नीतीश कुमार : आधी छोड़, पूरी को धावे

फोटोः तहलका अार्काइव
फोटोः तहलका अार्काइव
फोटोः तहलका अार्काइव

 

पटना कुछ मायने में जानदार शहर है. जानदार होने का एक नमूना इस शहर में लगने वाली चौपालों में जाकर समझ सकते हैं. रोजाना बारहों मास यहां कई चौपालें लगती हैं. रोजाना गपबाजी पसंद करने वाले लोग बतकही के अड्डों पर जाना कभी भी नहीं भूलते. बतकही का विषय किसी न किसी रूप में राजनीति ही होता है लेकिन उसमें विषय रोजाना बदल जाता है. इन चौपालों में होने वाली बतकही की एक और खासियत होती है. ओसामा, ओबामा से लेकर किसी के मामा तक की भी बात होती है तो उसका बिहारी कनेक्शन जरूर निकाला जाता है और फिर घूम-फिरकर बात बिहार पर खत्म होती है. व्यस्त सड़क किनारे खड़े होकर घंटे भर में एक कप चाय सुड़कने वाले लोगों की चौपाल भी लगती है. इन चौपालों में जाकर लगेगा कि राजनीति कैसे यहां रग-रग में समाकर एक धर्म की तरह है. पिछले दिनों इनकम टैक्स गोलंबर वाली बतकही की चौपाल का हिस्सा बना. बातचीत नीतीश पर ही हो इसलिए एक साथी से बतकही की शुरुआत करवा दी और उसके बाद तो फिर अखाड़ा-सा ही सज गया. जिसने भी बात की शुरुआत की उसने बस इतना कहा, ‘बाप रे बाप. नीतीश कुमार का फिर से पीएम वाला रिकॉर्ड  बजना शुरू हुआ है. अभी उन्हें बिहार पर ध्यान देना चाहिए तो बिहार को भगवान भरोसे छोड़कर दिन-रात एक कर देश की राजनीति कर रहे हैं. शराबबंदी का पाठ गायत्री मंत्र बार-बार दोहरा रहे हैं.’

उन्हें पलटकर तुरंत जवाब मिला, ‘कहां बिहार को भगवान भरोसे छोड़ दिया है. नीतीश बिहार को भगवान भरोसे छोड़ने वाले नेता होते तो लोग फिर से इतना भरोसा न जताते. क्या नहीं कर रहे हैं. बिहार में शराबबंदी करवाना कोई मामूली काम था क्या? इसका असर नहीं दिख रहा है क्या? अपराध कम हुआ है, गरीब कमाई जमाकर आगे बढ़ रहे हैं और शांति बहाल हुई है.’ इसके तुरंत बाद पहले साथी सवाल उठा देते हैं, ‘सहिये कह रहे हैं आप. दो महीने में ही शराबबंदी का फायदा ये हो गया है कि गरीबों के पास पैसा बलबलाने लगा है. अरे यार, क्या फालतू बात कर रहे हो. शराबबंदी-शराबबंदी ही तो रट रहे हैं. जैसे कांग्रेस के राज में बिहार को विशेष राज्य का दर्जा दिलाने का राग छेड़े हुए थे. अब तो विशेष राज्य का नाम एक बार भी नहीं ले रहे हैं. ऐसे ही एक बार रट्टा लगा रहे थे- बस एक पेड़ लगाओ, जदयू की सदस्यता पाओ. यह राग भी बंद कर दिया. शराबबंदी वाला राग भी उन्हें रोकना पड़ेगा नहीं तो कल से सवाल पूछा जाएगा कि क्या शराबबंदी ही सब समस्या का समाधान है. और अगर यह तरक्की का रास्ता खोलता है तो फिर गुजरात के विकास मॉडल और आंकड़े का क्यों विरोध करते हैं. गुजरात में तो वर्षों से शराब बंद है तो फिर यह क्यों नहीं मानना चाहिए कि वहां सब फीलगुड-फीलगुड होगा? फिर तो नीतीश कुमार को यह भी बताना पड़ेगा कि बिहार में अब तक वे भूमि सुधार नहीं लागू करा सके हैं तो क्या उसके लिए भी केंद्र सरकार ही बाधा रही? कॉमन स्कूल सिस्टम पर बात करके चुप्पी साध ली तो क्या उसमें भी बाधक शराब ही है? कई सवालों के जवाब देने होंगे उन्हें, मुश्किल हो जाएगी.’ इस बात का झल्लाहट के साथ जवाब मिलता है, ‘मतलब क्या कहना चाह रहे हो, शराबबंदी नहीं होनी चाहिए थी. नीतीश कुमार ने गलत कर दिया है. क्या शराबबंदी का फायदा नहीं हो रहा?’ बहस आगे बढ़ती जाती है. एक-दूसरे की बातों को काटते हुए न जाने कितनी बातें एक-दूसरे से टकराने लगती हैं. तर्क ऐसे होते हैं कि बड़े-बड़े विश्लेषक भी पानी मांग लें. आखिर में यह बहस कई सवाल छोड़ जाती है. सबसे अहम मुद्दा यही होता है कि इस बार नीतीश कुमार ने जब से सत्ता संभाली है वे अपने को राष्ट्रीय फलक पर स्थापित करने में इतनी ऊर्जा लगा रहे हैं कि बिहार उनसे कहीं पीछे छूटता जा रहा है और यहां की समस्याएं-चुनौतियां दिन-ब-दिन बढ़ती जा रही हैं. चौपाल में  यह बात जब छेड़ी जाती है तो तथ्यों के बजाय तर्कों का सहारा लिया जाता है. ऐसा भी नहीं कि यह बात सिर्फ उस दिन की चौपाल में उठती है.

