यह धर्मिक असहिष्णुता के अतिवाद का दौर है. पूरी दुनिया में यह प्रवृत्ति उफान पर है. हमारे यहां फिल्म पीके को लेकर आस्था आहत है. फ्रांस की राजधानी पेरिस में शार्ली हेब्दो नामक पत्रिका के कुछ कार्टूनों पर आपत्ति के जवाब में अतिवादी इस्लामी संगठन के युवकों ने 12 लोगों की हत्या कर दी. हमारे देश में सलमान रुश्दी की किताब सैटनिक वर्सेज को लेकर काफी पहले ही इस तरह की स्थिति पैदा हो चुकी है. दुनिया भर में यह चलन बढ़ रहा है. क्षणभंगुर आस्थाएं हर पल आहत हो रही हैं. इसके चलते भारत के महानतम चित्रकारों में एक रहे एमएफ हुसैन को अंत समय में देश निकाला की स्थिति से गुजरना पड़ा. दिलचस्प यह है कि ये घटनाएं धार्मिक अतिवादियों का चेहरा और उनका पाखंड भी सामने लाती हैं. जिन लोगों ने एमएफ हुसैन की पेंटिंग प्रदर्शनियों में उत्पात मचाया, उन्हें जान से मारने की धमकियां दी वही लोग तस्लीमा नसरीन की तरफदारी में खड़े हो जाते हैं. लव जेहाद और घर वापसी का प्रहसन रचते हैं. पाखंड की यही धारा दूसरी तरफ भी बह रही है. मुस्लिम कट्टरपंथियों ने कोलकाता से लेकर हैदराबाद तक लज्जा की प्रतियां जलायी, लेकिन यही लोग पर्दाप्रथा, कानूनी मामलों में पुरुष के मुकाबले स्त्रियों की आधी हैसियत के सवाल पर कुरान की आयतों का हवाला देने लगते हैं. धर्म की आड़ में ये लोग संविधान के ऊपर पर्सनल लॉ बोर्ड के लिए किसी भी हद तक जाने के तैयार रहते हैं.
ऐसा लगता है कि धर्म की मार्गदर्शकवाली भूमिका कहीं पीछे छूट गई है. धर्म कटुता, टकराव और ओछी राजनीति का साधन बन गया है. एक अटल सत्य यह है कि जितनी गहरी जड़ें दुनिया में धर्म को माननेवालों की है, उतनी ही पुरानी और गहरी परंपरा इस पर सवाल उठानेवालों की भी रही है और भारत इससे अलग नहीं है. आज से पांच-छह सौ साल पहले कबीर ने जिस अंदाज में धर्म की लुकाठी तोड़ी थी उसकी तो आज के समय में कल्पना भी नहीं की जा सकती.
चार वेद ब्रह्मा निज ठाना मुक्ति का मर्म उनहुं नहि जाना,
हबीबी और नबी कै कामा, जितने अमल सो सबै हरामा. (कबीर बीजक)
कबीर धर्म पर सवाल उस दौर में उठा रहे थे, जिसे दुनिया मध्ययुग यानी अंधकार का युग मानती है. कहने का अर्थ है कि हमेशा से धार्मिक मतावलंबियों के साथ उसे न माननेवालों का स्थान भी रहा है और समाज में उसके लिए स्थान रहा है. सवाल है कि उस दौर में भी कबीर कटु हमले करके निबाह ले जाते हैं लेकिन आज के कथित आधुनिक दौर में इसके लिए स्थान शेष नहीं बचा है. कह सकते हैं कि धार्मिक कट्टरता बढ़ रही है. वैश्विक चलन को देखें तो मिली-जुली बातें सामने आती हैं. धर्म का प्रभाव बढ़ा है लेकिन साथ ही ताजा आंकड़े बताते हैं कि इस समय दुनिया में तीसरी सबसे बड़ी आबादी धर्म को न माननेवाले नास्तिकों की है. यानी यह दुनिया का सबसे नया और बड़ी संख्या वाला धर्म है, भले ही इसका कोई सांस्थानिक रूप नहीं है. तो धर्म को न माननेवालों के मानवाधिकारों का क्या होगा? यह मजबूरी क्यों है कि नास्तिक व्यक्ति को समाज सीधे खारिज कर देता है, या उसे अपना दुश्मन समझता है. जितनी आस्था किसी को अपने धर्म में है उतना ही भरोसा किसी को उसके न होने में भी हो सकता है. ऐसे में पीके फिल्म पर हमले होना या पेरिस में शार्ली हेब्दो के दफ्तर में 12 लोगों की हत्या को किस आधार पर जायज करार दिया जा सकता है. अगर धर्म की उंगली ही पकड़कर चलें तो भगवत गीता का यह श्लोक क्लाश्निकोव और त्रिशूलधारियों को आइना दिखाने के लिए पर्याप्त है –
धर्म यो बाधते धर्म, न स धर्मं कुधर्म तत्,
धर्माविरोधी यो धर्म: स धर्म: सत्यविक्रम:
जो धर्म किसी दूसरे धर्म को बाधा पहुंचाए वह धर्म नहीं कुधर्म है. जो धर्म अन्य धर्मों का अविरोधी है वही वास्तविक धर्म है.
अपनी प्रसिद्ध साहित्यिक रचना संस्कृति के चार अध्याय में रामधारी सिंह दिनकर ने असल धर्म की स्थापना महाभारत के इसी श्लोक से की है. मौजूदा दौर की परिभाषाएं मसलन सेक्युलरिज्म या अभिव्यक्ति की आजादी और क्या हैं. संस्कृति के चार अध्याय कहती है कि भारत की पहली संस्कृति आर्य संस्कृति थी, इसके पश्चात देश में इसके सुधार के रूप में बुद्ध और महावीर की संस्कृतियां स्थापित हुईं. तीसरा अध्याय देश में इस्लाम के आगमन के साथ शुरू हुआ, और यूरोपियों के आगमन के साथ चौथा अध्याय शुरू हुआ जो अभी तक जारी है. लेकिन एक के आने से किसी का ह्रास नहीं हुआ. सब साथ-साथ अस्तित्व में रहे. जाहिर है संस्कृतियां चिरस्थायी और सनातन होती, वह खान-पान, रहन-सहन, वातावरण और उत्पन्न परिस्थितियों से जुड़ी होती हैं, जबकि धर्म बहुत बाद की चीज है. यह संस्कृतियों को संस्थागत रूप दे देता है, उसे चारदीवारी में बांध देता है. धर्म की इस चारदीवारी को ढीला और हवादार बनाने की जरूरत है जिससे ताजी हवा का प्रवाह बना रहे और जीवन पनपता रहे. धर्म की दीवार मजबूत होगी तो पीके से लेकर पेरिस और पेरिस से पेशावर तक खून बहता रहेगा.