उत्तर प्रदेश के कानपुर की अनिता मिश्रा ने जामिया मिलिया इस्लामिया, नई दिल्ली से पत्रकारिता की पढ़ाई पूरी की और ‘गृहलक्ष्मी’ पत्रिका से जुड़ गईं. अचानक एक दिन घर से फोन आया कि उनके पिताजी पक्षाघात के शिकार हो गए. वे अपने पिता की सेवा-सुश्रूषा के लिए कानपुर चली गईं. हालांकि अब पिताजी का साया भी सिर से उठ चुका है. लिखने के शौक ने ही पत्रकारिता के क्षेत्र में धकेला और इसी सिलसिले में वह दिल्ली भी आईं. वे कानपुर तो कुछ समय के लिए गई थीं लेकिन पिताजी के न रहने पर यह सवाल उठ खड़ा हुआ कि मां की देखभाल और पिताजी द्वारा खड़े किए गए इंटीरियर डेकोरेशन के कारोबार को कौन चलाएगा? अनिता को लिखने का शौक है, सो उनके मन में दिल्ली छोड़कर कानपुर में इंटीरियर डेकोरेशन के कारोबार संभालने को लेकर बहुत लंबे समय तक उनके मन में द्वंद्व चलता रहा.
उन्होंने लिखने का सिलसिला आज भी जारी रखा है और घर के कारोबार की जिम्मेदारी भी बखूबी अपने कंधों संभाल ली है. जमे-जमाए कारोबार के अलावा कानपुर वापसी में कौन-कौन से कारकों ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई? इस सवाल के जवाब में वे कहती हैं, ‘मुझे दिल्ली में हर आदमी भागता हुआ नजर आता था. दिनचर्या की एेसी-तैसी हो जाती थी. मतलब आप सुबह उगते हुए सूरज से ठहरकर दो मिनट बात नहीं कर सकते और न ही रात में चांद की रोशनी से नहाए आसमान के नीचे टिककर सुस्ता सकते हैं. महीने में जो पगार मिलती है, वह सब मकान, बिजली, पानी, मोबाइल सहित कई तरह के बिल के भुगतान में रफूचक्कर हो जाती है. इन परिस्थितियों के बीच पिताजी की बीमारी की खबर के समय जब मुझे यहां आना पड़ा और जब यहां रुकने या यहां से दिल्ली लौटने के सवालों से मैं टकराई तो थोड़ी मुश्किल और थोड़ी घबराहट जरूर हुई थी, पर आज कोई अफसोस नहीं है. हो भी भला क्यों, अब व्यवसाय और लेखन दोनों के साथ अच्छा तालमेल बिठाना संभव जो हो गया है.’
कानपुर की अनिता से इंदौर (मध्य प्रदेश) के अजय सोडानी के घर लौटने की कहानी बिल्कुल जुदा है. अजय ने अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान (एम्स) में पढ़ाने की पेशकश ठुकराकर अपने प्रदेश में काम करना बेहतर और जरूरी समझा. अजय 1990 के दौर में दिल्ली पहुंचे थे. वे अखिल एम्स में न्यूरोलॉजी की पढ़ाई के लिए आए थे. पढ़ाई पूरी करने के बाद उन्हें यहां पढ़ाने का प्रस्ताव भी मिला था, मगर उन्होंने इस प्रस्ताव को ठुकराकर इंदौर में न्यूरोलॉजी पढ़ाने की ठान ली. उस वक्त मध्य प्रदेश में कहीं भी सरकारी-गैरसरकारी मेडिकल कॉलेज में न्यूरो की पढ़ाई नहीं होती थी. लगभग डेढ़ दशक तक उन्हें इस काम को परवान चढ़ाने के लिए संघर्ष करना पड़ा. वे फिलहाल इंदौर के सेम्स मेडिकल कॉलेज एंड पोस्ट ग्रेजुएट इंस्टिट्यूट में पढ़ा रहे हैं और न्यूरोलॉजी विभाग के अध्यक्ष हैं.
