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इस आम बजट में सरकार से उम्मीदें और सम्भावनाएँ

The Union Minister for Finance and Corporate Affairs, Smt. Nirmala Sitharaman arrives at Parliament House to present the General Budget 2019-20, in New Delhi on February 01, 2020. The Minister of State for Finance and Corporate Affairs, Shri Anurag Singh Thakur is also seen.

वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण 1 फरवरी को अपने कार्यकाल का चौथा आम बजट पेश कर चुकी हैं। पिछला आम बजट कुछ-कुछ राहत भरा, तो ज़्यादातर निराश करने वाला रहा। सरकार की कई योजनाओं और वादों के पूरा न होने से लोग नाराज़ हैं। सरकार भी इस बात को समझ रही है और आगामी चुनावों में जीत दर्ज करने के लिए वह सम्भवत: इस बार लोगों को ख़ुश करने वाला बजट पेश करे। पत्रिका के आने के समय बजट आपके सामने होगा। इसी बजट को लेकर प्रस्तुत है मंजू मिश्रा का पूर्वानुमान :-

वित्त वर्ष 2022-23 के लिए केंद्र सरकार 1 फरवरी को संसद में पेश आम बजट से लोगों को अनेक उम्मीदें हैं। उनके अनुसार यह बजट आमजन के लिए राहत भरा हो सकता है; क्योंकि केंद्र सरकार अब देश के आम लोगों की नाराज़गी को समझ चुकी है और उसे कुछ राहत देने की कोशिश करेगी। कोरोना महामारी की तीसरी लहर में पेश होने वाले इस बजट से लोगों को भी उम्मीदें हैं और वे चाहते हैं कि स्वास्थ्य, शिक्षा व रोज़गार पर सरकार विशेष ध्यान दे। वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण यह चौथा बजट को पेश करेंगी। वित्तीय मामलों के जानकार उम्मीद कर रहे हैं कि यह बजट माँग और रोज़गार को बढ़ावा देने वाला तो होगा ही, कोरोना महामारी के दौर में स्वास्थ्य सेवाओं को दुरुस्त करने वाला भी होना चाहिए। स्वास्थ्य स्थितियाँ ख़राब होने से लोगों के ख़र्चों में बढ़ोतरी होने के चलते आकस्मिक फंड बनाने की ज़रूरत महसूस की जा रही है और सरकार से उम्मीद है कि वह स्वास्थ्य बजट में यह प्रावधान भी करेगी। बीते वित्त वर्ष में जहाँ नौकरीपेशा लोगों की जेब पर अतिरिक्त बोझ पड़ा है, वहीं उनकी आमदनी भी घटी है, जबकि बहुतों की नौकरी भी चली गयी है। ऐसे में रोज़गार की बढ़ती अनिश्चितता को ख़त्म करते हुए सरकार रोज़गार के संसाधनों को फिर से सुचारू करने का कोई रास्ता निकालेगी, ऐसी उम्मीद इस आम बजट में आम लोग कर रहे हैं। इसके अलावा लोगों के साथ-साथ व्यापारी वर्ग अनाप-शनाप बढ़े कर (टैक्स) से राहत भी चाहते हैं, जो कि पिछले सात साल में बेतरतीब तरीक़े से बढ़ा है। शिक्षा को लेकर पूरे देश में एक चिन्ता की लहर दौड़ गयी है और लोग केंद्र सरकार से बच्चों के भविष्य को लेकर सवाल कर रहे हैं। इसके अलावा इस बजट में सरकार एमएसएमई, ऊर्जा, आधारभूत ढाँचे और तकनीक पर ध्यान दे सकती है। लेकिन अभी यह कोई नहीं कह सकता कि केंद्र सरकार में वित्त मंत्री अपने बजट पिटारे में से कितनी राहत देंगी और कितनी आफ़त? फिर भी कोरोना महामारी की मौज़ूदा परिस्थितियों में आम लोगों, व्यापारियों और निवेशकों की अगले वित्त वर्ष 2022-23 के बजट से बड़ी उम्मीदें हैं।

स्वास्थ्य क्षेत्र को लेकर उम्मीदें

आम बजट से पहले एसोचैम ने एक सर्वे किया, जिसमें हिस्सा लेने वाले 47 फ़ीसदी लोगों ने माना कि 2022-23 के बजट में स्वास्थ्य सरकार की प्राथमिकता में रहेगा। वहीं हमने जब लोगों से बात की तो अधिकतर लोगों ने सरकार के पिछले स्वास्थ्य बजट पर असन्तुष्टि और नाराज़गी भी जतायी है। उनका कहना है कि सरकार ने लोगों को कहीं का नहीं छोड़ा है। एक तरफ़ महामारी की मार पर पड़ रही है, तो दूसरी तरफ़ वे हर तरह से बर्बाद हो रहे हैं और सरकार को चुनाव जीतने के अलावा कोई दूसरी चिन्ता नहीं है।

