धधकते अंगारों पर चलने की कला सदियों से दुनिया को आश्चर्यचकित और रोमांचित करती रही है. झारखंड के अनेक हिस्सों में यह कला आज भी जीवित है और लोगों की मान्यता है कि इसे वे लोग ही कर सकते हैं जिन्हें अलौकिक शक्ति प्राप्त है. झरिया कोयलांचल के लाखों लोग पिछले कई वर्षों से कोयले के धधकते अंगारों पर न सिर्फ चल रहे हैं, बल्कि रह रहे हैं. हमें नहीं मालूम उन्हें कोई अलौकिक शक्ति प्राप्त है या नहीं, पर यह जरूर पता है कि आग में जीवित लोगों को झोंकने वाली शक्तियां कौन हैं.
धनबाद से झरिया की यात्रा के दौरान एक मित्र साथ थे. वे बता रहे थे कि धनबाद की जाे रौनक आज है वह झरिया की देन है. झरिया न होता तो धनबाद कभी आबाद नहीं होता. उन्होंने दुख जताया कि आज के झरिया में धनबाद के जैसे तरह-तरह के उत्सव-आयोजन नहीं होते. यह शहर अगलगी के शताब्दी वर्ष में पहुंचकर बिना किसी आयोजन के घुटन और खामोशी के साथ मातमी महोत्सव मना रहा है.
झरिया की खदानों में 1916 में अाग लगी थी, अब साल 2016 है. इस बातचीत के दौरान हम झरिया शहर पार कर सुनसान इलाके में प्रवेश करके चुके होते हैं. रात के तकरीबन 11 बज रहे थे और चारों ओर सन्नाटा था. हम घनुडीह इलाके में थे. गाड़ी से बाहर निकलते ही सनसनाती हुई तेज हवा से सामना हुआ. कुछ ही देर में हम आग की तेज लपट के पास थे. लपटों से निकल रही आवाज हवा के साथ मिलकर उस सन्नाटे को तोड़ रही थी. वहां रुके कुछ ही देर हुई थी कि पुलिस की एक गाड़ी आकर रुकती है. तेज आवाज में पुलिसवाले पूछते हैं- कौन! हम लोग बताते हैं- कुछ नहीं बस फायर एरिया देखने आए थे. दरोगा ठेठ भाषा में कहते हैं, ‘ओहो! अगलगी देख रहे हैं! देखिए, बहुत लोग आता है देखने, रोजे-रोज चाहे हर कुछ दिन पर लेकिन जादा देर मत रुकिए, घुटन होगा.’
पास ही कुछ घर भी नजर आते हैं. किसी घर में ताला नहीं लगा होता. हम आवाज लगाते हैं लेकिन कोई आवाज नहीं आती. घरों में बल्ब की तेज रोशनी होती है और बिछौने भी रखे हुए होते हैं. मेरे मित्र टोकते हैं, ‘चलिए, कोई नहीं मिलेगा यहां. ये सिर्फ आरामखाना है. अभी सब लोग धंधे पर गए होंगे.’ आधी रात में ‘कौन-सा धंधा’ के सवाल पर वे कहते हैं, ‘इहां अउर का धंधा है. दिन-दुपहरिया हो चाहे अधरतिया, तेज जाड़ा हो चाहे गरमी, चाहे झमाझम बरसात, साल भर, चौबीसों घंटा इहां एक ही धंधा होता है कोयले का. कोयला ही यहां के लिए सब है. ओढ़ना-बिछौना, जीवन-मरण सब.’
उस फायर एरिया से आगे निकल ओपन माइंस एरिया में जाने की हमारी कोशिश सफल नहीं हो पाती. ऊबड़-खाबड़ रास्ते पर तेज गति से आते-जाते बड़े-बड़े ट्रक छोटी गाड़ियों को आने-जाने के लिए जगह ही नहीं छोड़ रहे थे. दूर से ही दिखाई पड़ रहा था कि कैसे खदानों से निकाले गए सुलगते कोयले को ट्रकों पर लादा जा रहा था. यह दृश्य रोंगटे खड़ा कर देने वाला था. बताया जाता है कि आग से यहां कोई मतलब नहीं. हर हाल में बस कोयला चाहिए. खदानों में लगी आग को यहां सिर्फ अभिशाप नहीं समझा जाता. यह कइयों के लिए वरदान भी साबित हुई है. इसके बाद हम वहां से लौट आते हैं. देश की सबसे बड़ी भूमिगत आग का वह दृश्य लगातार आंखों के सामने तैरता रहता है. खासकर जलते हुए कोयले को उठाकर ट्रकों पर डालने वाला दृश्य.
