ग्रामीण परिदृश्य बदलने में मनरेगा का योगदान, डेली वेज बढ़ाए जाने की मांग।
बृज खंडेलवाल द्वारा
गरीबी के खिलाफ जंग में मनरेगा की महत्वपूर्ण भूमिका रही है। अगर 25 करोड़ लोग गरीबी की रेखा से ऊपर उठे हैं, तो ग्रामीण रोजगार स्कीम्स ने इस क्रांति को सफल अंजाम दिया है, बेशक क्रियान्वयन बेहतर और भ्रष्टाचार मुक्त हो सकता था।
इस तथ्य को भी स्वीकारा जा सकता है कि ग्रामीण क्षेत्रों में मुद्रा प्रवाह बढ़ा है, जिससे जीवन स्तर में हल्के बदलाव दिखने लगे हैं। सरकार की दो दर्जन से ज्यादा योजनाएं बदलाव का इंजन बन रहीं हैं।
दक्षिण के प्रांतों में, मध्य प्रदेश और गुजरात में ग्रामीण योजनाओं के बेहतर क्रियान्वयन से गरीबी उन्मूलन की दिशा में खासी प्रगति हुई है। बिहार, पश्चिम बंगाल, यूपी, झारखंड आदि राज्य प्रयासरत हैं दौड़ का हिस्सा बनकर आगे निकलने के लिए। फ्री राशन स्कीम जो कोविड काल में मजबूरी में शुरू हुई, अभी भी चल रही है। ये एक बहुत जबरदस्त बफर या shock absorber बनके उभरी है। आने वाले समय में गरीबी की परिभाषा बदलनी होगी। क्योंकि सत्यजीत राय की फिल्मों के जैसे गरीबी अब नहीं दिखती, बल्कि शहरों के स्लम्स, झुग्गी झोंपड़ियों में रहने वाले मोबाइल, टीवी, मोबाइक, ऐसी, आदि सुविधाएं उपयोग करने की हैसियत रखते हैं।
बीस साल पहले, कभी जनता पार्टी द्वारा शुरू किए गए “अंत्योदय” और “रोज़गार के बदले अनाज” जैसी योजनाओं से शुरू हुआ भारत का सामाजिक सुरक्षा अभियान, 2005 में मनरेगा के ज़रिए एक क़ानूनी हक़ बन गया था।
लेकिन अब यह सवाल उठ रहा है: क्या केंद्र सरकार की हालिया नीतियों ने इस योजना की आत्मा को घायल तो नहीं कर दिया है?
मनरेगा—जिसे अब महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोज़गार गारंटी अधिनियम (MGNREGA) कहा जाता है—एक समय गांव के गरीबों के लिए राहत की सांस था। यह योजना इस वादे पर टिकी थी कि हर ग्रामीण परिवार को साल में 100 दिन का रोज़गार मिलेगा, वो भी मांगने पर सिर्फ़ 15 दिन के भीतर। लेकिन अब सरकार द्वारा वित्तीय वर्ष 2025-26 की पहली छमाही में खर्च पर 60% की सीमा लगाने का फ़ैसला इस योजना को गंभीर संकट में डाल सकता है।
यह योजना सिर्फ़ मज़दूरी देने तक सीमित नहीं थी। गांवों में जल संरक्षण, सिंचाई, सड़क और अन्य ज़रूरी ढांचे तैयार कर कृषि को सहारा भी दिया गया। फिर भी, पिछले कुछ वर्षों में इस योजना की हालत कुछ बिगड़ती जा रही है। कुल बजट का हिस्सा GDP का महज़ 0.26% रह गया है, जबकि विशेषज्ञ इसे 1.7% तक बढ़ाने की सलाह दे रहे हैं।
सबसे बड़ा संकट मज़दूरी के भुगतान में देरी है। मार्च 2025 तक ₹21,000 करोड़ सिर्फ़ पुराने बकायों को चुकाने में खर्च हो चुके थे। नई मज़दूरी के लिए पैसे ही नहीं बचे। मज़दूरों को महीने–दो महीने तक मज़दूरी नहीं मिलती, जिससे वे क़र्ज़ में डूब जाते हैं।
ऊपर से मज़दूरी दरें भी शर्मनाक रूप से कम हैं—₹202 से ₹357 प्रतिदिन—जो 2009 की महंगाई दर के आधार पर तय की गई थीं। विशेषज्ञों ने बार-बार नए आधार वर्ष 2014 को लागू करने की माँग की, लेकिन सरकार ने कान नहीं दिए। मजदूरी न्यूनतम वेज एक्ट के तहत तय की जानी चाहिए। कम मजदूरी की वजह से गांव से शहर की तरफ पलायन रुक नहीं पा रहा है।
औसतन हर परिवार को साल में केवल 50 दिन का काम ही मिल पा रहा है। 100 दिनों का वादा पूरा होने की दर महज़ 7% है। ज़ाहिर है, नीति और हक़ीक़त के बीच बहुत बड़ा फ़ासला है।
भ्रष्टाचार रोकने के नाम पर आधार लिंक भुगतान और मोबाइल ऐप से हाज़िरी जैसे तकनीकी उपाय लागू किए गए हैं। लेकिन इससे असली ज़रूरतमंद—बूढ़े, अनपढ़, स्मार्टफोन या इंटरनेट से वंचित लोग—योजना से बाहर हो रहे हैं। ग्राम पंचायतों की भूमिका भी कमज़ोर हो गई है। सामाजिक ऑडिट, जो एक समय निगरानी का असरदार ज़रिया था, अब सिर्फ़ दिखावा बनकर रह गया है। पश्चिम बंगाल जैसे राज्यों में केंद्र और राज्य की सियासी खींचतान का खामियाज़ा आम मज़दूर भुगत रहा है—उसे रोज़गार भी नहीं और जवाब भी नहीं।
कई राज्यों में मनरेगा में भारी घोटालों की ख़बरें भी सामने आई हैं। लेकिन जांच का रवैया भी राजनीतिक मंशा पर निर्भर दिखता है—कहीं कार्रवाई, तो कहीं चुप्पी।
बिहार के पब्लिक कॉमेंटेटर प्रोफेसर पारस नाथ चौधरी कहते हैं कि अगर यही हाल रहा, तो जलवायु परिवर्तन और अनियमित मानसून की मार झेल रहे किसान और मज़दूर और ज़्यादा परेशान होंगे। नोटबंदी और कोरोना जैसे संकटों में भी यही योजना ग्रामीण भारत का सहारा बनी थी।”
अगर सरकार वाक़ई ग्रामीण कल्याण को लेकर संजीदा है, तो उसे चाहिए कि 60% खर्च की सीमा हटाकर योजना को उसकी मूल भावना—मांग पर आधारित रोज़गार—की ओर लौटाए। बजट को कम से कम GDP के 1.7% तक बढ़ाया जाए, मज़दूरी दरें समयानुसार सुधारी जाएं और भुगतान में देरी खत्म की जाए।