इस आयोग की सिफारिशें मीडिया कर्मचारियों के लिए सिर्फ सपना बनकर रह गई हैं, जिसे हकीकत बनाने के लिए तमाम मीडिया मालिकान के खिलाफ मुट्ठी-भर पत्रकार ही संघर्ष कर रहे हैं. न्यायपालिका के सख्त आदेशों के बावजूद मीडिया संस्थान इसे लागू करने में आनाकानी कर रहे हैं. सिफारिशें न लागू करने के हर तरह के हथकंडे संस्थान अपना रहे हैं. मसलन उनके खिलाफ कोर्ट में जाने वाले पत्रकारों का शोषण, कंपनी को छोटी यूनिटों में बांटना, कम आय दिखाना, कर्मचारियों से कांट्रैक्ट साइन करवाना कि उन्हें आयोग की सिफारिशें नहीं चाहिए. इतने झंझावातों के बावजूद पत्रकार अपने हक के लिए लगातार लड़ रहे हैं. हालांकि इस लड़ाई में अभी भी पत्रकारों की एकजुटता काफी कम है. पत्रकारों के लिए दिवतिया आयोग, शिंदे आयोग, पालेकर आयोग, बछावत आयोग, मणिसाना आयोग और उसके बाद मजीठिया वेतन आयोग आया है, जिनका उद्देश्य पत्रकारों को एक समान वेतनमान दिलाना और उनके आर्थिक पहलू को मजबूत करना है. हाल ये है कि आज भी बड़े-बड़े अखबारों में होने वाला सबसे छोटे पद ‘उपसंपादक’ का मासिक वेतनमान 12 से 15 हजार रुपये है, जबकि आयोग की सिफारिशें लागू करने पर यह तनख्वाह कम से कम 35 हजार हो जाएगी.
मजीठिया आयोग ने अखबारी और एजेंसी कर्मियों के लिए 65 प्रतिशत तक वेतन वृद्धि की सिफारिश की है. साथ में मूल वेतन का 40 प्रतिशत तक आवास भत्ता और 20 प्रतिशत तक परिवहन भत्ता देने का सुझाव दिया है, जिसे आज तक मीडिया मालिकों ने लागू नहीं किया. आयोग की सिफारिशों के अनुसार पत्रकार और गैर पत्रकार कर्मचारियों के मूल वेतन और डीए में, 30 प्रतिशत अंतरिम राहत राशि और 35 प्रतिशत वैरिएबल पे को जोड़कर तय किया गया है. समाचार पत्र उद्योग के इतिहास में किसी आयोग ने इस तरह की सिफारिश पहली बार की है. महंगाई भत्ता मूल वेतन में शत प्रतिशत ‘न्यूट्रलाइजेशन’ के साथ जुड़ेगा. ऐसा अब तक केवल सरकारी कर्मचारियों के मामले में होता आया है. वेतन बोर्ड ने 60 करोड़ रुपये या इससे अधिक के सकल राजस्व वाली समाचार एजेंसियों को शीर्ष श्रेणी वाले समाचार पत्रों के साथ रखा है. इस प्रकार समाचार एजेंसी पीटीआई शीर्ष श्रेणी में जबकि यूएनआई दूसरी श्रेणी में है. उदाहरण के अनुसार सिफारिशें लागू हों तो 1000 करोड़ की कंपनी में वरिष्ठ उप संपादक का वेतन 85 हजार से ऊपर हो जाएगा लेकिन इस समय उसे मात्र 17 हजार से 25 हजार के बीच ही वेतन मिल रहा है. इसके अलावा शहरों की श्रेणी के अनुसार पत्रकारों को तमाम दूसरी तरह की सहूलियतें देने की भी सिफारिश की गई हैं.
