जम्मू-कश्मीर : अघातक हथियार, घातक वार

All Photos : Faisal Khan
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21 अप्रैल को बारपोरा, पुलवामा के 23 साल के हिलाल अहमद एक स्थानीय कब्रिस्तान में हुई तोड़-फोड़ के विरोध में युवाओं के साथ प्रदर्शन कर रहे थे कि पुलिस द्वारा एयर गन से चलाई गई पैलेट (एक तरह की नकली गोली जिससे जान नहीं जाती. यह बंदूक से छर्रों के रूप में निकलती हैं) उनके चेहरे, सिर और सीने पर लगीं और वे घायल हो गए. उन्हें फौरन श्रीनगर के श्री महाराजा हरि सिंह अस्पताल ले जाया गया जहां डॉक्टरों ने बताया कि पैलेट लगने से उनकी दाईं आंख की रोशनी चली गई है. उनके माता-पिता को इस बात पर यकीन नहीं हुआ इसलिए वे हिलाल को चंडीगढ़ के एक नेत्र अस्पताल में लेकर गए, जहां के डॉक्टरों ने भी वही बात दोहराई. फिर श्रीनगर में उनकी बाईं आंख का ऑपरेशन किया गया. डॉक्टरों के अनुसार, 70 प्रतिशत दृष्टि लौट सकती थी, पर ऑपरेशन भी उतना कारगर नहीं रहा. हिलाल की बाईं आंख की सिर्फ 30 प्रतिशत दृष्टि वापस आई. अपने हालात से नाखुश हिलाल अब अपने घर में ही कैद रहने को मजबूर हैं और छोटी-सी-छोटी जरूरत के लिए अपने घरवालों पर आश्रित हैं. उनके पिता गुलाम मोहम्मद कहते हैं, ‘अब हम क्या करें? चंद कदम चलने के लिए भी हिलाल हम पर ही निर्भर है. मेरी परेशानी यह नहीं है कि वो अब हमारे लिए कुछ नहीं कर सकेगा बल्कि ये है कि हमारे बाद उसका क्या होगा.’

हिलाल कश्मीर में विरोध-प्रदर्शनों को काबू में करने में पैलेट गन के अनियंत्रित प्रयोग को दर्शाता महज एक आंकड़ा भर हैं. ये बंदूकें दंगा नियंत्रण उपकरणों में से एक हैं, जिन्हें अघातक श्रेणी में रखा गया है. पर 2010 से (जब से इनका प्रयोग कश्मीर में शुरू हुआ) तमाम युवा अपनी दोनों या एक आंख की रोशनी खो चुके हैं. सैकड़ों ऐसे भी हैं जो घायल हुए तो कुछ की मौत हो गई. इन हथियारों को ‘अघातक’ की श्रेणी में रखना कहीं न कहीं अपने अर्थ के विपरीत ही साबित हो रहा है, जो घातक हथियारों के प्रयोग से ज्यादा खतरनाक है. एक ओर जहां घातक हथियार जिंदगी छीन लेते हैं, ये हथियार जिंदगी तो बख्श देते हैं पर जीना ही मुश्किल कर देते हैं.

यहां के दो बड़े अस्पतालों, श्री महाराजा हरि सिंह अस्पताल और बेमीना स्थित शेर-ए-कश्मीर इंस्टिट्यूट ऑफ मेडिकल साइंसेज (स्किम्स) के पिछले सालों के आंकड़ों पर नजर डालें तो मामले की गंभीरता पता चलती है. अक्टूबर 2014 से नवंबर 2015 के बीच श्री महाराजा हरि सिंह अस्पताल के नेत्र चिकित्सा विभाग में 38 ऐसे रोगी आए जिन्हें पैलेट गन से चोट पहुंची थी. इनमें से 32 को आंख में गंभीर चोटें आई थीं, जिनकी बाद में सर्जरी की गई. चूंकि इनमें से कोई दोबारा इलाज या सलाह के लिए नहीं पहुंचा तो यह स्पष्ट नहीं हो सका कि कितनों की दृष्टि बची या नहीं. इसी तरह जनवरी 2015 से दिसंबर 2015 तक स्किम्स, बेमीना के नेत्र चिकित्सा विभाग में नौ ऐसे मरीज पहुंचे. इनमें से दो पूरी तरह से दृष्टिहीन हो गए, तीन की एक आंख की रोशनी गई और एक की दृष्टि आंशिक रूप से वापस लाई जा सकी.