लोगों के अपने वतन, अपने शहर या गांव लौटने की वजह थोड़ी मिलती-जुलती और थोड़ी-थोड़ी जुदा भी हैं. ऐसी कहानी अकेले अनिता या अजय ही नहीं बल्कि लोगों की संख्या हजारों में है. एक आंकड़े के अनुसार देश की एक बीपीओ कंपनी सर्को ग्लोबल सर्विसेज में 47 हजार लोग काम कर रहे हैं और इसके 40 फीसदी कर्मचारी महानगरों से इतर छोटे शहरों में कार्यरत हैं. इस कंपनी में हर महीने 300 नियुक्तियां होती हैं और इन नियुक्तियों के लिए आने वाले आवेदनों में से लगभग सात फीसदी लोग वडोदरा और विजयवाड़ा जैसे छोटे शहरों में अपनी पोस्टिंग की इच्छा जताते हैं. एसार कंपनी की बीपीओ समूह से संबद्घ एजिस कंपनी के एक अधिकारी ने नाम न उजागर करने की शर्त पर बताया कि पिछले डेढ़ साल में लगभग चार सौ आवेदन दिल्ली-गुड़गांव से दूर के अपेक्षाकृत छोटे शहरों मसलन इंदौर, भोपाल, जालंधर, विजयवाड़ा, रायपुर, सिलीगुड़ी, कोच्चि के लिए आए हैं. दिलचस्प यह है कि इन आवेदनकर्ताओं की उम्र 25-35 के आसपास की है.
घर लौटने की चाहत इस कदर बढ़ी है कि कई पीढ़ियों से विदेशों में रह रहे परिवार भी अपनी-अपनी जड़ें तलाशने भारत आने लगे हैं. विदेशों से 2003 में लगभग 60 हजार आईटी पेशेवर भारत के बंगलुरु, दिल्ली, मुंबई और हैदराबाद लौटे थे. असल में दो या तीन पीढ़ी पहले गए भारतीयों के बच्चे जो वहीं पैदा हुए, पले और बड़े हुए हैं. हाल-फिलहाल वे अपनी आर्थिक बेहतरी, सांस्कृतिक अस्मिता की पहचान की खोज में अब वापस लौट रहे हैं. अमेरिका से बंगलुरु लौटीं एक आईटी पेशेवर सविता ने मीडिया से बातचीत में कहा, ‘मेरे पिता 1960 में ही अमेरिका जाकर वहीं बस गए. मैं वहीं पैदा हुई. पली-बढ़ी और पढ़ाई पूरी की. मैं एक बड़ी आईटी कंपनी में अच्छी सैलरी पर काम करती थी लेकिन मुझसे आज भी हर कोई यही पूछता था कि तुम कहां से हो? यह सवाल मुझे भीतर तक कुरेदता रहा. मुझे यह बहुत अटपटा लगता है कि यहां मेरे बाद की और कितनी पीढ़ियों को इस सवाल से टकराना पड़ेगा कि तुम कहां से हो?’
प्रसिद्घ समाजशास्त्री प्रोफेसर आनंद कुमार इस चलन के बारे में ‘तहलका’ कोे बताते हैं, ‘समाजशास्त्र में पलायन या घर लौटने के लिए परिस्थितियां आपको आकर्षित करती हैं या धकेलती हैं. आप इसे ऐसे समझें कि पहले बिहार से 12वीं या बीए पास लड़के दिल्ली आकर ऑटो चलाने से लेकर फैक्टरियों में काम करते थे लेकिन जब वहां उन्हें स्कूलों में नौकरी के अवसर मिले तो वे वापस घर की ओर लौटने लगे. इस तरह कई बार सामाजिक, राजनीतिक और सांस्कृतिक परिस्थितियां उठ खड़ी होती हैं और रोजी-रोटी के बहुत अच्छे या थोड़े कम अवसर पाकर भी लोग घर लौटने को तैयार हो जाते हैं.’
