यह उस पीढ़ी के बारे में है जिसका कम्प्यूटर से तार्रुफ पहली बार चाचा चौधरी ने ही कराया. उसके सामने बैठे वे कई साल बाद. यह उस पीढ़ी के बारे में है जो अपनी मासूमियत वाले पलों में चाचा चौधरी-साबू की डायमंड कॉमिक्स पढ़ा करती और अगले मोड़ पर खड़ी जवानी तक पहुंचने की जल्दी में नागराज-ध्रुव-डोगा की राज कॉमिक्स. यह उस पीढ़ी के बारे में है जिनके जीवन में गर्मी की छुट्टियां किराए पर चाचा चौधरी की कामिक्स घर लाने के लिए ही आती. यह वह पीढ़ी है, जिसकी गर्मी की छुट्टियां दीवाली-सी गुलजार होती थीं.
उन गुलजार दिनों में शहर के कई घर साहूकारी के अड्डे हो जाते और उन घरों के अंदर रहने वाले लड़के-लड़कियां कम-उम्र साहूकार (अच्छे वाले). वे अपने घरों में किराए पर कॉमिक्स देने के लिए कुटीर उद्योग का बचपन संस्करण खोलते और दो विपरीत छोरों की खूंटियों पर एक के नीचे एक चार-पांच रस्सियां बांध उन पर बीस-पच्चीस कॉमिक्स उसी तरह डालते जाते जैसे उनकी मांएं छत की रस्सियों पर सुबह कपड़े सुखाने डाला करतीं. न शहर में कहीं पोस्टर लगते, न इन दुकानों के इश्तिहार छपते, लेकिन दिन-भर इन घरों में रौनक रहती, बच्चों की मोलभाव वाली दुनिया सजती. बच्चे थे, एडवांस डिपॉजिट वाला महंगा सिस्टम नहीं था, एक-दो रुपये में जहान अपना था, बच्चे रोज दो कॉमिक्स फांकते और दिन-भर क्रिकेट-फुटबाल खेलते. एक-दो रुपये में गुड़िया के बाल भी आते, पिस्ता आइसक्रीम भी, जहां-भर की टाफियां भी और किराए पर चाचा चौधरी और साबू एक दिन के लिए घर भी. उन दिनों, जिन घरों में गर्मी की छुट्टियों में आम होते थे और कॉमिक्स की आवक लगातार होती थी, उन घरों में बच्चे खुश रहा करते थे.
प्राण के रचे और हम सब में गहरे बसे चाचा चौधरी, साबू, पिंकी, बिल्लू, बिन्नी चाची, राका, श्रीमतीजी, रमन, चन्नी चाची को लेकर यह रूमानियत और नॉस्टेल्जिया की खुमारी उस पीढ़ी के बारे में है जिसने सरकारी किताबों में छिपाकर कॉमिक्स पढ़ने का सुख लिया है. यह उस पीढ़ी के बारे में है जो आज जब छुट्टियों में भारत आती है तो उसकी आंखें वापस ले जाने के लिए देसी चीजों को तलाशते समय चाचा चौधरी की कॉमिक्स को भी तलाशती है. हवाई यात्राओं में सूटकेसों के भार की अपर लिमिट 40 किलो से छुट्टियों-भर दबे रहने के बावजूद लौटते वक्त 10-15 कॉमिक्स साथ ले जाना जिनके लिए जरूरी होता है. यह उस पीढ़ी के बारे में है जो चाचा चौधरी की दस पसंदीदा कॉमिक्स को आपस में सिलवाकर हार्ड बाउंड बनाने के बाद उसे आज भी अपने दीवान में अमरचित्र कथा की वैसी ही हार्ड बाउंड किताब के ऊपर संभालकर रखती है.
