सुप्रीम कोर्ट ने हरियाणा में पंचायत चुनाव के उम्मीदवारों के लिए शैक्षणिक योग्यता तय किए जाने को सही ठहराते हुए कहा कि शिक्षा ही वह जरिया है जो मनुष्य को सही-गलत और अच्छे-बुरे का फर्क समझने की ताकत प्रदान करता है. शीर्ष अदालत के इस फैसले से अब हरियाणा में पढ़े-लिखे लोग ही चुनाव लड़ पाएंगे.
न्यायमूर्ति जे. चेलमेश्वर व न्यायमूर्ति अभय मनोहर सप्रे की खंडपीठ ने हरियाणा पंचायती राज (संशोधन) अधिनियम, 2015 को सही ठहराया और इसे चुनौती देनी वाली राजबाला, कमलेश व प्रीत सिंह की याचिका को खारिज कर दिया. गौरतलब है कि हरियाणा पंचायती राज (संशोधन) अधिनियम, 2015 के तहत चुनाव लड़ने के लिए सामान्य वर्ग के उम्मीदवारों का 10वीं, महिलाओं व दलित पुरुषों का आठवीं पास होना अनिवार्य है. वहीं दलित महिलाओं के लिए पांचवीं पास होना जरूरी है. इसके अलावा बिजली बिल का बकाया होने, बैंक का लोन न चुकाने और गंभीर अपराधों में चार्जशीट होने वाले लोग भी पंचायत चुनाव नहीं लड़ पाएंगे. साथ ही प्रत्याशी के घर में शौचालय भी होना चाहिए.
70 पेज के अपने फैसले में खंडपीठ ने कहा कि अदालत द्वारा किसी भी कानून को इस आधार पर असंवैधानिक नहीं करार दिया जा सकता है कि वह मनमाने तरीके से बनाया गया है. हरियाणा पंचायती राज कानून संशोधन से संविधान का उल्लंघन नहीं हुआ है. यह बहुत जरूरी है कि चुने हुए प्रतिनिधि शिक्षित हों, जिससे वे अपने कर्तव्यों का सही तरीके से निर्वाह कर सकें. शीर्ष अदालत ने उस प्रावधान को भी सही बताया जिसमें उन लोगों के चुनाव लड़ने पर पाबंदी लगाई गई है जिनके ऊपर सहकारी बैंकों का ऋण या बिजली का बिल बकाया है. खंडपीठ ने इस पर कहा कि हम सब जानते हैं कि इन दिनों चुनाव लड़ना कितना खर्चीला है. ऐसी स्थिति में कर्जदार व्यक्ति का चुनाव लड़ना उसकी आर्थिक क्षमता से बाहर है. शीर्ष अदालत ने शौचालय की अनिवार्यता पर कहा कि शौचालय बनाने के लिए राज्य सरकार सहायता देती है, ऐसे में इसकी अनिवार्यता का फैसला सही है. खुले में शौच करने की कुप्रथा के खिलाफ महात्मा गांधी भी थे.
शिक्षा का मतलब क्या?
