उम्मीद की डोर पर जिंदगी ‘कठपुतली’

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जयपुर के प्रकाश भाट विपरीत परिस्थितियों में भी कठपुतली की कला जिन्दा रखने की जुगत में लगे हैं.
सभी फोटो- सुनील यादव

ओ लड़ी लूमा रे लूमा, ओ लड़ी लूमा रे लूमा, लूमा झूमा लूमा झूमा, म्हारो गोरबंद नखरालो.

किसी सांस्कृतिक मेले में इस तरह के राजस्थानी लोकगीत पर नाचती कठपुतलियां बरबस ही ध्यान खींच लेती हैं, पर मनोरंजन के साथ शिक्षा का माध्यम रहा कठपुतली का खेल आज अपनी पहचान बचाए रखने की जद्दोजहद कर रहा है. कठपुतली बनाने वाले कलाकार बमुश्किल ही अपनी रोजी कमा पा रहे हैं. जयपुर विधानसभा से मुश्किल से 500 मीटर दूर कठपुतली कॉलोनी की टेढ़ी-मेढ़ी गलियों में ऐसी ही कई जिंदगियां अपने और इस खेल के अस्तित्व को बचाए रखने के लिए संघर्षरत हैं.

मूलतः राजस्थान के नागौर जिले से आने वाले भाट समुदाय को परंपरागत भारतीय कठपुतली का जनक माना जाता है. ऐसा कहा जाता है कि यही लोग कठपुतलियों को पश्चिम बंगाल और देश के दूसरे हिस्सों तक लेकर गए थे. छह महीनों तक शहरों और गांवों में घूम-घूमकर ये लोग राधा-कृष्ण की प्रेम गाथा या शाहजहां के समय के राजा अमर सिंह राठौड़ की कहानियां आमजन तक पहुंचाते थे. पर आज इस कला की स्थिति का पता जयपुर के रहने वाले एक ऑटोरिक्शा चालक से बात करने पर चलता है, जब वो बताते हैं, ‘मुझे याद नहीं आता कि मैंने कभी जयपुर में कठपुतली का कोई खेल देखा हो. पिछले दस सालों में तो नहीं! मैंने बचपन में ही इसे देखा था. हां, अगर आप किस्मत वाले हुए तो हो सकता है कि किसी गांव के मेले में ये आपको दिख जाएं.’

लगभग दो हजार सालों से भाट समुदाय को ही कठपुतलियों की इस कला का संरक्षक माना जाता है, पर अब स्थितियां बदल रही हैं. कठपुतलियां आसानी से बात करती, नाचती-गाती नहीं दिखेंगी. वह ऑटो ड्राइवर बताते हैं कि कठपुतली का खेल देखना है तो हवामहल जाइए या किसी महंगे होटल में. वे लोग ही विदेशी पर्यटकों के मनोरंजन के लिए ऐसी व्यवस्था रखते हैं.

मनोरंजन के साथ शिक्षा का माध्यम रहा कठपुतली का खेल आज अपनी पहचान बचाए रखने की जद्दोजहद कर रहा है. कठपुतली बनाने वाले कलाकार इन दिनों बमुश्किल ही अपनी रोजी कमा पा रहे हैं

कठपुतली कॉलोनी की इन गलियों के जीर्ण होते मकानों में भाट समुदाय के कई अंतर्राष्ट्रीय कलाकार रहते हैं, जिनके पास अब अपने अतीत की सुनहरी यादों के अलावा कुछ बाकी नहीं है. अपने दोमंजिला मकान में 35 वर्षीय प्रकाश भाट अपने सर्टिफिकेट, तस्वीरों और कठपुतलियों का संग्रह दिखाते हुए गर्व से बताते हैं, ‘ये सब अवाॅर्ड मुझे विदेशों में मिले थे, जब मैं वहां प्रदर्शन करने गया था. मैं अब तक 20-25 देशों में जा चुका हूं.’ फिर वे अपना बिजनेस कार्ड दिखाते हैं, जिस पर फ्रेंच भाषा में ‘अनारकली कंपनी’ लिखा हुआ है. ये प्रकाश की कंपनी का नाम है. प्रकाश 2008 से विदेशी ग्राहकों के लिए लगातार फ्रांस जाते रहे हैं. इसी कारण उन्होंने अपनी कंपनी का नाम फ्रेंच में रखा. ‘मैं कभी-कभार ही जा पाता था, पर एक बार जाने के लिए ही मुझे एक लाख रुपये मिल जाते थे,’ प्रकाश बताते हैं. ऐसी विदेश यात्राओं के बावजूद, उनके लिए अपने घर के एक कमरे में कठपुतली कला पर वर्कशॉप चलाना मुश्किल भरा है. उनके घर में न तो पानी की अच्छी व्यवस्था है और न ही शौचालय है.

