खंडेलवाल द्वारा
26 अक्टूबर 2025
24 अक्टूबर को संयुक्त राष्ट्र ने अपना स्थापना दिवस मनाया — लेकिन ये जश्न कहीं से भी जश्न जैसा नहीं लगा। दावे शांति के, पर माहौल बेचारगी का। नाकामियों की ये सालगिरह दुनिया के लिए अब बस एक रस्म बनकर रह गई है।
1945 में बनी संस्था, जिसे दुनिया में अमन की मशाल बनना था, आज अमेरिका की मुट्ठी में कैद है। सवाल सीधा है — क्या वैश्विक शांति की प्रहरी संस्था किसी एक खून-सने सुपरपावर की दया पर टिक सकती है?
सितंबर 2025 में हुए 80वें जनरल असेंबली सत्र में फलस्तीनी प्रतिनिधियों को वीज़ा न देना इस कैद का ताज़ा सबूत है। ये सिर्फ़ ‘सुरक्षा’ नहीं, बल्कि अमेरिका का अश्लील शक्ति प्रदर्शन है — एक ऐसा कदम जो होस्ट कंट्री एग्रीमेंट की धज्जियां उड़ाता है और ग्लोबल साउथ की आवाज़ को गला घोंटता है।
“संयुक्त राष्ट्र को न्यूयॉर्क नहीं, नई दिल्ली में होना चाहिए,” कहते हैं पब्लिक कॉमेंटेटर प्रो. पारस नाथ चौधरी। “इससे संयुक्त राष्ट्र ग्लोबल साउथ में जड़ें जमाएगा — जहां असली संघर्ष और असली उम्मीदें हैं। न्यूयॉर्क का पता असल में विरोधाभास है। वही अमेरिका जिसने परमाणु हथियार चलाए, वही हर दूसरी जंग में नेता बना घूमता है, वही ‘वीटो’ की तलवार से अपने दोस्तों को सुरक्षा देता है।”
फलस्तीनी वीज़ा विवाद कोई एक्सीडेंट नहीं। ये उस पैटर्न की झलक है जिसमें अमेरिका खुद तय करता है कि दुनिया की मेज़ पर कौन बोलेगा, कौन नहीं।
नई दिल्ली, खुलेपन का प्रतीक है। भारत की विदेश नीति में संवाद, सह-अस्तित्व और निष्पक्षता की झलक साफ है।
भारत की भूमिका शब्दों तक सीमित नहीं रही — 1948 से नामी 50 मिशनों में 2.75 लाख भारतीय सैनिक शांति सेना का हिस्सा रहे हैं। भारत की गैर-गठबंधन नीति और ग्लोबल साउथ की पक्षधरता उसे एक नैतिक मेज़बान बनाती है — वो जो आवाज़ों को जगह देता है, दबाता नहीं।
न्यूयॉर्क, दुनिया के सबसे महंगे शहरों में एक, अरबों डॉलर का खर्च खा रहा है। वही पैसा अगर नई दिल्ली में इस्तेमाल हो, तो वो गरीबी मिटाने और जलवायु कार्रवाई का हथियार बन सकता है। “नई दिल्ली में शिफ्ट करना दिखाएगा कि संयुक्त राष्ट्र अब वाकई उन लोगों के लिए है जिनकी वह सेवा करता है,” कहते हैं वरिष्ठ पत्रकार अजय।
कोविड महामारी से लेकर जलवायु संकट तक — ग्लोबल साउथ ने हमेशा असमानता का स्वाद चखा। वैक्सीन जमा करने वाले अमीर मुल्क, कर्ज़ में डूबे गरीब देश और सिक्योरिटी काउंसिल के पांच पिता — तस्वीर बहुत साफ है।
जनरल असेंबली की वो खाली कुर्सियां, जिन्हें अमेरिकी वीज़ा पाबंदियों ने खाली कराया, असल में संयुक्त राष्ट्र की साख के गाल पर थप्पड़ हैं।
“संयुक्त राष्ट्र को ऐसे मुल्क में जाना चाहिए जो सबके लिए खुला हो,” समाजशास्त्री टी.पी. श्रीवास्तव कहते हैं। “नई दिल्ली की समावेशी वीज़ा नीति और स्वागतयोग्य माहौल इसे आदर्श बनाते हैं।”
शिफ्ट करना प्रतीकात्मक नहीं, बल्कि संरचनात्मक सुधार का संकेत भी है। मौजूदा सिस्टम पांच देशों की मुठ्ठी में है — दुनिया की बाकी आबादी बस दर्शक बनकर रह गई है। 78 सालों में तीसरा विश्व युद्ध भले न हुआ हो, लेकिन छोटी जंगें और नफरत की आग हर कोने में जलती रही। बदलाव वक्त की मांग है।
नई दिल्ली में नया मुख्यालय संयुक्त राष्ट्र को इंसाफ, समावेशन और वास्तविक लोकतांत्रिक प्रतिनिधित्व का चेहरा दे सकता है।
भारत की गांधीवादी परंपरा और संवाद की संस्कृति इस संस्था को नई नैतिक ऊर्जा देगी। सोचिए — दुनिया की सबसे बड़ी शांति संस्था अगर ऐसे मुल्क में बसे जो खुद अहिंसा का जन्मस्थान है, तो संदेश कितना गूंजेगा।
78 साल पुराना न्यूयॉर्क मुख्यालय दूसरे विश्व युद्ध की स्मृति है। अब वक्त है — संयुक्त राष्ट्र का नया मकान, नई सोच, और नई दिशा तय करने का।
नई दिल्ली में शिफ्ट करना महज़ पते का नहीं, न्याय और जवाबदेही के नए अध्याय का एलान होगा।
अमन की मशाल अब अमेरिका की दीवारों में नहीं, ग्लोबल साउथ के दिल में जलनी चाहिए — नई दिल्ली से।