नवंबर 2011 से लागू करने की बात
सुप्रीम कोर्ट ने 7 फरवरी 2014 को अखबारों और समाचार एजेंसियों को मजीठिया वेज बोर्ड की सिफारिशें लागू करने का आदेश दिया और कहा कि वे अपने कर्मचारियों को संशोधित पे स्केल के हिसाब से भुगतान करें. न्यायालय के आदेश के अनुसार यह वेतन आयोग 11 नवंबर 2011 से लागू होगा जब इसे सरकार ने पेश किया था और 11 नवंबर 2011 से मार्च 2014 के बीच बकाया वेतन भी पत्रकारों को एक साल के अंदर चार बराबर किस्तों में दिया जाएगा. आयोग की सिफारिशों के अनुसार अप्रैल 2014 से नया वेतन लागू किया जाएगा. तत्कालीन चीफ जस्टिस पी. सतशिवम और जस्टिस रंजन गोगोई और जस्टिस एसके सिंह की बेंच ने इस आयोग की सिफारिशों को चुनौती देने वाली याचिकाएं खारिज कर दीं. बेंच ने सिफारिशों को वैध ठहराया और कहा कि सिफारिशें उचित विचार-विमर्श पर आधारित हैं और भारतीय संविधान के अनुच्छेद 32 के तहत इसमें हस्तक्षेप करने का कोई वैध आधार नहीं है. बहरहाल तमाम अखबारों के प्रबंधन मजीठिया आयोग के विधान, काम के तरीके, प्रक्रियाओं और सिफारिशों से नाखुश थे. इनका मानना था कि अगर इन सिफारिशों को पूरी तरह माना गया तो वेतन में एकदम से 80 से 100 फीसदी तक इजाफा करना पड़ सकता है, जो छोटे और कमजोर समूहों व कंपनियों पर तालाबंदी का अंदेशा बढ़ा सकता है. दलील यह भी थी कि अन्य उद्योगों की तुलना में प्रिंट मीडिया में गैर-पत्रकार कर्मचारियों को वैसे भी ज्यादा वेतन दिया जा रहा है. अगर सिफारिशें लागू की गईं तो वेतन में अंतर का यह दायरा और बढ़ जाएगा. हालांकि सुप्रीम कोर्ट की बेंच ने इनमें से किसी दलील को तवज्जो नहीं दी. साथ ही कहा कि यह केंद्र सरकार का विशेषाधिकार है कि वह सिफारिशों को मंजूर करें या खारिज कर दंे. कोर्ट ने यह भी कहा कि अगर सरकार ने कुछ सिफारिशें मंजूर नहीं कीं तो यह पूरी रिपोर्ट को खारिज करने का आधार नहीं है. इसके बाद मीडिया घरानों की रिव्यू पिटीशन भी सुप्रीम कोर्ट में 10 अप्रैल 2014 को खारिज हो चुकी है.
मीडिया मालिक यहां फंसा रहे पेंच
सूत्रों की मानें तो दैनिक जागरण, राजस्थान पत्रिका, दैनिक भास्कर, हिन्दुस्तान व अन्य बड़े अखबारों के प्रबंधन ने अपने कर्मचारियों से एक फॉर्म पर साइन ले लिए हैं, जिस पर लिखा है कि उन्हें मजीठिया आयोग नहीं चाहिए, वे कंपनी प्रदत्त वेतन एवं सुविधाओं से संतुष्ट हैं. कंपनी उनकी सुख-सुविधा का ध्यान रखती है. समय से उन्हें प्रमोशन मिलता है, अच्छा इंक्रीमेंट लगता है, बच्चों (अगर हैं) की पढ़ाई-लिखाई, स्वास्थ्य-चिकित्सा, उनकी बेहतरी का पूरा ख्याल कंपनी रखती है.