कभी आम जनता के बीच सड़कों पर होने वाला ये खेल अब जयपुर के आलीशान होटलों तक ही सीमित हो गया है. हालांकि, कलाकारों का मानना है कि अब भी अवसरों की कमी नहीं है, पर कुछ वजहों से इनकी कमाई मुश्किल भरी हो गई है. 70 साल के छोटमल बताते हैं, ‘हमारे प्रदर्शनों के लिए आने वाले फंड को वसूलने के लिए एनजीओ और सरकार साथ में आ जाते हैं.’ अपने जमाने में छोटमल कुवैत में भी अपनी कला का प्रदर्शन कर चुके हैं. अपनी प्रसिद्धि के दिनों को याद करते हुए वे बताते हैं, ‘मैं उस समय एक दिन में 1500 रुपये तक कमाता था. तब लोग हमें इज्जत से देखा करते थे पर आज ऐसा नहीं है. ये बच्चे, जो आज ये काम कर रहे हैं, उन्हें उस समय का अंदाजा तक नहीं है, जब हम ये काम किया करते थे.’ एक अंतर्राष्ट्रीय कलाकार होने के बावजूद छोटमल रिटायर हो जाने के बाद भी काम कर रहे हैं. वे कहते हैं, ‘पेट पालने के लिए कुछ तो करना होता है.’ छोटमल के घर में उनके साथ भतीजे सुनील भाट भी रहते हैं. अपने चाचा की तरह सुनील भी इस कला के प्रदर्शन के लिए 20 से ज्यादा देशों में जा चुके हैं.

इनसे एक घर दूर दो कमरे के एक मकान में 45 साल के बबलू भाट, अपनी पत्नी, पांच बेटियों, दो बेटों और अपने भाई के परिवार के साथ रहते हैं. राजस्थान के पूर्व मुख्यमंत्री अशोक गहलोत और वर्तमान मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे के साथ अपनी तस्वीरें दिखाते हुए बबलू बताते हैं, ‘परिवार नियोजन या पोलियो उन्मूलन अभियान जैसी कई सरकारी योजनाओं के प्रचार के लिए राजस्थान सरकार कठपुतलियों की ही मदद लेती है, इसीलिए कठपुतली बच्चे-बड़ों सभी में लोकप्रिय है. हालांकि, इन योजनाओं के लिए मिला धन वही एनजीओ रख लेते हैं, जिन्हें इसका कॉन्ट्रैक्ट मिलता है. कठपुतली के खेल के लिए कलाकारों को बुलाने की बजाय ये एनजीओ बस कठपुतलियां खरीदकर खानापूर्ति करते हैं.’

पैसे कमाने की ऐसी जद्दोजहद के इतर कर्ज भी इस कॉलोनी के रहवासियों की एक समस्या है. इस कर्ज की राशि दस हजार से लाख रुपये तक है. प्रकाश एक घर की ओर इशारा करते हुए बताते हैं, ‘ये घर एक कठपुतली कलाकार का था, जो कर्ज न चुका पाने की वजह से घर छोड़कर भाग गया. अब जिससे उसने उधार लिया था, उस आदमी ने इस मकान पर कब्जा कर लिया और अब इसका मालिक कोई और ही है.’ अब इस घर में तीसेक साल की एक महिला रहती हैं. वह कठपुतली के लकड़ी के सिर से जुड़ने वाले कपड़े सिलती हैं. वह बताती हैं, ‘मुझे भी कर्ज चुकाना है. दिन भर में हम 10-12 कठपुतलियां बनाते हैं. इससे जो भी पैसा मिलता है वो कर्ज की किस्तें भरने में चला जाता है.’

गली के बच्चों को गुस्से से झिड़कते हुए बुजुर्ग रामपाल की उम्र लगभग 72 साल है. उनकी कहानी भी कर्ज के दलदल से जुड़ी है. कभी एक प्रसिद्ध कठपुतली कलाकार रहे रामपाल आज सड़क पर आ चुके हैं. वे अब फुटपाथ पर ‘काछी घोड़ी’ (घोड़े की कठपुतली) बनाते हैं. वे बताते हैं, ‘कुछ साल पहले बीबीसी लंदन ने मेरा इंटरव्यू किया था, तब कई अखबारों में मेरे बारे में छाप था. अब हाल ये है कि मैंने पिछले लगभग दस सालों से 15-20 हजार रुपये साथ में नहीं देखे हैं!’ रामपाल के ऊपर एक लाख रुपये से ज्यादा का कर्ज है, जिसे वो पिछले दो-ढाई साल से हर महीने करीब 4-5 हजार रुपये बचाकर चुकाते हैं. शारीरिक रूप से बेहद कमजोर रामपाल एक कमरे के इस मकान में अकेले रहते हैं. वे कहते हैं, ‘ऐसा लगता है कि भविष्य में मुझे अपने बेटों पर निर्भर रहना होगा या इन्हीं हालातों में काम करते रहना होगा!’

