युद्ध-विराम पर सवाल

हथियारों की होड़ में भविष्य के विकराल ख़तरों के बीच अस्थायी शान्ति

इंट्रो- इजरायल और ईरान के बीच शुरू हुआ युद्ध ईरान के परमाणु ठिकानों पर अमेरिका के हमले और उसके बाद क़तर स्थित अमेरिकी एयरबेस पर ईरानी हमले के कुछ ही घंटे बाद युद्धविराम में बदल गया। लगभग यही कुछ मई में भारत और पाकिस्तान के बीच तीन दिन के मिसाइल हमलों के बाद हुआ था। युद्धविराम से इतना तो तय हो गया कि मासूम लोग मरने से बच गये। यह जंग इतनी तेज़ी से फैली कि एक समय ऐसा लगा कि अब शायद तीसरा विश्व युद्ध होने ही वाला है। लेकिन युद्धों के घटनाक्रम यह सवाल खड़े कर रहे हैं कि इनका वास्तविक उद्देश्य क्या था? बता रहे हैं वरिष्ठ पत्रकार राकेश रॉकी :

क्या अमेरिका की एजेंसियों ने यह बात स्वीकार कर ली है कि 23 जून की आधी रात को जब उनके देश ने ईरान के फोर्दो, नतांज़ और इस्फ़हान स्थित परमाणु ठिकानों पर अपने ख़तरनाक बी-2 स्टील्थ बॉम्बर्स से हमला किया, उससे पहले ही ईरान ने अपना 400 किलो संवर्धित यूरेनियम वहाँ से हटा लिया था? बहुत चर्चा है कि सीआईए ने माना है कि अमेरिकी हमले में नुक़सान हुआ; लेकिन इतना नहीं कि ईरान का परमाणु कार्यक्रम ही रुक जाए। हमले के बाद राष्ट्रपति डोनल्ड ट्रंप ने दावा किया था कि हमले में सब कुछ तबाह कर दिया गया है। लेकिन अमेरिका के उप राष्ट्रपति जे.डी. वेंस ने ही नहीं अंतरराष्ट्रीय परमाणु ऊर्जा एजेंसी (आईएईए) के प्रमुख राफेल मारियानो ग्रॉसी ने भी कमोबेश यह स्वीकार कर लिया है कि कुछ महत्त्वपूर्ण चीज़ ग़ायब है। उनका इशारा ईरान के यूरेनियम को लेकर है। नयी ख़बर यह है कि अमेरिकी के राष्ट्रपति डॉनल्ड ट्रंप ने कुछ दिन के भीतर ईरान के साथ बातचीत करने वाले हैं और ख़ुद उन्होंने हेग में नाटो शिखर सम्मेलन में यह बात कही है।


ईरान-इजरायल युद्ध पर भले विराम लग गया है; लेकिन यह स्थायी महसूस नहीं होता। इस युद्ध-विराम का यह लाभ ज़रूर हुआ है कि मिसाइलों की मार से बेक़सूर लोगों की मौतों का सिलसिला थम गया है। लेकिन इजरायल की कसक अधूरी रह गयी है, जिसका युद्ध के पीछे असल मक़सद ईरान के धार्मिक नेता अयातुल्लाह ख़ामेनेई की हत्या करना था। ईरान ने इजरायल पर इस युद्ध में जैसे वार किये उसने एक मौक़े पर इजरायल के सामने अस्तित्व का संकट खड़ा कर दिया। बहुत से जानकार मानते हैं कि छोटे युद्धों के अभ्यासी इजरायल के साथ यदि अमेरिका की ताक़त न होती, तो उसके लिए स्थिति गंभीर हो जाती। वह किसी भी सूरत में ईरान के साथ लम्बी जंग नहीं लड़ पाता। ऐसे में ताक़त जुटाकर इजरायल भविष्य में ईरान के साथ फिर तनाव पैदा करेगा, इसकी बहुत ज़्यादा आशंका है। बेशक अमेरिका नहीं चाहता कि इजरायल कुछ भी उसकी मर्ज़ी से बाहर जाकर करे, जानकारों का मानना है कि इजरायल के नेता बेंजामिन नेतन्याहू जिस ज़िद्दी प्रकृति के नेता हैं, संभवत: वह लम्बे समय तक चुप नहीं बैठेंगे। अमेरिका ने हाल के युद्ध के बाद इजरायल को भी फटकार लगायी थी।