श्री महाराजा हरि सिंह अस्पताल में किए गए एक अध्ययन के अनुसार, 2010 से अब तक पैलेट गन से चोटिल होने के तकरीबन 500 मामले अस्पताल में आ चुके हैं. गौरतलब है कि 2010 में पांच महीनों तक चले उपद्रव के बाद ही इस हथियार को पहली बार प्रयोग में लाया गया था. उस साल इस अस्पताल में करीब 45 युवाओं ने इन बंदूकों से लगी चोटों के चलते अपनी एक या दोनों आंखों की रोशनी गंवाई थी. अस्पताल के नेत्र विभाग के अध्यक्ष मंज़ूर अहमद कांग बताते हैं, ‘हमने ये अध्ययन 2010 में उपद्रव के उन पांच महीनों में किया था. इन आंकड़ों में घाटी के अन्य अस्पतालों में भर्ती हुए घायलों की संख्या नहीं है.’ उस उपद्रव में घाटी के 120 युवाओं की मृत्यु हुई थी, जिनमें से कई की मौत का कारण सिर पर आंसू गैस के गोले का लगना था. आंसू गैस के गोले को भी अघातक श्रेणी में ही रखा जाता है.

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गौरतलब है कि श्रीनगर शहर के 16 साल के तुफैल मट्टू की मौत, जिस पर घाटी में खासा संघर्ष हुआ था, भी सिर पर आंसू गैस का गोला लगने से हुई थी. उसके बाद से मौतों और दृष्टिहीनता का ये आंकड़ा बढ़ता ही गया है. और यह सिर्फ राज्य के आंकड़ों से स्पष्ट नहीं होता. पड़ोसी राज्यों के आंकडे़ भी पैलेट गन से लगी घातक चोटों की गवाही देते हैं. चंडीगढ़ एक प्रमुख केंद्र है जहां पैलेट से घायल हुए युवाओं को इलाज के लिए ले जाया जाता है. वहां के डॉ. सोहन सिंह अस्पताल में कश्मीर में किसी उपद्रव या विरोध-प्रदर्शन के समय पैलेट से घायल औसतन 25 मरीज हर महीने अपनी आंखों के इलाज के लिए आते हैं.

डॉ. विपिन कुमार विज इस अस्पताल के एक वरिष्ठ डॉक्टर हैं. वे बताते हैं कि 2015 में उन्होंने पैलेट से घायल 25 लोगों की सर्जरी की हैं. उनके अनुसार, ‘मेरे अनुमान से यहां पिछले पांच सालों में इस अस्पताल में कश्मीर से इलाज के लिए आए लगभग 50 लड़कों ने अपनी दृष्टि खोई है. ये आंकड़ा अधिक भी हो सकता है क्योंकि लोग यहां के अलावा कई दूसरे अस्पतालों में भी जाते हैं, जिसका कोई रिकॉर्ड नहीं है. स्थिति बहुत ज्यादा गंभीर है. मेरी इन लड़कों और कश्मीर के लोगों से पूरी सहानुभूति है. कई लड़कों की आंखों में काफी गंभीर चोटें आई थीं. उन बच्चों की दोनों आंखों की रोशनी चली गई. हम कुछ नहीं कर पाए. मैं ये कभी नहीं भूल सकता. ये बहुत दुखद है.’

ऐसा ही कुछ हाल चंडीगढ़ के डॉ. ओम प्रकाश आई इंस्टिट्यूट का है. वहां भी हर महीने कश्मीर से पैलेट द्वारा लगी चोट का एक मामला आता ही है. पैलेट से आने वाली गंभीर चोटों से जुड़े इस मुद्दे पर सार्वजनिक और राजनीतिक रूप से हो-हल्ला शुरू हुआ पर इसके बावजूद इसका प्रयोग बदस्तूर जारी है. अक्टूबर 2014 में वर्तमान मुख्यमंत्री महबूबा मुफ्ती, जो तब विपक्ष में थीं, ने इस हथियार के प्रयोग पर विरोध जताते हुए सदन से वॉकआउट किया था. पर सत्ता में आने के बाद उन्होंने पुलिस को सिर्फ संयम बरतने को कहा है.