2002 में झरिया आए पूर्व राष्ट्रपति डॉ. कलाम ने आकर कहा था कि खदानों में लगी आग को अब भी फैलने से रोका जा सकता है, बस कोशिशें तेज हों
घनुडीह का यह इलाका झरिया का वह इलाका है जिसे हृदयस्थली भी कहते थे. अब वह लगभग खत्म हो चुका है, वहां बसने वाली बड़ी आबादी अपनी जड़ों से उखड़ चुकी है या कहें उन्हें उखाड़ा जा चुका है. सब कहीं और बस गए या बसाए जा चुके हैं. जो आग के पास रह रहे हैं, यह उनकी जिद ही है. यह जिद बेजा नहीं है. वे जानते हैं कि जब तक उनका घर आग में घिर न जाए, तब तक वे अपनी जगह नहीं छोड़ सकते क्योंकि अपनी जगह को पूरी तरह से छोड़ देने का मतलब है, दो वक्त की रोटी पर भी आफत.
घनुडीह जैसी 11 बस्तियां अब तक इस आग की भेंट चढ़ चुकी हैं. शहर के मानचित्र से सदा-सदा के लिए गायब. दस जगहों पर जिंदगी अभी मुश्किल के दौर में है. 4.18 लाख लोग इस आग का दंश झेल रहे हैं. बीसीसीएल (भारत कोकिंग कोल लिमिटेड) की ओर से उपलब्ध कराए गए आंकड़ों के मुताबिक, पिछले छह साल में झरिया के आसपास के करीब 1400 परिवारों को विस्थापित होना पड़ा है. आग से विस्थापित हुए लोगों को दूसरी जगह बसाने के लिए 314 करोड़ खर्च किए जा चुके हैं और झरिया कोल फील्ड की आग बुझाने पर अब तक 2,311 करोड़ रुपये खर्च हो चुके हैं. आंकड़ों पर गौर करें तो पता चलता है कि हर रोज फायर एरिया से आठ से दस हजार टन कोयले का खनन और उठाव हो रहा है. घनुडीह इलाके में अभी वीरानगी है लेकिन झरिया के ही इडली पट्टी, कुकुरतोपा, भगतडीह, एलयूजी पीट, बागडिगी, लालटेनगंज जैसे इलाके नक्शे से गायब हो चुके हैं.
अगले दिन सुबह-सुबह हम बेलगढ़िया के लिए निकल पड़ते हैं. बेलगढ़िया जिसके बारे में दावा किया जाता है कि यह दुनिया की सबसे बड़ी पुनर्वास योजना के तहत बसाई गई पहली कॉलोनी है. झरिया से विस्थापित हुए लोगों को यहीं बसाया गया है. बेलगढ़िया, धनबाद से कोई 12-15 किलोमीटर दूर है. झरिया से भी यह दूरी लगभग बराबर है. सुबह पहली मुलाकात मोहन भुइयां से होती है. यहां बसाए गए लोग यहां मिली मूलभूत सुविधाओं से संतुष्ट नहीं नजर आते. वे यहां बसाए जाने का विरोध भी करते हैं. यहां कुल 1,360 परिवार बसाए गए हैं.