बहुत से स्रोतों से अब यह साफ़ हो गया है कि अमेरिका का फोर्दो में हमले से ईरान के परमाणु कार्यक्रम को नुक़सान तो पहुँचा; लेकिन इतना नहीं कि उसका परमाणु कार्यक्रम ही ठप्प पड़ जाए। बहुत दिलचस्प बात है कि फोर्दो सहित तीन परमाणु ठिकानों पर हमले से पहले अमेरिका ने ईरान को इसकी जानकारी दे दी थी। सेटेलाइट तस्वीरों से यह सामने आया है कि इस हमले से चार दिन पहले ईरान के परमाणु ठिकानों पर ट्रकों की लम्बी क़तार लगी थी। यह माना गया है कि हमले से पहले ही ईरान अपना 400 किलो संवर्धित यूरेनियम सुरक्षित जगह ले गया था।


एक और दिलचस्प बात यह है कि इस हमले के बाद जब ईरान ने क़तर स्थित अमेरिका के एयरबेस पर हमला किया, तो उसने भी अमेरिका को इसकी पूर्व जानकारी दे दी थी। सवाल खड़े हो रहे हैं कि क्या अमेरिका और ईरान के बीच किसी तरह का कोइ समझौता था, जिसकी जानकारी इजरायल और बाक़ी दुनिया को नहीं है? और समझौता थास तो यह क्या था?
अब यह जानकारी सामने आ रही है कि अमेरिका की ख़ुफ़िया एजेंसी सीआईए को भी आशंका है कि ईरान ने अपना 400 किलोग्राम यूरेनियम सुरक्षित बचा लिया है। ईरान की अभी की ताक़त को लेकर विशेषज्ञों की राय है कि उसके पास आठ से नौ परमाणु बम बनाने की क्षमता है। हालाँकि हाल के युद्ध से उसकी योजना को झटका लगा है और इसमें अब समय लग सकता है। ईरान ने बार-बार दावा किया है कि युद्ध में उसकी परमाणु संरचना को कुछ नुक़सान तो हुआ है; लेकिन ज़्यादा नहीं और वह अपना परमाणु कार्यक्रम जारी रखेगा। अमेरिका के वरिष्ठ अधिकारियों ने स्वीकार किया है कि उन्हें नहीं पता कि ईरान के बम-ग्रेड यूरेनियम के भंडार का क्या हुआ? इससे साफ़ ज़ाहिर हो जाता है कि ईरान का दावा सही है।
विशेषज्ञों के मुताबिक, युद्ध में ईरान के परमाणु उपकरणों को ज़रूर ज़्यादा नुक़सान हुआ है साथ ही उसके कई बड़े वैज्ञानिक मरे गये हैं। इसका दावा इजरायल ने कई बार किया है। बेशक स्थिति अभी अस्पष्ट है; लेकिन इजरायल की जासूसी एजेंसी मोसाद को लेकर कहा जाता है कि उसने ईरान के परमाणु वैज्ञानिकों को लेकर काफ़ी जानकारियाँ जुटा ली थीं। ईरान ने युद्ध के बीच और बाद में भी कहा है कि इस दौरान उसने इजरायल के क़रीब दो दज़र्न जासूसों को फाँसी पर लटकाया है। इजराइल के ईरान के ख़िलाफ़ ऑपरेशन राइजिंग सन को लेकर उसकी महिला जासूस फ्रांस मूल की कैथरीन पेरेज शेकेड का नाम भी बहुत चर्चा में रहा, जिसने ईरान की जानकारियाँ जुटाने में बड़ी अहम भूमिका निभायी।