मामले की सुनवाई के दौरान सुप्रीम कोर्ट ने हरियाणा सरकार से पूछा था कि नए नियमों के मुताबिक कितने लोग चुनाव नहीं लड़ पाएंगे. इस पर राज्य सरकार की तरफ से अदालत में पेश अटार्नी जनरल मुकुल रोहतगी ने बताया कि 43 फीसदी लोग चुनाव नहीं लड़ पाएंगे. उन्होंने अदालत को बताया कि राज्य में 84 फीसदी घरों में शौचालय हैं, जबकि 20 हजार स्कूल हैं. हालांकि याचिकाकर्ताओं ने सरकार के आंकड़े को गलत बताया और कहा कि सही में यह संख्या 43 नहीं 64 फीसदी है. यदि हम बात दलित महिलाओं की करेंगे तो यह संख्या 83 फीसदी तक पहुंच जाती है. इसी तरह राज्य सरकार ने 20 हजार स्कूलों में प्राइवेट स्कूलों को भी गिना है, जबकि हकीकत यह है कि राज्य में दसवीं के लिए सिर्फ 3, 200 स्कूल हैं. हालांकि कौन से आंकड़े सही हैं, कौन से गलत यह अलग बात है. अहम सवाल यह है कि क्या सिर्फ किताबी शिक्षा हासिल न कर पाने वाले लोगों को उनके चुनाव लड़ने के अधिकार से वंचित कर देना जायज है? जब भारत में संविधान का निर्माण हो रहा था उस दौरान जनप्रतिनिधियों के लिए शिक्षा को अनिवार्य किए जाने को लेकर संविधान सभा में जमकर बहस हुई थी. इस दौरान भारत के पहले राष्ट्रपति डॉ. राजेंद्र प्रसाद जनप्रतिनिधियों के लिए न्यूनतम शैक्षणिक योग्यता निर्धारित किए जाने के पक्ष में थे, लेकिन प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू ने इसका विरोध करते हुए इसे अलोकतांत्रिक बताया था. उस दौरान संविधान सभा ने यह तय किया कि इस देश में हर व्यक्ति को चुनाव लड़ने की छूट मिलनी चाहिए और इसी आधार पर कानून बने. लेकिन अब इस फैसले के चलते लोकतांत्रिक व्यवस्था की पहली ही कड़ी में बहुत सारे लोग चुनाव लड़ने से वंचित रह जाएंगे.
हमारे ही देश में ऐसे हजारों उदाहरण मिल जाएंगे जहां अशिक्षित लोगों ने मील के पत्थर स्थापित किए हैं. देश के कई बड़े दिग्गज नेताओं, स्वतंत्रता सेनानियों और सफल उद्योगपतियों के पास डिग्रियां नहीं रही हैं. यहां तक कि मानव संसाधन विकास मंत्री स्मृति ईरानी की शैक्षणिक योग्यता पर भी सवाल उठते रहे हैं. पूर्व केंद्रीय मंत्री जयराम रमेश अपने एक लेख में तमिलनाडु के नेता के. कामराज का उदाहरण देते हुए कहते हैं, ‘के. कामराज ने अपनी स्कूली शिक्षा भी नहीं पूरी की थी, लेकिन इस बात ने उनके राजनीतिक करिअर को प्रभावित नहीं किया. उन्होंने तमिलनाडु के प्रशासन को बहुत ही अच्छी तरह से संभाला और नई ऊंचाईयों पर पहुंचाया. लेकिन अगर वह आज होते तो हरियाणा में पंचायत चुनाव नहीं लड़ पाते.’ उन्होंने हरियाणा सरकार के इस फैसले को महिला, अन्य पिछड़ा वर्ग और दलित विरोधी करार दिया. उन्होंने कहा, ‘यह कितना अजीब है कि पंचायत चुनाव लड़ने के लिए आपकी शैक्षणिक योग्यता देखी जा रही है, जबकि हरियाणा का मुख्यमंत्री बनने के लिए आपको इस तरह की किसी भी बाधा को नहीं पार करना है. संविधान में अन्य पिछड़ा वर्ग की व्याख्या ऐसे समुदाय के रूप में की गई है जो सामाजिक और शैक्षणिक रूप से पिछड़ा है. इसका मतलब साफ है कि देश में अभी एक बड़ा वर्ग ऐसा है जिसे शिक्षित किए जाने की जरूरत है. क्या ऐसे में उनके साथ भेदभाव नहीं किया जा रहा है? क्या यह बात दलित और आदिवासियों के लिए और भी सटीक नहीं बैठती है? हां, यह सही है कि उनकी शिक्षा के लिए बहुत सारे कदम उठाए गए हैं, लेकिन यह भी वास्तविकता है कि सिविल सेवा समेत अन्य जगहों यहां तक कि संसद में भी सर्वणों का ही वर्चस्व दिखाई पड़ता है.’