मोहन हमें अपने घर ले जाते हैं. वे कहते हैं, ‘देख लीजिए नौ बाई दस का एक कमरा रहने के लिए और 10 बाई छह का यह बरामदा. इसी में पूरी दुनिया सिमट गई है. कहां पति-पत्नी रहें, कहां अपने मां-बाप को कोई रखे और कहां अपने जवान होते बच्चे को. आप बस कमरों को देखकर ही समझ जाइएगा कि हर परिवार का परिवारशास्त्र कैसे गड़बड़ाया हुआ होगा और हर घर में कलह का माहौल रहता है.’ मोहन के घर के पास ही रहने वाले मोहम्मद जफर अली कहते हैं, ‘दावा किया जा रहा है कि यहां झरियावालों को बसाया जा रहा है. दुनिया की सबसे बड़ी पुनर्वास योजना चलाई जा रही है. जाकर पूछिएगा साहब लोगों से कि यहां बसा दिए गए लोगों को क्या अमरत्व मिला हुआ है. क्या वे मरेंगे नहीं और अगर मरेंगे तो चाहे हिंदू हो या मुसलमान उनका अंतिम संस्कार कहां किया जाएगा?’ जफर नाराजगी जताते हुए कहते हैं, ‘अभी कुछ दिन पहले ही यहां तनाव का माहौल था. एक मुस्लिम की मौत हो गई थी. उनके पास इतने पैसे नहीं थे कि वे अपना इलाज करा सकें. चंदे के पैसे से किसी तरह इलाज की कोशिश हुई लेकिन बचाए नहीं जा सके. तनाव इसलिए था क्योंकि यहां हिंदू मरे या मुसलमान, उसके अंतिम संस्कार के लिए कम से कम 25 किलोमीटर दूर जाना होता है. दूसरे गांववाले अपने कब्रिस्तान में या श्मशान का प्रयोग करने नहीं देते हैं. 25 किलोमीटर की यात्रा पैदल नहीं की जा सकती. शव ले जाने के लिए 1,600 रुपये किराया देना होता है. अधिकांश परिवारों के पास इतने पैसे नहीं होते कि वे किसी के मर जाने के बाद 1,600 रुपये किराया देकर अंतिम संस्कार कर सकें.’
जफर के साथ मिले बिजेंदर कहते हैं, ‘हमारे यहां कोई अस्पताल नहीं. बस एक पीएचसी है जो बंद ही रहता है. अगर स्कूल-अस्पताल खुल भी गए तो क्या, हम यहां रहकर करेंगे क्या, यह एक बड़ा सवाल है. हमारे यहां से झरिया जाइए या धनबाद, आने-जाने में 40 रुपये का खर्च है. रोजमर्रा की मजदूरी का काम भी उन्हीं शहरों में मिलना है. यहां से रोज लोग जाते हैं मजदूरी की तलाश में वहां जाते हैं. जिन्हें काम मिल गया, वे तो ठीक, जिन्हें नहीं मिला, उन पर क्या गुजरती होगी, सोच लीजिए. एक तो घर में एक पैसा नहीं होता, ऊपर से मजदूरी के लिए अपना पैसा लगाकर जाना और फिर वहां से भी खाली हाथ लौट आना, कितना पीड़ादायी होता होगा. हम यहां नरक की जिंदगी गुजार रहे हैं.’ मोहन भुइयां, जफर अली, बिजेंदर जैसे कई लोग मिलते हैं. सब अपनी पीड़ा और परेशानी बताते हैं. वे बताते हैं कि उनकी चौथी पीढ़ी यहां रह रही है. गांव छोड़कर बाप-दादा झरिया आकर बस गए थे. अब झरिया से हटा दिया गया. गांव में कोई पूछता नहीं. बाल-बच्चों के साथ यहीं हैं. शादी-ब्याह पर भी आफत है.
‘इहां अउर का धंधा है. दिन-दुपहरिया हो चाहे अधरतिया, साल भर, चौबीसों घंटा इहां एक ही धंधा होता है कोयले का. कोयला ही यहां के लिए सब है’
ये लोग खुद को आवंटित घर दिखाते हैं कि कैसे उन्हें जो घर मिले हैं, उनके टाॅयलेट को उन्होंने एक छोटा रूम बना दिया है ताकि परिवार का कोई एक सदस्य उसमें सो सके. टाॅयलेट के लिए तो फिर भी वैकल्पिक इंतजाम हो सकते हैं. बेलगढ़िया से लौटते समय बड़ा सवाल यही होता है कि जब इतने ही लोगों को अच्छे से नहीं बसाया जा सका तो दुनिया की सबसे बड़ी पुनर्वास योजना सफल कैसे होगी.
