इस देश में सिनेमा का जादू ऐसा है कि कोई भी इससे बच नहीं सकता. फिल्में किसी को कम किसी को ज्यादा लेकिन प्रभावित जरूर करती हैं. सिनेमा का प्रभाव इतना भव्य है कि हर तरह के दर्शक के लिए यहां कुछ न कुछ मिल ही जाता है. दर्शकों पर छाए जादू की वजह से भारतीय सिनेमा सौ बरस से ज्यादा की उम्र पार कर चुका हैै. यह कहानी है ऐसे ही एक दर्शक की जो न सिर्फ सिनेमा से प्रभावित हुआ बल्कि आगे चलकर उसका व्यक्तित्व इतना प्रभावशाली हो गया कि भारतीय सिनेमा भी उससे प्रभावित हुए बिना न रह सका.
सिनेमा और उसके इस खास दर्शक की प्रेम कहानी की शुरुआत 40 के दशक में होती है. केरल की राजधानी तिरुवनंतपुरम में उस वक्त गिनती के सिनेमाघर हुआ करते थे और जो सिनेमाघर थे भी उन तक बिना अभिभावकों की इजाजत के बच्चों की पहुंच मुश्किल थी. उस जमाने में टेंट में अस्थायी तौर पर विकसित किए गए एक सिनेमाघर में सात से आठ साल का एक लड़का रेत पर बैठकर के. सुब्रमण्यम की कोई धार्मिक फिल्म देख रहा होता है. सिनेमा के साथ अपने पहले ही अनुभव में वह लड़का उसे अपना दिल दे बैठता है और उसकी आगे की जिंदगी भारतीय सिनेमा के नाम हो जाती है.
सिनेमा को इस जुनूनी अंदाज में चाहने वाले शख्स का नाम है परमेश कृष्णन नायर, जिन्हें फिल्म इंडस्ट्री में पीके नायर के नाम से जाना-पहचाना जाता है. तिरुवनंतपुरम में जन्मे नायर साहब को बचपन से ही सिनेमा के टिकट जमा करने का शौक था. इसके अलावा आपने विभिन्न रेलवे स्टेशनों पर अब ‘विलुप्तप्राय’ की श्रेणी में आ चुकी वजन नापने की मशीन तो देखी ही होगी, जिसमें सिक्का डालने पर एक टिकट निकलता था, जिसके एक तरफ वजन की जानकारी और दूसरी तरफ किसी अभिनेता और अभिनेत्री की तस्वीर के साथ आपके लिए शुभकामना संदेश होता था. उस वक्त नायर साहब की चिंता अपने वजन से ज्यादा टिकट के दूसरी ओर प्रकाशित कलाकार की तस्वीर की और उसे अपने संग्रह में जमा करने की होती थी. किसी चीज को संजोने और संवारने का उनका शौक ताजिंदगी बना रहा. फिल्में देखते हुए वे बड़े हुए और फिल्म बनाने का सपना उनकी आंखों में पलने लगा.
1953 में केरल विश्वविद्यालय से विज्ञान में स्नातक होने के बाद फिल्म निर्माण में अपना भविष्य बनाने के लिए 1958 में उन्होंने मुंबई का रुख किया था. उस जमाने में इस तरह के शौक और सपनों के लिए परिवार में कोई जगह नहीं होती थी. ऐसे सपनों को किस नजर से देखा जाता था यह बताने की जरूरत नहीं. सो, तब के बंबई पहुंचने का उनका सफर परिवारवालों की सहमति के बिना ही पूरा हुआ. मुंबई पहुंचने के बाद उन्हें बिमल रॉय, ऋषिकेश मुखर्जी और महबूब खान का साथ मिला. भारतीय सिनेमा को दिशा देने वाली इन महान शख्सियतों के बीच कुछ समय तक फिल्म निर्माण के गुर सीखने के बाद उन्हें एहसास हुआ कि उनमें फिल्म निर्माण के लिए जरूरी योग्यता नहीं है. इसके बाद सिनेमा से जुड़े अपने शौक पर ध्यान केंद्रित करते हुए उन्होंने फिल्म से जुड़ी किसी तरह की शिक्षा लेने की सोची.
सेल्यूलॉयड मैन, सिनेमाई एनसाइक्लोपीडिया जैसे उपनामों से मशहूर पीके नायर एक ऐसे व्यक्ति थे जिन्होंने अपने काम को वास्तव में जिया
अब जरा सोचिए, भारतीय सिनेमा के ‘मूक युग’ (1899-1930) के दौरान तकरीबन 1700 फिल्में बनाई गई थीं, जिनमें से सिर्फ नौ फिल्में आज देखने के लिए उपलब्ध हैं. ऐसा इसलिए हुआ कि उस जमाने में फिल्मों को सहेजने का कोई ‘बैंक’ नहीं हुआ करता था और न ही इस तरफ किसी ने कभी विचार ही किया. गिनती की ये मूक फिल्में उस ‘बैंक’ की वजह से बच गईं जिसे नेशनल फिल्म आर्काइव ऑफ इंडिया यानी राष्ट्रीय फिल्म संग्रहालय के नाम से जाना जाता है, जिसकी नींव पीके नायर ने पुणे में रखी थी.
