‘श’ से शौचालय ‘विहीन’

img
छत्तीसगढ़ के सरकारी स्कूलों में कई शौचालय ऐसी हालत में हैं जिनका उपयोग नहीं किया जा सकता. दोनों फोटो: प्रतीक चौहान

बात इसी पंद्रह अगस्त की है. स्वतंत्रता दिवस के अवसर पर लाल किले की प्रचीर से दिए गए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के भाषण की. वह ऐसा भाषण था जिसकी पूरे देश में चर्चा हुई. कई लोग इससे प्रभावित भी हुए होंगे लेकिन कुछ के लिए वह उनके पुराने जख्म कुरेदने वाला साबित हुआ. हम यहां राजनीतिक जख्मों की बात नहीं कर रहे हैं. दरअसल प्रधानमंत्री ने उस दिन बेझिझक स्वीकार करते हुए यह कहा था कि देश के अधिकांश स्कूलों में शौचालय नहीं हैं. यह बात छत्तीसगढ़ के धमतरी में रहने वाली 13 साल की सुनीता (बदला हुआ नाम) को इतना परेशान कर गई कि वे तुरंत रुआंसी हो गई. सुनीता बताती है, ‘ मुझे लगा जैसे प्रधानमंत्री मेरी ही बात कर रहे थे. हमारे यहां तो कोई सुनता-समझता ही नहीं कि हम लड़कियां को बिना शौचालय वाले स्कूलों में क्या झेलना पड़ता है. ‘ सुनीता बेशक राज्य की सभी लड़कियों की बात कर रही थीं लेकिन ऐसे स्कूल से जुड़ी खुद उनकी आपबीती हमारी शिक्षा व्यवस्था के एक खतरनाक पक्ष को उजागर करती है. एक साल पहले तक एक सरकारी स्कूल की सातवीं कक्षा की छात्रा थीं. यहां लड़कियों का शौचालय नहीं है इसलिए वे स्कूल से कुछ दूरी पर खड़े खंडहर को शौचालय की तरह इस्तेमाल करती हैं.  आमतौर पर लड़कियां यहां अकेले नहीं जाती बल्कि अपनी किसी सहेली के साथ जाती हैं. लेकिन एक दिन सुनीता को लघुशंका के लिए वहां अकेले जाना पड़ा.  उन्हें इसबात का कतई अंदाजा नहीं था कि वह खंडहर उनके लिए किसी तरह खतरनाक साबित हो सकता है. सुनीता जब वहां नित्यकर्म से निवृत्त हो रही थीं तभी वहां कुछ लड़के आ गए जो शायद कई दिनों से यहां आनेवाली लड़कियों पर नजर रखे हुए थे. इससे पहले की सुनीता कुछ समझ पाती दो लड़कों उसे दबोच लिया. लेकिन शायद सुनीता की किस्मत कुछ अच्छी थी कि ठीक उसी समय स्कूल की कुछ और लड़कियां वहां आ गई और उनके शोर मचाने के बाद ये लड़के भाग गए. किसी अनहोनी घटना से बच जाना इस सातवीं की छात्रा के लिए बहुत अच्छी बात रही लेकिन इस घटना के बाद वह कभी स्कूल नहीं जा पाई. उसके माता-पिता आज भी ऐसे स्कूल में अपनी बेटी को भेजने के लिए तैयार नहीं है. उस घटना के बाद खुद सुनीता भी स्कूल नहीं जाना चाहती लेकिन उसे यह बात सालती रहती है कि अब वह किताबों की उस दुनिया में कभी नहीं लौट पाएगी जो उसे बहुत अच्छी लगती थी.  प्रधानमंत्री के भाषण ने उसके इसी जख्म को अनजाने में ही फिर कुरेद दिया था.

grialयदि हम छत्तीसगढ़ में शिक्षा व्यवस्था के बुनियादी ढांचे को देखें तो यह बात साफ समझ में आती है यहां सुनीता जैसी एक नहीं बल्कि और भी लड़कियां होंगी जिन्होंने ऐसी ही कुछ घटनाओें की वजह से स्कूल जाना छोड़ा होगा. ऐसी लड़कियां की संख्या का कोई सीधा आंकड़ा तो  दिया जाना मुमकिन नहीं है. लेकिन दूसरे आंकड़ों से यह बात साबित होती है कि राज्य में शौचालय विहीन स्कूलों की वजह से कई छात्र-छात्राओं को एक अलग तरह की दिक्कत का सामना करना पड़ रहा होगा.

