सुप्रीम कोर्ट ने ऐतिहासिक फ़ैसला लेते हुए कर्मचारियों की भर्ती में पहले एससी यानी अनुसूचित जाति, एसटी यानी अनुसूचित जनजाति वर्गों के लिए आरक्षण लागू किया और जब ओबीसी यानी अन्य पिछड़ा वर्ग को भी आरक्षण देने की माँग उठी, तो अब उसने ओबीसी वर्ग के लिए भी आरक्षण लागू कर दिया है। सुप्रीम कोर्ट ने एससी, एसटी और ओबीसी वर्गों के साथ ही शारीरिक अक्षम पानी दिव्यांगों, पूर्व सैनिकों और स्वतंत्रता सेनानियों के आश्रितों के लिए भी आरक्षण का प्रावधान अपने यहाँ कर्मचारियों की भर्तियों में रखा है। सुप्रीम कोर्ट ने स्टाफ की भर्तियों में आरक्षण लागू करने के इस फ़ैसले को पहली बार अमल में लाया है, जिससे आरक्षण पाने वाले वर्गों में ख़ुशी की लहर है।
बहरहाल, यह आरक्षण सिर्फ़ कर्मचारियों की नयी भर्तियों में ही लागू नहीं होगा, बल्कि उनके प्रमोशन में भी लागू होगा। हालाँकि कुछ वर्ग सुप्रीम कोर्ट के इस फ़ैसले की दबी ज़ुबान से आलोचना कर रहे हैं। सुप्रीम कोर्ट में एससी, एसटी वर्गों के लिए आरक्षण लागू होने के बाद ओबीसी वर्ग के लिए आरक्षण की माँग सुप्रीम कोर्ट के वकील बलराज सिंह मलिक ने पीआईएल डालकर की थी, जो कि संयोजक, सुप्रीम कोर्ट वकील / अधिवक्ता मंच एवं पूर्व मानद चेयर प्रोफेसर (न्याय और सामंजस्यपूर्ण समाज के लिए विधि चेयर) की ओर से डाली गयी थी। लेकिन इस ओपन पिटीशन / पीआईएल पर सुनवाई से पहले ही संज्ञान लेते हुए सुप्रीम कोर्ट ने ओबीसी वर्ग के लिए भी आरक्षण लागू कर दिया।
दरअसल, सुप्रीम कोर्ट के वकील बलराज सिंह मलिक ने अपनी पीआईएल / पिटीशन में सुप्रीम कोर्ट के सीजेआई एवं अन्य सभी जजों को लिखा कि माननीय मुख्य न्यायाधीश और सम्मानित न्यायाधीश महोदय, हम हस्ताक्षरकर्ता आपके समक्ष यह खुला पत्र प्रस्तुत करते हुए 23 जून, 2025 को सर्वोच्च न्यायालय द्वारा अनुसूचित जाति (एससी) और अनुसूचित जनजाति (एसटी) के लिए ग़ैर-न्यायिक कर्मचारी पदों पर सीधी भर्ती और पदोन्नति में औपचारिक आरक्षण नीति लागू करने के ऐतिहासिक निर्णय के लिए अपनी कृतज्ञता व्यक्त करते हैं। माननीय मुख्य न्यायाधीश भूषण रामकृष्ण गवई के नेतृत्व में लागू यह ऐतिहासिक नीति, सामाजिक न्याय के सिद्धांतों को बनाये रखने और भारत के संविधान में निहित समानता के सिद्धांत को सुनिश्चित करने की दिशा में एक महत्त्वपूर्ण क़दम है। हम विनम्रतापूर्वक आपके समक्ष अनुरोध करते हैं कि संवैधानिक प्रावधानों और सरकारी नीतियों के अनुरूप, सर्वोच्च न्यायालय में रोज़गार में पिछड़ा वर्ग (ओबीसी) और अन्य पिछड़ा वर्ग (ओबीसी) के लिए समान सकारात्मक कार्रवाई लागू की जाए।