दिल्ली स्थित द्वारिका में एक निजी अस्पताल में सेवाएँ देने वाले डॉ. मनीष कुमार कहते हैं कि हमारे देश में स्वास्थ्य सेवाएँ उतनी अच्छी नहीं हैं, जितनी कि होनी चाहिए। सरकार को स्वास्थ्य सेवाओं पर विशेष ध्यान देने की ज़रूरत है, ताकि देश में बीमारियों से लाखों असमय मौतों से लोगों की रक्षा की जा सके। डॉ. मनीष कुमार कहते हैं कि कोरोना महामारी में जिस तरह सरकारी अस्पतालों की अव्यवस्था की पोल खुलकर सामने आयी है, उससे सरकार को सीख लेने के साथ-साथ स्वास्थ्य बजट बढ़ाने की ज़रूरत है।

बता दें कि वित्त वर्ष 2021-22 में स्वास्थ्य और ख़ुशहाली में 2,23,846 करोड़ रुपये का बजट रखा गया था। इसमें कोरोना टीकों के लिए 35,000 करोड़ रुपये भी शामिल थे। कोरोना अब भी चरम पर है और इसके लिए स्वास्थ्य बजट बढ़ाने की दरकार है। इसके अवाला इस बजट में प्रधानमंत्री आत्‍मनिर्भर स्‍वस्‍थ भारत योजना के लिए छ: वर्ष में 64,180 करोड़ रुपये ख़र्च करने का भी प्रावधान रखा गया था। पिछले बजट में कुछ ऐसी स्वास्थ्य योजनाएँ भी आम बजट में शामिल थीं, जो अभी तक पूरी नहीं हुई हैं। मसलन, 17,788 ग्रामीण स्वास्थ्य केंद्रों और 11,024 शहरी स्वास्थ्य और कल्याण केंद्रों का निर्माण करना। चार वायरोलॉजी के लिए चार क्षेत्रीय राष्ट्रीय संस्थानों का  निर्माण। 15 स्वास्थ्य आपात ऑपरेशन केंद्रों और दो मोबाइल अस्‍पतालों का निर्माण। सभी ज़िलों में एकीकृत सार्वजनिक स्वास्थ्य प्रयोगशालाओं और 11 राज्‍यों में 33,82 ब्लॉक सार्वजनिक स्वास्थ्य इकाइयों का निर्माण। 602 ज़िलों और 12 केंद्रीय संस्थानों में क्रिटिकल केयर अस्पताल ब्लॉक स्थापना। राष्ट्रीय रोग नियंत्रण केंद्र की पाँच क्षेत्रीय शाखाओं और 20 महानगर स्वास्थ्य निगरानी इकाइयों को मज़बूत करना। 17 नयी सार्वजनिक स्वास्थ्य इकाइयों को चालू करना। 33 मौज़ूदा सार्वजनिक स्वास्थ्य इकाइयों को मज़बूत करना। इसमें से कितना काम हुआ है, इसका अभी तक कोई रिपोर्टकार्ड सरकार ने पेश नहीं किया है। देखना यह है कि केंद्र सरकार इस बार स्वास्थ्य बजट कितना लाती है?

कर में राहत की चाह

पिछले पाँच साल से लगातार बढ़ रहे कर (टैक्स) में क्या सरकार कोई छूट देगी? यह सवाल आज हर व्यापारी और आम आदमी का है। क्योंकि पिछले दो साल से कोरोना वायरस के फैलने के बावजूद कर में बढ़ोतरी ने व्यापार की कमर तोड़ी है, जिसके चलते व्यापारी सरकार से लगातार कर कम करने की माँग कर रहे हैं। इसी 1 जनवरी से केंद्र सरकार ने कुछ चीज़ें पर नया टैक्स लगाया था, जबकि कुछ पर बढ़ाया था। व्यापारियों की माँग पर कुछ चीज़ें पर कर नहीं बढ़ाया गया। अब यह माना जा रहा है कि सरकार अनुच्छेद-80(सी) के तहत निवेश पर कर छूट का दायरा बढ़ा सकती है, जिससे न सिर्फ़ आम निवेशकों को लाभ होगा, बल्कि घरेलू निवेश का लक्ष्य हासिल करने में भी मदद मिलेगी। नितिन कामथ ने कहा है कि सरकार को बजट में सिक्योरिटी ट्रांजेक्‍शन टैक्स (एसटीटी) को घटाना चाहिए। लेन-देन (ट्रांजैक्शन) की ऊँची लागत से ट्रेडर्स को भारी नुक़सान हो रहा है।

बता दें कि जीएसटी लागू करते समय प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कहा था कि एक देश एक कर से व्यापारियों और लोगों को राहत मिलेगी। लेकिन सच्चाई यह है कि जबसे जीएसटी लागू हुई है, तबसे व्यापारियों की भी आफ़त बढ़ी है और आम आदमी की भी। इसलिए इस बार व्यापारी और आम लोग चाहते हैं कि सरकार कर कम करे।

क्या शिक्षा बजट बढ़ेगा?