ऐसी एक पूरी पीढ़ी का प्राण साहब को नमन. उनकी तरफ से भी जो उस पीढ़ी के थोड़ा-सा पहले और थोड़ा-सा बाद वाली पीढ़ियों के थे. गिनती मुश्किल है, लेकिन इन सभी पीढ़ियों के लिए उस किवाड़ को खोलने वाले, जिसके पार कहानियां ही कहानियां थी, पहले जादूगर प्राण ही थे. प्राण की इन कॉमिक्सों की दुनिया नंदन, चपंक, चंदा मामा से अलग दुनिया थी. प्राण की दुनिया में ढेर-मन अक्षर एक-दूसरे से चिपककर खड़े रहकर सांस लेने की कोशिश में अधमरे नहीं हुए जाते थे, उनके ऊपर पंचतंत्रीय आभा से भरी समझदार बातें करने का दबाव नहीं था, वे होठों के कोरों पर उभर आई मुस्कान को जीवन मानते थे. सीख देने के भारी गुरुत्वाकर्षण से दूर प्राण की ये कॉमिक्स बादल बना उनके भीतर छोटे-छोटे वाक्यों में बड़ी बात कहकर मन गुदगुदाती थीं. आज की पीढ़ी जिसके लिए सविता भाभी ही कॉमिक्स है, काश प्राण को पढ़ती, अपने बचपन को फिर यूं न खोती.
प्राण की कहानियों की यादें कई ऐसे इशारों से भरी हुईं थी जो हमें उनकी कॉमिक्सों की तरफ वापस लौटा लातीं. साबू को गुस्सा आता है तो कहीं ज्वालामुखी फटता है. चाचाजी के पास फॉर्मूले की एक लंबी-चौड़ी लिस्ट है जिसमें ढेर सारे उपाय हैं, धोबी पछाड़ है. सबसे अच्छा, जाहिर है, बुलबुले के अंदर संवाद लिखने के बाद आखिर में छोटा-सा सूरज बनाना, वैसा वाला सूरज जैसा चित्रकला प्रतियोगिता में बच्चे बनाते हैं – एक लाल गोला जिसके चारों तरफ किरणें निकलती हैं, जो पन्ने के आखिर में ले जाकर कहता, ‘चाचा चौधरी का दिमाग कम्प्यूटर से भी तेज चलता है’.
प्राण दूसरे मशहूर हिंदुस्तानी कार्टुनिस्टों-मारियो मिरांडा, आरके लक्ष्मण, अबू अब्राहम से भी अलग थे. न वे डिटेल-प्रेमी थे, न राजनीति पर नुकीले तंज कसते थे, न रोजमर्रा के किस्से गढ़ते, न लंबे-चौड़े कैप्शन और संवाद लिखते थे. एक बड़ा फर्क जिसने प्राण को बाकी कार्टूनिस्टों से अलहदा बनाया, वह था उनका राजनीति शास्त्र में पढ़ाई करने के बावजूद अपनी कहानियों में राजनीति को शामिल नहीं करने का फैसला. हमारे देश में ज्यादातर देसी कार्टून राजनीति के आस-पास की ही बातें करते हैं, रोज होने वाली राजनीतिक चर्चाओं पर ‘रिएक्शन’ देना ही उनके लिए कुछ नया क्रिएट करना है. प्राण ऐसा नहीं करते थे, इसलिए हमारा बचपन उनके किरदारों से दोस्ती करते हुए बीता. दोस्ती करने के लिए हम आज भी ऐसे किरदार, ऐसे कार्टून ढूंढते हैं, लेकिन यह कार्टून-विधा राजनीति की उस संकरी गली में जाकर फंस गई है, जिससे बाहर उसका निकलना जरूरी है, लेकिन बाहर निकलने की उसे फिक्र ही नहीं है.
‘तह कर के रखा था बचपन
तुम सब आए और इस्त्री बिगाड़ दी ‘
प्राण के किरदार ऐसे ही जीवन में स्थिर-बचपन को चलायमान बनाने चले आए थे. उन उदास दोपहरों में जब घर मेंे बिजली के तारों पर करंट नहीं दौड़ता था, मैदानों में दौड़कर जिस्म थकता था, पुराने थके खेलों से मन ऊबता था, इस बासी दुनिया में अपनी एक अलग दुनिया की बसावट करने का मन होता था तब चाचा चौधरी अपने साथियों संग बचपन खुशहाल करने डगडग पर बैठे चले आते थे.