ईरान-इजरायल के बीच युद्ध-विराम के एक हफ़्ते बाद नाटो के हेग शिखर सम्मलेन में राष्ट्रपति डॉनल्ड ट्रंप ने कहा है कि वह अगले हफ़्ते ईरान से बातचीत करने वाले हैं। यह बातचीत किन मुद्दों पर होगी, इसे लेकर कोई ख़ुलासा अभी नहीं हुआ है। यह भी साफ़ नहीं है कि यह किस स्तर पर होगी अर्थात् क्या मंत्री इसमें हिस्सा लेंगे? लेकिन ट्रंप का यह ख़ुलासा बहुत महत्त्वपूर्ण है। देखना बहुत दिलचस्प होगा कि दोनों में क्या बातचीत होती है। हालाँकि यह साफ़ है कि दोनों पक्षों के बीच शान्ति वार्ता में तेहरान के बम-ग्रेड यूरेनियम पर अवश्य चर्चा होगी और इसे लेकर अमेरिका कुछ ठोस जवाब ईरान से चाहेगा। उपराष्ट्रपति जे.डी. वेन्स यह इशारा कर चुके हैं कि आने वाले दिनों में हम यह सुनिश्चित करने के लिए काम करने जा रहे हैं कि हम उस ईंधन के साथ कुछ करें और ईरान से इसे लेकर बात करें।
कैसे हुआ युद्ध विराम?

यह एक रहस्य है कि अचानक अमेरिका-इजरायल और ईरान युद्ध-विराम के लिए तैयार हुए। इसकी पहल आख़िर किसकी तरफ़ से हुई। भयंकर मिसाइल हमलों के बाद अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप, जो इन दिनों इस चर्चा के केंद्र में हैं कि वह शान्ति के लिए नोबेल पुरुस्कार की कोशिश में हैं; से युद्ध-विराम की पहल किसने की। या इजरायल की ख़राब होती स्थिति से उसे बचाने के लिए ख़ुद ट्रंप को यह करना पड़ा? जानकारी बताती है कि क़तर ने युद्ध-विराम की बातचीत में अहम भूमिका निभायी। ट्रंप ने इजरायली प्रधानमंत्री बेंजामिन नेतन्याहू से बात की।
उधर ईरान से बातचीत का ज़िम्मा उपराष्ट्रपति जेडी वेंस के अलावा विदेश मंत्री मार्को रुबियो और मध्य पूर्व में अमेरिका का राजनयिक स्टीवन विटकॉफ ने टॉप ईरानी अधिकारियों से बातचीत की। विभिन्न रिपोर्ट्स से ज़ाहिर होता है कि ईरान की युद्ध विराम पर सहमति क़तर के प्रधानमंत्री शेख़ मोहम्मद बिन अब्दुल रहमान अल थानी ने सुनिश्चित की, जबकि उससे पहले ही इजरायल ट्रंप को अपनी सहमति दे चुका था। अमेरिका की तरफ़ से युद्ध-विराम का प्रस्ताव तब आया, जब ईरान ने क़तर में अमेरिका के एयरबेस पर हमला कर दिया।
अमेरिका को इजरायल के टॉप अधिकारियों से संकेत मिल चुका था कि तल अवीव (इजरायल) ईरान में अपना अभियान ख़त्म करने का इच्छुक है।
इस तरह कहा जा सकता है कि इजरायल ने युद्ध-विराम के लिए पहले सहमति दी, जबकि ईरान को इस पर तैयार करने के लिए अमेरिका को खासी मशक़्क़त करनी पड़ी और क़तर की मदद से ही यह संभव हुआ। यही कारण था कि युद्ध-विराम को ईरान ने अपनी जीत के रूप में प्रचारित किया। ट्रंप ने जब पूर्ण युद्ध विराम का आधिकारिक ऐलान किया, तब भी ईरान के सर्वोच्च नेता अयातुल्ला अली ख़ामेनेई ने अपनी प्रतिक्रिया में कहा- ‘तेहरान वह नहीं है, जो आत्मसमर्पण करता है।’ ज़ाहिर है इजरायल के लिए यह टिप्पणी थी।
युद्ध की शुरुआत और असर