ऊपर लिखी बातें हैरान इसलिए करती हैं क्योंकि कभी सूचना प्रोद्यौगिकी में तरक्की तो कभी धान के उत्पादन के लिए, तो कभी सावर्जनिक वितरण प्रणाली को कम्प्यूटरीकृत करने के लिए देश में अव्वल रहने वाला छत्तीसगढ़ अब पिछड़ा राज्य नहीं कहलाता. हर साल प्रति व्यक्ति आय में तेजी से हो रही बढ़ोत्तरी छत्तीसगढ़ की आर्थिक समृद्धि का प्रतीक बनती जा रही है. राज्य सरकार के दावे के अनुसार 2011-12 में जहां राज्य की प्रति व्यक्ति आय 44 हजार 505 रुपए थी वह 2012-13 में 50 हजार 691 रुपए हो गई. वर्ष 2013-14 में यह 56 हजार 990 रुपए होने का अनुमान है. लेकिन इसके बावजूद छत्तीसगढ़ उन राज्यों में भी शुमार है, जहां हजारों स्कूलों में आज भी शौचालय नहीं हैं और जहां हैं, वे उपयोग करने लायक स्थिति में नहीं हैं. छत्तीसगढ़ में 47 हजार 526 स्कूल हैं. इनमें 17 हजार से ज्यादा स्कूलों में छात्रों और छात्राओं दोनों के लिए शौचालय ही नहीं हैं. इनमें प्रदेश के 8 हजार 164 कन्या विद्यालय भी शामिल हैं. कुछ समय पहले रायपुर से अलग होकर नया जिला बना है गरियाबंद. यहां 1561 स्कूलों में से 604 स्कूलों में छात्राओं के लिए शौचालय नहीं है, जबकि 206 स्कूलों में छात्रों के लिए शौचालय नहीं है.

सुनीता की तरह ही 17 वर्षीय राधा (बदला हुआ नाम) की पढ़ाई छूटने की वजह भी स्कूल में शौचालय न होना रहा है. राधा रायपुर के सबसे सघन इलाके मोदहापारा में रहती है. तीसरी कक्षा उत्तीर्ण करने के बाद उसने कभी मुड़कर स्कूल की तरफ नहीं देखा. ऐसा नहीं है कि वह पढ़ना नहीं चाहती थी या उसके परिजन उसे पढ़ाना नहीं चाहते थे. लेकिन राधा मजबूरी यह थी कि उसके स्कूल में शौच या लघुशंका के लिए कोई सुविधा उपलब्ध नहीं थी. ऐसे में पढ़ाई के दौरान अपने इन प्राकृतिक क्रियाकलापों को निपटाने के लिए उसे दो किलोमीटर दूर स्थित अपने घर का रुख करना पड़ता था. यह ऐसी दिक्कत थी जिसका हल उसकी समझ से यही आया कि वह अपनी पढ़ाई छोड़ दे. उसके मां-बाप को भी यही ठीक लगा.  आज तीसरी पास यह लड़की एक दफ्तर में चाय-पानी पिलाने का काम करती है और अपने आसपास पढ़ी लिखी लड़कियों को देखकर अफसोस करती है कि काश वह और आगे पढ़ पाती.

छत्तीसगढ़ में 47 हजार 526 स्कूल हैं. इनमें 17 हजार से ज्यादा स्कूलों में छात्रों और छात्राओं दोनों के लिए शौचालय नहीं हैं

राधा की कहानी में सबसे बड़ी विंडबना यह है कि वह तो प्रदेश की राजधानी रायपुर में रहती है. तब भी उसे उसके विद्यालय में शौचालय की सुविधा नहीं मिल पाई. इन हालात में उन लड़कियों की मुश्किल तो और भी ज्यादा है जो अल्पसंख्यक समुदाय से आती हैं. राधा की ही सहेली फौजिया (बदला हुआ नाम) (15 वर्ष) की भी यही कहानी है. फौजिया के पिता शेख उस्मान फलों का ठेला लगाते हैं. उस्मान अपनी इकलौती संतान को खूब पढ़ाना चाहते थे ताकि समुदाय में उनका मान सम्मान बढ़ सके. लेकिन शासकीय प्राथमिक शाला, कचना में पढ़ने वाली फौजिया ने पांचवीं के बाद ठीक उसी वजह से पढ़ाई छोड़ी जिस वजह से राधा ने स्कूल जाना बंद किया था. अब फौजिया नमकीन बनाने वाले एक कारखाने में काम करती है.

राधा और फौजिया के साथ ही अकेले रायपुर में हजारों लड़कियां ऐसी हैं जिन्होंने या तो स्कूल छोड़ दिया या फिर पढ़ाई के दौरान उस यातना को भोगने को मजबूर हैं, जिसकी तरफ आजादी के 67 साल बीतने के बाद भी केंद्र और राज्य सरकारों ने गंभीरता से ध्यान नहीं दिया.