नीतीश उलझ गए हैं. उन्हें चुपचाप राज्य की ओर ध्यान देना चाहिए. बिहार ही नहीं संभाल पाएंगे तो उन्हें देश संभालने का मौका कौन देगा? उन्हें फिर किसी ने पढ़ा दिया है कि वे प्रधानमंत्री बन जाएंगे लेकिन स्थितियां उसकी इजाजत नहीं देतीं

बिहार में इन दिनों दो-तीन मुद्दे ही गांव-कस्बे की चौपालों से लेकर शहरों तक छाए रहते हैं. पहला  यह कि इस बार नीतीश लालू के साथ सत्ता में जब से आए हैं, तब से बिहार फिर से पुराने रास्ते पर आ गया है. दूसरा यह कि नीतीश राष्ट्रीय राजनीति में जाना चाहते हैं तो वे जा पाएंगे या नहीं. इन सवालों का जवाब तलाशना इतना आसान नहीं होता. तर्क कुछ और बताते हैं, तथ्य कुछ और होते हैं. हम इन सवालों का जवाब एक-एक कर तलाशने की कोशिश करते हैं. अब पहले सवाल की टोह लेते हैं. बिहार में क्या वाकई अपराध अभूतपूर्व तरीके से बढ़ गया है और यह सब इसलिए हुआ है कि लालू सत्ता में उनके साथ हैं और अपराधियों का मनोबल बढ़ गया है? इसे जायज ठहराने के पक्ष में तर्क चाहे जितने दिए जाएं, तथ्य उसका इस तरह से समर्थन नहीं करते. बिहार में इस बार नीतीश कुमार की सरकार बनने के बाद अपराध का चर्चित मामला दरभंगा में इंजीनियरों की हत्या के बाद सामना आया. उसके बाद एक से बढ़कर एक कांड होते गए. भाजपा नेताओं ने कहना शुरू किया कि बिहार में जंगलराज आ गया है जबकि आंकड़ों में जाते हैं तो मालूम होता है कि यह अपराध कोई एक दिन में नहीं बढ़ा बल्कि पिछले कई सालों से यह लगातार बढ़ रहा था. सरकार के ही आंकड़े बताते हैं कि बिहार में 2010 में अपहरण का जो आंकड़ा था वह पांच साल में बढ़कर करीब दो गुना हुआ. 2010 में अपहरण के 3,602 मामले दर्ज हुए थे, जबकि 2015 में 7,127 मामले दर्ज हुए. इसी तरह 2010 से 2015 आते-आते दोषसिद्धि की दर में 68 प्रतिशत की गिरावट हुई. यानी 2010 में 14,311 मामलों में दोषसिद्धि हुई जो 2015 आते-आते 4,513 पर आकर सिमट जाता है. इसी अवधि में अपराध दर में 42 प्रतिशत की वृद्धि भी हुई लेकिन हत्या जैसे अपराध को देखें तो 2012 से 2015 के बीच 12 प्रतिशत की गिरावट हुई. 2010 से 2015 के बीच दंगे में 73 प्रतिशत की बढ़ोतरी हुई.