गलती आपकी और सजा हमको
हमें आजाद हुए करीब सात दशक होने वाले हैं, लेकिन इतने समय बाद भी हमारी आबादी का एक बड़ा हिस्सा साक्षर नहीं हो पाया है. ऐसे में यह सरकारों की नाकामयाबी रही कि वह अपने देश के लोगों को साक्षर नहीं बना पाईं. पर इस नाकामयाबी की सजा आम जनता को दी जा रही है. देश में पढ़ाई-लिखाई को लेकर माहौल यह है कि हर व्यक्ति अपने बच्चों को पढ़ने के लिए स्कूल भेजना चाहता है, पर इसके लिए स्कूल समेत अन्य सुविधाएं मुहैया करा पाने में सरकारें नाकाम रही हैं. अब ऐसी ही एक सरकार चुनाव लड़ने के लिए शैक्षणिक बाध्यता लगाकर अशिक्षित लोगों को इस बात से भी वंचित कर देना चाहती है कि वह एक लोकतांत्रिक प्रक्रिया का पालन करके चुनाव जीतें और अपने समुदाय समेत गांव का विकास कर सकें. पूर्व न्यायाधीश राजेंद्र सच्चर ने अपने एक लेख में कहा, ‘उन लोगों को जिन्हें औपचारिक शिक्षा का मौका नहीं मिला है, वो पहले से ही राज्य की नाकामी से पीड़ित हैं. ऐसे में उन्हें लोकतांत्रिक संस्था से बाहर नहीं किया जाना चाहिए.’
वैसे भी हरियाणा की कुल एक करोड़ 60 लाख की ग्रामीण आबादी में महज 12.70 फीसद ही दसवीं पास हैं. राज्य की ग्रामीण आबादी का 34 फीसद निरक्षर हैं. ग्रामीण आबादी का महज 4.4 प्रतिशत ही ग्रेजुएट हैं. अब इसके लिए सिर्फ लोगों को जिम्मेदार नहीं ठहराया जा सकता है. सरकारों को अपनी जिम्मेदारी भी तय करनी होगी. मजेदार बात यह है कि देश में शिक्षा का अधिकार कानून लागू होने में आजादी के बाद पचास साल लग गए और इसके लागू होने के एक दशक के भीतर ही हम पंचायत चुनाव में शैक्षणिक योग्यता निर्धारित किए जाने संबंधी कानून भी लाने लगे. आखिर हम यह कैसे मान लें कि इतने समय में देश का हर नागरिक कम से कम पांचवीं और आठवीं की पढ़ाई पूरी कर लेगा. सबसे अहम सवाल यह है कि क्या हरियाणा सरकार ने इस बात की रिपोर्ट मांगी कि 2015 में कितने प्रतिशत बच्चे स्कूली शिक्षा व्यवस्था से बाहर हो गए हैं. अगर मांगी तो कितने प्रतिशत बच्चे स्कूल नहीं पहुंच पा रहे हैं और उन्हें स्कूल पहुंचाने के लिए राज्य सरकार ने क्या कदम उठाए?
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क्या है पूरा मामला ?
हरियाणा में सरपंचों का कार्यकाल 25 जुलाई 2015 को खत्म हो गया, जिसके बाद 11 अगस्त 2015 को राज्य सरकार ने पंचायती राज कानून में संशोधन कर दिया. सरकार ने 7 सितंबर को पंचायती राज (संशोधन) विधेयक, 2015 को विधानसभा से पारित करा लिया. इसी दिन इसे राज्यपाल ने मंजूरी भी प्रदान कर दी. इसके अगले ही दिन राज्य चुनाव आयोग ने नए नियमों के आधार पर प्रदेश में पंचायत चुनावों की घोषणा कर दी. 17 सितंबर को संशोधन के खिलाफ दायर याचिका पर सुनवाई करते हुए सुप्रीम कोर्ट ने पंचायती राज संशोधन अधिनियम पर रोक लगा दी. बाद में राज्य चुनाव आयोग ने पंचायत चुनावों को रद्द कर दिया. सुप्रीम कोर्ट में मामले को लेकर सुनवाई होती रही. 10 दिसंबर को शीर्ष अदालत ने हरियाणा सरकार के पक्ष में फैसला सुना दिया.