उन्होंने पीआईएल में भारत का संविधान के अनुच्छेद-15(4) का हवाला देते हुए लिखा कि इस अनुच्छेद के तहत सामाजिक और शैक्षिक रूप से पिछड़े वर्गों, जिसमें एससी, एसटी और ओबीसी समुदाय शामिल हैं, के उत्थान के लिए विशेष प्रावधान करने का अधिकार देता है। इसके अतिरिक्त, अनुच्छेद-16(4) राज्य सेवाओं में पर्याप्त रूप से प्रतिनिधित्व न रखने वाले किसी भी पिछड़े वर्ग के नागरिकों के लिए सार्वजनिक रोज़गार में आरक्षण सक्षम बनाता है। सर्वोच्च न्यायालय द्वारा हाल ही में एससी, एसटी कर्मचारियों के लिए आरक्षण नीति को अपनाना, जिसमें रजिस्ट्रार, वरिष्ठ निजी सहायक, सहायक लाइब्रेरियन, जूनियर कोर्ट सहायक और चैंबर अटेंडेंट जैसे पद शामिल हैं, समावेशिता सुनिश्चित करने के लिए एक प्रशंसनीय मिसाल कायम करता है।
माननीय मुख्य न्यायाधीश गवई ने कहा कि यदि सभी सरकारी संस्थान और कई उच्च न्यायालय पहले से ही एससी और एसटी के लिए आरक्षण लागू कर रहे हैं, तो सर्वोच्च न्यायालय को अपवाद क्यों होना चाहिए? उन्होंने पीआईएल में निवेदन किया कि सर्वोच्च न्यायालय में रोज़गार में बीसी और ओबीसी समुदायों के लिए आरक्षण का विस्तार करने से इस संस्थान की वास्तविक समानता के प्रति प्रतिबद्धता और मजबूत होगी। उन्होंने इसके लिए इंदिरा साहनी बनाम भारत संघ (1992) के फ़ैसले का उदाहरण भी दिया, जिसके तहत सार्वजनिक रोज़गार में ओबीसी के लिए 27 फ़ीसदी आरक्षण की संवैधानिकता को बरक़रार रखा, जिसमें सामाजिक पिछड़ापन और अपर्याप्त प्रतिनिधित्व को प्रमुख मानदंड बताया गया। इसके अलावा उन्होंने दूसरे कई उदाहरण दिये, जिसमें 01 अगस्त, 2024 को सर्वोच्च न्यायालय का निर्णय, जिसमें एससी, एसटी श्रेणियों के भीतर उप-वर्गीकरण की अनुमति देने का ज़िक्र किया। उन्होंने कहा कि सरकारी नीतियों में कार्मिक और प्रशिक्षण विभाग (डीओपीटी) के परिपत्रों में उल्लिखित केंद्रीय सरकार की सेवाओं में ओबीसी के लिए 27 फ़ीसदी आरक्षण अनिवार्य करने का ज़िक्र किया। इसके अलावा उन्होंने सुप्रीम कोर्ट से आरक्षण नीति के कार्यान्वयन की माँग की और मॉडल रोस्टर प्रणाली के हिसाब से भर्ती और पदोन्नति में पारदर्शिता और निष्पक्षता सुनिश्चित करने वाली प्रक्रिया अपनाने की अपील की। साथ ही क्रीमी लेयर का बहिष्कार किया।
बहरहाल, सुप्रीम कोर्ट ने एससी, एसटी आरक्षण को अपने 75 सालों के इतिहास में पहली बार लागू किया है। 