भाजपा नेता सुशील मोदी कहते हैं, ‘अब जब आंकड़े ही बता रहे हैं तो इसमें अपनी ओर से क्या बोलने की जरूरत है. सब साफ है कि जब से लालू यादव साथ हुए हैं, राज्य में अपराधियों का मनोबल बढ़ा है और बिहार अराजकता की ओर बढ़ा है.’ मोदी के जवाब में जदयू नेता चंद्रभूषण राय कहते हैं, ‘सुुशील मोदी जी को तो जो बोलना होता है बोल देते हैं लेकिन उन्हें यह देखना चाहिए कि मध्य प्रदेश में उनकी ही पार्टी का शासन वर्षों से है. बिहार की आबादी मध्य प्रदेश से 44 फीसदी ज्यादा है लेकिन अपराध यहां 35 फीसदी कम हैं.’ भाजपा हो या जदयू के नेता, सबके पास अपने तथ्य हैं और तर्क. सवाल यह है कि जब बिहार में दूसरे भाजपा शासित राज्यों की तुलना में अपराध ज्यादा है ही नहीं, बिहार में जब अपराध एकबारगी से इतना बढ़ा ही नहीं है तो फिर राज्य भर में यह बात अचानक फैली कैसे! अपराध विशेषज्ञ ज्ञानेश्वर वात्स्यायन कहते हैं, ‘अपराध का आंकड़ा क्या है यह महत्वपूर्ण नहीं है, जिस तरह से बिहार में सरेआम अपराध बढ़े हैं, उससे यह बात फैली है कि नीतीश कुमार की इस पारी में सब कुछ ठीक से नियंत्रित नहीं हो रहा और अगर ऐसा नहीं हो रहा तो फिर कोई न कोई गड़बड़ी अचानक तो हुई है.’ राजनीतिक विश्लेषक प्रेम कुमार मणि कहते हैं, ‘बिहार में क्या अपराध ऐसा हो रहा है कि जो कहीं नहीं होता या हुआ हो. यह किसी के बस की बात नहीं कि वह अपराध को पूरी तरह से रोक दे. इसके सामाजिक कारण होते हैं. असल में यह देखना होगा कि अपराध के बाद नीतीश कुमार एक्शन ले रहे हैं या नहीं. मैं तो यही कहूंगा नीतीश कुमार तुरंत एक्शन ले रहे हैं और एक सीएम यही कर सकता है.’ मणि की बातों का विस्तार करके देखें तो यह सच भी दिखता है. यह सच है कि बिहार में इन दिनों ऐसे कई चर्चित कांड हुए और विचित्र किस्म की घटनाएं घटीं जिससे नीतीश की साख को बट्टा लगा. दरभंगा में सरेआम इंजीनियरों की हत्या, भोजपुर में भाजपा नेता विशेश्वर ओझा की हत्या, मुजफ्फरपुर में व्यवसायी की हत्या, समस्तीपुर में डॉक्टर के घर पर गोलीबारी समेत तमाम ऐसी घटनाओं को छोड़ भी दें तो कई ऐसी घटनाएं और घटीं, जिनके कारण नीतीश कुमार की ज्यादा किरकिरी हुई.