कोरोना महामारी के चलते पिछले दो साल से ठप पड़ी शिक्षा व्यवस्था को फिर से सुचारू करने की सरकार से लोग उम्मीद कर रहे हैं। सरकार भी इस बात को जानती है, इसलिए इस बार शिक्षा क्षेत्र में कुछ अच्छा होने की उम्मीद कर सकते हैं। शिक्षाविदों की माँग है कि शिक्षा बजट जीडीपी का कम-से-कम छ: फ़ीसदी होना चाहिए। इसके अलावा सरकार को स्कूल-कॉलेज खोलने और ऑनलाइन शिक्षा की समुचित व्यवस्था भी करनी चाहिए। इसमें इंटरनेट कनेक्टिविटी और अफोर्डेबल पाँच फ़ीसदी डिवाइसेस उपलब्‍ध कराना सरकार का दायित्व है। लेकिन सवाल यह भी है कि इस केंद्र सरकार ने पाठ्य सामग्री को भी कर के दायरे में ला दिया है, साथ ही बजट में भी कटौती की है। तो क्या इस बार सरकार शिक्षा बजट को दुरुस्त करेगी? लोगों का कहना है कि शिक्षा क्षेत्र का चौपट होना देश और मौज़ूदा पीढ़ी दोनों के लिए बहुत घातक है और सरकार इस ओर से बिल्कुल निश्चिंत होकर आँखें मूंदे बैठी है।

बेरोज़गारी हो कम

पिछले कुछ वर्षों से देश में रोज़गार का संकट गहराया है और पिछलो दो साल में सबसे ज़्यादा नौकरियाँ लोगों ने गँवायी हैं। सरकार हर चुनाव में युवाओं को रोज़गार देने का वादा करती है, मगर दे नहीं पाती। मौज़ूदा केंद्र सरकार की छवि इस मामले में काफ़ी ख़राब है। यह बात सरकार को भी पता है कि रोज़गार की स्थिति ख़राब होने से देश का युवा वर्ग उससे बेहद नाराज़ है। ऐसे में हो सकता है कि इस आम बजट में सरकार कुछ ऐसा करे, जिससे युवाओं का रूख़ उसके प्रति कुछ नरम हो। उम्मीद है कि इस आम बजट में वित्त मंत्री रोज़गार पैदा करने पर विशेष ध्यान देंगी। हालाँकि रोज़गार सृजन पर सरकार के अपने दावे हैं। लेकिन उनमें कितनी सच्चाई है? यह बात बढ़ती बेरोज़गारी से जगज़ाहिर होती है। आँकड़े बताते हैं कि जनवरी, 2020 में देश में बेरोज़गारी दर 7.2 फ़ीसदी थी, जो मार्च 2020 में 23.5 फ़ीसदी और अप्रैल 2020 में 22 फ़ीसदी हो गयी थी। हालाँकि बाद में इसे कुछ कम दिखाया गया। लेकिन ज़मीनी हक़ीक़त यह है कि रोज़गार लगातार कम हुए हैं, जिससे एक बड़ी तादाद में लोग बेरोज़गार हैं। अब कोरोना की तीसरी लहर अपने चरम पर है और दिसंबर, 2021 में देश में बेरोज़गारी दर फिर पिछले चार महीनों के उच्चतम स्तर पर पहुँच गयी है। इसलिए सरकार के पास 2022-23 के आम बजट में उद्योगों और रोज़गार को बचाने की कोशिश करनी चाहिए, जिसका वादा प्रधानमंत्री बहुत पहले ही कर चुके हैं।

कृषि क्षेत्र में सुधार की ज़रूरत

कृषि क्षेत्र में सुधार की हमारे देश में सबसे ज़्यादा ज़रूरत है। किसान आन्दोलन के बीच सरकार ने कृषि क़ानूनों को लेकर कई बार कहा था कि ये किसानों के जीवन स्तर और कृषि क्षेत्र में सुधार के लिए हैं। लेकिन बाद में सरकार ने माफ़ी भी माँगी। प्रधानमंत्री किसानों की आय 2022 तक दोगुनी करने का वादा कर चुके हैं। साल 2022 भी शुरू हो गया; लेकिन न तो कृषि क्षेत्र में सुधार की कोई उम्मीद दिख रही है और न ही किसानों की आय दोगुनी होने के आसार नज़र आ रहे हैं। ऐसे में सरकार को चाहिए कि इस आम बजट में वह कृषि क्षेत्र के बजट को बढ़ाकर कुछ ऐसे मूलभूत सुधार करे, जिससे कृषि और किसानों की दशा में ज़मीनी स्तर पर सुधार हो। क्योंकि हमारे कृषि प्रधान देश में कृषि पर ही ज़्यादातर क्षेत्र निर्भर हैं।