बेलगढ़िया में इस तरह आनन-फानन में लोगों को बसाए जाने की भी अपनी कहानी है. झरिया में आग का खेल सौ वर्षों से जारी है. इस पर गंभीरता से पहली बार बात 1997 में शुरू हो सकी थी. वह भी स्वेच्छा से नहीं बल्कि तत्कालीन सांसद हराधन राय की ओर से सुप्रीम कोर्ट में पीआईएल दायर करने के बाद. उसी पीआईएल की सुनवाई करते हुए सुप्रीम कोर्ट ने झरिया की आग को ‘राष्ट्रीय त्रासदी’ घोषित किया और आदेश दिया गया कि लोगों को बसाने के लिए योजना बने और कोर्ट को प्रगति रिपोर्ट भी दी जाए. उस आदेश के बाद ही योजना बन सकी. नतीजा, आनन-फानन में कोरम पूरा करने के लिए बेलगढ़िया बनाया और बसाया जा सका.
सरकार ने आग और भू-धंसान वाले इलाके के लोगों को बसाने के लिए 2004 में झरिया पुनर्वास एवं विकास प्राधिकार (जेआरडीए) का गठन किया. यह जरेडा के नाम से जाना जाता है. जरेडा ने पुनर्वास के लिए 7,112 करोड़ रुपये का मास्टर प्लान तैयार किया है. इसे दो फेज में 2021 तक पूरा किया जाना है. साथ ही आग बुझाने के लिए 23.11 करोड़ रुपये का प्लान अलग से है. जरेडा का सर्वे ही बताता है कि कुल 85 हजार परिवार यानी करीब 4.18 लाख लोग अाग और भू-धंसान वाले इलाके में हैं. इतने लोगों को बसाने का लक्ष्य है, उनमें से अब तक सिर्फ 1360 लोगों को बेलगढ़िया में बसाया जा सका है. बेलगढ़िया से लौटते समय लगता है कि क्या 83,640 परिवारों को भी इसी तरह और ढेर सारे बेलगढ़िया बनाकर बसा दिए जाने की योजना है सरकार की! और फिर सोचकर सिहरन होती है कि 1,360 परिवारों से बसा बेलगढ़िया इस नारकीय स्थिति में है तो फिर जब पूरे के पूरे लोग कई बेलगढ़िया में बसा दिए जाएंगे तो वह पूरा इलाका कैसा होगा. बड़ा सवाल यह भी है कि झरिया काे उजाड़कर क्या और कई बेलगढ़िया बसा पाना संभव हो पाएगा या फिर पुनर्वास की बात तब तक कही जाती रहेगी जब तक खदानों से कोयला निकाल लिए जाने का मामला है. जवाब पेंच दर पेंच फंसता है.
बीसीसीएल के एक अधिकारी नाम न बताने की शर्त पर कहते हैं, ‘सब खेल है. पुनर्वास इतना आसान नहीं. अपनी जमीन पर जो बसे हैं और जो आग वाले इलाके में हैं, वैसे परिवारों की संख्या 29,444 है. बीसीसीएल की जमीन पर जो लोग बसे हैं और आग वाले इलाके में हैं, वैसे परिवारों की संख्या 23,847 है. इस तरह पुनर्वास के लिए कुल 2,730 एकड़ जमीन चाहिए, जबकि बीसीसीएल मात्र 849.68 एकड़ जमीन ही दे सकी है. जरेडा ने भी अब तक सिर्फ 120.82 एकड़ जमीन ही अधिगृहीत की है, यानी अगर बेलगढ़िया की तरह ही जिंदगी और लाखों लोगों को देनी है तो वह सपने जैसा ही है.’
पुनर्वास के बाद का दूसरा सवाल ये उठता है कि क्या आग से शहर को बचा लेना एकदम असंभव-सा था. यह सवाल इसलिए भी था कि अधिकांश लोग ऐसा मानते हैं कि इस आग का फैलाव रोकना संभव था, अगर इच्छाशक्ति होती. भारत के पूर्व राष्ट्रपति डॉ. एपीजे अब्दुल कलाम ने 2002 में झरिया आकर कहा था कि अभी बात बन सकती है, बस कोशिशें तेज हों और सही दिशा में प्रयास हो. लेकिन कलाम की बात भी और पुरानी तमाम बातों की तरह बात बनकर ही रह गई.