विदेशों में बसे ऐसे तमाम लोग हैं जो अपने-अपने देश या अपने देश के महानगरों से छोटे शहरों अथवा अपने गांवों को लौटना चाहते हैं. हम ऐसे ही कुछ लोगों के बारे में बात कर रहे हैं जो अपने गांव या शहरों को लौट चुके हैं और आज वे बेहद संतुष्ट हैं. हालांकि एक सच तो यह भी है कि मजबूरी में पलायन कर चुकी एक बड़ी आबादी ऐसा चाहकर भी कर पाने में अपने को समर्थ नहीं पाती है. दलित-पिछड़े और आदिवासी समुदायों की आबादी का एक बड़ा तबका मजबूरी में अपनी जड़ाें से उखड़कर आसपास के शहरों-महानगरों को पहुंचता है और उसकी विडंबना यह है कि उसमें से ज्यादातर लोगों के पास घर लौटने पर स्वागत करने लायक न जमीन का कोई टुकड़ा होता है और न ही कोई पुश्तैनी पूंजी.
गांव से शहर आने और फिर वापस गांव लौटने की ऐसी ही एक कहानी शिव कुमार की है. शिव, बिहार के एक छोटे से गांव मड़वन के रहने वाले हैं. 40 वर्षीय शिव ने स्नातक किया है. बिहार पुलिस में सिपाही बनने के लिए उन्होंने कई कोशिशें की लेकिन सफलता हाथ नहीं लगी. इस बीच उनकी शादी हो गई और दो वक्त की रोटी के जुगाड़ में उन्हें शहर आना पड़ा. लेकिन परिस्थितियां कुछ ऐसी बनीं कि दो-ढाई साल शहर में बिताने के बाद शिव को फिर गांव लौटना पड़ा. उनकी दो बेटियां हैं जिन्हें वे गांव के पास के स्कूल में पढ़ाते हैं और खुद अपनी जमीन पर खेती करते हैं.
शिव के अनुसार, ‘2009 में मेरी शादी हुई. शादी के एक साल बाद मैं अपने गांव का खेत-खलिहान छोड़कर दिल्ली आया. यहां निजी गार्ड की नौकरी मिली. दो साल तक गार्ड की नौकरी करने के बाद समझ आया कि इस शहर में तो इतने पैसे में रहना और जीना भी मुश्किल है. इन दो सालों में काम के घंटे बढ़ते गए लेकिन पैसे कभी नहीं बढ़े. इन्हीं वजहों से परेशान होकर 2013 के दिसंबर में मैं वापस अपने गांव लौट आया. दिल्ली जाने से पहले खेत में काम करना अच्छा नहीं लगता था. मेरी पत्नी को भी मेरा खेत में दिन-दिनभर काम करना नहीं सुहाता था लेकिन अब तो हमें खेती से ही कमाना अच्छा लगता है और जिंदगी भी ठीक चल रही है.’
गांव वापस लौटने के बारे में शिव बताते हैं, ‘यहां ठीक है. बहुत अच्छा नहीं तो बहुत बुरा भी नहीं. दिल्ली में तो बदरपुर और जैतपुर जैसे इलाकों में रहना भी मुश्किल होने लगा था… यहां कम से कम अपना एक मकान है. थोड़ी-सी जमीन है, जीवन चल रहा है. कुछ दिन और दिल्ली में रहे होते तो मुझे टीबी की बीमारी हो जाती. खाने-पीने का कोई ठिकाना नहीं था और बारह-बारह घंटे की नौकरी…’ शिव गांव इसलिए लौटे क्योंकि दिल्ली में जितने पैसे उन्हें मिलते थे, उसमें गुजारा कर पाना मुश्किल होता जा रहा था. जिंदगी पटरी से उतर जाने की चिंता सताती रहती थी.