ईरान और इजरायल के बीच संघर्ष ने न सिर्फ़ मध्य पूर्व, बल्कि पूरे विश्व को प्रभावित किया है। इस तनाव ने अशान्ति और अस्थिरता को और ताक़त दी है। इस टकराव का असर पूरी दुनिया के ऊर्जा बाज़ारों, व्यापारिक मार्गों और अंतरराष्ट्रीय कूटनीति तक प्रभाव दाल रहा है। अब 13 जून को इजरायल ने ऑपरेशन राइज़िंग लायन के नाम से ईरान के परमाणु और सैन्य ठिकानों पर हवाई हमले कर दिये। हाल के वर्षों में इजरायल ने फिलिस्तीन-गाज़ा पर हमले करके हज़ारों लोगों को मौत के घात उतारा है। बेशक उसने यह काम आतंकी ठिकानों के नाम पर किया है; लेकिन दुनिया में शान्ति चाहने वाले लोग इजरायल से इसके लिए नाराज़ हैं। यह जंग इतनी तेज़ी से फैली कि एक समय ऐसा लगा कि अब शायद तीसरा विश्व युद्ध होने ही वाला है।


इजरायल ने ईरान पर हमला करते हुए दावा किया कि उसकी कार्रवाई ईरान की परमाणु हथियार प्राप्त करने की महत्त्वाकांक्षा को रोकने के लिए ज़रूरी है। यह आश्चर्य के बात है कि ख़ुद परमाणु शक्ति सम्पन्न इजरायल ईरान को परमाणु शक्ति बनने से रोकना चाहता है। उसका तर्क है कि ईरान के परमाणुओं ताक़त हासिल करने से न सिर्फ़ उसके लिए गंभीर ख़तरा उत्पन्न हो जाएगा, बल्कि यह दुनिया भर के लिए चिंता की बात होगी। इसके बाद जवाबी कार्रवाई में ईरान ने तेल अवीव पर मिसाइल हमले किये। जानकार मानते हैं कि यह संघर्ष महज़ इजरायल और ईरान नाम के दो देशों की अपनी लड़ाई भर नहीं थी, बल्कि इसके पीछे बड़े कारण थी। और इसके नतीजे पूरी दुनिया पर रणनीतिक, राजनीतिक और आर्थिक प्रभाव डालने वाले साबित हो सकते थे।
इस युद्ध में रूस और चीन भी सक्रिय भूमिका निभाने में जुट गये। युद्ध के आख़िरी दिनों में ईरान के विदेश मंत्री रूस गये और वहाँ के राष्ट्रपति पुतिन से मिले। चीन और रूस की कोशिश क्षेत्र में अमेरिकी प्रभाव को चुनौती देने पर ज़्यादा केंद्रित रही है। यदि युद्ध में तनाव बढ़ता और ईरान दुनिया की सबसे अहम तेल सप्लाई लाइन हॉर्मुज़ की खाड़ी के जलमार्ग को बंद कर देता तो इसका वैश्विक असर होता। भारत को तो अपनी ज़रूरतों की तेल की 40 फ़ीसदी सप्लाई ईरान से ही होती है।


एक समय पक्का लग रहा था कि ईरान यह बड़ा फ़ैसला लेने वाला है। ईरान की संसद ने इस जलमार्ग को बंद करने की अनुमति दे दी थी। अंतिम फ़ैसला ईरान की सुप्रीम नेशनल सिक्योरिटी काउंसिल को लेना था। हालाँकि इस बीच स्थिति सँभली और आख़िर युद्ध विराम हो गया। यह तनाव तब बना, जब अमेरिका ने 22 जून को ईरान के तीन परमाणु ठिकानों पर एस2 बॉम्बर से हमला कर दिया। माना जाने लगा कि ईरान अब इसका जवाब समुद्री रास्ते को रोककर देगा। अमेरिका ने इस बीच चीन से अपील की कि वह ईरान को यह क़दम उठाने से रोके। हॉर्मुज़ खाड़ी पर्शियन खाड़ी को ओमान की खाड़ी से जोड़ती है, जो आगे अरब सागर में खुलती है। यह रास्ता ईरान और ओमान की सीमा के भीतर है और दुनिया के सबसे अहम समुद्री व्यापार मार्गों में एक है। जलमार्ग की कुल 33 किलोमीटर चौड़ाई में से जहाज़ों के आने-जाने का रास्ता महज़ तीन किलोमीटर ही चौड़ा है।
