लोकतंत्र पर हावी राजनीतिक वंशवाद

शिवेन्द्र राणा

उत्तर प्रदेश के प्रयागराज में महाकुम्भ के बीच प्रदेश की राजनीति वंशवाद-परिवारवाद के शापित कुंड में केलि-क्रीड़ा में मग्न थी। हुआ कुछ यूँ कि पिछले दिनों एनडीए गठबंधन के सहयोगी दल निषाद पार्टी के प्रदेश सचिव धर्मात्मा निषाद ने उत्तर प्रदेश सरकार के मंत्री और पार्टी के सर्वेसर्वा संजय निषाद तथा उनके दोनों बेटों पर अपने परिवार के लिए उनकी राजनीतिक सम्भावनाओं की बर्बादी, फ़र्ज़ी मुक़दमे लगवाने, स्वयं के स्वार्थपूर्ण इस्तेमाल जैसे गंभीर आरोप लगाकर आत्महत्या कर ली।

राजनीतिक संदर्भ में यह घटना सामान्य नहीं है। लेकिन प्रायोजित ख़बरों की सुर्ख़ियों में एक युवक की मौत की ख़बर कहीं दब गयी। असल में यह आत्महत्या नहीं है, बल्कि जम्हूरियत में उभरती संभावनाओं की मौत है। यह हत्या है- जनतांत्रिक मूल्यों की, लोकतंत्र के वास्तविक अर्थ की और उस राजनीतिक संचेतना की, जिसमें लोकतंत्र को जीवंत रखने का नैतिक संबल है। लेकिन वंशवाद के इस अनाचार का दु:खद पहलू यह है कि सबको अपने-अपने स्वार्थ दिख रहे हैं। देश की भी तंद्रा भी नहीं टूटी, न ज़रा भी विचलित हुई। एक तरफ़ धर्मात्मा निषाद की लाश थी और उसी दौरान दूसरी तरफ़ भारत के रक्षामंत्री एवं वरिष्ठ भाजपा नेता राजनाथ सिंह के छोटे बेटे नीरज सिंह को उत्तर प्रदेश बॉक्सिंग फेडरेशन का अध्यक्ष नियुक्त कर दिया गया। उनके बड़े बेटे पंकज सिंह विधायक हैं ही। नीरज सिंह को तो बॉक्सिंग भी नहीं आती और उन्हें इसकी ज़रूरत भी नहीं है; क्योंकि उनके पास कहीं अधिक बड़ी योग्यता है- राजनाथ सिंह का बेटा होने की। उसी प्रकार जैसे कि पहले बीसीसीआई के सचिव और फिर आईसीसी के चेयरमैन पद पर जमे जय शाह को क्रिकेट नहीं आती। लेकिन उनके पास भी गृहमंत्री अमित शाह के बेटा होने की राजनीति-प्रदत्त विशेष योग्यता है, जिसके बाद किसी और योग्यता की ज़रूरत ही नहीं हैं।

वास्तव में अयोग्यों की ऐसी नियुक्तियाँ किसी शक्तिशाली राजनीतिक समूह की जीत से कहीं अधिक जनतांत्रिक मूल्यों की हार है, जहाँ धन एवं सत्ता से पोषित तंत्र की ये सर्वाधिकारवादी व्यवस्था आमजन के सामूहिक सम्मान को पैरों तले रौंदती है। इस वंशवाद ने सार्वजनिक रूप से देश में बड़े और मलाई वाले पदों पर जबरन क़ब्ज़ा करने की विद्रूप स्थिति पैदा कर दी है।