सुप्रीम कोर्ट में दे रहे ये दलील
एक बड़े अखबार में काम करने वाले वरिष्ठ उप संपादक सुरेश राय (बदला हुआ नाम) बताते हैं कि कागजों पर हस्ताक्षर को लेकर ये दलील दी जा रही है कि कर्मचारी लिखित में दे चुका है कि वह मौजूदा वेतन से संतुष्ट है. मामले को लेकर कर्मचारी और अखबार सुप्रीम कोर्ट तक चले गए हैं. सुनावाई के दौरान कुछ अखबार मालिकों ने अपने यहां कार्यरत पत्रकारों के बारे में दलील दी है कि वे प्रबंधकीय कार्य करने वाले कर्मचारी हैं और वर्किंग जर्नलिस्ट एक्ट के अनुसार प्रबंधकीय कार्य करने वाले कर्मचारियों पर वेज बोर्ड लागू नहीं होता है. सवाल यह है कि ऐसे फार्मों-बांडों-कागजों-करारनामों पर साइन-दस्तखत करा लेने का कोई कानूनी-वैधानिक आधार है? कानून की किताबें तो इसे गैरकानूनी, अवैध, गलत बताती हैं. विशेष रूप से द वर्किंग जर्नलिस्ट्स एंड अदर न्यूजपेपर इंप्लाइज (कंडीशन ऑफ सर्विस) एंड मिस्लेनियस प्रोविजंस एक्ट 1955 के चैप्टर चार का अनुच्छेद 16, वर्किंग जर्नलिस्ट्स (कंडीशन ऑफ सर्विस) एंड मिस्लेनियस प्रोविजंस रूल्स 1957 के चैप्टर छह का अनुच्छेद 38 और द पेमेंट ऑफ वेजेज एक्ट 1936 का अनुच्छेद 23 तो यही कहता है. इन कानूनों का निचोड़ यही है कि इनके कोऑर्डिनेशन से हुआ या किया गया कोई भी समझौता अमान्य, निष्प्रभावी, अशक्त, अकृत, शून्य हो जाता है.
सुप्रीम कोर्ट का उड़ा रहे मखौल
भारतीय लोकतंत्र की अन्योन्याश्रित चार प्रमुख शक्तियां हैं:- विधायिका, न्यायपालिका, कार्यपालिका और मीडिया, लेकिन आयोग की सिफारिशें लागू न करने का ताजा प्रसंग अब ये संदेश देने लगा है कि अब तक सिर्फ राजनेता, अफसर और अपराधी ही ऐसा करते रहे हैं, अब मीडिया भी डंके की चोट पर सुप्रीम कोर्ट के आदेशों का मजाक बनाने लगा है. मजीठिया वेज बोर्ड से निर्धारित वेतनमान न देने पर अड़े मीडिया मालिकों को जब सुप्रीम कोर्ट ने अनुपालन का फैसला दिया तो उसे अनसुना कर दिया गया. इस समय मीडियाकर्मी अपने हक के लिए दोबारा सुप्रीम कोर्ट की शरण में हैं.
यूनिट बनाकर कम दिखा रहे लाभ
सूत्रों की माने तो अखबार मालिक यूनिट के लाभ को आधार बनाकर सिफारिशें लागू करने की फिराक में हैं. कुछ अखबारों ने ऐसा किया भी है. ये कंपनी को कई यूनिटों में बांटकर लाभ को कम करके दिखा रहे हैं, जबकि यह सरासर गलत है. वर्किंग जर्नलिस्ट एक्ट के अनुसार कंपनी एक है तो उसे यूनिट में विभाजित कर लाभ-हानि नहीं दिखाए जा सकते. एक कंपनी के कई अखबार और कई प्रदेशों से प्रकाशन होने पर भी मदर कंपनी का ही लाभ और हानि देखा जाएगा.
प्रताड़ना, तबादला और बर्खास्तगी
मध्यप्रदेश में राजस्थान पत्रिका समूह में काम कर रहे पत्रकार दुर्गेश दत्त (बदला हुआ नाम) ने बताया, ‘पत्रिका प्रबंधन को यकीन था कि उनके खिलाफ कोर्ट में कोई नहीं जाएगा. हालांकि हुआ इसके उलट. सुप्रीम कोर्ट के फैसला लागू नहीं होने पर कर्मचारियों ने सुप्रीम कोर्ट में अखबार मालिक के खिलाफ अवमानना की याचिका दायर कर दी. इससे अखबार मालिक आग बबूला हो गए. उन्होंने कर्मचारियों के जबरन तबादला और नौकरी से निकाले जाने की प्रताड़ना शुरू कर दी. भोपाल पत्रिका में दो कर्मचारियों को नौकरी से बाहर कर दिया गया जबकि पांच लोगों के तबादले 1900 किमी दूर तक कर दिया गया. बाकी बचे आठ याचिकाकर्ताओं पर भी नौकरी से बर्खास्तगी और तबादले की तलवार लटकी हुई है.’ उधर, राजस्थान में भी राजस्थान पत्रिका अपने सैकड़ों कर्मचारियों का तबादला दूर-दूर कर रहा है. ये सभी मालिक के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट में खड़े हैं. लगभग यही हालात दैनिक जागरण, दैनिक भास्कर और तमाम बड़े-छोटे हिंदी और भाषाई अखबारों की है.
