‘यथा राजा, तथा प्रजा’ अर्थात् जैसा राजा होगा, वैसी ही प्रजा होगी। संस्कृत की यह कहावत शत्-प्रतिशत तो सही नहीं मानी जा सकती; लेकिन यह सच है कि ज़्यादातर प्रजा पर अपने जन-प्रतिनिधियों, विशेषकर सरकार के नेतृत्वकर्ताओं के बर्ताव का गहरा असर पड़ता है। इसका सही अर्थ यह निकाला जा सकता है कि अगर राजा बुद्धू होगा, तो ज़्यादातर प्रजा भी बुद्धू हो जाएगी। अगर राजा विद्वान होगा, तो बड़ी संख्या में देश की प्रजा भी ज्ञान हासिल करने की ओर अग्रसर होगी। अगर राजा चोर होगा, तो प्रजा में चोरों की संख्या बढ़ने लगेगी। राजा हत्यारा या हिंसक होगा, तो प्रजा में भी हत्यारों और हिंसकों की संख्या बढ़ने लगेगी। इसके विपरीत एक नियम यह भी लागू होता है कि अगर राजा प्रजा के ख़िलाफ़ कोई क़दम उठाएगा और उसकी आजीविका छीनने के प्रयास करेगा या प्रजा के प्रति किसी तरह का हिंसक व्यवहार करेगा, तो प्रजा भी पहले मुख़ालिफ़त करेगी और बाद में हिंसा का रास्ता ही चुनेगी।
भारत में इसकी शुरुआत हो चुकी है। यहाँ प्रजा में सत्ता की मुख़ालिफ़त करने वालों के साथ-साथ हिंसकों की संख्या भी तेज़ी से बढ़ती जा रही है। हिंसकों में सबसे बड़ी संख्या धर्मों के चक्करों में फँसे कट्टरपंथियों की है। इनकी उन्मादी भीड़ सरकारों की इच्छानुसार काम करती दिखती है। लेकिन बढ़ती महँगाई और बेरोज़गारी के अलावा किसानों और जवानों पर हमलों ने भी जनता से लेकर किसानों और जवानों तक को बग़ावती बनाने का काम किया है। अपने अधिकारों के लिए आन्दोलन करने वाले किसानों पर हमले, उनकी बेक़द्री और जवानों की सुरक्षा में सेंध, उनकी बेक़द्री जैसे मुद्दों ने देश में एक अलग ही माहौल खड़ा किया है। सरकार की मर्ज़ी के कर्मचारियों को जबरन रिटायरमेंट देने, उन्हें बर्ख़ास्त करने और पुरानी पेंशन योजना को पूरी तरह से हटा देने से सरकारी कर्मचारियों में नाराज़गी अलग से है। सैनिक भी इससे परेशान हैं। अब तो स्थिति यह आ चुकी है कि आधी-अधूरी सुविधाओं और लगातार ड्यूटी के आदेशों का पालन करने को मजबूर किये जाने के चलते उत्तर प्रदेश के प्रांतीय सशस्त्र बल- प्रोविंशियल आर्म्ड कांस्टेबुलरी (पीएसी) के जवानों ने कुंभ में सुरक्षा के लिए तैनाती से मना कर दिया। पहले जवानों ने अपने अधिकारियों के सामने अपनी समस्याएँ रखी थीं, जिन्हें अनसुना करते हुए पीएसी अधिकारियों ने सरकार के आदेश का पालन करते हुए अपने अधीनस्थ पीएसी जवानों को महाकुंभ में तैनात होने का आदेश दे दिया। अपनी कई समस्याओं से जूझ रहे पीएसी जवान इस आदेश से काफ़ी नाराज़ हुए और बग़ावत पर उतर आये। अपने अधिकारियों के आदेश मानने से मना करने को बग़ावत की शुरुआत समझें, तो यह सरकार के लिए चिन्ता की बात है। आज़ाद भारत में ऐसा दूसरी बार हुआ है, जब जवानों ने अपने ही अधिकारियों का आदेश मानने से मना कर दिया हो।
असल में यह लूट और मुख़ालिफ़त का दौर है। कुछ लोग देश की जनता को दोनों हाथों से लूटने में लगे हैं, तो इस लूट से पीड़ित और कुछ न्यायप्रिय लोग इसकी मुख़ालिफ़त कर रहे हैं। यह लूट कई तरह से हो रही है और मुख़ालिफ़त भी कई तरह से हो रही है। लूट में राजनीतिक इच्छा शक्ति है और मुख़ालिफ़त लोगों की मजबूरी है। कई बार भ्रष्टाचार के ऐसे मामले सामने हैं, जिनमें सरकार में बैठे नुमाइंदों के दामन भी दाग़दार नज़र आये हैं। हाल ही में अमेरिका में ठेके लेने के लिए अडाणी समूह द्वारा रिश्वत देने से लेकर इलेक्टोरल बॉन्ड में भी यही सब दिखा। पूँजीपतियों का क़र्ज़ माफ़ करने, देश के लाखों करोड़ रुपये लेकर बड़ी संख्या में व्यापारियों के विदेश भाग जाने, सत्ताधारियों द्वारा भ्रष्टाचारियों के साथ मिलकर भ्रष्टाचार को बढ़ावा देने जैसे कितने ही मामले अब तक सामने आ चुके हैं।
यह भारत की विडंबना ही है कि बड़े-बड़े भ्रष्टाचारों के ज़रिये इतनी बड़ी-बड़ी लूटों को अंजाम देकर भी सरकारों में बैठे नुमाइंदे ख़ुद को सबसे बड़ा ईमानदार घोषित करते हैं और अपेक्षा करते हैं कि उनके ज़ुल्म की शिकार जनता पालतू जानवरों की तरह मूक रहे। अगर किसी समूह या समाज के कुछ लोग सरकारों की जन-विरोधी नीतियों की मुख़ालिफ़त करते हैं, तो उन्हें पुलिस और सेना के जवानों से प्रताड़ित करवाया जाता है। पिछले चार साल से किसानों के साथ यही सब तो हो रहा है। सरकारों की मनमानियाँ जनता के लिए मुसीबतों के पहाड़ खड़े करती जाती हैं। यह तब होता है, जब सरकारें अपने कर्तव्य भूलकर प्रजा के मूल अधिकारों का हनन तो करती ही हैं, प्रजा पर टैक्स का बोझ भी बढ़ाती जाती हैं। ज़रूरत से ज़्यादा टैक्स वसूलना, महँगाई के चलते प्रजा की बचत न हो पाना, देश पर क़र्ज़ बढ़ना, यह सब भ्रष्टाचार के चलते ही होता है। सरकारें प्रजा की मुख़ालिफ़त को अपराध मानती हैं। लेकिन उन्हें यह भी समझना चाहिए कि देश के विकास के लिए दिये गये प्रजा के योगदान में लूट मचाना भी तो अपराध है, जिसे क़ानूनी चुप्पी तो बढ़ावा देती ही है, प्रजा भी खुली मुख़ालिफ़त न करके कहीं-न-कहीं बढ़ावा ही देती है। इसलिए प्रजा की समस्याएँ कभी कम नहीं होतीं।