पूर्व सैन्य कमांडरों ने पहलगाम में हुए हालिया आतंकवादी हमले का कारण ख़ुफ़िया जानकारी और सुरक्षा तैयारियों में भारी विफलता बताया है। जम्मू-कश्मीर में पाकिस्तान प्रायोजित आतंकवाद एक चिन्ताजनक रूप से परिचित पैटर्न का अनुसरण करता है; लेकिन बैसरन में हमला एक ख़तरनाक इरादे का प्रतिनिधित्व करता है। इससे कई गंभीर प्रश्न उठते हैं; ऐसे संवेदनशील क्षेत्र में सेना क्यों नहीं तैनात की गयी? ख़ुफ़िया एजेंसियाँ क्या कर रही थीं? आतंकवादी इतनी आसानी से हमारे सुरक्षा तंत्र में सेंध लगाने में कामयाब कैसे हो गये?
मोदी सरकार ने अनुच्छेद-370 को निरस्त करने के बाद से अपनी पीठ थपथपायी है और अब कश्मीर में इस कहानी को नया रूप देने की कोशिश की है। लेकिन यह हमला, जिसकी ज़िम्मेदारी प्रतिबंधित लश्कर-ए-तैयबा के प्रतिनिधि ‘द रेजिस्टेंस फ्रंट’ ने ली है; एक कड़वी सच्चाई को रेखांकित करता है। यह महज़ संयोग नहीं है; क्योंकि यह नरसंहार अमेरिका द्वारा 26/11 के आरोपी तहव्वुर राणा के प्रत्यर्पण को मंज़ूरी दिये जाने के कुछ ही समय बाद हुआ। वह भी ऐसे समय में, जब पाकिस्तान में अशान्ति बढ़ रही है। वहाँ बलूच विद्रोह तेज़ हो रहा है और सेना प्रमुख जनरल असीम मुनीर भारत-विरोधी बयानबाज़ी कर रहे हैं। पहलगाम, जो अपेक्षाकृत सुरक्षित माना जाता है और जिसके बारे में कोई पूर्व ख़ुफ़िया चेतावनी नहीं थी; में हुए हमले की निर्लज्जता ने जनता के ग़ुस्से को फिर से भड़का दिया है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का अपनी विदेश यात्रा को छोटा करने का निर्णय और गृह मंत्री अमित शाह का घायलों से मिलने जाना स्थिति की गंभीरता को रेखांकित करता है।
इस बीच पाकिस्तान के प्रधानमंत्री शहबाज़ शरीफ़ ने हमले की एक तटस्थ, पारदर्शी और विश्वसनीय जाँच का प्रस्ताव दिया है। हालाँकि यह एक खोखला प्रस्ताव है; क्योंकि इस्लामाबाद ने उरी और पुलवामा से सम्बन्धित जाँचों सहित पिछली कई जाँचों में भारत के साथ सहयोग करने से लगातार इनकार किया है। यह कूटनीति और छल के बीच एक स्पष्ट रेखा है। इस त्रासदी के बाद चीन की चुप्पी, विशेष रूप से भारत और अमेरिका के बीच बढ़ती नज़दीकियों के बीच बहुत कुछ कह रही है। बीजिंग ने अभी तक इस हमले की निंदा नहीं की है। यद्यपि भारत अक्सर बड़े आतंकवादी हमलों का जवाब कूटनीतिक तरीक़े से सुरक्षा उपायों के साथ देता है; लेकिन पूर्ण पैमाने पर सैन्य जवाबी कार्रवाई शायद ही कभी की जाती है। आतंकवाद में पाकिस्तान की राज्य सहभागिता इस्लामाबाद पर एकीकृत अंतरराष्ट्रीय दबाव की माँग करती है। फिर भी दु:ख की घड़ी के बीच बैसरन का संदेश एक नये अध्याय की शुरुआत का संकेत हो सकता है। जैसा कि वरिष्ठ पत्रकार राकेश रॉकी ने अपनी आवरण कथा- ‘आत्मघाती चूक’ में कहा है। हालाँकि हमले की निराशा के बीच लचीलेपन और आशा की झलकियाँ भी हैं। हमले के ठीक एक सप्ताह बाद पर्यटक, जिनमें विदेशी भी शामिल हैं; एक बार फिर श्रीनगर की डल झील पर शिकारा की सवारी का आनंद ले रहे हैं और सोशल मीडिया पर शान्तिपूर्ण दृश्य साझा कर रहे हैं। सामान्य स्थिति की ओर यह तीव्र वापसी कश्मीर की शान्ति और स्थिरता की गहरी चाहत को उजागर करती है।
कश्मीरी लोग इस अत्याचार की निंदा करने के लिए एकजुट हैं; उमर अब्दुल्ला जैसे राजनीतिक नेताओं से लेकर सैयद आदिल हुसैन शाह के परिवार तक, जो एक बहादुर टट्टू सवार था, जिसने बहादुरी से एक आतंकवादी से हथियार छीनने की कोशिश की थी और आतंकियों की गोलियों का निशाना बना। पाकिस्तान के लिए जम्मू-कश्मीर के निवासियों का संदेश स्पष्ट है- बाहर रहो। कश्मीर को ठीक होने दो और आगे का रास्ता तय करने दो। इस अंतहीन संघर्ष के सबसे मार्मिक परिणामों में से एक सीमा-पार विवाहों से पैदा हुए बच्चों की दुर्दशा है, जो किसी निर्जन क्षेत्र में पहचान, राजनीति और दर्द के बीच फँसे हुए हैं। कश्मीर के लोग शोक मना रहे हैं; लेकिन वे स्पष्टता, साहस और करुणा के साथ अपनी बात भी कह रहे हैं। शायद यही पहलगाम का असली संदेश है।