‘यह जो उजड़ता हुआ शहर देख रहे हैं, जिसे झरिया कहते हैं, इसी के कारण धनबाद जैसा शहर बस सका. इस शहर ने देश भर के लोगों को रोजगार दिया’
झरिया लौटने पर रहनिहार नवल ओझा से मुलाकात होती है. वे बताते हैं, ‘हम और हमारे लोग पिछले 100 साल से ये आग और लोगों को अपनी जमीन से उखड़कर भटकते हुए देख रहे हैं. यह जो उजड़ता हुआ शहर देख रहे हैं, जिसे झरिया कहते हैं, इसी के कारण धनबाद जैसा शहर बस सका जिसे लघु भारत भी कहते हैं. इस शहर ने देश भर के लोगों को रोजगार दिया. यह कभी रंगीन शहर था. बिहार का पहला सिनेमा हाॅल यहां खुला. इस शहर पर कई लोकगीत रचे गए.’ नवल आगे बताते हैं, ‘1916 में पहली बार भौरा की एक कोयला खदान में आग लगी थी. इसके बाद एक-एक कर नए इलाकों में आग फैलती चली गई. अब 70 जगहों पर आग ही आग नजर आती है. भौरा के बाद 1941 में जोगता में, 1951 में ईस्ट कतरास में, 1952 में नदखुरकी मंें, 1956 में राजापुर में, 1957 में वेस्ट मोदीडीह में, 1965 में जोगीडीह एवं कोयरीडीह में आग लगी.’ वे आगे कहते हैं, ‘जिस वक्त पहली बार आग का पता चला, उस समय तक निजी कंपनियों द्वारा कोयला खनन का चलन था. निजी कंपनियां किसी तरह कोयला चाहती थीं, उन्हें इससे मतलब नहीं था कि कोयला निकाल लेने के बाद इलाका भी बचे तो उसके लिए क्या हो. 1971 में तब आस जगी जब कोयला उद्योग का राष्ट्रीयकरण हुआ. तब लगा कि अब शायद सरकारी तंत्र इस पर ध्यान देगा, गंभीरता से लेगा लेकिन ऐसा नहीं हुआ. या यूं कहिए कि उसके बाद से समस्या और बढ़ती ही चली गई.’
आग को फैलने से रोकने के लिए सबसे पहले 1954 में मेहता कमेटी बनी. उसकी बातों को दफन कर दिया गया. फिर और बातें होती रहीं लेकिन पहली बार उम्मीद तब जगी जब 1978 में झरिया के पुनरुत्थान की एक बड़ी योजना बनी. इस योजना को मूर्त रूप देने के लिए पोलैंड से विशेषज्ञों की टीम आई थी. पुनर्वास के लिए बनी टीम में बीसीसीएल के भी 40 अधिकारी शामिल थे. कोयले के उत्पादन और नए शहर के निर्माण के लिए 20 अरब 85 करोड़ रुपये की लागत वाली इस योजना में सात अरब रुपये सिर्फ सात छोटे शहरों के निर्माण पर खर्च होने वाले थे. योजना के अनुसार उजड़ने वाले लोगों को न्यू झरिया सिटी के तहत झरिया के उत्तरी किनारे, धनबाद के कोयला नगर, भूली नगर, मुनीडीह, बस्ताकोला, राजगंज तथा कुमार मंगलम सिटी के तहत दामोदर नदी के दक्षिण किनारे पर बसाया जाना था. जाहिर-सी बात है कि इस योजना की बातें जब सार्वजनिक तौर पर प्रचारित होनी शुरू हुई थीं तो यह माहौल बना था कि अब सब कुछ ठीक हो जाएगा. लेकिन ऐसा कुछ नहीं हो सका. पोलैंड से आया विशेषज्ञों का दल उसी वर्ष लौट गया. सब ठंडे बस्ते में चला गया. 1983 में इस योजना की लागत बढ़कर 50 अरब 80 करोड़ रुपये हो गई. केंद्र सरकार, राज्य सरकार और बीसीसीएल के बीच इस योजना के कार्यान्वयन को लेकर फिर बातचीत हुई. उस दौरान राज्य सरकार से 25 प्रतिशत और केंद्र सरकार से 50 प्रतिशत धनराशि देने को कहा गया लेकिन दोनों सरकारों ने वित्तीय संकट का सवाल उठा दिया. इसी ऊहापोह में 1985 में योजना की लागत बढ़कर 90 अरब 73 करोड़ रुपये हो गई, जिसमें से सिर्फ पुनर्वास पर 30 अरब रुपये खर्च होते. हालांकि पुनरुत्थान का यह मामला उलझता गया और एक जीवंत शहर किस्तों में मरता रहा.