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नीतीश, चौपाल और चर्चा

  • काहे नहीं देखेंगे पीएम का ख्वाब! क्या कमी है जी! तीन-तीन बार सीएम हुए, केंद्रीय मंत्री रह चुके हैं, पूरे देश में प्रतिष्ठा है ही, नरेंद्र मोदी के अश्वमेधी घोड़ा को बिहार में रोककर साबित कर ही दिए कि उनमें दमखम है भाजपा का विरोध करने का और उससे लड़ने का भी तो फिर काहे नहीं पीएम का ख्वाब देखें और काहे नहीं बन सकते हैं!
  •  बकलोले हो का रे भाई. कौन कह रहा है कि ख्वाब नहीं पालना चाहिए और कौन कह रहा है कि वे नहीं बन सकते… अरे बनें, बनेंगे तो बढि़ए लगेगा न, कोई पीएम तो बना इहां का. बाकि हमरा कहना यह है कि नीतीश देश के पीएम तब न बनेंगे जब पहले अपना बिहार में अकेले दमखम दिखा देते, चाहे बिहार के पड़ोस में अपना जलवा दिखा देते. एक बार लोकसभा में अकेले मैदान में उतरे तो सिमट गए. बाकी तो लालू जी के साथ सफर शुरू किए, फिर वामपंथियों के साथ गए, फिर बात बनती न दिखी तो भाजपा के साथ हुए, भाजपा से अलग हुए तो अकेले ट्रायल किए, सिमट गए तो फिर लालू जी के साथ हो गए. और फिर ताकत का मतलब सीधे-सीधे संख्या बल से होता है. नीतीश को तो नंबर गेम में पिछड़ जाना पड़ेगा.
  •  अरे क्या तुमसे तर्क करें. तुम्हारा स्तरे तर्क करे लायक नहीं. बीपी सिंह का अकेले जनता दल का उतना सीट लाए थे कि देश में सरकार बना लेते बाकी जब मैदान में उतरे तो भाजपा से लेकर वामपंथी तक, सब एके घाट पर आके पानी पीया था कि नहीं. समर्थन देके बीपी सिंह को पीएम बनाया था कि नहीं. पूरा देश में प्रभाव की बात कर रहे हो तो देवगौड़ा और गुजराल का नामो तक जानता था आदमी, पीएम बन गए थे कि नहीं. चंद्रशेखरे के पास इतना नंबर गेम था कि बन गए थे पीएम. राजनीति में नंबर महत्वपूर्ण होता है बाकी सब नहीं होता है. रहा बात पड़ोसी इलाका में प्रभाव जमाने का तो करिए रहे हैं न कोशिश.
  • करें कोशिश, करें. तुम चाणक्य बूझ रहे हो अपना को तो बताओ जो पूछ रहे हैं. नीतीश कुमार जब खुद को राष्ट्रीय राजनीति का सिरमौर बनाने के लिए कोशिश करेंगे तो पहिला सवाल ईहे कि कौन उनका नेतृत्व उतना आसानी से स्वीकार कर लेगा. का ममता बनर्जी? उ तो खुदे कह चुकी हैं कि राष्ट्रीय राजनीति में जिम्मेवारी मिले, निभाने के लिए तैयार हैं और उ तो साबित कर दीं खुद को कि कैसे वाम को उसके सबसे बड़े गढ़ में जड़ से खत्म कर सकती हैं. क्या जयललिता? वे कोई क्या कम बड़ी नेता हैं. नवीन पटनायक खुदे अपने को तीसमार खां समझते हैं. समझे भी काहे नहीं. जब पूरा देश में मोदी का आंधी था, तबो नवीन उड़ीसा में बीजू जनता दल का खंभा उखड़ने नहीं दिए. अब जरा ई भी तो बताओ कि भाजपा मुक्त भारत चाहे संघ मुक्त भारत का नारा तो बढि़या है नीतीश जी का लेकिन इसके नाम पर तो कोई एके साथ आएगा और हर जगह दुई खेमा है. तमिलनाडु में अगर जयललिता आएंगी तो करुणानिधि साथ नहीं रहेंगे. अगर वामपंथी साथ रहेंगे तो बंगाल से ममता नहीं रहेंगी साथ में. कांग्रेस अगर साथी बनती है तो नवीन जैसे नेता साइड रहेंगे. उत्तर प्रदेश में मायावती मुलायम में से कोई एक्के होगा, बताओ तो जरा चाणक्य बने हो तो.
  • अरे छोड़ो भइया. सब संगे आ जाएगा. एके साथ न आ गया था कांग्रेस के रोके के नाम पर कम्युनिस्ट और भाजपा. आ न गए नीतीश और लालू साथे, कोई विश्वास कर सकता था.  राजनीति में रणनीति परिस्थितियों का दास होती है. यही जानते हो नीतीश को. उनसे ज्यादा एडजस्टेबल कोई है क्या? उ हर बार एक नया वोट बैंक बना लेते हैं. पिछड़ा को अतिपिछड़ा किए, दलित को महादलित फिर महादलित-दलित एक हो गया, मुसलमानों में पसमांदा अलग किए. नीतीश जानते हैं कि उन्हें क्या करना है. पहिलका बारी आए तो लड़कियों को साइकिल बांट महिलाओं के दिल में जगह बनाए और अब शराबबंदी करवा के जात-पात का बंधन तोड़ सर्वमान्य रूप से महिलाओं का नेता बन गए हैं. बताओ का अइसा रणनीति बनाने वाला कोई नेता है. अरे, नीतीश को जानते कितना हो.[/symple_box] 