मछलीशहर लोकसभा सीट से सांसद चुनी गयी सपा की वरिष्ठ नेता तूफ़ानी सरोज की बेटी प्रिया सरोज के लोकसभा चुनाव जीतने के बाद टीवी मीडिया के पत्रकार ने राष्ट्रीय विमर्श से इतर सवाल पूछा कि आप तो अब सांसद बन गयी हैं, तो आपके प्रशंसक इंस्टाग्राम पर आपकी रील को बहुत मिस करेंगे? तो मैडम ने मुस्कुराकर आगे भी अपने फॉलोवरों से जुड़े रहने का वादा किया। फ़िलहाल इस सस्ती पत्रकारिता को जाने देते हैं; उन मोहतरमा की बात करें। धरती-पुत्र मुलायम सिंह यादव की विरासत वाली समाजवादी पार्टी को उस पूरे संसदीय क्षेत्र में तूफ़ानी सरोज की बेटी से अधिक योग्य कोई और प्रत्याशी मिला ही नहीं और कृपा जनता जनार्दन की, कि एक नेता की बेटी ही संसद पहुँचीं।

ज़्यादातर पार्टियों में ऐसे कई-कई उदाहरण इस देश की लोकतांत्रिक-राजनीतिक व्यवस्था के चारित्रिक पतन का प्रमाण हैं। राजनीतिक शुचिता तो भारतीय लोकतंत्र में जैसे बची ही नहीं है। ख़ुद को सार्वजनिक रूप से बाहुबली प्रदर्शित करने वाले और आये दिन विवादों में रहने वाले बृजभूषण सिंह ने भाजपा को धमकाकर कैसरगंज की संसदीय सीट को अपने बेटे करण भूषण को सांसद बनवा दिया। और कहा यह कि मेरे क्षेत्र से किसी भी व्यक्ति ने पार्टी से टिकट के लिए आवेदन ही नहीं किया था। लेकिन असल में यह बाहुबल द्वारा संरक्षित वंशवाद का उदाहरण है।

कांग्रेस और दुर्भाग्यपूर्ण ढंग से शोषित, दलितों के संघर्ष की प्रतीक बसपा जैसी राष्ट्रीय पार्टियों से लेकर सपा, राजद, रालोद, द्रमुक जैसी क्षेत्रीय पार्टियों ने तो वंशवाद को संस्थागत रूप दे दिया है। लेकिन इसे बिलकुल नये परिवेश में तथाकथित पार्टी विद डिफरेंस वाली सत्तारूढ़ पार्टी भाजपा ने प्रस्तुत किया है। यानी भाजपा ने तो परिवारवाद को ग्लैमराइज करना प्रारम्भ कर दिया है। जैसे सुषमा स्वराज की बेटी, जो अपनी वकालत की प्रैक्टिस से सीधे दिल्ली भाजपा के कार्यकर्ताओं के ऊपर मुसल्लत कर दी गयीं। ऊपर से तुर्रा यह कि निर्लज्ज भाजपा नेता दूसरे विपक्षी दलों के वंशवाद की आलोचना करते हैं।

क्या यह एक गणतांत्रिक राष्ट्रीयता के साथ क्रूर और भद्दा मज़ाक़ नहीं है? आख़िर कैसे एक जागृत लोकतांत्रिक राज्य व्यवस्था वंशवाद के इस घृणित स्वरूप को इतने सम्मान के साथ अपना सकती है; लेकिन भारत में यह क़ायम है। असल में हज़ार वर्षों के दासत्व भाव ने भारत के राष्ट्रीय समाज को व्यावहारिक और चारित्रिक रूप से इतना नंपुसक और पतनशील बना दिया है कि ज़्यादातर लोगों को ग़ुलामी की आदत पड़ गयी है। हालाँकि धर्मात्मा निषाद की इस प्रत्यक्ष आत्महत्या और परोक्ष हत्या के लिए मात्र राजनीतिक वंशवाद एवं परिवारवाद ही नहीं, बल्कि जातिवाद की कुत्सित सोच भी ज़िम्मेदार है। राष्ट्रीय लोकतांत्रिक राजनीतिक व्यवस्था में जातिवाद की जितनी भी सार्वजनिक आलोचना हो, किन्तु यह एक अतिव्याप्त आदर्श सत्य है। मरहूम युवा नेता ने जाति आधारित राजनीति में ही अपने लिए अवसर और सामाजिक ज़मीन तलाशने का प्रयास किया, जिस पर पहले से ही उसकी जाति के शक्तिशाली लोग क़ाबिज़ थे। यानी धर्मात्मा ने राजनीतिक प्रगति के लिए वही शॉर्टकट का रास्ता लिया, जो पिछले सत्तर वर्षों से सर्वविदित है और यहीं वह चूक गये।

