बीते जून के आखिर में जब असम में गुवाहाटी नगर निगम के नतीजे आए तो इन्होंने राज्य की राजनीति पर नजर रखने वालों को भी एकबारगी चौंका दिया. चुनावों में असम गण परिषद का सफाया हो गया था. 31 वार्डों में से वह केवल एक वार्ड जीत सकी. दो बार (1985-90 और 1996-2001) मुख्यमंत्री रहे प्रफुल्ल कुमार महंत की अगुवाई वाली यह पार्टी कभी असम में शीर्ष पर थी लेकिन पिछले एक दशक में इसका तेजी से पतन हुआ है. यही वजह है कि कभी असमिया राष्ट्रवाद के सहारे बुलंदी पर पहुंचे महंत को पार्टी अध्यक्ष से हटाने की मांग तेज हो रही है.
2001 में तरुन गोगोई की अगुवाई में कांग्रेस ने असम गण परिषद और महंत को सत्ता से बाहर कर दिया था. तब से लेकर पार्टी की लगातार दुर्गति हो रही है. 2001 के बाद हुए हर विधानसभा चुनाव में उसकी सीटों की संख्या गिरती गई है. पंचायत से लेकर नगर निकाय चुनावों तक उसे हार का मुंह देखना पड़ा है. हर हार के बाद इसके कई नेता पार्टी छोड़ते रहे हैं. नतीजा यह हुआ है कि पार्टी की जमीनी पकड़ लगातार कमजोर होती गई है. गुवाहाटी नगर निगम चुनाव के नतीजों के बाद भी ऐसा ही देखने को मिला. पार्टी की कार्यकारी समिति के नौ और इसकी गुवाहाटी शहर समिति के 15 सदस्यों ने पार्टी को अलविदा कह दिया. अब पार्टी में मांग हो रही है कि नेतृत्व में बदलाव हो. उधर, पार्टी छोड़ चुके नेताओं को मनाने में महंत जी जान से जुटे हैं, लेकिन माना जा रहा है कि इसका मकसद कम पार्टी को कम और अपनी कुर्सी बचाना ज्यादा है. पार्टी के ही एक नेता कहते हैं, ‘ऐसी ही आत्मकेंद्रित सोच की वजह से शायद दो बार मुख्यमंत्री रह चुके एक शख्स की यह हालत है कि वह अपने ही साथियों के लिए खलनायक जैसा हो गया है.’
वरिष्ठ नेता और पार्टी विधायक पद्म हजारिका कहते हैं, ‘इस स्थिति में बदलाव तब तक मुश्किल है जब तक हम पार्टी में नई जान नहीं फूंकते. हमें नौजवानों को इससे जोड़ना होगा.’ नेतृत्व में बदलाव की मांग के साथ हजारिका ने एलान किया है कि अगर महंत की तानाशाही जारी रही तो वे हमेशा के लिए पार्टी छोड़ देंगे. वे कहते हैं, ‘पार्टी ने उनकी वापसी के बाद उनके नेतृत्व में हर बार हार का ही मुंह देखा है.’ एक और वरिष्ठ नेता अपूर्व भट्टाचार्य ने तो पार्टी छोड़कर कांग्रेस से जुड़ने का एलान भी कर दिया है. पूर्व मंत्री और असम में बाहरी लोगों के खिलाफ 80 के दशक में चले आंदोलन के दिनों से महंत के साथी अतुल बोरा ने भी पार्टी छोड़कर भाजपा से नाता जोड़ लिया है. राज्य में भाजपा के वर्तमान अध्यक्ष सर्वानंद सोनोवाल खुद एक समय असम गण परिषद के फायरब्रांड नेता रह चुके हैं.