इस युद्ध को लेकर ट्रंप पर भी अपने ही देश के लोगों का दबाव था और इसके लिए प्रदर्शन भी हुए। अमेरिकी जनता नहीं चाहती थी कि इजरायल के लिए अमेरिका युद्ध में कूदे। इजरायल की आक्रामक नीति का अमेरिका में भी ख़ासा विरोध है और लोग उसे सही नहीं मानते हैं। इजरायल के ग़ाज़ा में बेक़सूर लोगों को मारे जाने पर अमेरिका के बड़े वर्ग में गहरा रोष है। उन्हें लगता है कि इजरायल का यह नरसंहार गलत है। यहाँ तक कि इजरायल के लोग भी नेतन्याहू की ग़ाज़ा नीति के ख़िलाफ़ प्रदर्शन कर रहे थे; लेकिन ईरान के मामले में वह अपने नेता के साथ खड़े दिखे। उधर ईरान के साथ युद्ध में ट्रंप लगातार इजरायल के साथ खड़े रहे और उन्होंने इस मुद्दे पर अपने देश में अपने ख़िलाफ़ हो रहे प्रदर्शनों की परवाह नहीं की।
उत्तर कोरिया भी ईरान के परमाणु ठिकानों पर अमेरिकी हमले के बाद चौकन्ना हो गया है। अमेरिका के बी-2 स्टील्थ बॉम्बर्स से ईरान के परमाणु ठिकानों पर हमले ने उत्तर कोरिया के तानाशाह किम जोंग उन की चिंता बढ़ा दी है। यह माना जाता है कि उत्तर कोरिया के पास ख़तरनाक हथियार हैं। किम की असली ताक़त और सत्ता पर पकड़ इन हथियारों की बजह से ही है। किम रूस से गहरी दोस्ती बनाने में सफल रहे हैं। यूइकरेन से युद्ध के दौरान किम रूस को प्योंगयांग से हथियार और सैनिक भेजते रहे हैं। दोनों का रिश्ता सिर्फ़ व्यापारिक ही नहीं रहा है, बल्कि दोनों रणनीतिक साझेदारी में भी काफ़ी आगे बढ़ चुके हैं। एक अनुमान के मुताबिक, उत्तर कोरिया के पास 40 से 50 परमाणु हथियार हैं। साथ ही आईसीबीएम जैसी मिसाइलें भी हैं, जो सीधे अमेरिका तक मार कर सकती हैं। ज़ाहिर है अमेरिका के लिए उत्तर कोरिया के ख़िलाफ़ सैन्य कार्रवाई करना बहुत मुश्किल कार्य है।
कुल 12 दिन के युद्ध में ईरान ने इजरायल पर हज़ारों घातक हमले किये। इजरायल में काफ़ी नुक़सान हुआ। 25 से अधिक लोगों की मौत और 200 से ज़्यादा घायल हुए। अस्पताल (सोरोका), आवासीय इमारतें, रक्षा मंत्रालय, इन्फ्रास्ट्रक्चर को बड़ा नुक़सान हुआ है और हज़ारों लोग अस्थायी रूप से बेघर हुए हैं। उधर एक मानवाधिकार समूह के मुताबिक, ईरान पर इजरायली हमलों में कम-से-कम 950 लोग मारे गये हैं और 3,450 अन्य घायल हुए हैं। मृतकों में 380 नागरिक और 253 सुरक्षा बल के जवान शामिल हैं।

भारत की स्थिति