नाटा ज्ञानी, छड़ी पुरानी, मैन सुपर है पगड़ीधारी, सही-गलत की समझ निराली : चाचा चौधरी
प्राण के किरदार मौलिक थे. हिन्दुस्तानी इतिहास और वर्तमान के ऐसे ही कुछ गिने-चुने मौलिक किरदारों में से चाचा चौधरी एक हैं. चाचा चौधरी की पहली कॉमिक्स में उनकी पगड़ी का रंग पीला था. बाद में यह हमेशा के लिए लाल हुआ. शुरुआत की कॉमिक्स में वे सीधे-सादे गांववाले थे जो पगड़ी और धोती-कुर्ता पहना करते और हाथ में लट्ठ रखते. प्राण कहते थे कि चाचा चौधरी की प्रेरणा उन्हें चाणक्य से मिली. शायद इसलिए नए जमाने के लिए उन्होंने चाणक्य को कंप्यूटर बना दिया, लट्ठ को छड़ी और चाचा चौधरी को सूट-बूट पहना हाजिरजवाबी का उस्ताद. फिर किंवदंती बनी कि चाचा चौधरी की सफेद मूंछों के हरेक बाल में अलग-अलग तजुर्बे छुपे हैं, इसीलिए वे इतने होशियार हैं.
चाचाजी के हमेशा के दो साथियों में एक साबू है और एक राकेट जिसे सेब खाना पसंद है. चाचा चौधरी घर के लेटरबाक्स से मैगजीन के गायब हो जाने की चाचीजी की शिकायत का निवारण भी करते हैं, मुर्गी चोर को भी पकड़ते हैं और किसी के घर में दूध में पानी मिलाने वाले शैतान को भी धर दबोचते हैं. वे लोकल तकलीफें भी दूर करते हैं और खतरनाक जुर्म भी चुटकी में हल करते हैं. जुर्म अगर उनके घर से काफी दूर होता है तो वे वहां अपने ट्रक डगडग से जाते हैं, जिसकी छत पर साबू बैठता है और उनकी ड्राइविंग सीट के बगल में राकेट. जब इंटरनेशनल क्राइम रोकना होता है, साबू प्लेन के ऊपर दोनों तरफ पैर लटकाकर बैठता है और चाचाजी प्लेन के अंदर दोनों पैर समेट कर.
अपराधियों के बीच चाचा चौधरी के कई नाम हैं. डान अफलातून उन्हें खीर में काकरोच कहता है, डान बाबूका गिठमुठिये और धमाकासिंह, गोबरसिंह, गुरु बामा जैसे कई बदमाश लाल पगड़ी. पूरी दुनिया के इन बुरे लोगों का सामना करने के लिए चाचा चौधरी की छड़ी ही उनका एकमात्र हथियार है, जिससे वार करने के बाद का काम साबू पूरा करता है. उनकी पगड़ी भी कमाल है, वह कभी रस्सी बन जाती है, कभी गले का फंदा. और उनके कम्प्यूटर से तेज चलने वाले दिमाग की हार्डडिस्क कभी क्रैश नहीं होती, इसलिए बुद्धि उनकी हमेशा फ्रैश रहती है!
चाचा चौधरी जब अपने ट्रक डगडग से कहीं जाते तो उसकी छत पर साबू बैठता और उनकी सीट के बगल में राकेट यानी उनका कुत्ता
मटका लस्सी पीता सारी, बाजू हैं चट्टान से भारी : साबू
प्राण ने अपने करियर की शुरुआत 1960 में मिलाप नामक दैनिक अखबार से की थी. इसमें वे एक कॉमिक स्ट्रिप बनाते थे, दाबू. साबू का उदय दाबू से ही हुआ होगा. बाद के सालों में जब चाचा चौधरी का किरदार सफल होने लगा तो प्राण ने उसे साबू का साथ दिया. और साबू को एक भाई, दाबू.
साबू ज्यूपिटर वासी था, अब पृथ्वी का निवासी है. वह आया ज्यूपिटर से है और जाहिर है यह विदेशी सुपरहीरोज से प्रेरित कैरेक्टर स्केच था, लेकिन उसके पास कोई सुपर पावर नहीं है, सिर्फ शारीरिक शक्ति में वह बेजोड़ है. यह बहुत बड़ी बात थी कि स्कोप होने के बावजूद प्राण ने साबू को कोई सुपर पावर नहीं दीं. सुपरहीरोज के लिए दीवानी दुनिया में फिर भी साबू स्थापित हो गया, यह प्राण के हुनर का ही कमाल था.