मुंबई में फिल्म निर्माण की विधा से मन उचटने के बाद उन्होंने पुणे स्थित फिल्म ऐंड टेलीविजन इंस्टिट्यूट ऑफ इंडिया (एफटीआईआई) का रुख किया. वर्ष 1961 में वे बतौर शोध सहायक इस संस्थान से जुड़े. यहां उन्हें वह लक्ष्य मिल गया जिसकी वजह से भारतीय सिनेमा की तमाम क्लासिक फिल्मों को बचाया जा सका. एफटीआईआई से जुड़ने के बाद ही उन्हें लगा कि एक स्वायत्त संस्थान होना चाहिए जहां फिल्मों का संग्रह किया जा सके. एफटीआईआई में काम के दौरान उन्होंने इसके लिए अथक प्रयास करने शुरू कर दिए, जिसके बाद एफटीआईआई परिसर में ही 1964 में राष्ट्रीय फिल्म संग्रहालय अस्तित्व में आ सका. 1965 में उन्हें इस संग्रहालय का सहायक निरीक्षक बनाया गया और फिर वे इसके पहले निदेशक बनाए गए. 1991 में रिटायर होने तक वे संग्रहालय के निदेशक रहे.
बीते चार मार्च को पीके नायर ने जब इस दुनिया को अलविदा कह दिया तो यह खबर अखबारों के पिछले पन्नों में दबकर रह गई. सोशल मीडिया पर उनके लिए ‘आरआईपी’ (रेस्ट इन पीस) लिखने वाले भी न के बराबर नजर आए और बजट सत्र की बहस के बीच देश के राजनीतिज्ञों को उनके जाने की भनक भी नहीं लग पाई!
जिन दादा साहब फाल्के को हम भारतीय सिनेमा के जनक के तौर पर जानते हैं और जिन्होंने 1913 में भारत की पहली फिल्म ‘राजा हरिश्चंद्र’ बनाई, उनसे पहचान करवाने की वजह नायर साहब और राष्ट्रीय फिल्म संग्रहालय ही बने. उन्हें जानने वाले बताते हैं कि ‘पाथेर पांचाली’ से लेकर ‘मुगल-ए-आजम’ तक उन्हें अधिकांश फिल्मों के सीन दर सीन जबानी याद थे. यह कुछ ऐसा था जैसे कोई अंधा व्यक्ति कोई चीज छूकर उसकी पहचान कर लेता था, ठीक वैसे ही नायर साहब सिर्फ फिल्म की रील छूकर बता देते थे कि उसमें कौन-सा सीन दर्ज है. उनकी याददाश्त फिल्मों के प्रति उनके सच्चे लगाव को दर्शाती थी.
रिटायर होने तक अपने 26 साल के कार्यकाल में फिल्म आर्किविस्ट नायर ने तकरीबन 12 हजार फिल्मों का संग्रह किया. इनमें से आठ हजार भारतीय और बाकी विदेशी भाषा की फिल्में हैं. फिल्मों की रील जमा करने के लिए उन्होंने भारत के सुदूर इलाकों की यात्राएं कीं. उन्होंने हर उस फिल्म को संग्रहित करने की कोशिश की, जिसे संग्रहीत करने की जरूरत थी या उन्हें मौका मिला. फिर वह चाहे विश्व सिनेमा हो, हिंदी की कोई फिल्म या फिर क्षेत्रीय सिनेमा, राष्ट्रीय फिल्म संग्रहालय में हर तरह की फिल्मों का संग्रह मौजूद है. यहां तक कि वे विश्व सिनेमा को गांवों तक भी ले जाने के लिए प्रयासरत रहे.
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सेल्यूलॉयड मैन
पीके नायर की जिंदगी और उनके काम पर आधारित शिवेंद्र सिंह डूंगरपुर की डॉक्यूमेंट्री ‘सेल्यूलॉयड मैन’ साल 2013 में तीन मई को रिलीज हुई थी. संयोग से यह ठीक वही समय था जब भारतीय सिनेमा ने अपनी यात्रा के सौ बरस पूरे किए थे. हालांकि सिनेमा के सौ बरस पूरे होने पर खास तौर से बनाई गई फिल्म ‘बॉम्बे टॉकीज’ की चर्चा के आगे यह फिल्म कहीं खो-सी गई थी, लेकिन 60वें राष्ट्रीय फिल्म महोत्सव में इस फिल्म ने जोरदार धमक दिखाते हुए दो पुरस्कार अपने नाम किए. इसे बेस्ट एडिटिंग और बेस्ट बायोग्राफिकल ऐंड हिस्टोरिकल रिकंस्ट्रक्शन का राष्ट्रीय पुरस्कार मिला. इस फिल्म को तकरीबन 50 फिल्म महोत्सवों में प्रदर्शित किया गया. कुछ ही भारतीय फिल्मों के साथ ऐसा हो पाता है कि वे इतने फिल्म महोत्सवों में प्रदर्शन के लिए चुनी जाएं. इसमें उन फिल्मकारों और शख्सियतों के इंटरव्यू दिखाए गए हैं जो किसी न किसी रूप से पीके नायर से प्रभावित थे. इसमें गुलजार, बासु चटर्जी, नसीरुद्दीन शाह, कमल हासन, जया बच्चन, दिलीप कुमार, सायरा बानो, सितारा देवी, संतोष सीवन, राजकुमार हिरानी, श्याम बेनेगल, महेश भट्ट, रमेश सिप्पी, यश चोपड़ा, मृणाल सेन आदि की बातचीत शामिल की गई. इसके अलावा इस डॉक्यूमेंट्री में भारतीय सिनेमा की शुरुआत की कुछ मास्टरपीस फिल्मों के फुटेज भी दिखाए गए हैं.