इस युद्ध के दौरान भले भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने ईरान के अपने समकक्ष से बात की, भारत को इजरायल के साथ ही खड़ा माना गया। उधर भारत में बड़ी पार्टी कांग्रेस ने खुलकर ईरान का साथ दिया। कांग्रेस की सबसे लम्बे समय तक अध्यक्ष रहीं सोनिया गाँधी का बाक़ायदा अख़बारों में लेख प्रकाशित हुआ, जिसमें ईरान के समर्थन की बात कही गयी थी; जबकि इजरायल के आक्रामक रवैये की निंदा।
यहाँ यह बताना ज़रूरी है कि भारत के लिए यह युद्ध स्थिति बहुत जटिल मामला था; क्योंकि मोदी-काल में भारत सरकार ने इजरायल के साथ रक्षा साझेदारियों को बहुत तरजीह दी है। उधर ईरान के साथ भारत के पुराने सम्बन्ध रहे हैं और कांग्रेस नेता सोनिया गाँधी ने इन्हीं सम्बन्धों का हवाला अपने लेख में दिया। ईरान के साथ भारत के गहरे रणनीतिक और आर्थिक हित जुड़े रहे हैं। जानकार मानते हैं कि प्रधानमंत्री मोदी का इजरायल के प्रति झुकाव बहुत कुछ राष्ट्रपति ट्रंप के भी कारण है।

मीडिया में ट्रंप की किरकिरी
डोनाल्ड ट्रंप को युद्ध में अपने ही मीडिया की तरफ़ से किरकिरी झेलनी पड़ी है। इसके बाद ट्रंप ने मीडिया किया और उसे धमकाते हुए कहा कि इस तरह का झूठ बर्दाश्त नहीं किया जा सकता।
दरअसल, इजरायल के पहले हमले के बाद सीएनएन ने अपनी एक रिपोर्ट में कहा कि अमेरिकी ख़ुफ़िया एजेंसियों ने आकलन किया है कि ईरान सक्रिय रूप से परमाणु बम नहीं बना रहा है और ऐसा करने में उसे तीन साल और लगेंगे। सीएनएन ने लिखा कि वर्तमान हमले ने ईरान के परमाणु कार्यक्रम को महज़ कुछ महीनों के लिए पीछे धकेला है।
ट्रंप की एक प्रेस कॉन्फ्रेंस के दौरान ट्रंप की सीएनएन की पत्रकार नताशा के साथ कहासुनी भी हुई। आरोप है कि ट्रंप के शब्द राष्ट्रपति के स्तर के लिहाज़ से बहुत निम्न स्तरीय थे। मीडिया ही नहीं, अमेरिका की राष्ट्रीय ख़ुफ़िया निदेशक तुलसी गबार्ड भी ट्रंप की फटकार का शिकार हुए, जिन्होंने अमेरिकी संसद से कहा कि ईरान परमाणु हथियार नहीं बना रहा है। बाद में उन्हें बयान बदलना पड़ा।

कैसे बचे ख़ामेनेई
ईरान-इजरायल युद्ध में ईरान के कई टॉप कमांडर्स और वैज्ञानिक मरने का दावा इजरायल ने किया। इजरायल के नेता नेतन्याहू लगातार कह रहे थे कि ख़ामेनेई को मारना उनका लक्ष्य है लेकिन ख़ामेनेई का बाल भी बांका नहीं हुआ। आख़िर वे कहाँ छिपे थे, यह बड़ा सवाल है। यह माना जाता है कि वे भूमिगत हो गये थे और किसी गुप्त स्थान पर चले गये।
दरअसल ईरान की एक ख़ुफ़िया यूनिट ख़ामेनेई की सुरक्षा करती है। उसके फैसलों की जानकारी ईरान की सबसे ताकतवर यूनिट आईआरजीसी को भी नहीं होती जो आमतौर पर ख़ामेनेई की सुरक्षा भी संभालती है। चूंकि यह ख़तरा था कि इजरायल की एजेंसी मोसाद की पहुँच आईआरजीसी तक हो सकती है, ख़ामेनेई की सुरक्षा का ज़िम्मा ख़ुफ़िया यूनिट के पास रहा। यह एक ऐसी यूनिट है जिसकी जानकारी किसी के पास नहीं।

कहाँ गया ईरान का 400 किलो यूरेनियम