प्राण का साबू सिर्फ इसलिए धरती पर निवास करने लगता है क्योंकि उसे चाची के हाथ के बने स्वादिष्ट परांठों से प्यार हो जाता है
साबू के पृथ्वी पर आने की जो वजह थी, वह रचनात्मकता को सर के बल कैसे खड़ा किया जाता है, इसमें प्राण की समझ और महारत को दर्शाती है. जब दुनिया-भर के सुपरहीरोज दूसरे ग्रहों से पृथ्वी पर या तो बदला लेने आ रहे थे, या अपने ग्रह के गृह-युद्ध से भागकर, या फिर मानवता की ही रक्षा के लिए पृथ्वी को घर बना रहे थे, प्राण का साबू सिर्फ इसलिए पृथ्वी पर निवास करने लगता है क्योंकि उसे चाची के हाथ के बने स्वादिष्ट परांठों से प्यार हो जाता है. यह गजब रचनात्मकता थी. एकदम अलहदा. प्राण सुपरहीरोज के यूनिवर्सल स्ट्रक्चर से विपरीत गए और फिर भी एक सुपरहीरो गढ़ दिया, जो पूर्णत: देसी है, मटके से लस्सी पीता है और परांठों का शौकीन है. उसमें सुपरपावर कोई नहीं है, यह भी उसी सर के बल खड़ी रचनात्मकता की पैदाइश थी.
साबू कपड़ों के मामले में फैशन ज्यूपिटर का ही फालो करता है. उसे अलग-अगल रंग के बूट पहनना पसंद है और उसके मूड पर है, कभी वह सिर्फ चड़्डी पहनता है तो कभी हरी-पीली-लाल पैंट, लेकिन दोनों के ऊपर ही अलग-अलग रंग की बेल्ट जरूर लगाता है…हां चड्डी के ऊपर भी! कभी-कभी टी-शर्ट भी पहनता है, डबल एक्सएल गुणा चार साइज वाली. खाने में वह सौ से ऊपर रोटी/परांठे और बीस लीटर लस्सी लेता है. और व्रत कभी नहीं रखता!
दुश्मन बड़ा है सख्त, मरता नहीं कमबख्त : राका
सत्तर के दशक में जब देश डाकुओं की समस्या से जूझ रहा था, प्राण ने कई डाकू किरदारों को जन्म दिया. गोबर सिंह, धमाका सिंह. पर सबसे खतरनाक है राका. शुरू में इंसान था, पर वैद्य चक्रमाचार्य का जादुई अर्क पीकर अमर-सा हो गया. और खूंखार इतना कि उसे रोकने में हर बार साबू के पसीने छूटने लगे. राका साबू से किसी मामले में कम भी नहीं है. शारीरिक शक्ति में भी और गुस्से में भी. कहते हैं कि जब राका को गुस्सा आता है तो समुद्र में तूफान आता है. लेकिन राका के पास चाचा चौधरी नहीं थे, इसलिए साबू हमेशा राका को हरा देता. चाचा चौधरी और साबू मिलकर उसे एक अंक के आखिर में मारते और दूसरे अंक की शुरुआत में वह बदला लेने कब्र फाड़कर बाहर आ जाता. फिर घमासान होता और अंक के आखिर में राका फिर मरकर कब्र में जाता, अगले अंक में वापस आने का इंतजार वहीं लेटे-लेटे करता!
पगलट पंगा-खोर बड़ी ये, धुन की पक्की और बड़ी ये : पिंकी
पिंकी ‘लेडी चाचा चौधरी’ हो सकती थी क्योंकि उसे भी लोगों की मदद का चस्का है. लेकिन उसकी मदद ‘उलटी मदद’ ज्यादा है, मदद को दर्द दे दे ऐसी उलट दवा. वह पगलट है इसलिए मदद करते हुए पंगा लेने में माहिर है, लेकिन धुन की इतनी पक्की है कि उसका कोई कुछ बिगाड़ नहीं पाता. वह उस जमाने की लड़की है जब बॉब-कट बाल रखना और उन बालों में रंग-बिरंगे मोटे हेयरबैंड लगाना लड़कियों का लेटेस्ट फैशन हुआ करता था, यह विद्रोही स्वभाव की निशानी भी. प्राण को जानवरों से प्यार था इसलिए उन्होंने पिंकी को भी एक गिलहरी दी, नाम कुटकुट. कुटकुट इंसानों की मदद करने के लिए खासतौर पर फेमस है, बिलकुल पिंकी की तरह!
प्राण खुद भी अपनी कॉमिक्स में किरदार बने थे. पिंकी के अंकलजी का मोबाइल नामक कॉमिक्स में ‘नाम’ नाम की कहानी में. इसमें वे पिंकी के हाथों अपने नाम का मजाक उड़वाते हैं, और एक बार फिर, सुपरहीरो-सा कुछ नहीं करते हैं!