उन्होंने 2011 के विधानसभा चुनावों में पार्टी की बुरी गत के बाद इसे अलविदा कह दिया था. भट्टाचार्य कहते हैं, ‘महंत और पार्टी के भीतर लॉबी बनाने वाले उनके चाटुकारों ने हमेशा पार्टी को अपने निजी हितों के लिए इस्तेमाल करने की कोशिश की है. इस संस्कृति ने पार्टी को बर्बाद किया है. हम पिछले 12 साल में एक भी चुनाव नहीं जीते हैं. लेकिन नेतृत्व में कोई बदलाव नहीं हुआ. असम संधि के अलावा उनके पास दिखाने के लिए कोई और उपलब्धि नहीं.’ भट्टाचार्य उस संधि की बात कर रहे हैं जो 1985 में भारत सरकार और महंत सहित कुछ अन्य नेताओं के बीच हुई थी जिसके बाद राज्य में बाहर से आए लोगों के खिलाफ छह साल तक चले आंदोलन का अंत हो गया था.
उधर, महंत जी-जान से कोशिश कर रहे हैं कि स्थिति संभल जाए. पार्टी छोड़ चुके नेताओं को मनाने के लिए कोशिशें हो रही हैं. उनसे कई दौर की बातचीत भी हुई है. गुवाहाटी में पत्रकारों से बात करते हुए महंत का कहना था, ‘सुधार होंगे. हम मानते हैं कि पिछले एक दशक के दौरान हमने सिर्फ असफलता देखी है. लेकिन इसका मतलब यह नहीं कि हम सफलता के लिए कोशिशें करना छोड़ दें.’ हालांकि पार्टी नेताओं को मनाने की उनकी कवायद का नतीजा अब तक सिफर ही रहा है.
वैसे अतीत में कई बार ऐसा हुआ है जब महंत की नैया डूबती हुई लगी लेकिन वे उसे उबार लाए. 2001 में सचिवालय में कार्यरत एक सहायक भाषा अधिकारी संघमित्रा भराली ने आरोप लगाया था कि महंत ने उनसे शादी कर ली है. महंत पहले से ही शादीशुदा थे और इस आरोप के बाद राज्य की राजनीति में भूकंप आ गया. महंत की छवि पर ग्रहण लग गया और इतना हंगामा हुआ कि उन्हें पार्टी अध्यक्ष की कुर्सी छोड़नी पड़ी. यह आरोप महंत के पतन की शुरुआत था. बतौर मुख्यमंत्री अपने दूसरे कार्यकाल में उन पर कुछ गुप्त हत्याएं करवाने के आरोप भी लगे. इन आरोपों ने उनका और उनकी पार्टी का भट्ठा बैठा दिया. संघमित्रा विवाद पर महंत का पार्टी के दूसरे नेताओं से टकराव हुआ था जिसके बाद पार्टी विरोधी गतिविधियों के आरोप में उनकी सदस्यता खत्म कर दी गई.
लोगों को लगा कि अब उनका करियर खत्म हो गया. लेकिन 2005 में महंत ने असम गण परिषद (प्रोग्रेसिव) के नाम से एक नई पार्टी बना ली. हालांकि 2008 में इसका अतुल बोरा की अगुवाई वाले पार्टी के दूसरे धड़े के साथ विलय हो गया. 2011 के विधानसभा चुनावों में हार के बाद पार्टी नेताओं के एक वर्ग को लगा कि महंत को फिर से पार्टी का चेहरा बनाना चाहिए. 27 अप्रैल, 2012 को महंत एक बार फिर पार्टी अध्यक्ष बन गए. लेकिन पार्टी की हालत सुधरना तो दूर, और बिगड़ती चली गई.
असम गण परिषद महंत ने बनाई थी. 32 साल की उम्र में वे मुख्यमंत्री बन गए थे जो आज भी एक रिकॉर्ड है. लेकिन आज हाल यह है कि लोग तो क्या पार्टी भी उन्हें बर्दाश्त करने को तैयार नहीं. सवाल यह है कि क्या वे इतनी आसानी से कमान किसी और के हाथ में देने को तैयार होंगे.