सच यही है कि इस इलाके में आग फैली थी, अपने स्वाभाविक गुण के कारण. हवा के संपर्क में आने के बाद कोयले का जल उठना स्वाभाविक गुण है लेकिन जमीन के अंदर उसे हवा मिले, वह और जले और फैले, यह सब खुद-ब-खुद नहीं हुआ, ऐसा किया गया. ओझा सवाल उठाते हैं, ‘जाकर पूछिए बीसीसीएल प्रबंधन से कि क्या सच में आग से शहर को नहीं बचाया सकता था. जाकर पूछिए झरिया के नाम पर राजनीति करने वालों से कि क्या सच में वे झरिया को बचाने और लोगों को सही जगह पर बसाने की राजनीति कर रहे हैं.’
ओझा जिन सवालों को छोड़ते हैं, उन्हीं सवालों को लेकर हम धनबाद आते हैं. ऐसा कहा जाता है कि ‘झरिया बचाओ’ की राजनीति करने वाले बड़ी हस्ती बन गए हैं. उनकी राजनीति क्या होती है? जवाब सबके मिलते हैं. कुछ बताते हैं कि सबसे दिलचस्प यह है कि जो झरिया बचाने की राजनीति करते हैं, उनमें से अधिकांश झरिया जाते भी नहीं. रहते भी नहीं. धनबाद रहते हैं. और उसमें भी अधिकांश वैसे हैं, जो जल्दी से जल्दी झरिया को वीरान होते देखना चाहते हैं ताकि कोयला अधिक से अधिक निकल सके. झरिया को उजाड़ने से और आग को फैलाने से ही अरबों का कारोबार होगा, सारा खेला बस यही है.
झरिया वाले जान चुके हैं कि उन्हें अपनी जमीन से उखड़ना होगा. शहर में रहते धुएं और धूल से तमाम किस्म की बीमारियों से गुजरकर मरना होगा
तस्दीक करने पर मालूम होता है कि झरिया के नाम पर ऐसे कई लोग हैं, जो दिन में तो नारे लगाते हैं कि झरिया को बचाना है, दिखावे के लिए यह भी बोलते हैं कि झरिया के लोगों को जहां-तहां नहीं बसाने देंगे लेकिन शाम ढलते ही वे झरिया के वीरानगी में डूबते जाने का जश्न भी मनाते हैं. लोग बताते हैं कि यहां राजनीति के अपने मकसद हैं. कोल माफिया इसलिए पुनर्वास का विरोध कर रहा है कि जब खदानों में बेगारी करने वाले लोगों का पुनर्वास यहां से कहीं और हो जाएगा तो फिर उनके लिए दिन-रात एक कर कोयले की चोरी कौन करेगा. कौन मजदूरी करेगा? जो चुनावी राजनीति में हैं, उनकी चिंता यह है कि झरिया से पूरी आबादी ही चली जाएगी तो फिर वे चुनाव में कैसे जीतेंगे, क्योंकि ये वही मजदूर हैं जो वर्षों पहले बिहार-पूर्वी उत्तर प्रदेश आदि जगहों से लाकर यहां बसाए गए थे ताकि कोयले से कमाई के साथ अपनी राजनीतिक जमीन भी तैयार की जा सके.
अमेरिका की पिट्सबर्ग कंपनी की एक रिपोर्ट के अनुसार, झरिया का इलाका इस कदर खतरनाक मुहाने पर पहुंच चुका है कि अगर दस वर्षों के अंदर इसे खाली नहीं कराया गया तो कभी भी दुनिया की सबसे बड़ी भू-धंसान की घटना घट सकती है. झरिया में रह रहे तमाम लोग इस बात को जानते हैं. उनके अनुसार, यहां धरती का सबसे बेहतर कोयला है और उस कोयले को निकालने के लिए लोगों को यहां से हटाना जरूरी है. लोग सीधे हटेंगे नहीं, इसलिए आग का फैलना जरूरी है. आंकड़े भी बताते हैं कि झरिया की जमीन में दुनिया का बेहतरीन कोयला दबा हुआ है. पिछले सौ सालों में तीन करोड़ 17 लाख टन जलकर राख हो जाने के बावजूद एक अरब 86 करोड़ टन बचा हुआ है.