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इसमें एक बड़ा और चर्चित मामला तो जदयू की विधायक बीमा भारती के चर्चित पति अवधेश मंडल के पूर्णिया के मरंगा थाने से भाग जाने वाला मामला रहा, जिसमें यह आरोप लगा कि बीमा भारती ने ही भगाने में मदद की. हालांकि 48 घंटे में ही अवधेश फिर पुलिस की गिरफ्त में भी आ गए थे. नवादा के विधायक राजवल्लभ यादव का मामला भी उतना ही चर्चित हुआ, जिन पर एक नाबालिग लड़की के यौन शोषण का आरोप लगा और एक माह तक फरार रहने के बाद उन्होंने समर्पण किया. जदयू के विधायक सरफराज आलम का मामला कोई कम चर्चित नहीं रहा. उन पर बेटिकट यात्रा के साथ ही राजधानी एक्सप्रेस में एक महिला से छेड़खानी का आरोप लगा. उन्हें जदयू से निलंबित किया गया. जदयू से ही निलंबित एमएलसी मनोरमा देवी के बेटे रॉकी यादव का मामला तो देश भर में चर्चित रहा. रॉकी मनोरमा देवी और गया के चर्चित बिंदी यादव के बेटे हैं. पिछले दिनों उन्होंने आदित्य सचदेवा नाम के व्यक्ति की हत्या कर दी थी. बाद में मनोरमा देवी के यहां शराब भी बरामद हुई. इसके अलावा नीतीश कुमार के अपने विधायकों ने जितनी किरकिरी नहीं करवाई, उससे ज्यादा उनके सहयोगी दलों के नेताओं ने किरकिरी करवाई. राजद नेता शहाबुद्दीन का प्रकरण हालिया दिनों में पत्रकार राजदेव रंजन की हत्या के बाद चर्चित रहा और सबने देखा कि कैसे शहाबुद्दीन जेल में ही दरबार लगा रहे थे. राजद नेता और मंत्री अब्दुल गफूर ने शहाबुद्दीन से जेल में जाकर मुलाकात करके सरकार की और किरकिरी करवाई. भाजपा के वरिष्ठ नेता और बिहार में नेता प्रतिपक्ष प्रेम कुमार कहते हैं, ‘सब जानते हैं कि शहाबुद्दीन सीवान में कैसे और किस तरह का राज चला रहे हैं. वे जेल में जनता दरबार लगा रहे हैं तो यह बात सरकार को नहीं मालूम होगी, यह कैसे कहा जा सकता है. सरकार को सब मालूम है लेकिन सरकार मजबूर है.’ अपराध को लेकर बिहार के पुलिस महानिदेशक तक कह चुके हैं, ‘अपराध कब नहीं था, कहां नहीं है, रामराज्य में भी अपराध था.’ पुलिस महानिदेशक की यह बात कहीं न कहीं से नीतीश की ही किरकिरी कराने वाली होती है. राजद के नेता तसलीमुद्दीन अपनी पुरानी बात ही दोहराते हैं और जोर देकर कहते हैं, ‘हमने जो बात कही थी वह हवा में नहीं कही थी. नीतीश कुमार के इस बार के राज में जंगलराज ही नहीं महाजंगलराज हो गया है और अगर वे सत्ता नहीं संभाल पा रहे तो फिर उन्हें इस्तीफा दे देना चाहिए.’ तसलीमुद्दीन जैसे वरिष्ठ राजद नेता भी ऐसे बयान देकर नीतीश की ही किरकिरी करवाते हैं. हम नेताओं की बात छोड़कर दूसरे लोगों से बात करते हैं. राजनीतिक संस्था ‘बागडोर’ के समन्वयक इंजीनियर संतोष यादव कहते हैं, ‘सवाल यह नहीं कि अपराध कितना बढ़ा, उसके आंकड़े क्या कह रहे हैं. अपराध आंकड़ों के जाल में उलझकर रह जाता है लेकिन बिहार के सामाजिक न्याय के साथ जो दूसरे पहलू जुड़े हुए हैं उस पर सरकार को ध्यान देना चाहिए. जैसे शिक्षा और स्वास्थ्य बुनियादी सवाल हैं.’ संतोष का इशारा बोर्ड के रिजल्ट में टॉपरों के हाल की ओर है, जिससे सरकार की देश भर में किरकिरी हुई. राजनीतिक विश्लेषक प्रो. नवल किशोर चौधरी कहते हैं, ‘नीतीश कुमार पीएम-पीएम के शोर में उलझ गए हैं. इधर, बिहार का नुकसान हो रहा है. उन्हें चुपचाप राज्य की ओर ध्यान देना चाहिए. बिहार ही नहीं संभाल पाएंगे तो उन्हें देश संभालने का मौका कौन देगा? नीतीश कुमार को फिर से किसी ने भ्रम का पाठ पढ़ा दिया है कि वे प्रधानमंत्री बन जाएंगे लेकिन स्थितियां उसकी इजाजत नहीं देतीं. नीतीश खूब अच्छे से जानते हैं कि अभी लालू अपने बच्चों को सेटल कराने में लगे हुए हैं, इसलिए चुप हैं लेकिन वे जब सक्रिय होंगे तो फिर नीतीश के प्रधानमंत्री बनने के ख्वाब को वही चकनाचूर करे देंगे. पूरा बिहार गंवाकर किसी तरह कांग्रेस के सहयोग से चौधरी चरण सिंह या चंद्रशेखर जैसा प्रधानमंत्री बनकर ही अगर नीतीश को अपना ख्वाब पूरा करना है तो करें, लगा दंे बिहार को दांव पर, रोका किसने है.’ प्रो चौधरी बिहार में बढ़ते अपराध से लेकर दूसरी किस्म की समस्याओं के लिए नीतीश कुमार के राष्ट्रीय राजनीति वाले अभियान को कसूरवार ठहराते हैं.

