साल 2011 की गर्मियों में दमोह से छतरपुर को जोड़ने वाले उबड़-खाबड़ सड़कों पर लगभग हर दस मीटर में बड़े-बड़े गड्ढे मौजूद थे. नर्मदा घाटी के जंगलों में खड़े विशाल टीक के पेड़ों के धूलधूसरित पत्तों से छनकर अप्रैल की कड़ी धूप उनके चेहरे पर गिर रही थी. एक सफेद रंग की इंडिगो कार में वह मेरे साथ पीछे की सीट पर बैठे थे. हम बुंदेलखंड में ‘बलात्कार या बलात्कार के प्रयास के बाद जिंदा जला दी जा रही लड़कियों’ के परिवारों, पुलिस अफसरों और वकीलों से मिलने के लिए छतरपुर से लेकर दमोह तक की खाक छान रहे थे. उस दिन उन्होंने पूरी बांह वाली बैगनी रंग की कमीज, नीली जींस और सफेद रंग स्पोर्ट्स जूते पहने थे. हाथों में जलाई जा चुकी लड़कियों की लिस्ट लिए वह मुझे बुंदेलखंड और पत्रकारिता की अपनी अनगिनत यात्राओं से जुड़ी छोटी-बड़ी कहानियां सुनाते जा रहे थे. मैं आंखें चौड़ी करके चुपचाप उनकी बातें सुन रही थी. मैंने उनके जैसा साहसी और उत्साह से लबरेज पत्रकार अब तक नहीं देखा था. ‘प्रियंका जी, इसके बाद आपको यह स्टोरी जरूर करनी चाहिए’, हर दस मिनट में एक नए स्टोरी आइडिया के साथ यह कहते हुए ओपी भाई का खिला हुआ चेहरा आज भी नहीं भूल पाती हूं.
ओमप्रकाश तिवारी छतरपुर जिले के रहने वाले पत्रकार थे. वह छतरपुर जिले से एक राष्ट्रीय न्यूज चैनल के स्ट्रिंगर थे और साथ ही कई स्थानीय अखबारों में भी लिखा करते थे. सभी साथी पत्रकार प्यार से उन्हें ओपी कहकर बुलाते थे. 2013 में कैंसर का ठीक से इलाज न करवा पाने की वजह से उनका निधन हो गया. आमतौर पर कैंसर जैसी कमरतोड़, लंबी और महंगे इलाज की दरकार रखने वाली जानलेवा बीमारी का इलाज करवाने की हैसियत बड़े शहरों के बड़े अखबारों और टीवी चैनलों में काम करनेवाले ज्यादातर पत्रकारों की भी नहीं है. ओपी भाई तो फिर भी मध्य प्रदेश के एक छोटे से जिले में स्ट्रिंगर थे. छह फुट लंबे, जिंदादिल, हंसमुख और ऊर्जा से भरपूर ओपी भाई ने अपने काम की बदौलत मध्य प्रदेश की पत्रकारिता में अपना अलग स्थान बनाया था. बुंदेलखंड की जानलेवा गर्मियों में भी वह अपने सिर पर सिर्फ एक गमछा बांधकर अपनी मोटरबाइक पर लगभग हर रोज सैकड़ों मील की यात्रा किया करते थे. छतरपुर, दमोह से लेकर पन्ना, दतिया और झांसी तक पूरा बुंदेलखंड उनकी उंगलियों पर हुआ करता था. हर गांव में उनका नेटवर्क था. एक ऐसा विश्वसनीय नेटवर्क जो सिर्फ सालों की मेहनत और स्थानीय लोगों के साथ के भरोसे का एक रिश्ता बनाने के बाद ही विकसित हो पाता है. बुदेलखंड के मुद्दों और विकास को लेकर भी ओपी भाई में गजब का पैशन था. ओपी भाई उन चुनिंदा पत्रकारों में से थे जिन्होंने 2010-11 में पहली बार पन्ना नेशनल पार्क से बाघों के सफाये को उजागर किया था. उस दोपहर उन्होंने मुझे बताया, ‘दरअसल जब मुझे पता चला कि सरकार पार्क में 40 बाघ बताकर बजट ले रही है तो मैंने रोज सुबह पार्क के चक्कर लगाने शुरू कर दिए. हफ्तों तक रोज सुबह पैदल ही पूरा पार्क घूम जाता था लेकिन बाघ दिखते ही नहीं थे. मुझे शक हुआ कि पार्क में बाघ लगभग खत्म हो गए हैं. फिर कुछ दिन और खोजबीन की और फिर खबर ब्रेक कर दी.’ खबरों के लिए ओपी भाई के जुनून से मैं आज तक प्रेरित महसूस करती हूं.