कभी प्रसिद्ध कठपुतली कलाकार रहे 72 साल के रामपाल अब ‘काछी घोड़ी’ (घोड़े की कठपुतली) बेचते हैं. उन पर अच्छा खासा कर्ज चढ़ा है
कभी प्रसिद्ध कठपुतली कलाकार रहे 72 साल के रामपाल अब ‘काछी घोड़ी’ (घोड़े की कठपुतली) बेचते हैं. उन पर अच्छा खासा कर्ज चढ़ा है

कुछ गली आगे मंजू और उनकी सास के पास भी दुखों की ऐसी ही कहानियां हैं. लंबे समय से मंजू के ससुर बीमार हैं, जिनका खर्च कठपुतली बनाकर मुश्किल से घर चला रहे मंजू और उनके पति ही उठाते हैं.

शुरुआत में जब ये कॉलोनी बसाई गई थी, तब तकरीबन डेढ़ हजार परिवार थे, पर धीरे-धीरे कई परिवार ये जगह छोड़ने को मजबूर हो गए. आज ये बस्ती सचिवालय और विधानसभा के बीच में आती है, जो बिल्डरों और व्यापारियों के लिए एक ‘प्राइम प्रॉपर्टी’ है. भाट समुदाय के एक व्यक्ति बताते हैं, ‘पिछली बार सरकार द्वारा प्रायोजित निर्माण योजना के नाम पर 250 परिवारों को कॉलोनी से निकाल दिया गया था. हालांकि, उन्हें क्वार्टर देने की बात कही गई थी, पर ऐसा नहीं हुआ. अब बिल्डरों ने कहा है कि या तो बाकी परिवार यहां से चले जाएं या निर्माण के लिए पैसे दें. ये जमीन राजा भवानी सिंह की थी, जो बाद में कूड़ाघर बना दी गई. हम लोगों ने ही इसे इस रूप में बदला, अब ये हमें ही यहां से निकल देना चाहते हैं.’

ये समुदाय कहीं और जा भी नहीं सकता क्योंकि किसी अनजान, नई जगह पर उनके हुनर को महत्व ही नहीं मिलेगा. भाट समुदाय के कुछ बच्चे बस्ती के बाहर ही एक सरकारी स्कूल में पढ़ते हैं पर ज्यादातर लोग बच्चों को मिशनरी के सहायता केंद्र और पास ही खुले एक एनजीओ द्वारा चलाए जा रहे नए स्कूल में भेजते हैं क्योंकि वहां कपड़े, दवाई जैसी अन्य जरूरी व्यवस्थाएं भी हैं.

गरीबी के जाल में फंसा भाट समुदाय धर्म के नाम पर होने वाली राजनीति से भी बच नहीं सका है, कठपुतली की कला सिखाने की वर्कशॉप करवाने के एवज में उनसे ईसाई धर्म का प्रचार करने को कहा जाता है

गरीबी के जाल में फंसा ये समुदाय धर्म के नाम पर होने वाली राजनीति से भी बच नहीं सका है. प्रकाश बताते हैं, ‘शुरुआत में हमें अपने बच्चों को मिशनरी में भेजने से कोई परेशानी नहीं थी पर बच्चों और महिलाओं को कठपुतली की कला सिखाने की वर्कशॉप करवाने के एवज में ईसाई धर्म का प्रचार करने के लिए मुझसे कहा गया. आप ही बताइए, हम काली मां की पूजा करते हैं. रोटी के लिए हम अपना धर्म और संस्कृति कैसे छोड़ दें?’

रविवार होने के बावजूद प्रकाश के घर पर ये कला सीखने के लिए बच्चे इकट्ठा होना शुरू हो गए हैं. कई बैचों में बंटे 80 के करीब बच्चे यहां संगीत और कठपुतली के खेल की कला सीखने आते हैं. प्रकाश बताते हैं, ‘मैं इन बच्चों से कोई फीस नहीं लेता मैं बस चाहता हूं कि बच्चे ये हुनर सीखें. और ये बच्चे कैसे फीस देंगे जब मैं जानता हूं कि इनके पास कमाई का कोई जरिया ही नहीं है?’

प्रकाश की बातें सुनकर आप यह सोचने को मजबूर हो जाते हैं कि राजस्थान से निकलकर पूरे विश्व में मशहूर हुई यह अनूठी कला इस हाल में कैसे पहुंच गई.