पर्दे के हीरो धर्मेंद्र असली जिंदगी के बड़े नायक हैं

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बचपन से ही मैं सदाबहार अभिनेता धर्मेंद्र की ओर आकर्षित रहा. जब मैंने फिल्म देखनी शुरू की थी तब मेरी उम्र कोई आठ-नौ साल की रही होगी पर सचेत मन की पहली फिल्म ‘सत्यकाम’ थी जिसने मेरे मन-मस्तिष्क पर गहरी छाप छोड़ी. पिता आदिम जाति कल्याण विभाग में काम करते थे. भोपाल में पुराना सचिवालय स्थित उनके ऑफिस में 16 एमएम का एक प्रोजेक्टर हुआ करता था जिसे रमेश चाचा ऑपरेट किया करते थे. हर शनिवार को वे वहां फिल्में दिखाते थे. वहीं ‘सत्यकाम’ देखी. फिल्म का नायक मन में बहुत गहरे उतर गया. आकर्षण इस कदर बढ़ता गया कि युवा होते-होते उनकी हर फिल्म देखना अनिवार्यता-सी बात बन गई थी.

फिल्मों पर लिखते-लिखते मैं मुंबई के संपर्क में आ गया. कलाकार का पीआर का काम देखनेवाले टेलीफोन पर भी इंटरव्यू करा दिया करते थे. मैंने मुंबई जाकर कलाकारों से मिलना-जुलना शुरू कर दिया था. शुरूआती दौर में सितारों से मिलना बहुत रोमांचित करता लेकिन फिर धीरे-धीरे सब सहज होता गया.

धर्मेंद्र से मुलाकात हो जाए, इसके लिए मैं प्रयासरत रहा. लेकिन उनसे मुलाकात इतना आसान कहां था? धर्मेंद्र पर लिखी गई टिप्पणी कहीं किसी पत्र-पत्रिका में प्रकाशित होती तो मैं उसकी कतरने उनके पते पर भिजवा देता. ऐसा करते हुए मेरे मन के किसी कोने में यह बात जरूर होती कि कभी उनका जवाब जरूर आएगा. पर ऐसा कभी नहीं हुआ. उनकी एक्शन फिल्मों का असर मुझपर कई-कई दिनों तक बना रहता. गंजे खलनायक शेट्टी से उनकी मुठभेड़ बहुत रोमांचित करती थी. उनकी फिल्में आंखें, फागुन, आदमी और इंसान, इज्जत, अनुपमा, बंदिनी, नीला आकाश, चुपके-चुपके, गुड्डी से लेकर गुलामी तक जाने कितनी बार देखी कि वे आज भी अपने दिल की हार्ड डिस्क में सुरक्षित हैं.

‘गजक खाकर उन्होंने कहा बहुत स्वादिष्ट है. जब भी आना मेरे लिए लेकर आना. इतने बड़े इंसान का ऐसा कहना हमें सजल कर गया’

खैर, कई सालों के जतन के बाद सिनेमा से ही जुड़े एक मित्र ने बड़ी मिन्नतों के बाद जन्मदिन के मौके पर उनसे मेरी बात कराई. फोन पर मैंने जैसे ही अपना नाम कहा तो उन्होंने कहा कि कैसे हो सुनील? मेरे गले में शब्द फंस से गए. मैंने हकबकाते हुए उन्हें बधाई दी. यह सिलसिला चल निकला.

दो-तीन साल बाद उनसे साक्षात्कार का मौका मिला. सर्दियों का मौसम था लेकिन हथेलियां रोमांच की वजह से पसीने से गीली हो रही थीं. उनके सहायक ने मुझे एक हॉल में बिठाया और मुझसे इंतजार करने को कहा. मैं धर्मेंद्र के लिए भोपाल से ग्वालियर की गुड़ की गजक लेकर गया था. मेरे साथ मेरे गुरु स्वर्गीय श्रीराम ताम्रकर भी थे. वे भी उनसे पहली बार मिल रहे थे. इंतजार करते हुए मैं हॉल में लगी उनकी मोहक तस्वीरें देखता रहा. इस हॉल में शराफत, राजा जानी, जुगनू, शोले, राम बलराम, हुकूमत आदि की ट्राफियां खूबसूरती से लगी हुई थीं.

मेरे लगभग खोए हुए इस आलम में वे अचानक से हॉल में आ धमके. हम उठकर खड़े हो गए. उन्होंने मुझे गले से लगा लिया. उन्होंने बैठते ही चाय तथा कुछ खाने का आदेश दिया. हम दोनों का परिचय पूछा. हमने बातचीत की आकांक्षा बताई तो उन्होंने प्यार से कहा, पूछो क्या पूछना है. अबतक हम सहज हो चुके थे. बातचीत शाम साढ़े छह बजे शुरू हुई तो सवा नौ बजे तक चलती रही. बातचीत के दौरान गजक का डिब्बा खोल उनकी ओर बढ़ाया और कहा, पापा जी ये सुदामा के चावल की       तरह हैं. आप ग्रहण करें तो गर्मजोशी से उन्होंने मेरा हाथ पकड़ लिया. कहने लगे, अरे ऐसा क्यों कहते हो? गजक खाकर उन्होंने कहा बहुत स्वादिष्ट है. मेरे लिए हमेशा  लाना. इतने बड़े इंसान का ऐसा कहना हमें सजल कर गया. मैं पूछता रहा और वे जबाव देते रहे.

धरमजी से अब तक कितनी ही मुलाकातें हुई हैं. वे बहुत भावुक, संवेदनशील और उदार हृदय के व्यक्ति हैं. उनके व्यक्तित्व में जरा-सी भी जटिलता या बनावटीपन नहीं है. सिनेमा में अपने अलग-अलग किरदारों के माध्यम से समृद्ध हुई उनकी छवि में आप एक ऐसे इंसान को देखते हैं जो अपने ही संसार के दूसरे सभी लोगों से अलहदा हैं. पर्दे के हीरो धर्मेंद्र यथार्थ की दुनिया के भी बड़े नायक हैं.

(लेखक फिल्म समीक्षक हैं और भोपाल में रहते हैं)