बुदेलखंड में जलाई गईं लड़कियों की कहानी पर रिपोर्ट करते वक्त मैं सिर्फ 23 साल की थी और यह ड्रग ट्रायल के बाद मेरी दूसरी बड़ी रिपोर्ट थी. जाहिर है अनुभव और उम्र दोनों ही में मैं ओपी भाई से दशकों छोटी थी. फील्ड पर उन्होंने न सिर्फ मेरा उत्साह बढ़ाया बल्कि काम करते वक्त बहुत कुछ सिखाया भी. तब एक पत्रकार के जीवन में डिफॉल्ट मोड की तरह मौजूद रहने वाली वाली ‘हर रोज की हिंसा’ से मेरा नया-नया परिचय हुआ था और अभी मेरी कच्ची संवेदना बहुत कमजोर थीं. नोट्स लेते वक्त अक्सर मेरा चेहरा आंसुओं से भीग जाता और कई बार तो लड़कियों की मांओं से बात करते हुए मैं उनके साथ सिसकियां लेते हुए रोने लगती. यह ओपी भाई का बड़प्पन ही था कि उन्होंने मुझे डांटकर वापस नहीं भगाया बल्कि करुणा और समझदारी के साथ बिना रोए अपना काम करने की समझाइश दी. वकीलों और बड़े पुलिस अधिकारियों से गुस्से में उलझते हुए भी उन्होंने मुझे कई बार बचाया. उन्होंने मुझे अपनी पीड़ा और गुस्से को दिशा देकर अपने लेखन में उतारने के लिए प्रेरित किया. फील्ड पर अपने गुस्से पर काबू रखना उन्होंने मुझे सिखाया. बाद में बुंदेलखंड की लड़कियों की कहानी ‘तहलका’ में कवर स्टोरी बनी और राज्य महिला आयोग ने तुरंत मामले को संज्ञान में लिया. राज्य स्तरीय मीटिंग में दमोह और छतरपुर के पुलिस अधीक्षकों और कलेक्टरों को फटकार लगाई गई और लड़कियों के मारे जाने के मामलों की तहकीकात करने के आदेश जारी किए गए. बाद में इस कहानी को रामनाथ गोयनका पुरस्कार भी मिला पर उससे ज्यादा बड़ा पुरस्कार स्टोरी पढ़ने के बाद ओपी भाई के चेहरे पर आई मुस्कराहट थी.
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आखिर इस पेशे में इतना कम पैसा क्यों मिलता है कि आदमी अपना इलाज भी ठीक से नहीं करा पाते? और कम पैसे देने ही हैं तो कम से कम रिपोर्टरों के एक मजबूत मेडिकल कवर का नियम क्यों नहीं है? अगर बड़े शहरों में काम करने वाले कुछ ‘बड़े पत्रकारों’ के लिए ये मेडिकल कवर है तो स्ट्रिंगर्स के लिए क्यों नहीं है?