खड़कपुर मेंे रह रहे 50 वर्षीय राधेश्याम शर्मा को ऐसी कोई दिक्कत नहीं थी. फिर भी दो साल पहले वो अपने पैतृक निवास छपरा लौट आए. राधेश्याम ने आईआईटी खड़कपुर से पढ़ाई की और फिर वहीं अपना व्यवसाय शुरू किया. कई साल व्यवसाय करने के बाद उन्हें लगा कि अगर वो अपना पैसा छपरा में निवेश करेंगे तो उन्हें ज्यादा फायदा होने के साथ प्रतिष्ठा भी मिलेगी. आज राधेश्याम शर्मा छपरा में व्यवसाय कर रहे हैं.
पटरी पर जिंदगी लाने की जद्दोजहद
वहीं समाजसेवी और पर्यावरणविद अनुपम मिश्र एक ऐसे वर्ग के बारे में जिक्र कर रहे हैं जिनके लिए स्थितियां न तो बड़े शहरों में अनुकूल हैं और न ही वहां जहां उनकी जड़ें थीं. वह कहते हैं, ‘विकास के नाम पर बिजली, घर, बांध, सड़क आदि के निर्माण के लिए लोगों को उजड़ने के लिए मजबूर किया जाता है और इनका नए शहर में कोई स्वागत करने वाला नहीं होता है. बड़े शहरों में जब मुश्किलें सताने लगती हैं तब इनके पास अपनी जड़ों की ओर लौटना भी संभव नहीं होता है क्योंकि इनका वहां भी कोई स्वागत करने वाला नहीं होता है. पिछले कुछेक वर्षों में एक ऐसा बड़ा वर्ग सामने आया है जो बड़े शहरों की चकाचौंध को छोड़कर अपने गांव, अपने कस्बे में लौट आया है और वहां वो अपने जीवन को पटरी पर लाने के लिए जी-तोड़ मेहनत कर रहा है.’
सबसे बड़ी जरूरत जिंदा रहना
सीएसडीएस के एसोसिएट फेलो चंदन श्रीवास्तव का मानना है कि इंसान की सबसे बड़ी जरूरत है जिंदा रहना. जब उसे गांव-देहात में आजीविका नहीं मिली तो वो शहर की तरफ भागा और आज जब बड़े शहरों में एक तबके के लिए अपना जीवन चलाना मुश्किल हो चला है तो वो वापस गांव या उन शहरों की तरफ लौट रहा है या लौटना चाह रहा है जहां के बारे में उसे लगता है कि वहां वो अपनी जीविका कमा लेगा और अपने जीवन की गाड़ी को सही तरीके से चला पाएगा.
चंदन कहते हैं, ‘विदेशों से वापस देश में आने वालों को या देश में ही बड़े शहरों से छोटी शहरों की तरफ लौटने वालों को दो अलग-अलग तबके में बांट लीजिए. पहला तबका वह है जो वहां अपने पैसे को बढ़ता हुआ देख रहा है. जिसे यह दिख रहा है कि अगर कुछ लाख रुपये वो बिहार के छपरा, हाजीपुर या उत्तर प्रदेश के कानपुर में लगाएगा तो उसे दिल्ली, मुंबई की तुलना में कम पूंजी लगानी पड़ेगी और मुनाफा भी ज्यादा मिलेगा. दूसरा तबका वह है जिसके लिए बड़े शहरों में जीवित रहना ही मुश्किल हो रहा है. उसे लगता है कि अगर वो अपने पैतृक गांव या शहर लौट जाएगा तो उसका जीवन सुधर जाएगा. उसके जीवन की गाड़ी पटरी पर आ जाएगी.’ चंदन यह भी कहते हैं कि अगर उन्हें मौका मिला तो वो खुद जल्द से जल्द अपने पुश्तैनी गांव लौट जाएंगे.
