहने पूजा करते नहीं दिखाई देते. कहीं ऐसा तो नहीं है कि यह बहुमत की सीनाजोरी है! हम आपके धार्मिक अवसरों का इस्तेमाल अपनी राजनीति के लिए करेंगे लेकिन ऐसा ही आप करना चाहेंगे तो नहीं कर पाएंगे.
दस्तरख्वान के दृश्यों को दूर तक भेजने और चुनाव में भुनाने की नीयत से आयोजित की जाने वाली इस नौटंकी की उपयोगिता के बारे में सेकुलर नेताओं को पुख्ता यकीन है लेकिन वहीं कुछ और सुराग भी मिलते हैं जिससे मुसलमानों के वोट बैंक में बदलने की कीमियागिरी पर रोशनी पड़ती है. मिसाल के तौर पर यही कि कोई सेकुलर नेता अपने घर से गोल नमाजी टोपी और चारखाने का गमछा लेकर इन पार्टियों में नहीं जाता. तस्वीरों में उन्हें आराम से पहचाना जा सकता है जो उन्हें लपक कर टोपी पहनाते हैं और फोटो खिंचने तक के लिए अपनों में से एक बना लेते हैं. यह प्रजाति भाईचारे से अधिक सत्ता के करीब रहा करती है, बल्कि कहना चाहिए कि कौम और सत्ता के बीच बिचौलिए की भूमिका निभाती है. मुसलमानों के बीच उनके अपने नेताओं के उभरने के आसार दूर तक नहीं दिखाई देते अलबत्ता यही प्रजाति खूब फल-फूल रही है. इन्हीं के नक्शे कदम पर चलते हुए हिंदी पट्टी में अब सेकुलरों की चुनावी सभाओं में अरबी की छौंक लगे भाषण देने वाले जोशीले वक्ता भी किराए पर मिलने लगे हैं जो एक ही सीजन में कई पार्टियों के नेताओं के कसीदे गाते मिलते हैं.
धर्मनिरपेक्षता लोकतंत्र से नाभि-नाल जुड़ा हुआ एक बड़ा और आधुनिक विचार है जिसे भारतीय नेताओं ने अवसरवाद की ट्रिक या जुगाड़ में बदल दिया है. इस विरोधाभास पर गौर किया जाना चाहिए कि जो राजनीति में धर्म के दखल के खिलाफ हैं वे मुस्लिम धार्मिक प्रतीकों से खुद को नत्थी करने के लिए करोड़ों फूंक रहे हैं. भ्रष्टाचार के पैसे से वंशानुगत आधार पर पार्टियां चलाने, चुनाव लड़ने वाले अपराधी मिजाज के नेता सत्ता में भागीदारी, सरकार गिराने, गठबंधन बनाने-तोड़ने समेत सारे काम देश के धर्मनिरपेक्ष ताने-बाने की रक्षा करने के नाम पर करते हैं. धर्मनिरपेक्ष होना बहुत आसान है उसके लिए बस कुछ प्रतीकों की जरूरत पड़ती है जिनमें से टोपी लगाकर इफ्तार पार्टियों में जीमना भी एक है. कोई ताज्जुब नहीं है कि इन दिनों छद्म धर्मनिरपेक्षता एक ज्यादा वजनी शब्द हो गया है. मुसलमानों को मुख्यधारा में लाने, उनकी हिफाजत करने का दावा करने वालों की विश्वसनीयता बुरी तरह गिरी है क्योंकि वे तिकड़मों से देश में सतत सांप्रदायिक तनाव और अगर वह मंदा पड़ने लगे तो दंगों की जरूरत को बनाए रखना चाहते हैं ताकि उनकी पूछ बनी रहे. पिछले लोकसभा चुनाव में गोधरा का कलंक माथे पर होने के बावजूद मोदी को जो धमाकेदार जीत मिली उसका कारण सिर्फ कांग्रेस का कुशासन ही नहीं सेकुलरों की तिकड़मों का बेनकाब हो जाना भी है.
गनीमत है कि मुसलमानों की नई पीढ़ी इस नौटंकी को समझने लगी है. मुसलमान नौजवान पूछ रहे हैं कि जो रोजा नहीं रखते वे इफ्तार क्यों करते हैं?