23 जून 2025 से लागू हुई इस आरक्षण नीति के मुताबिक एससी, एसटी वर्गों लोगों की सीधी कर्मचारी भर्ती और प्रमोशन आदि में क्रमश: 15 फ़ीसदी और 7.5 फ़ीसदी आरक्षण मिलेगा, जो कि दूसरी सरकारी नौकरियों में भी लागू है। सुप्रीम कोर्ट ने अधिकारियों और कर्मचारियों की सीधी भर्ती में एससी, एसटी वर्गों के लोगों को 200 प्वाइंट रोस्टर प्रणाली के तहत ये आरक्षण मिलेगा। इसी प्रकार से ओबीसी वर्ग के लोगों को भी कर्मचारी भर्ती और प्रमोशन में 27 फ़ीसदी आरक्षण भी मिलेगा, जो कि 04 जुलाई से लागू हो चुका है। सरकारी नौकरियों में ओबीसी आरक्षण के लिए केंद्र सरकार ने 02 जुलाई, 1997 को ही आदेश जारी कर दिया था; लेकिन सुप्रीम कोर्ट में इसे 28 साल बाद लागू करने का ऐलान हुआ है। इसके अलावा सुप्रीम कोर्ट ने दिव्यांगों, पूर्व सैनिकों, स्वतंत्रता सेनानियों के आश्रितों भी आरक्षण देने का प्रावधान किया है।
एससी, एसटी, ओबीसी, दिव्यांगों, पूर्व सैनिकों, स्वतंत्रता सेनानियों के आश्रितों को अपने आंतरिक प्रशासन में संवैधानिक आधार पर सामान अवसर देकर सुप्रीम कोर्ट ने एक महत्त्वपूर्ण क़दम उठाया है, जो कि राज्यों को आरक्षण नीति लागू रखने के लिए एक मिसाल के तौर पर माना जाना चाहिए। सुप्रीम कोर्ट के सीजेआई ने संविधान के अनुच्छेद-146(2) में दी गयी अपनी शक्तियों का इस्तेमाल करते हुए भारत में लागू आरक्षण को संवैधानिक सर्वोच्च न्यायालय अधिकारी एवं सेवा नियम-1961 में संशोधन करके लागू किया है। इसके तहत सुप्रीम कोर्ट ने नियम-4(ए) को पूरी तरह से नये नियम से बदल दिया है। सुप्रीम कोर्ट में सीधी भर्ती में अलग-अलग पदों पर लागू इस आरक्षण से इन वर्गों के युवाओं को राहत मिलेगी। वहीं सुप्रीम कोर्ट ने अपने यहाँ ओबीसी के आरक्षण को लागू करने में 28 साल लगा दिये। सुप्रीम कोर्ट द्वारा दिये गये इस आरक्षण को केंद्र सरकार की तरफ़ से समय-समय पर जारी किये गये नियमों, आदेशों और अधिसूचनाओं के हिसाब से ही लागू किया गया है। सुप्रीम कोर्ट में कर्मचारियों के पदों पर भर्ती में वर्तमान वेतनमान के साथ केंद्र सरकार की आरक्षण नीति के मुताबिक ही भर्ती प्रक्रिया को अपनाया जाएगा।
हालाँकि इस आरक्षण नीति में सीजेआई संशोधन और बदलाव कर सकते हैं या अपवाद कर सकते हैं। हालाँकि सुप्रीम कोर्ट ऐसा नहीं करेगा और इसकी कोई संभावना भी नहीं है। अब सुप्रीम कोर्ट में वरिष्ठ निजी सहायक, सहायक लाइब्रेरियन, जूनियर कोर्ट सहायक, जूनियर कोर्ट सहायक सह जूनियर प्रोग्रामर, जूनियर कोर्ट अटेंडेंट और चैंबर अटेंडेंट (आर) पदों पर आरक्षण मिलने वाले सभी वर्गों के लोगों की भर्तियाँ की जाएँगी।
बहरहाल, सुप्रीम कोर्ट के इस आरक्षण नीति को लागू करने के बावजूद देश के कई ऐसे राज्य हैं, जहाँ आरक्षण ठीक से लागू नहीं किया गया। मध्य प्रदेश में भी ऐसा ही हुआ है, जहाँ ओबीसी वर्ग के लोगों को सरकारी भर्तियों में पूरा 27 फ़ीसदी आरक्षण न देकर महज़ 14 फ़ीसदी आरक्षण ही दिया गया है। इसी को लेकर हाल ही में सुप्रीम कोर्ट ने मध्य प्रदेश सरकार की न सिर्फ़ फटकार लगायी है, बल्कि ओबीसी वर्ग को 13 फ़ीसदी आरक्षण न देने पर भी जवाब माँगा है।