न बलवान न बुद्धिमान, आंख छुपाके करता मुस्कान से वार : बिल्लू
बिल्लू की मुस्कान ही उसका हथियार है और उसकी आंखों पर लंबे बालों का परदा है. सन् 2000 से पहले के बच्चों का वह हीरो है क्योंकि उसके बाल हीरो माफिक हैं और वह दूसरे बच्चों की तरह बालों में तेल चिपड़कर कंघी नहीं करता है. वह इसलिए भी हीरो है क्योंकि उसकी एक गर्लफ्रेंड है, जोजी. उसका एक परमानेंट दुश्मन है पहलवान बजरंगी, जिससे कभी वह पिटता है, कभी उसे छकाता है, लेकिन अपने बाल आंखों के सामने से कभी नहीं हटाता है!
गुस्सैल बहुत हैं बेलन हथियार, चाचाजी कांपे आठ बार, चाची डांटे एक बार : बिन्नी चाची
चाचा चौधरी पहले सिगरेट पीते थे, शादी के बाद चाचीजी ने छुड़वा दी. चाचीजी दबंग महिला हैं और डरती किसी से नहीं हैं. चाचाजी उन्हें गहने कम बनवाकर देते हैं, इसकी शिकायत वे बेलन का मुंह चाचाजी की तरफ करके कई बार कर चुकी हैं. लेकिन बावजूद इस घर-दबंगई के, चाचीजी का चित्रण पारंपरिक ही रहा. वे स्टीरियोटाइप्ड हो चुकी घरेलू महिलाओं-सी ही हैं, खाना बनाती हैं, चाचाजी से नौंक-झौंक से जीवन चलाती हैं और साबू से स्नेह रखती हैं. विभिन्न सामाजिक बदलावों से नारी के गुजरने के बावजूद प्राण ने कभी उनका चित्रण नहीं बदला, बदलना चाहिए था.
इन मुख्य किरदारों के अलावा कुछ और भी हैं जिनकी स्मृतियां स्थाई बनी हुई हैं. श्रीमतीजी रोजमर्रा के जीवन संकटों में हास्य उत्पन्न करतीं, रमन रोज दफ्तर देर से पहुंचता. श्रीमतीजी अपने पति के साथ नोंक-झोंक में व्यस्त रहतीं, रमन मिडिल क्लास की दिक्कतों का स्कूटर लेकर रोज घर से निकलता और दफ्तर की जगह पचड़े में फंसता. इन सबके बीच बड़े-से जूड़े वाली गुस्सैल चन्नी चाची भी हैं जिनसे उनके पतिदेव उतने ही परेशान रहते हैं जितने चाचा चौधरी की कॉमिक्स आने के बाद विदेशी फैंटम, सुपरमैन और मेंड्रेक.
एक मजेदार चीज जिसने प्राण को बचपन में ऐसा चिह्नित किया कि आज भी उसका टैटू अमिट है, उनकी नाम लिखने की कैलीग्राफी. वे प्राण के ‘ण’ को जब शून्य और एक को साथ लाकर लिखते, तो उसे हम अलग-अलग उम्र में अलग-अलग तरह से समझते. बहुत बचपन में तो समझ ही नहीं आया कि ये प्राण लिखा है! कुछ बाद में जीरो वन से ण बनने लगा. फिर जब पढ़ाई उच्च हो गई, लगा कि ण को लिखने का तरीका बाइनरी नंबर सिस्टम को समर्पित है. अब पता नहीं कंप्यूटर का उनकी कॉमिक्स में एक किरदार-सा होना, और कंप्यूटर में बाइनरी नंबरों का महत्व का होना इसकी वजह थी या यह कैलीग्राफी बस यूं ही थी. इस तरह के बचकाने सवाल और कई सारे जरूरी सवाल अब जवाब तक नहीं पहुंचेंगे, क्योंकि प्राण पर किताबें नहीं के बराबर हैं, किसी ने उनकी रचनात्मकता पर गहरी निगाह डालने की कोशिश ही नहीं की. चंद इंटरव्यू, लेख, ढेर सारी कॉमिक्स, और ढेर सारे हमारे जैसे ही मामूली किरदार, प्राण को जानने-समझने के लिए यही बचा है अब हमारे पास.