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पिछले साल मई में जब पीडीपी-भाजपा गठबंधन के दो ही महीने हुए थे, उसी वक्त घाटी के पल्हालन गांव के 16 साल के हामिद नज़ीर भट पैलेट से लगी चोट के चलते अपनी दाईं आंख की रोशनी गंवा चुके थे. फिर उनकी सूजी हुई आंख, पैलेट से छलनी हुए चेहरे की तस्वीर सामने आई, जिसने इन ‘अघातक’ हथियारों के प्रयोग से होने वाले नुकसान को और स्पष्ट रूप से दिखाया. भट के चेहरे और सिर में करीब सौ से ऊपर पैलेट के टुकड़े लगे थे. पेशे से बढ़ई उनके पिता नज़ीर अहमद उन्हें इलाज के लिए अमृतसर ले गए थे. पर दो सर्जरियों के बाद भी भट की बाईं आंख की दृष्टि नहीं लौटी.

नौहट्टा, श्रीनगर के 19 साल के साहिल ज़हूर को भी एक विरोध-प्रदर्शन के दौरान ऐसी ही पैलेट की बौछार का सामना करना पड़ा था. उनका उसी रोज ऑपरेशन किया गया पर कोई फायदा नहीं हुआ. वह अब अपनी बाईं आंख से नहीं देख सकते. कश्मीर के हाजिन इलाके के 22 वर्षीय फारूक मल्ला अपनी दोनों आंखें खो चुके हैं. मार्च 2014 में एक विरोध-प्रदर्शन खत्म होने के बाद अपने भाई के साथ टहलने निकले मल्ला पैलेट से घायल हुए थे. वे बताते हैं, ‘मैं हाजिन पुल पर खड़ा झेलम को देख रहा था कि ऐसा लगा कि कुछ उड़ते हुए मेरी तरफ आ रहा है. पंछियों के तेज से चिल्लाने जैसी आवाज आई और ये छोटे-छोटे छर्रे जिन्हें मैं देख भी नहीं सका मेरी आंखों में आकर लगे.’

अपनी व्यथा बताते हुए वे बताते हैं, ‘अब मैं कुछ नहीं देख सकता. मैं अंधेरे का आदी होता जा रहा हूं. पर मैं हमेशा चाहता हूं कि कुछ तो देख सकूं. मैं अपने परिवार को नहीं देख सकता, अपने दोस्तों को नहीं देख सकता, अपने कमरे को, खुद को नहीं देख सकता. मुझे नहीं पता कि कभी वापस देख भी पाऊंगा या नहीं. कई बार मुझे बहुत गुस्सा भी आता है, पर दुख ज्यादा होता है कि मैं किस हाल में आ गया हूं.’ मल्ला इस हादसे से पहले अपने पिता के साथ लकड़ी काटने की टाल पर काम किया करते थे. वे कहते हैं, ‘पहले मैं अब्बा और अपने भाई के काम में मदद किया करता था, पर अब मैं खुद से एक गिलास पानी भी लेकर नहीं पी सकता.’

शांति के ‘हथियार’

घाटी में इन अघातक हथियारों का प्रयोग 2010 में तब शुरू हुआ जब उपद्रवों के समय की जा रही फायरिंग में करीब 50 युवाओं की मौत हो गई. तब तत्कालीन मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला ने केंद्र से पुलिस को ऐसे हथियार सप्लाई करने के लिए लिखा था. उस समय की एक मीडिया रिपोर्ट के अनुसार, ‘उमर के इस निवेदन के बाद जबलपुर की आयुध फैक्टरी ने इस पर संज्ञान लेते हुए राज्य की पुलिस को ऐसी राइफलें बनाकर दीं जिनसे भीड़ पर नियंत्रण किया जा सके.
14 अगस्त, 2010 को सोपोर के सीलो इलाके में करीब 3000 लोगों की भीड़ पर नियंत्रण करने के लिए पहली बार पंप एक्शन राइफल का प्रयोग किया गया. उस वक्त भी इससे कुछ लोग घायल हुए थे. पर जल्द ही एक ओर घातक हथियारों के इस्तेमाल से मौतों की संख्या बढ़ रही थी, तो दूसरी ओर अघातक हथियारों ने बहुत-से लोगों को अंधा बनाया. अगले तीन महीनों में घातक हथियारों से 70 लोगों की मौत हुई.