सवाल अपनी जगह बना रहता है कि क्या वाकई यह आग बुझाई नहीं जा सकती थी या कोई रास्ता नहीं निकल सकता था. इसे विषय पर साउथ ईस्टर्न कोल लिमिटेड के पूर्व कार्यकारी निदेशक एनके सिंह से वर्षों पहले बात हुई थी. इसे लेकर उनका गहरा अध्ययन रहा है. उन्होंने कहा था कि ट्रेंच कटिंग कर आग से निपटने का रास्ता निकाला जाता रहा है. हालांकि यह कोई रास्ता नहीं है, क्योंकि एक ओर ट्रेंच कटिंग होगी तो दूसरी ओर आग बढ़ेगी. यह सही भी है. ट्रेंच कटिंग के अलावा नाइट्रोजन छिड़काव से लेकर दूसरे और कई किस्म के प्रयोग किए जाते रहे हैं. कोई उपाय कारगर नहीं हो सका है. और सवाल यह है कि अब यह आग बुझा पाना क्या संभव या इतना आसान रह गया है. जवाब है नहीं, क्योंकि अब मामला एक जगह आगलगी का नहीं है. देश भर की नौ कोयला कंपनियों के भूमिगत आग वाले 158 क्षेत्रों में से 70 सिर्फ बीसीसीएल के झरिया कोयला क्षेत्र में हैं.
आग के खेल को समझने के लिए जितने लोगों से बात होती है, सब अलग तरीके की बात करते हैं. बीसीसीएल के लोग कहते हैं कि कोयला निकाल लेने से सारा झंझट ही खत्म हो जाएगा लेकिन असल खेल कोयला निकालने का ही है और झरिया के पास जो कोयला है, उस पर बड़ी निगाहें टिकी हुई हैं. जानकार बताते हैं कि देश में घरेलू कोयले का भंडार 93 बिलियन टन है जिसका 13 फीसदी भाग ही कोकिंग कोल है बाकि थर्मल कोल है. इसमें से 28 फीसदी प्राइम कोकिंग कोल और शेष मीडियम कोकिंग कोल है. भारतीय इस्पात उद्योग के विकास में सबसे बड़ी बाधा प्राइम कोकिंग कोल की अनुपलब्धता है. फिलहाल इसका उत्पादन आठ मिलियन टन है जिसे 2024-25 तक 18 मिलियन टन करने का लक्ष्य निर्धारित किया गया है जबकि इस्पात उद्योग की मांग 97 मिलियन टन हो जाएगी.
खुद बीसीसीएल के ही एक अधिकारी बताते हैं कि बीसीसीएल की यह योजना आगे को देखकर ही है. अगर इतने कोयले की मांग पूरी करनी है तो झरिया वालों को अपनी जमीन से उजड़ना ही होगा. लोग हटेंगे तभी खनन होगा. लोग सीधे निकलेंगे नहीं इसलिए आग का फैलता रहना जरूरी है. झरिया के लोग बताते हैं, ‘देखते रहिए कि कैसे लोगों को झरिया छोड़ने पर मजबूर किया जाता है. एक-एक कर सारी सुविधाएं शहर से छीन ली जाएंगी तो तब आज जिद पर अड़े झरिया वाले मजबूरी में यहां से विदा हो जाएंगे.’
झरिया में आग नाम की किताब लिख चुके अमित राजा कहते हैं, ‘पहले रेल को खतरे में बताकर झरिया में रेल परिचालन बंद किया गया लेकिन जैसे ही रेल बंद हुआ दनादन उससे कोयला निकाल लिया गया. बीच-बीच में राष्ट्रीय राजमार्ग पर खतरे की बात कही जा रही है. वहां भी ऐसे ही होगा. सारा खेल कोयले के लिए है. पुनर्वासित करना प्राथमिकता में नहीं, कोयला निकले, बस यही प्राथमिकता है. ये बातें सच लगती हैं. झरिया में घूमते हुए और वहां से बेलगढ़िया में बसा दिए गए लोगों से बात करते हुए साफ होता है कि पुनर्वास करना बीसीसीएल की प्राथमिकता नहीं बल्कि कोयला प्राथमिकता में है.’