बता दें कि वित्त वर्ष 2021-22 में सरकार ने अनुमानित 148.30 हज़ार करोड़ रुपये के कृषि बजट का प्रावधान रखा था, जो कि देश की कुल आबादी में कृषि क्षेत्र पर 70 फ़ीसदी निर्भरता के हिसाब से बहुत कम रहा। सरकार को इसे बढ़ाकर कम-से-कम तीन गुना करना चाहिए। इस बार सरकार से किसान भी बुरी तरह नाराज़ हैं। ऐसे में हो सकता है कि सरकार किसानों को ख़ुश करने के लिए कृषि बजट में भी बढ़ोतरी करे।

वृद्धावस्था पेंशन का बजट भी बढ़े

सन् 2021 में देश में वृद्ध लोगों की संख्या लगभग 1.31 करोड़ थी। माना जा रहा है कि कोरोना-काल में युवा मृत्युदर में बढ़ोतरी होने से वृद्ध लोगों की संख्या बढ़ रही है, जो साल 2041 तक 2.39 करोड़ तक हो जाएगी। इसके अलावा आने वाले समय में सेवानिवृत्ति पेंशन लेने वालों की संख्या भी आने वाले समय में धीरे-धीरे बढ़ेगी। ऐसे में सरकार को वृद्धावस्था पेंशन के बजट को बढ़ाना चाहिए। साथ ही निराश्रित वृद्धों के लिए भी बजट बढ़ाने की आवश्यकता है। इसके अलावा मौज़ूदा दौर में बढ़ती महँगाई के हिसाब से भी वृद्धावस्था पेंशन में बढ़ोतरी होनी चाहिए।

बात दूसरे क्षेत्रों की

एक अनुमान के मुताबिक, वित्त वर्ष 2022-23 के दौरान जीडीपी के नौ फ़ीसदी रहने की उम्मीद है। यह भी अनुमान जताया जा रहा है कि अगर जीडीपी इस स्तर पर भी रही, तो अगले नौ साल में रोज़गार दर में आठ फ़ीसदी की वृद्धि हो सकेगी। ऐसे में सरकार को जीडीपी की वृद्धि दर को ऊँचा करने की ज़रूरत है, जिसके लिए उद्योगों, कम्पनियों और छोटे व्यापार के साथ-साथ कृषि क्षेत्र को बढ़ावा देने की ज़रूरत है। यदि वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण 2022-23 के बजट में विनिर्माण (मैन्युफैक्चरिंग), अचल सम्पत्ति (रियल एस्टेट), कृषि, खाद्य प्रसंस्करण (फूड प्रोसेसिंग), फुटकर (रिटेल) और स्वास्थ्य जैसे क्षेत्रों पर ख़ास ध्यान देती हैं, तो उम्मीद है कि साल 2030 तक भारतीय जीडीपी में चार लाख करोड़ डॉलर की बढ़ोतरी हो जाएगी।

पिछले कुछ साल से इन सभी क्षेत्रों में मंदी छायी है, जिससे देश को एक बड़ा नुक़सान लगातार उठाना पड़ रहा है। इसके अलावा महँगाई, ग़रीबी और भुखमरी से भी निपटने की ज़रूरत है, जिसके लिए कर में राहत देना पहली प्राथमिकता होनी चाहिए। साथ ही रेलवे और दूसरे सरकारी क्षेत्रों को मज़बूत करने की ज़रूरत है, जिससे उन्हें निजी हाथों में देने से बचा जा सके। अन्यथा हालात सँभालना मुश्किल होगा और आने वाले समय में लोगों की परेशानियाँ बढ़ेंगी।

एमसीडी में सत्ता-परिवर्तन के आसार

दिल्ली नगर निगम (एमसीडी) के चुनाव मार्च-अप्रैल में होने की सम्भावना है। हालाँकि दिल्ली की दूसरी सत्ता के इन चुनावों में भले ही दो-ढाई महीने का समय बचा है और देश के पाँच राज्यों के विधानसभा चुनावों के शोर में एमसीडी के चुनावों का शोर बहुत ज़्यादा सुनायी नहीं दे रहा है; लेकिन दिल्ली की सियासत में हर रोज़ आरोप-प्रत्यारोप के हमले तेज़ होते जा रहे हैं। क्योंकि एमसीडी के चुनाव का दिल्ली की सियासत में बड़ा महत्त्व है। तभी तो एमसीडी को दिल्ली की छोटी सरकार कहा जाता है। दिल्ली की इस छोटी सत्ता में पिछले क़रीब 15 साल से भाजपा का क़ब्ज़ा है। लेकिन इस बार कयास लगाये जा रहे हैं कि जनता एमसीडी में भी सत्ता-परिवर्तन चाहती है। फ़िलहाल जनता के रूख़ और पार्टियों की तैयारियाँ क्या हैं? इन्हीं पहलुओं पर विशेष संवाददाता राजीव दुबे की पड़ताल :-