इसके अगले साल लगातार बढ़ते विरोध- प्रदर्शनों को नियंत्रित करने की मंशा से जम्मू कश्मीर राज्य में अघातक हथियारों को अपग्रेड किया गया. इन हथियारों की सूची काफी लंबी है. आंसू गैस छोड़ने की मशीन वाले वाहन, विस्फोट करने वाले कारतूस, बेहोश करने वाले ग्रेनेड आदि. इसके अलावा पुलिस को बॉडी प्रोटेक्टर, पॉलीकार्बोनेट शील्ड, पॉलीकार्बोनेट लाठियां, हेलमेट, बुलेटप्रूफ बंकर, पंप एक्शन बंदूकें, वॉटर कैनन, एंटी-रायट राइफल और रबर व प्लास्टिक की गोलियां भी दी गई हैं. अघातक हथियारों की इस फेहरिस्त में डाई-मेकर ग्रेनेड और रंगीन वॉटर कैनन के नए नाम भी जुड़े हैं. हालांकि पुलिस ज्यादातर पैलेट और पेपर स्प्रे का ही इस्तेमाल करती है. लेकिन बाकी सबको छोड़कर सिर्फ पैलेट गनों से सबसे ज्यादा नुकसान हुआ है. घाटी के सैकड़ों युवा अपने शरीर में पैलेट के छर्रे लिए जीने को मजबूर हैं. कइयों के शरीर में फंसे ये छर्रे उनकी अक्षमता का कारण बन रहे हैं. इन छर्रों के छोटे होने के कारण इन्हें शरीर से बाहर निकाल पाना मुश्किल होता है. डॉक्टरों के अनुसार शरीर में बचे ये टुकड़े आंतरिक अंगों के काम को प्रभावित कर सकते हैं. लेकिन अब तक सबसे बड़ा नुकसान सैकड़ों युवाओं की दृष्टि का ही हुआ है.

फोटो साभार : कश्मीर लाइफ
फोटो साभार : कश्मीर लाइफ

डॉ. विज बताते हैं, ‘अगर आंख में एक बार पैलेट का टुकड़ा लगा तो आंख फिर कभी पहले जैसे सामान्य काम नहीं कर सकती. ये सामने से किए गए हमले जैसा होता है. पैलेट से आंख में कुछ गिरने या सामान्यतः लगी किसी चोट से कहीं ज्यादा नुकसान होता है.’ इसका कारण इनका बंदूक से बहुत ही तेज गति से निकलना है. ये काफी तेजी से निकलकर टुकड़ों में बंटती हैं और बिखर जाती हैं, जिससे इनसे घायल या चोटिल होने वालों की संख्या बढ़ जाती है. जब ये आंख में लगती हैं तब न केवल ये आंख को छेदती हैं बल्कि तेज गति में होने के कारण घूम भी रही होती हैं, जिससे बीच में आने वाले तंतु भी खराब हो जाते हैं. डॉ. विज बताते हैं, ‘ये पैलेट आंख को भेदती हुई तंतुओं के बीच में जाकर फंस जाती है. ये तंतु किसी नस के भी हो सकते हैं या आंख के मुख्य भाग जिसे मैक्युला कहते हैं, उसमें लग सकते हैं. बहुत-से युवा ऐसे रहे जिन्हें इलाज के बाद ठीक होने में कठिनाई हुई.’ श्री महाराजा हरि सिंह अस्पताल के एक वरिष्ठ डॉक्टर के अनुसार, आंख के साथ ऐसा होना बिल्कुल वैसा है जैसे पानी से भरे गुब्बारे का कुछ चुभते ही फूट जाना. वे बताते हैं, ‘बंदूक से निकलने के बाद पैलेट कई बार टुकड़ों में बंट जाती है. ये टुकड़े जमीन और दीवार पर लगते हैं और फिर लौटकर मौजूद लोगों के शरीर पर लगते हैं. कई बार सीधे सिर, आंख या किसी और अंग पर भी लगते हैं.’