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वैसे भी यह सिर्फ हरियाणा की बात नहीं है. इससे पहले राजस्थान की सरकार ने पंचायत चुनाव के लिए शैक्षणिक योग्यता और शौचालय की अनिवार्यता लागू करने की पहल की. तब पूर्व चुनाव आयुक्त जेएम लिंगदोह और एसवाई कुरैशी समेत बहुत सारे सामाजिक कार्यकर्ताओं ने इसका विरोध किया. उन्होंने तर्क दिया था कि ऐसे प्रावधानों से बड़ी ग्रामीण आबादी चुनाव लड़ने से वंचित हो सकती है. यही नहीं राजस्थान में तो एक नए तरह की मुश्किल भी सामने आई है. राज्य में निर्वाचित हुए दो सौ से अधिक पंचायत प्रतिनिधियों के निर्वाचन को शैक्षणिक योग्यता के फर्जी प्रमाणपत्र जमा करने की वजह से अदालत में चुनौती दी गई है.
एक वर्ग ऐसा भी है जो इस फैसले का स्वागत करता है. इनका मानना है कि यदि पढ़े-लिखे और जिम्मेदार लोग प्रतिनिधि के रूप में चुने जाएंगे, तो इससे लोकतंत्र को ही मजबूती मिलेगी. शीर्ष अदालत के इस फैसले से विधायक और सांसद के चुनाव में शैक्षणिक योग्यता निर्धारित करने की मांग करने वालों को बल मिलेगा. संविधान विशेषज्ञ सुभाष कश्यप सुप्रीम कोर्ट के फैसले को सही ठहराते हैं. ‘तहलका’ से बातचीत में उन्होंने कहा, ‘सुप्रीम कोर्ट ऐसे मामलों में अच्छा-बुरा नहीं देखता है. वह इस आधार पर निर्णय देता है कि विधानसभा ने अपने तय संवैधानिक अधिकारों का पालन करते हुए संशोधन किए हैं या नहीं और विधानसभा के पास यह अधिकार है कि वह कानून में संशोधन कर सके. वैसे भी यह मामला राजनीतिक व्यवस्था के लिए शर्मिंदगी वाला है कि आजादी के इतने दशकों बाद भी देश में लोग निरक्षर हैं.’ कुछ ऐसा ही मानना चुनाव आयोग के पूर्व सलाहकार केजे राव का है. वह कहते हैं, ‘सुप्रीम कोर्ट का फैसला एक नजीर है. जनप्रतिनिधियों के लिए न्यूनतम शैक्षणिक योग्यता का निर्धारण होना चाहिए. यह विधायकों और सांसदों के लिए भी होना चाहिए. ये लोग हमारे देश का कानून बनाते हैं. उन्हें पढ़ा-लिखा होना चाहिए.’
खत्म नहीं हुई है उम्मीद
हरियाणा सरकार के पंचायत चुनाव संशोधन को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती देने वाली राजबाला और कौशल्या समेत प्रीत सिंह ने अभी हार नहीं मानी है. हालांकि सुप्रीम कोर्ट ने उसकी याचिका खारिज कर दी है, पर ये सारे लोग अब सुप्रीम कोर्ट में ही पुनर्विचार याचिका दायर करने की तैयारी में है. फतेहाबाद की राजबाला कहती हैं, ‘जब सांसद और विधायक अनपढ़ होकर चुनाव लड़ सकते हैं तो फिर पंच-सरपंच क्यों नहीं.’ उन्होंने कहा कि वह सुप्रीम कोर्ट के फैसले का सम्मान करने के साथ ही अपने मौलिक अधिकारों की लड़ाई जारी रखेंगी. रोहतक के प्रीत सिंह ने कहा कि लोकतंत्र में चुनाव लड़ने से रोकना दुर्भाग्यपूर्ण है. वहीं हिसार की कौशल्या उर्फ कमलेश का कहना है कि पढ़े-लिखे से ज्यादा अनपढ़ लोग बेहतरीन काम कर सकते हैं. बस उन्हें जागरूक किए जाने की जरूरत है. वह अपने परिवार की खराब माली हालत के चलते स्कूल नहीं जा पाईं.