इजरायली अधिकारियों के न्यूयॉर्क टाइम्स को यह बताने कि ईरान हमले से पहले यूरेनियम भंडार और उपकरणों को एक गुप्त स्थान पर ले गया होगा; के बाद सवाल उठ रहा है कि आख़िर ईरान इसे कहाँ ले गया? सैटेलाइट तस्वीरों से ज़ाहिर हुआ कि अमेरिकी हमलों से पहले फोर्दो परमाणु केंद्र के बाहर 16 ट्रकों का क़ाफ़िला खड़ा है। माना जाता है कि इन्हें ट्रकों में ईरान इसे सुरक्षित जगह ले गया। सैटेलाइट तस्वीरों से ज़ाहिर होता है कि ईरान के फोर्दो, नतांज और इस्फ़हान में मौज़ूद इन परमाणु स्थलों को काफ़ी नुक़सान पहुँचा; लेकिन कितना इसकी कोई पुष्टि नहीं हुई। इजरायल और अमेरिका के ख़ुफ़िया तंत्र का मानना है कि ईरान ने यूरेनियम और प्रमुख रिसर्च सामग्री और कंपोनेंट को इस्फ़हान के आसपास कहीं गुप्त भूमिगत जगह पर लाया है।

ट्रंप का अब्राहम अकॉर्ड कार्ड
डॉनल्ड ट्रंप जब पहली बार अमेरिका के राष्ट्रपति बने थे, तभी से वह मुस्लिम देशों के एक हिस्से को अपने साथ जोड़ने की योजना बना रहे हैं। ट्रंप की योजना मध्य पूर्व के कई मुस्लिम देशों को साथ लाने की है और इसके लिए उन्होंने अब्राहम अकॉर्ड की रूपरेखा पिछले कार्यकाल में ही बना ली थी।
इस अकॉर्ड (समझौता) का मक़सद कुछ मुस्लिम राष्ट्रों की मुस्लिम एकता की माँग को हक़ीक़त बनने से पहले ही ध्वस्त करना है। ट्रंप की इस योजना का मुख्य चेहरा मध्य पूर्व के लिए अमेरिका के राजनयिक स्टीव विटकॉफ हैं, जो विदेश मंत्री मार्को रुबियो के साथ मिलकर काम कर रहे हैं। उन्हें भरोसा है कि मध्य पूर्व के कई इस्लामिक देश इस अकॉर्ड का हिस्सा बन सकते हैं। यदि यह समझौता अमल में आया, तो ईरान, तुर्की, पाकिस्तान जैसे देश अलग-थलग पड़ जाएँगे, जो इस्लामिक एकता के सबसे बड़े पक्षधर माने जाते हैं। हाल के दिनों में ट्रंप यूएई के साथ रिश्ते प्रगाढ़ करते दिखे हैं। उन्होंने आबू धाबी में 15 मई को यूएई के साथ 200 बिलियन डॉलर का समझौता किया था। यात्रा के दौरान यूएई नेतृत्व ने ट्रंप का ख़ूब स्वागत किया।
यूएई के अलावा बहरीन, मोरक्को और सूडान जैसे देश इजराइल के साथ रिश्ते सामान्य करना चाहते हैं, जो ईरान के लिए बड़ा झटका होगा। माना जाता है कि ट्रंप की टीम ने अब्राहम अकॉर्ड नाम बहुत सोच समझकर चुना है क्योंकि अब्राहम तीन धर्मों- यहूदी, इस्लाम और ईसाई धर्मों में समान रूप से स्वीकार्यता रखते हैं। वैसे यह देखना दिलचस्प होगा कि ट्रंप अपनी योजना में फिलिस्तीन समस्या के हल के लिए क्या योजना लाते हैं।

नेतन्याहू की चिन्ता
जब 28 जून को यह जानकारी सामने आयी कि ईरान ने अपने परमाणु स्थलों से राष्ट्रसंघ की तरफ से स्थापित सभी सर्विलांस कैमरे हटा लिये हैं, तो इजराइल के प्रधानमंत्री बेंजामिन नेतन्याहू की चिंता बढ़ गयी, जो ईरान के परमाणु कार्यक्रम से पहले ही परेशान हैं। ईरान पहले ही अंतरराष्ट्रीय परमाणु ऊर्जा एजेंसी (आईएईए) से अपने परमाणु स्थलों का निरीक्षण करवाने से मना कर चुका है; क्योंकि उसे शक है कि आईएईए से यह सारी जानकारी अमेरिका को लीक हो जाएगी।