दो तरह के लोग
इस बारे में प्रो. विवेक कुमार कहते हैं, ‘जिनके पास पैसे हैं, गांव में जमीन है… उसके लौटने और जिसके पास कुछ खास नहीं है उसके लौटने में बड़ा अंतर है. एक वर्ग तो ऐसा है जिसने शहर में धन कमा लिया, घर भी बना लिया और फिर वो अपने गांव या कहें कि जहां से भी उसका स्थाई पता है वहां लौटता है. वो वहां भी एक सुंदर घर बनवाता है. वहां जाता है, रहता है. अपने समाज में उठता-बैठता है. ऐसा करने में उसे गर्व महसूस होता है. उसे लगता है कि उसने अपनी अमीरी की झलक वहां तक फैला ली है जहां उसके बाप-दादा रहते थे.’ प्रो. कुमार आगे कहते हैं, ‘इनके अलावा दूसरे वो लोग हैं जिनका जीवन न अपने-अपने गांव-कस्बों में बेहतर था और न ही बड़े शहरों में. अब ऐसे में लगता है कि यार… वहीं ठीक थे, अपना घर तो था. भले झोपड़ी थी, अपनी तो थी. उसे लगता है वहीं चला जाए और मेहनत की जाए.’
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खेत से इश्क, मिट्टी बनी सोना
गिरींद्र नाथ झा, पूर्णिया, बिहार
गिरींद्रनाथ की फेसबुक प्रोफाइल छानेंगे तो कभी वे अपने खेत की मिट्टी को सोना बनाने में व्यस्त नजर आते हैं तो कभी मिट्टी की सौंधी खुशबू में लिपटी हुई पोस्ट में खेती-किसानी की बात करते. दरअसल बहुत लंबा समय दिल्ली और कानपुर में पत्रकारिता की नौकरी करने के बाद वे कुछ साल पहले पूर्णिया के अपने गांव चनका लौट गए अौर वहां रहकर खेती-किसानी में रम गए हैं. दिलचस्प यह है कि उन्होंने लिखने-पढ़ने से अपना नाता बरकरार रखा हुआ है.
असल में गिरींद्र कभी दिल्ली पढ़ने के सिलसिले में आए. स्नातक की पढ़ाई पूरी भी नहीं हुई थी कि सीएसडीएस-सराय के फेलोशिप प्रोग्राम के लिए उनका चयन हो गया. इस फेलोशिप के तहत उन्होंने दिल्ली के प्रवासी कॉलोनियों में टेलीफोन बूथ संस्कृति पर शोध कार्य को अंजाम दिया. इसके बाद उन्होंने पेशे के बतौर पत्रकारिता की दुनिया में कदम रखा. हाड़-तोड़ मेहनत के बाद छोटी-सी पगार मिलती जिसे महीना शुरू होते ही महानगर की महंगाई चट कर जाती. इस खर्च को पूरा करने के लिए खाली समय में वे अनुवाद का काम भी करने लगे. जिंदगी की भागमभाग से वे अक्सर तंग आ जाते और उनके मन को चौबीस घंटे यह सवाल कुरेदता रहता कि आखिर जिंदगी से उन्हें हासिल क्या हो रहा है? उन्हें अधिकांश समय इसका उत्तर नकारात्मकता की गहरी खाई में धकेलता. वे विकट परिस्थितियों से जूझते और महानगर की भागमभाग और रेलमपेल से लय बिठाने की हरसंभव कोशिश करते. लड़ते-जूझते हुए दिल्ली में उन्होंने नौ साल गुजार दिए.