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उन पर बनी डॉक्यूमेंट्री ‘सेल्यूलॉयड मैन’ बनाने वाले उनके शिष्य शिवेंद्र सिंह डूंगरपुर ऑनलाइन डेली ‘द सिटीजन’ से बातचीत में बताते हैं, ‘थियेटर के अंधेरे में नायर साहब का साया मुझे याद आता है. देर रात तक सिनेमा देखते हुए, फिर रुक-रुककर पॉकेट टॉर्च की रोशनी में अपनी छोटी-सी डायरी में उसके बारे में महत्वपूर्ण जानकारियां लिखते हुए, बीच-बीच में प्रोजेक्शनिस्ट पर चिल्लाते और हमेशा कोई न कोई फिल्म देखते हुए. हमें उनसे थोड़ा डर भी लगता था. किसी फिल्म को देखने का आग्रह करने के लिए उनके ऑफिस में बनी लकड़ी की सीढ़ियां चढ़ते हुए हमें काफी साहस जुटाना पड़ता था. अब तक मेरे लिए वही एकमात्र व्यक्ति थे जो ये बता सकते थे कि फिल्म की किस रील में कौन-सा सीन मिल सकता है.’ वे आगे कहते हैं, ‘नायर साहब कभी भी खुद पर फिल्म बनाने के पक्ष में नहीं रहे. जब मैंने उन पर फिल्म बनाने की बात कही तो उन्होंने कहा कि अगर यह फिल्म संग्रह करने को लेकर होगी तभी वे उसका हिस्सा बन सकते हैं. डॉक्यूमेंट्री की शूटिंग के समय मैंने कभी भी उनसे नहीं कहा कि ये उनके काम पर आधारित है. जब भी हम उनके पास कुछ शूट करने के लिए पहुंचते तो वे कहा करते कि मेरे बारे में इतना कुछ क्यों शूट कर रहे हो. डॉक्यूमेंट्री बनने के बाद ही उन्हें इस बात का एहसास हो सका कि वह किस पर बनी है.’
बंगलुरु इंटरनेशनल फिल्म फेस्टिवल के एग्जिक्यूटिव आर्टिस्टिक डायरेक्टर विद्याशंकर कहते हैं, ‘भारतीय सांस्कृतिक परंपरा में दस्तावेजीकरण और संग्रह की स्थिति बहुत मजबूत नहीं है. सिनेमा भी इससे अछूता नहीं है. इस कमजोरी को पीके नायर ने चुनौती दी और अपनी प्रतिबद्धता और कठिन परिश्रम के दम पर उन्होंने स्थिति को अपवाद साबित कर दिया. अगर उन्होंने ऐसी प्रतिबद्धता नहीं दिखाई होती तो मेरी पीढ़ी के तमाम लोग सिनेमा से तमाम महान कार्यों को देख-समझ नहीं पाते.’
सेल्यूलॉयड मैन, भारतीय सिनेमा के अभिभावक, सिनेमाई एनसाइक्लोपीडिया जैसे उपनामों से मशहूर पीके नायर एक ऐसे व्यक्ति थे जिन्होंने अपने काम को वास्तव में जिया. जब तक रहे, सिनेमा को समृद्ध और विभिन्न फिल्मों की रील संग्रह करने का काम करते रहे. उनके काम को उनके द्वारा संग्रहीत की गईं फिल्मों की संख्या से नहीं आंका जा सकता. उनके काम से कई पीढ़ियां प्रभावित हुईं. खास तौर से मणि कौल, अदूर गोपालकृष्णन, केतन मेहता, सईद अख्तर मिर्जा, जाहनू बरुआ, गिरीश कसरावल्ली, जॉन एब्राहम (निर्देशक), विधु विनोद चोपड़ा और कुंदन शाह. उनके जाने के बाद शायद ही कोई दूसरा पीके नायर हो सके और सिनेमा के अलावा शायद ही किसी को उनके जाने का फर्क पड़े, लेकिन हमें इस बात को समझना चाहिए कि भारतीय सिनेमा को एक और ‘नायर साहब’ की जरूरत अब आन पड़ी है.