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सन 2012 में उनकी पैर में एक छोटा सा घाव हुआ था. कुछ दिन गुजर गए और ठीक होने की बजाय वह बढ़ता गया. बाद में पता चला कि कैंसर है. जब इलाज के लिए वह मुंबई के एक बड़े अस्पताल में भर्ती थे तब मेरी कई बार उनसे फोन पर बात हुई. मैं सेहत के बारे में ज्यादा पूछती तो कहते, ‘यह सब छोड़िए और बताइए क्या खबर है? काम कैसे चल रहा है?’. मैं हर बार उनसे कहती कि उन्हें ठीक होकर जल्दी वापस आना है और हमें मिलकर बहुत काम करना है. लेकिन एक साल तक चले इलाज ने ओपी भाई और उनके परिवार को पूरी तरह से तोड़कर रख दिया. मुंबई जैसे शहर में रहने का खर्चा और महंगे इलाज का खर्च अलग. आखिरी बार जब उनसे फोन पर बात हुई तो बड़ी धीमी आवाज में बोले, ‘प्रियंका जी, अब नहीं बच पाऊंगा मैं. दो छोटे-छोटे बच्चे, पत्नी और छोटा भाई हैं. सब परेशान हैं मेरी वजह से और बीमारी है कि ठीक होने का नाम ही नहीं ले रही. पैसे भी पूरे खत्म हो चुके हैं.’ इतना सुनकर ही मैंने रोते हुए उनकी हिम्मत बंधाई थी. फिर साथी पत्रकारों को फोन करके मदद के बारे में पूछा तो मालूम हुआ कि स्थानीय पत्रकार अपनी छोटी-छोटी तनख्वाहों में से ही पैसे निकलाकर जितना हो सकता था, ओपी भाई की मदद कर रहे थे. मगर 10 लाख रुपये का इलाज करवा पाना उनमें से किसी के बस में नहीं था.
जनवरी 2013 की एक शाम खबर मिली कि ओपी भाई नहीं रहे. पैसे की कमी की वजह से हमारे बीच के एक व्यक्ति का ठीक समय पर इलाज नहीं हो पाया और सिर्फ चालीस साल की उम्र में वह चल बसा. दुनिया को न्याय दिलवाने के लिए लड़ने वाले हम पत्रकार अपने ही बीच के आदमी की जान नहीं बचा पाए थे. और हम ये भी जानते हैं कि कोई भी बड़ी बीमारी हो जाए तो शायद अपनी जान भी नहीं बचा पाएंगे. असहाय महसूस करते हुए मैंने अपनी छोटी सी सैलरी स्लिप देखी और खुद से पूछा कि आखिर मैं क्यों कर रही हूं ये सब? आखिर इस पेशे में इतना कम पैसा क्यों मिलता है कि आदमी अपना इलाज भी ठीक से नहीं करा पाते? और कम पैसे देने ही हैं तो कम से कम रिपोर्टरों के एक मजबूत मेडिकल कवर का नियम क्यों नहीं है? अगर बड़े शहरों में काम करने वाले कुछ ‘बड़े पत्रकारों’ के लिए ये मेडिकल कवर है तो स्ट्रिंगर्स के लिए क्यों नहीं है?
हकीकत ये हैं कि स्ट्रिंगर्स की फौज न हो तो बड़े शहर का बड़ा पत्रकार दूरदराज के क्षेत्रों में खबरों के लिए एक कदम भी आगे नहीं बढ़ पाएगा. जो स्ट्रिंगर्स पूरे देश में जमीनी पत्रकारिता की नींव हैं और अपने आपको सबसे ज्यादा खतरे में डालकर काम करते हैं, उनकी सुरक्षा के लिए हमारे बीच से कभी आवाज क्यों नहीं उठती?