दिल्ली नगर निगम (एमसीडी) को सन् 2012 में तीन भागों में बाँटा गया था, तब पूर्वीनगर निगम, उत्तरी दिल्ली नगर निगम और दक्षिणी दिल्ली नगर निगम स्थापित किये गये थे; ताकि जनता के अपने काम करवाने के लिए कोई दिक़्क़त न हो। उसके बाद से तीनों नगर निगमों पर भाजपा का क़ब्ज़ा है। सन् 2012 से एमसीडी में कांग्रेस हासिये पर है। सन् 2017 में हुए एमसीडी की 272 सीटों के चुनाव में भाजपा ने 181 सीटें जीतीं, जबकि आप पार्टी ने 49 जीतीं और कांग्रेस सिमट कर 31 सीटों पर ही जीत दर्ज करा सकी। बताते चलें कि जब आम आदमी पार्टी (आप) का उदय नहीं हुआ था, तब एमसीडी के चुनाव में कांग्रेस और भाजपा के बीच सीधा मुक़ाबला होता था। लेकिन सन् 2017 में आम आदमी पार्टी ने पहली बार चुनाव लडक़र 49 सीटों के साथ खाता खोलकर एमसीडी की सियासत में नये समीकरणों को जन्म दिया।

इसके बाद सन् 2021 में एमसीडी के उपचुनाव में पाँच में चार सीटें जीतकर आम आदमी पार्टी ने यह साबित कर दिया कि एमसीडी के होने वाले 2022 चुनाव में वह जीत हासिल कर सकती है। क्योंकि इस बार 2022 में एमसीडी के चुनाव के पूर्व ही माहौल और मिजाज़ बदला-बदला सा नज़र आ रहा है। उसको लेकर जानकारों का कहना है कि आम आदमी पार्टी और भाजपा के बीच मुक़ाबला हो सकता है। भाजपा के प्रदेश अध्यक्ष आदेश गुप्ता का कहना है कि इस बार एमसीडी में भाजपा 2017 के मुक़ाबले ज़्यादा सीटों पर जीत दर्ज करेगी। क्योंकि आम आदमी पार्टी की सरकार दिल्ली में है, जिससे जनता काफ़ी नाराज़ है। क्योंकि एमसीडी को जो बजट दिल्ली सरकार से मिलना चाहिए। उसको दिल्ली सरकार ने रोका है। इससे एमसीडी के काम-काज में बाधा आयी है। जनता को आप पार्टी की सरकार मुफ़्त की राजनीति कर गुमराह कर रही है। जनता आम आदमी पार्टी की जन विरोधी नीतियों को समझ गयी है। आम आदमी पार्टी काम नहीं कर पाती है, तो उसका आरोप केंद्र सरकार पर लगाती है। और जब केंद्र की भाजपा सरकार काम कर देती है, तो आप पार्टी उस काम पर अपनी फोटो लगाकर विज्ञापनबाज़ी करती है। उनका कहना है कि आम आदमी पार्टी ने हर काम में रोड़ा लगाया है, जिससे एमसीडी में विकास कार्य बाधित हुए हैं। एमसीडी के चुनाव में जनता आम आदमी पार्टी को सबक़ सिखाएगी।

वहीं भाजपा के नेता दीपक कुमार का कहना है कि आम आदमी पार्टी के नेता एक समय कहते थे कि वे किसी भी ऐसे दल से समझौता व उनका समर्थन नहीं करेंगे, जिस पर भ्रष्टाचार के आरोप हो। लेकिन जनता सब देख रही है। आम आदमी पार्टी अपनी महात्त्वाकांक्षी के चलते सिर्फ़ भाजपा का विरोध करने लिए सभी अन्य दलों का समर्थन कर रही है, जिसको जनता बख़ूबी जान-समझ रही है। उनका कहना है कि दिल्ली में विकास कार्य ठप पड़े हैं। एमसीडी के तहत जो भी काम हो रहा है, वो ही दिख रहा है; अन्यथा कुछ भी नहीं हो रहा है।