दरअसल, इस मामले में सुप्रीम कोर्ट याचिका पर सुनवाई कर रहा था। जब 14 अगस्त 2019 को मध्य प्रदेश की कमलनाथ के नेतृत्व वाली कांग्रेस सरकार ने विधानसभा में आरक्षण का क़ानून पारित करते हुए इस अध्यादेश की जगह एक्ट लागू कर दिया, तो इसके समर्थन में 35, जबकि विरोध में 63 याचिकाएँ सुप्रीम कोर्ट में दाख़िल हुई थीं। अक्टूबर, 2019 में कमलनाथ के नेतृत्व वाली मध्य प्रदेश सरकार ने सुप्रीम कोर्ट में पक्ष रखा था। बीच में ही भाजपा ने कमलनाथ के नेतृत्व वाली कांग्रेस सरकार से सत्ता छीनकर आरक्षण क़ानून की इस एक्ट को जारी रखा। 18 दिसंबर 2024 को इस मामले की सुनवाई हाईकोर्ट में हुई; लेकिन यह मामला सुप्रीम कोर्ट में ट्रांसफर हो गया। इस बार सुप्रीम कोर्ट ने ओबीसी आरक्षण के तहत ओबीसी वर्ग की भर्तियों में पूरा 27 फ़ीसदी आरक्षण लागू न करने को लेकर मोहन यादव के नेतृत्व वाली मध्य प्रदेश की भाजपा सरकार से जवाब तलब कर लिया।
बहरहाल, आरक्षण की माँग हर वर्ग करता है; लेकिन सभी वर्गों को आरक्षण आज तक नहीं मिल सका है। मसलन, कुछ ही साल पहले केंद्र की मोदी सरकार ने सवर्ण ग़रीबों को एससी, एसटी और ओबीसी से ज़्यादा संपत्ति होने पर भी 10 फ़ीसदी अतिरिक्त आरक्षण दे दिया, जिसे ईडब्ल्यूएस कहते हैं। लेकिन वहीं जाट समुदाय से लेकर सिखों, जैनों, बौद्धों, सिंधियों, मारवाड़ियों, मुसलमानों आदि के लिए आज भी कोई आरक्षण नीति नहीं बनायी गयी है।
इसी प्रकार से अरुणाचल प्रदेश में अनुसूचित जातियों के लिए पंचायत सीटों में आरक्षण नहीं मिलता है। लेकिन जाति या वर्ग के आधार पर आरक्षण से बचने के लिए कुछ राज्यों की सरकारों ने अपने ही राज्य के नागरिकों को ज़्यादा आरक्षण देना शुरू कर दिया है। मसलन, कर्नाटक सरकार ने अपने राज्य के लोगों को सरकारी नौकरियों में आरक्षण देने की कोशिशें कीं। हरियाणा सरकार ने तो 75 फ़ीसदी आरक्षण का क़ानून बनाया था; लेकिन पंजाब और हरियाणा हाईकोर्ट ने इसे असंवैधानिक क़रार देते हुए रद्द कर दिया था। हालाँकि झारखण्ड सरकार ने अपने राज्य के लोगों को आरक्षण देने के लिए आरक्षण संशोधन विधेयक पारित करके 77 फ़ीसदी आरक्षण लागू कर दिया। इसी प्रकार से आंध्र प्रदेश, केरल, महाराष्ट्र और दूसरे कई राज्यों में वहाँ की सरकारों ने स्थानीय लोगों को रोज़गार में प्राथमिकता देने की कोशिशें की हैं।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार एवं राजनीतिक विश्लेषक हैं।)