नीतीश कुमार संघ मुक्त भारत का नारा भी लगा रहे हैं. लेकिन यह ध्यान रखना होगा कि संघ परिवार के लिए भी उत्तर भारत बहुत खास इलाका है और वह इतनी आसानी से इस इलाके को अपने से मुक्त नहीं होने देगा

बात फिर घूम-फिरकर नीतीश कुमार के प्रधानमंत्री बनने वाले ख्वाब तक आ जाती है और फिर एक साथ कई सवाल सामने खड़े हो जाते हैं.  इस राह को मजबूत बनाने के लिए वे दो मुद्दों को भुनाने की कोशिश करते नजर आ रहे हैं. पहला बिहार में शराबबंदी और दूसरा संघ मुक्त भारत. हालांकि राज्य के राजनीतिक विश्लेषक इन दोनों ही मुद्दों से उन्हें बहुत ज्यादा फायदा मिलने की उम्मीद नहीं देख रहे हैं. राजनीतिक विश्लेषक महेंद्र सुमन कहते हैं, ‘नीतीश कुमार पर शराबबंदी का नशा चढ़ा हुआ है और साथ ही वे संघ मुक्त भारत का नारा भी लगा रहे हैं. संघ मुक्त भारत एक प्रमुख नारा हो सकता है लेकिन यह ध्यान रखना होगा कि संघ परिवार के लिए भी उत्तर भारत बहुत खास इलाका है और वह इतनी आसानी से अपने से इस इलाके को मुक्त नहीं होने देगा. संघ को मालूम है कि बिहार और उत्तर प्रदेश, सिर्फ ये दोनों राज्य 120 सांसद की हैसियत रखते हैं. संघ मुक्त भारत के जरिए नीतीश कुमार अगर राष्ट्रीय राजनीति में अपनी पैठ बनाएंगे तो यह आसानी होगी लेकिन संघ की काट सामाजिक न्याय की राजनीति को परवान चढ़ाकर की जा सकती है, जिसमें नीतीश कुमार अपेक्षा की कसौटी पर खरे नहीं उतरे रहे. सामाजिक न्याय के एजेंडे को उन्हें सबसे पहले बिहार में ही सही तरीके से लागू करके दिखाना होगा और पूरे देश में उसे मॉडल की तरह पेश करना होगा लेकिन नीतीश कुमार ऐसा करते हुए नहीं दिखते. हिंदू जातियों में जो विभाजन है, वही भाजपा या संघ परिवार के लिए ताकत भी है और कमजोरी भी. नीतीश को अगर कहीं से गठजोड़ बनाने की शुरुआत करनी है तो उन्हें अपने बिहार में ही करनी चाहिए. रामविलास पासवान, उपेंद्र कुशवाहा और जीतन राम मांझी जैसे तीन प्रमुख नेता अभी भाजपा के पाले में हैं. सामाजिक न्याय की ताकतों को साथ लाने की कोशिश नीतीश कुमार को करनी चाहिए. भाजपा के खिलाफ अटैक करना हो तो सामाजिक न्याय के मसले पर करना ज्यादा आसान होगा, क्योंकि भाजपा बुनियादी तौर पर सामाजिक न्याय के विरोध की पार्टी है. लेकिन नीतीश कुमार देश भर में इस पर नहीं बोल पाते. उनसे ज्यादा लालू प्रसाद यादव बोल लेते हैं. इसलिए जब संघ मुक्त भारत की बात सामने आएगी तो लालू प्रसाद खड़े होंगे तो उनमें चैंपियन बनने की संभावना ज्यादा है, यह बात अलग है कि लालू प्रसाद अब राष्ट्रीय राजनीति में वह भूमिका निभाने की स्थिति में नहीं दिख रहे.’