वहीं आम आदमी पार्टी का कहना है कि 2022 के एमसीडी के चुनाव में भाजपा का सूपड़ा होगा। क्योंकि जिस क़दर भाजपा ने भ्रष्टाचार किया है और कर रही है; उसका हिसाब जनता चुनाव में लेगी। एमसीडी के तहत आने वाले स्कूलों और अस्पतालों की हालत किसी से छिपी नहीं है। आम आदमी पार्टी के प्रवक्ता सौरभ भारद्वाज का कहना है कि निगम के स्कूलों में सिर्फ़ काग़ज़ों पर बच्चों की संख्या बढ़ रही है। एमसीडी ने लगभग 100 स्कूलों को बन्द कर दिया है; जबकि दिल्ली सरकार ने स्कूलों का विस्तार किया है। आम आदमी पार्टी के नेता और टीचर विंग के चेयरमैन डॉ. हंसराज सुमन का कहना है कि दिल्ली एमसीडी के अस्पतालों में बड़ा भ्रष्टाचार है। दिल्ली के लोग जब मकान बनवाते हैं, तब अनापत्ति प्रमाण पत्र के दौरान, जो एमसीडी में चढ़ावा चढ़ता है; उससे लोगों में भारी नाराज़गी है। एमसीडी में चुनाव जीतने के बाद आम आदमी पार्टी सबसे फैले भ्रष्टाचार को समाप्त करेगी। क्योंकि दिल्ली वालों को एमसीडी में काम करवाने के नाम पर जो पैसा देना होता है, उससे लोगों की मेहनत की कमायी भ्रष्टाचार की भेंट चढ़ जाती है। इस भ्रष्टाचार को बन्द करना है।

डॉ. हंसराज सुमन ने बताया कि इस बार दिल्ली की जनता एमसीडी में बदलाव चाहती है। आम आदमी पार्टी के अध्यापक और छात्र मिलकर प्रत्येक विधानसभा में जाकर एक बूथ पर 10 यूथ काम कर रहे हैं। उन्होंने बताया कि भाजपा ने घोषणा-पत्र में जो वादे किये थे, उनमें से किसी भी एक को पूरा नहीं किया है। एमसीडी में फैले भ्रष्टाचार को लेकर आम आदमी पार्टी के नेता व दिल्ली के उप मुख्यमंत्री मनीष सिसोदिया ने बताया कि भाजपा एमसीडी में 15 साल से क़ाबिज़ है। तबसे अब तक कई घोटाले किये हैं। उन्होंने कहा कि आये दिन एमसीडी के तहत आने वाले डॉक्टरों, कर्मचारियों, इंजीनियरों और स$फाई कर्मचारियों को वेतन का जो रोना रोना पड़ता है, उसके लिए पूरी तरह भाजपा ज़िम्मेदार है।

मनीष सिसोदिया ने बताया कि दिल्ली सरकार हर साल के मुताबिक जो भी बजट एमसीडी को देना होता है, समय से देती रही है। 2021-22 के तहत 3,400 करोड़ 88 लाख में से दिल्ली सरकार ने दिसंबर तक 75 फ़ीसदी दिया जा चुका है। समय-समय पर जब भी दिल्ली सरकार से एमसीडी ने जो भी क़र्ज़ लिया है, उसको वापस तक नहीं लिया है। जबकि 2015 तक ऐसा नहीं होता था। एमसीडी पर ख़ुद 6,000 करोड़ रुपये का क़र्ज़ दिल्ली सरकार का है। मनीष सिसोदिया का कहना है कि भाजपा जानती है कि उसको अब एमसीडी का चुनाव जीतना नहीं है। इसलिए मनमर्ज़ी करने में लगी है और हाउस टैक्स घोटाला, टेन्ट-रेन्ट घोटाला सहित पार्किंग घोटाला व अवैध पार्किंग के नाम पर लूट-खसूट करने में लगी है।

दिल्ली कांग्रेस के प्रदेश अध्यक्ष अनिल चौधरी का कहना है कि जबसे एमसीडी में भाजपा और दिल्ली सरकार में आम आदमी पार्टी की सरकार बनी है, तबसे दिल्ली में विकास कार्य पूरी तरह से ठप पड़े हैं। उनका कहना है कि आम आदमी पार्टी और भाजपा की नूरा-कुश्ती को दिल्ली की जनता समझ गयी है। एमसीडी के चुनाव में कांग्रेस हर हाल में वापस होगी। क्योंकि जबसे एमसीडी में भाजपा क़ाबिज़ हुई है, तबसे भ्रष्टाचार का बोलबाला इस क़दर हावी हो गया है कि जनता को छोटे-छोटे कामों के लिए कई-कई दिनों के चक्कर लगाने पड़ते हैं, तब जाकर काम हो पाता है। अनिल चौधरी का कहना है कि कोरोना-काल में भाजपा और आम आदमी पार्टी ने लोगों के साथ जो किया है, उसको जनता भुला नहीं सकती। उनका कहना है कि भाजपा और आम आदमी पार्टी ने तमाम वादे किये थे, जिसमें एक को भी पूरा नहीं किया है। इसका जवाब जनता एमसीडी के चुनाव में देगी। कांग्रेस पूरे दम$खम के साथ अपने खोये हुए जनाधार को वापस लाने के लिए काम कर रही है।