पिछले क़रीब तीन दशकों की जम्हूरियत की राजनीतिक यात्रा पर नज़र दौड़ाएँ, तो एक निर्धारित पैटर्न दिखेगा कि कभी भी जाति आधारित राजनीति करने वाले नेताओं और उनके परिवार ने अपने परिवार के बाहर कोई भी नया नेतृत्व पनपने नहीं दिया। जैसे पप्पू यादव बिहार के यादव समाज में काफ़ी लोकप्रिय है। आम जनता से जुड़े हैं। निर्दलीय चुनकर संसद पहुँचते रहे हैं। और लालू यादव मार्का भदेसपन की राजनीति के वास्तविक उत्तराधिकारी वही थे; लेकिन पुत्र मोह में राजद ने उनके उभार के सारे रास्ते कुंद कर दिये। रामविलास पासवान ने अपने परिवार के बाहर कोई पासवान नेता पनपने ही नहीं दिया। मायावती के स्वर्णिम-काल में उनके आगे कोई दलित नेतृत्व उभर ही सका। ऐसे तमाम उदाहरण राजनीति में भरे पड़े हैं।

आज देश में जिस वंशवादी अयोग्यता का बोलबाला है, उसकी मुख्य प्रणेता राजनीति ही है; क्योंकि वही राष्ट्र की चालक शक्ति है और उसका अनुगमन अन्य दूसरे क्षेत्र करते हैं। राजनीति इस वंशवादी कलुषता का मात्र मुखर प्रतिनिधित्व करती है। वंशवाद और परिवारवाद की राजनीति से चाहे लाभ किसी भी दल या वर्ग को मिलता हो; लेकिन लोकतांत्रिक चेतना को इससे भारी नुक़सान पहुँच रहा है।

आज जो एकल पार्टीवादी डेमोक्रेसी या निस्तेज विपक्षहीन संसदीय व्यवस्था भारतीय जम्हूरियत के ऊपर हावी है, उसकी मूल वजह भी यही वंशवादी षड्यंत्र है। यदि ऐसा न होता, तो सत्ता की ढिठाई एवं नौकरशाही की गुंडई पर लोकतंत्र का अंकुश लगा होता। वंशवाद के इस निकृष्ट स्वरूप के लिए राष्ट्रीय समाज भी समान रूप से उत्तरदायी है। इसलिए देखिए, सोचिए और समझिए कि योग्यता तथा अपने हिस्से के संघर्ष से ख़ुद का वजूद बनाने के बावजूद मौत को गले लगाने वाले ऐसे युवाओं के गुनाहगारों में निर्वाचक यानी मतदाता के रूप में आप भी तो शामिल नहीं हैं? क्योंकि आपकी जाति आधारित व्यक्ति पूजन की वृत्ति ने लोकतंत्र की राष्ट्रीय भावना को किस पतनशीलता की ओर धकेल दिया है, धर्मात्मा निषाद की आत्महत्या उसका सबसे निकृष्ट ताज़ा प्रमाण है। कभी डॉ. अम्बेडकर ने व्यक्तित्व में ईश्वरीय भावना के आरोपण को लोकतंत्र के लिए एक घातक प्रवृत्ति कहा था; लेकिन देश ने उनकी भी जातिवाद आधारित नायक के रूप में पूजा की, किन्तु उनके संदेश को समझने का प्रयास नहीं किया। प्रख्यात शायर अब्बास ताबिश ने ख़ूब कहा है :-

‘इंसान था आख़िर तू मेरा रब तो नहीं था।

ये औजे-तग़ाफ़ुल तेरा मनसब तो नहीं था।।

 ये सहव मिरे दिल से ही सरज़द हुआ वरना,

उस शख़्स की पूजा मेरा मज़हब तो नहीं था।’