2009 में गिरींद्र की शादी हो गई. जाहिर है कि अब रोजमर्रा का खर्च और बढ़ गया था. नौकरी और अनुवाद के बाद भी घर का खर्च चलाना मुश्किल होने लगा था. उन्होंने इससे निपटने के लिए यह तय किया कि दिल्ली की तुलना में किसी छोटे शहर को कूच कर लिया जाए. इस कड़ी में उन्हें कानपुर के दैनिक जागरण के टेबलॉयड और उसके डिजिटल कंटेंट नेटवर्क से जुड़ने का मौका मिला तो वे दिल्ली छोड़कर कानपुर चले गए. दिल्ली की तुलना में कानपुर सस्ता शहर था. वहां कुछ साल तक जीवन ठीक-ठाक चलता रहा. इस बीच गिरींद्र एक बच्ची के पिता बन गए और एक बार फिर से पत्रकारिता की छोटी पगार और पारिवारिक खर्च में इजाफा मन को बेचैन करने लगा था.
2012 के अप्रैल की बात है. एक दिन गिरींद्र के घर से फोन आया कि बाबूजी की तबियत बहुत बिगड़ गई है. इस खबर ने उनकी दुविधा के बांध को मानो जोरदार धक्का देकर तोड़ दिया. गिरींद्र के मन की बेचैनी को पत्नी भी समझ रही थीं, इसलिए उन्होंने भी गांव जाने के नाम पर एकबार भी एतराज नहीं जताया और वे अपना बोरिया-बिस्तर बांधकर पूर्णिया लौट गए. पिता को बेटे की घर वापसी से संबल मिला लेकिन थोड़े समय के बाद वे जबरदस्त मानसिक आघात के शिकार हो गए थे. पिछले दिनों उनका स्वर्गवास हो गया. गिरींद्र को पिता ने खेती-किसानी शुरू करने से पहले उन्हें ग्रामीण परिवेश को समझने की सलाह दी थी. गिरींद्र ने उनकी सलाह गांठ बांधकर रख ली और वे सिर्फ गांव को समझ ही नहीं रहे हैं बल्कि आज वे वहां पूरी तरह रच-बस गए हैं.
गिरींद्र हर रोज सुबह 8 बजे खेत पहुंच जाते हैं और शाम ढलने तक खेती-किसानी को व्यवस्था देने में लगे रहते हैं. वे खेती को अपनी मेधा के बल पर नए तरीके से परिभाषित करने में लगे हुए हैं. एक ओर जहां देश में खेती घाटे का सौदा साबित हो रहा है तो वहीं दूसरी ओर पूर्णिया जैसे कम विकसित इलाके में गिरींद्र जैविक और नए तौर-तरीकों की खेती के बल पर खुद के और इलाके के किसानों का भरोसा खेती में लौटाने में लगे हुए हैं. वे इसमें सफल भी हो रहे हैं. वे अपनी 16.5 बिगहा की जमीन पर दो फसलें एक साथ उपजा रहे हैं. पारंपरिक अनाज के साथ वे मौसमी फलों का भी उत्पादन कर रहे हैं. इसके अलावा अपनी खेती का किस्सा अपने ब्लॉग ‘अनुभव’ पर नियमित लिखते हैं जिसके चलते उनकी खेती देखने के लिए देश ही नहीं विदेश से भी लोग उनके गांव चनका पहुंच रहे हैं.
शहर में लंबा समय गुजारने के बाद गांव में रचना-बसना आसान नहीं होता है. गिरींद्र के लिए भी गांव में टिकने का यह फैसला बहुत मुश्किलों भरा था. गिरींद्र के शब्दों में, ‘पूर्णिया जिले में बिजली आपूर्ति की हालत ठीक होने की वजह से लिखना-पढ़ना आसान हो गया है. मैं यहां से देश की अलग-अलग पत्र-पत्रिकाओं के लिए खेती-किसानी के संकटों पर लगातार लिख पा रहा हूं. नियमित ब्लॉग लिखता हूं. फेसबुक और ट्विटर पर भी खूब सक्रिय हूं.’ गौरतलब है कि राजकमल प्रकाशन के सार्थक उपक्रम के तहत गिरींद्र की लघु प्रेम कथा श्रृंखला की किताब ‘इश्क में माटी सोना’ बहुत जल्द प्रकाशित होने वाली है.
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