फोटो साभार : पटना व्यू डॉट ब्लॉगस्पॉट
फोटो साभार : पटना व्यू डॉट ब्लॉगस्पॉट

राजनीतिक विश्लेषक प्रेम कुमार मणि कहते हैं, ‘नीतीश कुमार की ओर से बिहार के नेतृत्व और खुद के प्रधानमंत्री बनने के ख्वाब का घालमेल करना ठीक नहीं. बिहार विकल्पहीन है और सक्षम विकल्प नहीं होने के कारण जनता ने उन्हें फिर से सीएम बनने का अवसर दिया. लेकिन वे बिहार से बाहर अपने विस्तार के लिए जिस तरह से शराबबंदी को सबसे बड़ा राजनीतिक हथियार बना रहे हैं, वह उनका नुकसान ही करेगा. संघ मुक्त भारत तक का अभियान तो फिर भी एक राजनीतिक एजेंडे की तरह लगता है लेकिन वे पूरे देश में शराबबंदी के मॉडल को अपनाने के लिए रोज-रोज बात कर अति करके रहे हैं और यह अति अब उनके लिए हानिकारक होने वाली है.’ नीतीश कुमार इन दिनों जितने जोर-शोर से शराबबंदी को राजनीतिक हथियार बनाने की कोशिश कर रहे हैं, वह उनका अब नुकसान करने वाला साबित हो रहा है. भाजपा लचर विपक्ष की भूमिका में है वरना शराबबंदी के इस अभियान को राजनीतिक एजेंडे की तरह पेश करने पर ढेरों सवाल उठते हैं.

महेंद्र सुमन कहते हैं, ‘इसमें कोई संदेह नहीं कि नीतीश कुमार 2019 में होने वाले लोकसभा चुनाव में एक मजबूत दावेदार की तरह होंगे. भाजपा विरोध की राजनीति में देश भर में तीन चेहरे प्रमुख हैं. एक राहुल गांधी, दूसरे अरविंद केजरीवाल और तीसरे नीतीश कुमार. इसमें नीतीश कुमार ज्यादा दमदार और भरोसेमंद लगते हैं लेकिन यह इतना आसान भी नहीं है. अभी तो बहुत कुछ देखा जाना बाकी है. नीतीश कुमार राष्ट्रीय स्तर पर गठजोड़ बनाने का प्रयास लगातार कर रहे हैं लेकिन अभी तक संगी-साथी के तौर पर झारखंड से बाबूलाल मरांडी मिल सके हैं. राष्ट्रीय राजनीति में नीतीश कुमार का कद कितना बढ़ेगा, यह उत्तर प्रदेश के चुनाव पर निर्भर करेगा. मायावती अगर जीत हासिल करती हैं तो उनकी राह अलग होगी. अगर मुलायम सिंह की पार्टी जीत हासिल करती है तो फिर मुलायम अपनी आकांक्षा-इच्छा जाहिर कर चुके हैं और इसीलिए वे नीतीश-लालू से मेल-मिलाप के लिए तमाम वादे करके बीच में ही हट भी गए थे. रही बात नीतीश कुमार के संघ मुक्त भारत और शराब मुक्त भारत वाले नारे की तो यह सब नारा तब काम करेगा जब नीतीश कुमार पहले अपने घर यानी बिहार को मजबूत करेंगे. शराब मुक्त भारत का नारा देकर नीतीश कुमार देश भर में इसे बिहार मॉडल के तौर पर स्थापित करने में ऊर्जा लगाए हुए हैं. उनकी यह ऊर्जा व्यर्थ जा रही है. एक तो यह पहले से ही कई राज्यों में लागू है. दूसरा यह कि यह सभी राज्यों को ही सूट नहीं करेगा लेकिन क्षेत्रीय दलों के नेताओं के साथ सबसे बड़ी दिक्कत यह है िक वे अपने सम्मोहन से बाहर नहीं निकल पाते. नीतीश कुमार भी उसी सम्मोहन के शिकार हैं. उन्हें लगता है कि शराबबंदी का एेलान करके और कुछ कानून बनाकर उन्होंने अभूतपूर्व काम किए हैं. सच यही है कि अगर दूसरे राज्यों में ज्यादा वे इस विषय पर बोलेंगे तो इन्हें सहयोगी मिलना मुश्किल हो जाएगा, क्योंकि क्षेत्रीय क्षत्रप जो दूसरे राज्यों के सीएम हैं, उनके पास अपने मॉडल हैं और अगर उनके राज्य में जाकर नीतीश कुमार बिहार मॉडल-बिहार मॉडल की बात करेंगे तो उनमें से कोई भी नीतीश के करीब आना पसंद नहीं करेगा.’