एमसीडी की कार्यप्रणाली से अवगत दिल्ली विश्वविद्यालय के प्रोफेसर अमन कुमार का कहना है कि जिस अंदाज़ में भाजपा और कांग्रेस से नेता आकर आम आदमी पार्टी में शामिल हो रहे हैं, उससे तो यही अंदाज़ा लगाया जा सकता है कि एमसीडी में दिल्ली की जनता बदलाब चाहती है। उनका कहना है कि अगर कांग्रेस पार्टी अपने खोये हुए जनाधार को वापस लाने मे सफल होती है, तो एमसीडी के चुनाव परिणाम चौंकाने वाले साबित हो सकते हैं। कांग्रेस के नेता अमरीश गौतम का कहना है कि कांग्रेस के प्रति लोगों का झुकाव फिर से दिख रहा है। क्योंकि देश की राजनीति में जिस प्रकार वोटों को लेकर खींचतान की जा रही है, उस प्रकार की राजनीति कांग्रेस ने कभी नहीं की है। धर्म और जाति की राजनीति के नाम पर लोगों को आपस में लड़ाया जा रहा है।

वही हाल लोगों ने साल 2020 के दिल्ली विधानसभा चुनाव के पहले और बाद में देखा है। इसलिए दिल्ली की जनता एमसीडी के चुनाव में उसी राजनीतिक दल का समर्थन देगी, जो हिंसा और ध्रुवीकरण की राजनीति न करती हो। दिल्ली की एससीडी में विकास कार्य नहीं हो रहे हैं, जिसे लेकर भाजपा और आम आदमी पार्टी में सियासी जंग चल रही है। लेकिन जनता को मुसीबतों का सामना करना पड़ रहा है। एमसीडी की डिस्पेंसरियाँ नाम मात्र को काम कर रही हैं। जनता को स्वास्थ्य लाभ नहीं मिल पा रहा है। उनका कहना है कि कांग्रेस ही विकास को चुनावी मुद्दा बनाकर इस बार एमसीडी में जीत दर्ज करेगी।

राजनीतिक अखाड़े में देवास-एंट्रिक्स सौदा

सर्वोच्च न्यायालय के फ़ैसले के बाद वित्त मंत्री का यूपीए सरकार पर हमला

दिसंबर, 2004 में गठित देवास मल्टीमीडिया कम्पनी, जो बेंगलूरु स्थित एक स्टार्टअप कम्पनी थी; से जुड़े देवास-एंट्रिक्स सौदे का मामला भाजपा और कांग्रेस के बीच राजनीतिक जंग का कारण बन गया है। हाल में सर्वोच्च न्यायालय ने इस पर बड़ा फ़ैसला सुनाते हुए कम्पनी की याचिका को ख़ारिज़ कर दिया था, जिसके बाद वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने एक पत्रकार वार्ता (प्रेस कॉन्फ्रेंस) करके तत्कालीन यूपीए सरकार पर गम्भीर आरोप लगाये और कहा कि यह देश और देश के लोगों के साथ बहुत बड़ा धोखा था।

सीतारमण का यह आरोप ऐसे समय में आया है, जब देवास के शेयरधारकों ने 1.29 अरब डॉलर की वसूली के लिए विदेशों में भारतीय सम्पत्तियों को ज़ब्त करने के प्रयास तेज़ कर दिये हैं। हालाँकि सीतारमण के आरोपों के बाद चुनाव को देखते हुए कांग्रेस ने इस आरोप पर चुप्पी साधना ही बेहतर समझा है। सन् 2011 में तत्कालीन यूपीए सरकार ने इस समझौते को यह आरोप लगने के बाद रद्द कर दिया गया था कि यह मिलीभगत से भरी डील है। सन् 2014 में केंद्रीय अन्वेषण ब्यूरो (सीबीआई) और प्रवर्तन निदेशालय (ईडी) को सौदे की जाँच करने के लिए कहा गया था। अब जनवरी के शुरू में सर्वोच्च न्यायालय के फ़ैसले में यूपीए सरकार को इस सौदे पर फटकार लगाने के अलावा देवास मल्टीमीडिया प्रा. लि. की याचिका को ख़ारिज़ कर दिया। याचिका में कहा गया था कि कम्पनी को बन्द करने का आदेश ख़ारिज़ किया जाए।

महत्त्वपूर्ण यह है कि देवास मल्टीमीडिया प्रा. लि. कम्पनी का सन् 2005 में भारत की अंतरिक्ष एजेंसी इंडियन स्पेस रिसर्च ऑर्गनाइजेशन (इसरो) की वाणिज्यिक कम्पनी एंट्रिक्स के साथ सैटेलाइट सौदा हुआ था। न्यायमूर्ति हेमंत गुप्ता और न्यायमूर्ति वी राम सुब्रमण्यम ने देवास मल्टीमीडिया प्रा. लि. की याचिका को ख़ारिज़ करते हुए 17 जनवरी के अपने फ़ैसले में कहा कि देवास मल्टीमीडिया को एंट्रिक्स कॉरपोरेशन के कर्मचारियों की मिलीभगत से फ़र्ज़ीवाड़े के मक़सद से ही बनाया गया था। इसके बाद वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने बाक़ायदा एक पत्रकार वार्ता करके आरोप लगाया कि इस मास्टर गेम की खिलाड़ी कांग्रेस है। सीतारमण ने सर्वोच्च न्यायालय के आदेश का हवाला देते हुए कहा कि साफ़ पता चलता है कि कैसे यूपीए सरकार ने इस मामले में ग़लत हथकंडे अपनाये थे।