यह भी जानकारी है कि 23 जून को फोर्दो स्थित ईरान के परमाणु ठिकाने पर अमेरिका के हमलों में जो नुक़सान हुआ था; उसकी मरम्मत का काम ईरान ने शुरू कर दिया है। नेतन्याहू कह चुके हैं कि यदि ईरान अपना परमाणु कार्यक्रम आगे बढ़ाता है, तो इजराइल युद्धविराम तोड़कर फिर उसपर हमला करेगा।
उधर ईरान ने अपने परमाणु स्थलों के आसपास सुरक्षा और मज़बूत करनी शुरू कर दी है। साथ ही वह अपने देश में इजराइल की एजेंसी मोसाद के गुप्तचरों को पकड़ने और फाँसी पर लटका देने की मुहिम में भी जुट गया है। बीच में यह जानकारी भी सामने आयी है कि ईरान और इजरायल के बीच युद्ध-विराम होने के बाद अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ईरान के सिविल एनर्जी न्यूक्लियर प्रोग्राम के लिए 20 से 30 बिलियन डॉलर देने का मन बना चुके हैं और यह पैसा सीधे ईरान को न देकर ट्रंप अपने दोस्त अरब देशों के ज़रिये देंगे। साथ ही दशकों पहले ईरान पर लगाये आर्थिक प्रतिबंध में भी ढील दे सकते हैं। इजरायली रक्षा मंत्री इजरायल काट्ज कह चुके हैं कि इजरायल को नहीं पता कि ईरान का यूरेनियम भंडार कहाँ है। ज़ाहिर है यह सभी जानकारियाँ नेतन्याहू और इजराइल को परेशान करने वाली हैं। वैसे ट्रंप के बारे में कुछ भी सटीक कह पाना मुश्किल होता है, लिहाज़ा पता नहीं है कि वह वास्तव में क्या करेंगे? इजराइल और नेतन्याहू इस बात से बहुत ज़्यादा परेशान हैं कि वह तमाम कोशिशों के बावजूद ईरान के सर्वोच्च धार्मिक नेता अल ख़ामेनेई की हत्या नहीं कर पाये।
उधर ट्रंप ने 17 जून को कहा था कि हमें ठीक से पता है कि सुप्रीम लीडर कहाँ छिपे हैं; लेकिन हम उन्हें ख़त्म नहीं करेंगे। कम-से-कम अभी तो नहीं।
ट्रंप अब भारत पर भी डील का दबाव बना रहे हैं और लगातार भारत विरोधी बयान देने में लगे हैं। निश्चित ही इससे अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भारत की किरकिरी हो रही है और यह संदेश जा रहा है कि भारत ट्रंप के दबाव में है। इसी दबाव का नतीजा है कि जुलाई के पहले हफ़्ते ब्राजील में होने वाले ब्रिक्स शिखर सम्मलेन में भारत डॉलर के मुक़ाबले ब्रिक्स देशों की अपनी करेंसी शुरू करने पर चुप्पी साधे बैठा है; क्योंकि ट्रंप ऐसा होने की स्थिति में भारत और अन्य ब्रिक्स देशों को इसके नतीजे भुगतने की चेतावनी दे चुके हैं। प्रधानमंत्री मोदी तो इस बैठक में हिस्सा ले रहे हैं; लेकिन चीन के राष्ट्रपति शी जिनपिंग के इसमें हिस्सा लेने की संभावना नहीं है, जो ब्रिक्स समूह के लिए बड़ा झटका है।