अखबारों में शोषण की परंपरा
संस्थानों में पत्रकारों का शोषण आज की देन नहीं है. यह काफी समय से चली आ रही परंपरा का हिस्सा है. मजीठिया आयोग की सिफारिशों के बाद ये शोषण और बढ़ा है. यह आयोग पत्रकारों के लिए एक उम्मीद लेकर आया. सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद पत्रकारों को यकीन का था कि मीडिया घराने कम से कम देश की न्यायपालिका को तो ठेंगा नहीं दिखाएंगे. मीडिया मालिकों ने मई 2015 में सिफारिशों के अनुसार वेतन तो नहीं दिया बल्कि उनका शोषण और बढ़ा दिया. उनसे अधिक काम लिया जाने लगा ताकि वे मजीठिया के बारे में सोच भी न पाए और उन्हें हमेशा अपनी नौकरी बचाने की ही चिंता रहे.
हायर की नई कंपनियां
राजस्थान में काम करने वाले पत्रकार अभिमन्यु सागर (बदला हुआ नाम) बताते हैं, ‘जर्नलिस्ट एक्ट के अनुसार प्रिंट मीडिया में पत्रकारों के लिए दिन की नौकरी छह घंटे की और रात में साढ़े पांच घंटे की निर्धारित है. लेकिन अखबार में पत्रकारों से दस से 12 घंटे तक काम लिया जाता है और उन्हें ओवरटाइम भी नहीं दिया जाता है. डीए देना बंद कर दिया गया. सैलरी स्लिप नहीं दी जाती है यहां तक कि पेड लीव भी नहीं दी जाती और न ही उनका इनकैश किया जाता है. मजीठिया वेतन आयोग आने के पहले से ही अखबार मालिकों ने एक नई कंपनी हायर कर ली है और अधिकतर कर्मचारियों को उसमें शिफ्ट कर दिया गया, ताकि वे जिंदगी में कभी भी मजीठिया वेतन की मांग नहीं कर सके. अब लोगों को कॉन्ट्रेक्ट पर ही रखा जा रहा है.’
राज्य सरकारों को दिया निर्देश
मजीठिया वेज बोर्ड में 28 अप्रैल 2015 को कंटेम्प्ट पिटीशंस पर सुनवाई करते हुए सुप्रीम कोर्ट ने सभी राज्यों से मजीठिया वेज बोर्ड लागू होने की जानकारी वर्किंग जर्नलिस्ट एक्ट 17 बी के तहत मांगी है. इसके लिए सुप्रीम कोर्ट ने राज्यों को तीन माह का वक्त दिया था, जो वक्त पूरा हो गया है. कोर्ट ने विशेष लेबर इंस्पेक्टर नियुक्त करने को कहा ताकि देश में मजीठिया आयोग की सिफारिशें लागू होने की सही स्थिति की जानकारी मिल सके. अगस्त में इस मामले में सुनवाई होनी है. इस बीच दिल्ली को छोड़ शायद ही किसी राज्य ने मजीठिया बोर्ड के फैसले पर कोई सकारात्मक काम किया है. दिल्ली सरकार ने राज्य के पत्रकारों को मजीठिया आयोग की सिफारिशें दिलाने की घोषणा की है. मीडिया में ये स्थितियां कुछ वैसी ही हैं जैसी 1989 में बनी थीं. तब भी मीडिया कंपनियां बछावत आयोग की सिफारिशें लागू करने में ना-नुकुर कर रही थीं लेकिन तब राजीव गांधी की सरकार ने सख्ती बरतते हुए उन्हें आयोग की सिफारिशें लागू करने के लिए बाध्य किया लेकिन वर्तमान में ऐसा कुछ होता नहीं दिख रहा है.
(लेखक पत्रकार हैं)