लेकिन देश तो व्यक्ति पूजन और उसके आधार पर विकसित परिवार-वंशवाद को ही अपना मज़हब मान बैठा है। इसका नतीजा है- यह अर्थहीन होती संसदीय व्यवस्था, जिसमें जनप्रतिनिधित्व का यथार्थ सैद्धांतिक पहलू ही नदारद है। वैसे इस गंभीर विषय पर अर्थपूर्ण बहसें-मुबाहिसे लंबे समय से जारी रही हैं; लेकिन जनतंत्र की मूल अधिकारिणी जनता के मध्यम और निम्न वर्ग अपने मुफ़्त राशन, बिजली, पानी तथा जाति-धर्म के यूटोपिया में निमग्न हैं। दूसरा राष्ट्र का उच्च शिक्षित तथा एलीट वर्ग विकास के नये प्रतिमान, संविधान प्रदत्त अधिकार एवं अर्थ-व्यवस्था के नंबरों में ही ख़ुद को बड़ा बनाने में लगा है। पत्रकारिता की चारित्रिक निष्ठा केवल ज्वलंत एवं जनोन्मुखी मुद्दे को उठाकर सनसनी पैदा करना नहीं है, बल्कि उनका समाधान के विकल्प भी प्रस्तुत करना है। जैसा कि उपरोक्त विमर्श का मूल प्रश्न है कि लोकतंत्र की संचेतन आस्था पर आघातनुमा पसरते वंशवाद के इस दुर्दम्य रोग के शमन का क्या उपाय है? हालाँकि इस देश में समस्याओं के निस्तारण हेतु जागरूक दो वर्गों में में पहला है, जो यह मानता है कि मैं ही क्यों? या मुझसे क्या मतलब? इस निकृष्ट और निष्क्रिय वर्ग के लोगों ने इस राजनीतिक कीचड़ और प्रताड़ना को ही अपना प्रारब्ध मान लिया है। लेकिन यह वर्ग सुविधाओं के लिए सबसे आगे खड़ा मिलता है। दूसरा वर्ग इस अवस्था से क्षुब्ध है और इस स्थिति में बदलाव चाहता है; लेकिन कुछ करने में स्वयं को अकेला तथा अक्षम मानता है। इन जागरूक नागरिकों को महात्मा गाँधी से सीखने की आवश्यकता है। वैसे ही जैसा कि डॉ. लोहिया लिखते हैं- ‘किसी भी व्यक्ति को सिर्फ़ अपने बलबूते, बिना किसी की सहायता के अत्याचार का विरोध करने के योग्य बनाना मेरी समझ से गाँधी के व्यक्तित्व और कर्मधारा की सबसे बड़ी विशेषता है।’ (मार्क्स, गाँधी एंड सोशलिज्म, पृष्ठ-122)

वंशवादी पार्टियों और उनके प्रयोजक राजनीतिक वर्ग के विरुद्ध मतदाता के रूप में निष्क्रिय प्रतिरोध और सत्याग्रह का व्यवहार किया जाना चाहिए। क्योंकि इसी रणनीति से गाँधी ने तत्कालीन सर्वशक्तिमान साम्राज्यवादी ब्रिटेन के विरुद्ध जनान्दोलन खड़ा कर दिया था। अत: आवश्यक है कि भविष्य में अपने लिए जनप्रतिनिधि का निर्वाचन करते समय जाति-मज़हब से परे धर्मात्मा निषाद जैसे युवा की दु:खद मौत और ऐसे ही अनगिनत प्रतिभावान सामान्य पृष्ठभूमि के परिश्रमी वर्ग के संघर्ष तथा वर्तमान में चौतरफ़ा व्याप्त निम्न श्रेणी के परिवारवादियों-वंशवादियों के उभार से होने वाले लोकतांत्रिक पर आसन्न संकट का स्मरण कर लीजिएगा। यक़ीन मानिए, आपकी यह छोटी-सी कोशिश वंशवाद-परिवारवाद के इस क्रूर दैत्य को गहरी चोट पहुँचाएगी। साथ ही यह भी हो सकता है कि भविष्य में आपके मतदान और लोक-कल्याण की यह पवित्र भावना 75 वर्ष के भारतीय गणतंत्र की जनतांत्रिक यात्रा को एक निष्पक्ष विधान बनाने का काम करें।