रिपोर्टर्स: सीरियल में बनते देखें, टीआरपी के बताशे

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टीआरपी के बताशे बनाने के लिए न्यूजरूम में अब तक जो भी धत्तकर्म किए जाते रहे हैं, एक-एक करके मनोरंजन की शक्ल में वो अब दर्शकों के ड्राइंगरूम में पहुंचने जा रहे हैं. सोनी चैनल का नया सीरियल ‘रिपोर्टर्स’ न्यूज चैनल की उन्हीं रणनीतियों, चालाकियों और एजेंडे को दर्शकों के सामने पेश कर रहा है जिन्हें वो अब तक खबर, ब्रेकिंग न्यूज और ‘खुलासे’ के नाम पर कंज्यूम करते रहे हैं.

एक के बाद एक प्रोमो से गुजरते हुए ऐसा लगता है कि पिछले कुछ सालों से खासकर सोशल मीडिया पर लोगों की सक्रियता बढ़ने के बाद से न्यूज चैनलों को लेकर जो समझ बनी है, उसका बड़ा हिस्सा इस सीरियल में मौजूद होगा. दूसरी तरफ अनन्या कश्यप (कृतिका कामरा) के संवाद खबरें या तो होती हैं या नहीं होती हैं के जवाब में कबीर (राहुल खंडेलवाल) का पहले उसे चूमना और फिर थप्पड़ खाकर स्त्री सशक्तिकरण के सवाल से जोड़कर खबर बनाना इस बात की तरफ इशारा करता है कि दर्शक जिसे सामाजिक सरोकार और सामाजिक बदलाव की खबर समझकर देखते हैं, उसका बड़ा हिस्सा एडिटिंग मशीन की संतानें हैं. उन खबरों को न्यूजरूम, स्टूडियो और डेस्क के बीच निर्मित किए जाता है. बहुत संभव है कि इन घटनाओं से जुड़कर दर्शक न्यूज चैनलों को मनोरंजन की शक्ल में ही सही बेहतर समझ सकेंगे.

लेकिन गौर करें तो इतना सब करते हुए भी रिपोर्टर्स सीरियल की पूरी पटकथा न्यूज चैनलों की कंटेंट और टीआरपी के सवाल से आगे नहीं बढ़ती और ऐसा लगता है कि आज देश के न्यूज चैनल सर्कस और लोकतंत्र के तमाशे की शक्ल ले चुके हैं, वो सिर्फ और सिर्फ टीआरपी के लिए हैं.और यहीं पर आकर सीरियल साल 2000 में बनी फिल्म “फिर भी दिल है हिंदुस्तानी” का दोहराव लगने लग जाता है. इतना ही नहीं बिजनेस माइंडेड एंकर और चैनल का बॉस कबीर और न्यूकमर अनन्या कश्यप के बीच की जो बनती केमेस्ट्री दिखाई जा रही है वो इस फिल्म के चरित्र अजय बख्शी (शाहरुख खान) और रिया बनर्जी (जूही चावला) से अलग नहीं जान पड़ती.

दूसरी तरफ देखें तो न्यूज चैनल के कारनामे पर अमेरिकी टेलीविजन पर द न्यूजरूम बहुत पहले प्रसारित हो चुका है जिसकी कोशिश रिपोर्टर्स कर रहा है. इस कड़ी में डर्ट्स (टेब्लॉयड) और द बेस्ट बिंग्स पहले से शामिल हैं. हिन्दी सिनेमा में भी फिर भी दिल है हिंदुस्तानी के अलावा, शोबिज, पेज थ्री, रण, कॉर्पोरेट, पीपली लाइव जैसी फिल्में हैं जो न्यूज चैनलों की वो शक्ल पेश करती हैं जो कि टीआरपी के पीछे हांफने के बीच से बनती है. ऐसे में ये सीरियल न्यूज चैनल की कहानी को ‘सिर्फ धरने से कुछ नहीं होता, धरने से होता है’ जैसे संवाद का प्रयोग करने के बावजूद यदि  ‘जो दिखता है, वो बिकता है’ की समझ में जाकर अटक जाता है तो इससे दर्शकों के बीच न्यूज चैनल को लेकर वही आधी-अधूरी, आड़ी-तिरछी समझ बनेगी जो जब-तक हादसे होते रहने की स्थिति में प्राइम टाइम के टॉक शो से बनती रही है.

अब रही बात मनोरंजन की तो न्यूज चैनल के बॉस कबीर और उससे काफी जूनियर अनन्या कश्यप के बीच दिखाने के लिए प्रोमो में अभी से ही जो तंबू तान दिए गए हैं, उससे छोटे पर्दे की दर्शक ‘बड़े अच्छे लगते हैं’ की प्रिया और रामकपूर की और ‘कुछ तो लोग कहेंगे’ की इंटर्न डॉ. निधि और बॉस डॉ. आशुतोष माथुर की जोड़ी देखकर बहुत पहले अघा चुकी है. ऐसी स्थिति में बल्कि कृतिका कामरा के गले से स्टेथोस्कोप हटाकर हाथ में चैनल का माइक थाम लेने के अलावा कुछ और हासिल नहीं होगा.

साल 2010-11 में सीरियलों का एक लॉट आ चुका है जिसमें स्त्री-पुरुष चरित्र के बीच पन्द्रह से बीस साल का फर्क और रिश्ता बॉस और इंटर्न या ट्रेनी का रहा है. हां ये जरूर है कि कबीर की शक्ल में सच का सामना के राहुल खंडेलवाल को जिस भव्यता के साथ इस सीरियल ने पेश किया है, पुरुष दर्शकों को अपनी बार्डड्रोब जंचाने की काफी कुछ टिप्स मिलेगी. कहानी के स्तर पर ये मीडिया पर बनी दर्जनभर फिल्मों से आगे बढ़ती नजर नहीं आता. शायद ऐसा करना खुद सोनी की व्यावसायिक मजबूरी रही हो. नहीं तो मनोरंजन चैनल के नाम पर ये तो पहले से ही हाफ क्राइम न्यूज चैनल हो ही चुका है.