केंद्रीय मानव संसाधन मंत्रालय के हालिया सर्वे के मुताबिक अकेले रायपुर के 78 स्कूलों में छात्राओं और 220 स्कूलों में छात्रों के लिए शौचालय की व्यवस्था नहीं है. वहीं राजधानी के 1000 स्कूलों में छात्राओं के 583 और छात्रों के लिए बने 516 शौचालय खराब स्थिति में हैं. इन शौचालयों का इस्तेमाल करना स्वास्थ्य के लिए खतरनाक हो गया है. यह स्थिति तब है जब रायपुर को राजधानी बने 13 साल बीत चुके हैं. मानव संसाधन मंत्रालय का सर्वे यह भी बताता है कि प्रदेश के जिन स्कूलों में छात्राओं के लिए शौचालय बनाया गया था वे रख-रखाव के अभाव में अनुपयोगी हो चुके हैं. इनकी संख्या रायपुर में 583, कांकेर में 156, धमतरी में 150, बेमेतरा में 213, मुंगेली में 149 और बलौदाबाजार में 135, सूरजपुर में 503, बस्तर में 359, सरगुजा में 323, गरियाबंद में 235, कोरबा में 238, कोरिया में 189, जशपुर में 166 है.  आदिवासी क्षेत्र के स्कूलों की बात करें तो यहां हालत और भी बुरी है.  बस्तर में 738,  सूरजपुर में 683, सरगुजा में 560, गरियाबंद में 394, जशपुर में 369, कोरिया में 358 और कांकेर में 323 स्कूलों में शौचालय का निर्माण तो किया गया था लेकिन अब वे अनुपयोगी हो चुके हैं. इसी पखवाड़े की शुरुआत में राज्य के स्कूल शिक्षा मंत्री केदार कश्यप खुद भी शौचालय विहीन स्कूलों को लेकर चिंता जता चुके हैं. कश्यप ने नए रायपुर स्थित मंत्रालय में आला अफसरों की बैठक बुलाकर उन्हें जल्द से जल्द स्कूलों में शौचालयों के निर्माण के निर्देश दिए हैं. केदार कश्यप तहलका से कहते हैं, ‘यह सच है कि कई छात्राओं ने केवल इसी कारण स्कूल जाना छोड़ दिया. लेकिन हम उन लड़कियों के लिए भी किसी ऐसी योजना पर विचार कर रहे हैं, जो उनकी स्कूली पढ़ाई फिर से शुरू करवा सके.’ स्कूली शिक्षा के सचिव सुब्रत साहू का कहना है, ‘ प्रदेश के सभी स्कूलों में शौचालय की समुचित व्यवस्था की दिशा में काम शुरू कर दिए हैं. आने वाले समय में सभी स्कूलों में इसकी बेहतर व्यवस्था देखने को मिलेगी.’

भले ही स्कूल शिक्षा मंत्री स्कूल छोड़ रही छात्राओं पर दुख जता रहे हैं, लेकिन ऐसा नहीं है कि वे इसे पहले नहीं रोक सकते थे. छत्तीसगढ़ में स्कूल शिक्षा विभाग तीसरा ऐसा विभाग है, जिसका सालाना बजट दूसरे विभागों से कहीं ज्यादा होता है. इसका अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि राज्य निर्माण के वक्त यानि वर्ष 2001-2002 में स्कूल शिक्षा विभाग का बजट केवल 813 करोड़ 58 लाख रुपये था, जो 2013-14 में बढ़कर 6 हजार 298 करोड़ रुपये हो गया है. बजट में जो बिंदु विशेष रूप से उल्लेखित किए गए हैं, उसमें कहीं भी शौचालय निर्माण को शामिल करने की जहमत भी नहीं उठाई गई है. जबकि शालाओं में मूलभूत सुविधाएं उपलब्ध कराने के लिए (जिसमें प्रयोगशाला उपकरण के साथ फर्नीचर खरीदी को भी शामिल किया गया है) 175 करोड़ रुपये का प्रावधान किया गया है. जाहिर है कि मूलभूत सुविधाओं में शौचालय भी आता है, लेकिन इसके निर्माण में राज्य सरकार ने कुछ कम ही दिलचस्पी दिखाई है. छत्तीसगढ़ में लंबे समय से काम कर रहे है ऑक्सफैम इंडिया के कार्यक्रम अधिकारी विजेंद्र अजनबी कहते हैं, ‘स्कूलों में आवश्यक सुविधाओं का अभाव लड़कियों में कई बीमारियों को भी जन्म दे रहा है. हमारी टीम के सामने लगातार कई ऐसे मामले आए हैं, जो चिंताजनक हैं.’

अपने निर्माण के 13 साल बाद ही सही इस संवेदनशील मुद्दे पर राज्य सरकार सक्रिय होते दिख रही है. ऐसे में उम्मीद की जा सकती है कि शिक्षा क्षेत्र में काम कर रहे सामाजिक कार्यकर्ताओं की ही नहीं बल्कि छात्र-छात्राओं से सहित उनके अभिभावकों की भी चिंताएं जल्दी दूर होंगी.

priyanka.kaushal@tehelka.com