सामाजिक विरोध

पैलेट से घायल हुए युवाओं की बढ़ती संख्या ने घाटी में इन अघातक हथियारों के इस्तेमाल पर बहस शुरू की है. दुनिया के कई हिस्सों में ऐसी बहसें चल रही हैं. ऐसा माना जा रहा है कि ‘अघातक’ शब्द जान-बूझकर इन हथियारों के जानलेवा रूप को छिपाने के लिए प्रयोग किया गया है. 2013 में राज्य के मानवाधिकार आयोग ने इंटरनेशनल फोरम फॉर जस्टिस नाम के एक एनजीओ द्वारा दायर की गई एक याचिका के जवाब में पैलेट गनों के प्रयोग को मानवाधिकारों का हनन कहा था. एनजीओ की इस याचिका में ऐसी घटनाओं का विस्तृत ब्योरा था जिनमें दस लोगों ने पैलेट लगने से आंखों की रोशनी गंवाई थी. पिछले साल मई में पैलेट लगने से हामिद नज़ीर भट के दृष्टिहीन होने के बाद एमनेस्टी इंटरनेशनल ने भी राज्य सरकार से पैलेट गनों के उपयोग को बंद करने की अपील की थी. एमनेस्टी इंटरनेशनल इंडिया की ओर से जारी बयान में कहा गया, ‘जम्मू कश्मीर प्रशासन को प्रदर्शनों में भीड़ को नियंत्रित करते समय पुलिस द्वारा पैलेट गनों के प्रयोग को निषिद्ध करना चाहिए क्योंकि ऐसा करना स्वाभाविक रूप से गलत और विवेकहीन है.’

वहीं दूसरी ओर, जम्मू कश्मीर पुलिस के पास इन हथियारों का कोई विकल्प नहीं है. कश्मीर के आईजी जावेद मुज्तबा गिलानी कहते हैं, ‘जान-माल के ज्यादा नुकसान से बचने के लिए इन हथियारों का इस्तेमाल जरूरी है. हमारे पास और कोई विकल्प ही नहीं है.’ गौरतलब है कि नवंबर 2014 में जम्मू कश्मीर हाई कोर्ट ने पैलेट गन पर बैन लगाने के लिए दायर की गई कुछ याचिकाओं को खारिज करते हुए पुलिस द्वारा बचाव के इस तरीके को मंजूरी दी थी. कोर्ट ने अपने निर्णय में कहा, ‘याचिकाकर्ताओं ने इन जनहित याचिकाओं को किसी आनुभविक रिसर्च के बिना ऐसे ही लापरवाह तरीके से दायर किया था. ये याचिकाएं जनहित याचिकाओं के मानक पर सही नहीं थीं न ही विधिसम्मत थीं.’

इस तरह इन अघातक हथियारों के उपयोग को कानूनी मंजूरी भी मिली हुई है. लेकिन ऐसा कहा जाता था कि इससे महबूबा मुफ्ती के इन हथियारों के विरोध पर फर्क नहीं पड़ता. उन्होंने वादा किया था कि जब वे सत्ता में होंगी तो इन पर रोक लगेगी. लेकिन अब जब पीडीपी-भाजपा गठबंधन सत्ता में है, इन हथियारों पर पूर्णतः रोक तो दूर इनके प्रयोग को नियंत्रित करने के लिए भी कम ही प्रयास हुए हैं. बावजूद इस तथ्य के कि अक्टूबर 2014 से दिसंबर 2015 तक 64 युवा पैलेट से गंभीर रूप से घायल हुए हैं, जिनमें से ज्यादातर की आंख में चोट आई है.

राजनीतिक पहलू

क्या महबूबा अपना वादा पूरा कर पाएंगी? इस मुद्दे पर अभी उनका कोई बयान आना बाकी है. इसके साथ ही न ही उनकी सरकार की ओर से इन हथियारों के नियंत्रित प्रयोग, जिससे आमजन को कम से कम नुकसान हो, को लेकर किसी प्रतिबंधात्मक नीति को बनाने के लिए कोई कदम ही उठाया गया है.
इस बीच उनके सत्ता ग्रहण करने के 15 दिन बाद ही पैलेट से जख्मी हुए हिलाल अहमद अपनी दृष्टि गंवा चुके हैं. श्रीनगर के कमरवारी इलाके के सुहैल अहमद की भी यही कहानी है. जनवरी में नेशनल फूड सिक्योरिटी ऐक्ट के विरोध में प्रदर्शन कर रहे युवाओं पर पुलिस द्वारा चलाई गई पैलेट की चपेट में आकर सुहैल भी अपनी एक आंख की रोशनी खो चुके हैं. ये हथियार जितने कहे जाते हैं उससे कहीं ज्यादा खतरनाक साबित हो रहे हैं. अघातक हथियारों के उपयोग से अपनी आंखों की रोशनी खो चुके कश्मीरी युवाओं पर डॉ. विज अपना अध्ययन प्रकाशित करने वाले हैं. वे कहते हैं, ‘इन हथियारों के बारे में कुछ भी ‘अघातक’ नहीं है. महज 20 साल की उम्र में अपनी एक या दोनों आंखों को खो देना मौत से भी बदतर है.’