अब जिक्र इस पेशे और स्ट्रिंगरों की जिंदगी से जुड़े खतरे का हुआ है तो एक और बात बतानी जरूरी है. ‘तहलका’ में नवंबर 2011 में प्रकाशित कवर स्टोरी ‘मध्युगीन प्रदेश’ का एक हिस्सा मैंने मध्य प्रदेश के मंदसौर जिले से रिपोर्ट किया था. तब भोपाल से मंदसौर सिर्फ एक ही ट्रेन जाती थी और वह जिला स्टेशन पर आधी रात के बाद पहुंचती थी. उस रात जब नवंबर की हाड़ कंपा देने वाली ठंड में मैं मंदसौर स्टेशन पर उतरी तो वहां के एक स्थानीय पत्रकार मित्र मुझे लेने स्टेशन पहुंचे हुए थे. मंदसौर जैसे छोटे से शहर में उनके बिना किसी अंजान होटल के दरवाजे पर दस्तक देने की हिम्मत भी शायद नहीं होती मेरी. पर मुझसे मिलते ही उन्होंने शहर के सबसे सुरक्षित होटल में मेरा सामान रखवाया और रात के लगभग 2 बजे हम स्टोरी के लिए निकल पड़े. स्टोरी नीमच-मंदसौर-रतलाम हाईवे के किनारे सालों से चल रहे बाछड़ों के डेरों पर तस्करी कर लाई गईं छोटी बच्चियों को जबरदस्ती वेश्यावृति में धकेलने पर थी. और यही इन ‘ हाईवे-ब्रोथल्स’ का सही ‘बिजनेस टाइम’ था. मैंने ओवरकोट और एक लंबी शाल में अपने आप को छुपाया और हम दोनों ने एक ग्राहक की तरह अंडरकवर डेरों पर जाने के के इरादे से हाईवे पर उतर आए. इंवेस्टिगेशन तो पूरी हुई पर स्टोरी करने के लिए मेरे स्थानीय पत्रकार मित्र ने अपनी जान को मुझसे ज्यादा जोखिम में डाला.
दरअसल रात के वक्त जब सारी टैक्सी एजेंसियों ने हमें वहां ले जाने से इनकार कर दिया तो मेरे मित्र अपनी गाड़ी से ही मुझे स्पॉट तक ले गए. काम करते वक्त डेरों पर मौजूद कट्टे से लैस खतरनाक दलालों ने उनकी गाड़ी का नंबर देख लिया था और बाद में उन्हें फोन पर धमकियां भी मिली थीं. मैं तो अगली ही शाम मंदसौर से लौट आई पर उन्हें वहीं रहना था और हमारी स्टोरी के बाद उनके लिए खतरा और बढ़ गया था. हालांकि ‘जब आप नहीं डर रहीं तो मैं क्यों डरूं?’ कहते हुए उन्होंने स्टोरी करने के लिए मेरा हौसला बढ़ाया था. मगर मैं जानती थी कि नवंबर की उस कोहरे भरी रात में दो बजे अपनी गाड़ी में मेरे साथ हाईवे चलकर छोटी बच्चियों की तस्करी के सबूत जुटाने जाने के लिए राजी होने के पीछे उनके पास ‘स्वप्रेरणा’ और ‘मिशन की भावना’ के सिवाय कोई कारण नहीं था. मध्य प्रदेश के अलग-अलग हिस्सों से रिपोर्ट की गई इस कवर स्टोरी को बाद में एक राष्ट्रीय पुरस्कार भी मिला, पर मेरे लिए सबसे बड़ा पुरस्कार उन बच्चियों का रेसक्यू ऑपरेशन में बचाया जाना था और शायद मेरे साथी मित्र के लिए भी.
ये बहादुर स्ट्रिंगर और स्थानीय पत्रकार मुट्ठीभर पैसों के लिए हर रोज अपनी जिंदगी दांव पर नहीं लगाते हैं, ज्यादातर खबरें सिर्फ स्व-प्रेरणा और बदलाव के लिए पैशन की वजह से की जाती हैं. तो फिर तमाम खतरों और कम तनख्वाह के बावजूद पत्रकारिता का बोझ हर रोज अपने कंधों पर उठाने वाले स्ट्रिंगर को स्वास्थ और सुरक्षा जैसी सुविधाएं दिए जाने के लिए लड़ाई आखिर कब शुरू होगी?
(लेखिका स्वतंत्र पत्रकार हैं)