बीसीसीएल खनन का अधिकांश काम अब आउटसोर्सिंग के जरिए कर रही है. आउटसोर्सिंग कंपनियों का अपना गणित है. उन्हें किसी भी कीमत पर कोयला चाहिए, अधिक से अधिक कोयला. वे सुलगते कोयले को भी खदान से निकाल लेते हैं. उन्हें कोयले खनन में कोई बाधा नहीं चाहिए इसलिए वे आग के बढ़ते रहने की भी कामना करते हैं ताकि आग का भय हो तो लोग जल्दी भागें अौर अधिक से अधिक खनन हो. झरिया के लोग बताते हैं कि आउटसोर्सिंग कंपनियों में कई कंपनियां ऐसी रही हैं जिसमें प्रमुख के तौर पर बीसीसीएल के वरिष्ठ अधिकारी ही रहे हैं. वे बीसीसीएल से रिटायर होते ही आउटसोर्सिंग कंपनियों के प्रमुख बन जाते रहे हैं. यानी साफ है कि वे अपने पद पर रहते हुए आउटसोर्सिंग कंपनियों को ठेका दिलवाने या दोहन करने की छूट देने में मदद करते रहे हैं या कि खुद ही आउटसोर्सिंग कंपनी में साझेदार बनते रहे हैं, इसलिए रिटायरमेंट के बाद कई अधिकारी कंपनियों में प्रमुख पद पाते रहे हैं. खेल इतना ही नहीं है, आउटसोर्सिंग कंपनियों का चेन फिक्स होता है. बीसीसीएल से लेकर पुलिस और अपराधियों तक से. कोयले में अपराध की मिलावट के बिना काम नहीं होता. और चूंकि पूरा चेन बना होता है इसलिए आउटसोर्सिंग कंपनियां वैज्ञानिक तरीके से खनन नहीं करतीं. वे अपने हिसाब से खदानों में विस्फोट करती हैं और कोयला निकालती हैं. आग न फैले, यह उनके एजेंडे में नहीं होता. हां, यह जरूर एजेंडे में होता है कि आग की वजह से जल्दी से जल्दी ज्यादातर इलाके खाली हों ताकि आगे खाली इलाके में खनन का अधिक से अधिक खेल हो सके.
कोयला खनन और लोगों के पुनर्वास की स्थितियों के संबंध में बात करने पर बीसीसीएल के सीएमडी कार्यालय से संपर्क करने पर जरेडा में बात करने को कहा जाता है. कुल मिलाकर अलग-अलग महकमों पर जिम्मेदारी टाली जाती है. इतनी बड़ी पुनर्वास योजना के लिए पैसे कहां से आएंगे, इसके जवाब में बीसीसीएल का एक पुराना डाटा पकड़ा दिया जाता है, जिसका सार कुछ इस तरह है- बीसीसीएल की होल्डिंग कंपनी कोल इंडिया लिमिटेड गत तीन वर्षों से अपनी लाभजनक इकाइयों से प्रति टन छह रुपये वसूलती है, जिस मद से कार्य को पूरा किया जाएगा. इससे हर साल बीसीसीएल को 400 करोड़ रुपये का कलेक्शन होता है. हर तरह के कोयले (कोकिंग और नाॅन-कोकिंग कोल) पर उत्पाद शुल्क 10 रुपये किया गया है, जो पहले 3.5 रुपये प्रति टन नॉन-कोकिंग और 4.25 रुपये कोकिंग कोल पर था. इससे प्रति वर्ष और 240 करोड़ रुपये जमा होने का अनुमान है. इसी तरह पैसा जमा करके नया झरिया बसा दिया जाएगा.
यह सारा खेल झरिया वाले और बेलगढ़िया वाले जानते हैं. पुनर्वास क्यों और किसलिए यह भी. वे जान चुके हैं कि उन्हें अपनी जमीन से उखड़ना होगा. शहर में रहते धुएं, धूल और गैस की वजह से तमाम किस्म की बीमारियों से गुजरकर मरना होगा या फिर शहर छोड़ देने पर बेलगढ़िया जैसे इलाके में बसकर अवसाद से.