इस सारे मामले में बड़ा सवाल यह है कि देवास मल्टीमीडिया के साथ यह महत्त्वपूर्ण डील बिना पूरी परख किये बिना कैसे और क्यों की गयी? चूँकि इस सौदे में इसरो के उत्पाद के दूसरे देशों के लिए मुहैया कराने वाली सरकार के मालिकाना हक़ की कम्पनी एंट्रिक्स कॉरपोरेशन थी, लिहाज़ा पूरी परख किये बिना इसे करना आश्चर्यजनक है और कई सवाल खड़े करता है। यह मामला इसलिए भी गम्भीर था; क्योंकि इसरो सीधे प्रधान मंत्री कार्यालय (पीएमओ) को रिपोर्ट करता है। लिहाज़ा विवाद सरकार के लिए चिन्ता पैदा करने वाला रहा।

एक और बड़ा सवाल यह भी है कि जब देवास का फ़र्ज़ीवाड़े सामने आ ही गया था और 2011 में यूपीए के समय सौदा रद्द कर दिया गया, उसी समय सरकार ने देवास के ख़िलाफ़ राष्ट्रीय कम्पनी क़ानून अपीलीय प्राधिकरण (एनसीएलटी) में जाने की ज़रूरत क्यों नहीं समझी? मामले की जाँच तब शुरू हुई, जब सन् 2015 में सीबीआई ने गड़बड़ी का पर्दाफ़ाश किया।

देवास मल्टीमीडिया और एंट्रिक्स कॉरपोरेशन के बीच साल 2005 में सैटेलाइट सेवा से जुड़ी एक डील हुई थी। बाद में यह सामने आया कि इस सौदे में सैटेलाइट का इस्तेमाल मोबाइल से बातचीत के लिए होना था। हालाँकि इसमें गड़बड़ यह हुई कि इसके लिए पहले से सरकार की मंज़ूरी ही नहीं ली गयी थी। देवास मल्टीमीडिया उस समय एक स्टार्टअप था और 2004 में इसे इसरो के पूर्व वैज्ञानिक सचिव प्रबन्ध निदेशक एमडी चंद्रशेखर ने बनाया था।

साल 2011 में जब इस सौदे में फ़र्ज़ीवाड़े की बातें सामने आयीं, तो इस सौदे को यूपीए की सरकार ने रद्द कर दिया। देवास मल्टीमीडिया में बड़े पैमाने पर विदेशी निवेशकों का पैसा लगा हुआ था, बेशक यह भारतीय कम्पनी थी। सौदा रद्द होते की निवेशकों में हडक़ंप मच गया; क्योंकि विदेशी निवेशक इससे बड़े संकट में फँस गये। यह हैरानी की बात है कि सन् 2005 में जब यह सौदा किया गया, तबसे लेकर 2011 तक यूपीए सरकार को इसमें फ़र्ज़ीवाड़े की भनक ही नहीं लगी, या किसी स्तर पर इसे पता होने के बावजूद नज़रअंदाज़ कर दिया गया।

कब, क्या हुआ?

जनवरी, 2005 में एंट्रिक्स कॉर्पोरेशन और देवास के बीच एमओयू पर दस्तख़त हुए। समझौते के मुताबिक, एंट्रिक्स को दो सैटेलाइट बनाने, पॉन्च करने और संचालित करने और 90 फ़ीसदी सैटेलाइट ट्रांसपोंडर्स निजी कम्पनी को लीज पर देने थे। सौदे में 70 मेगाहट्र्स एस-बैंड का 1000 करोड़ रुपये की क़ीमत का स्पेक्ट्रम था। यहाँ यह बता दें कि यह स्पेक्ट्रम आमतौर पर सुरक्षा बलों और एमटीएनएल और बीएसएनएल जैसी सरकारी दूरसंचार संस्थाओं के उपयोग के लिए था।

हालाँकि इस दौरान एक मीडिया रिपोर्ट में ख़ुलासा हुआ कि यह सौदा देश के ख़ज़ाने में दो लाख करोड़ रुपये का नुक़सान कर सकता है। इसके बाद इस सौदे पर सवाल उठने शुरू हो गये। इसके बाद फरवरी, 2011 में मनमोहन सिंह सरकार ने सौदे को रद्द कर दिया और इसका आधार ‘सुरक्षा कारण’ बताया। उस समय जी माधवन नायर इसरो के अध्यक्ष थे।

बाद में अगस्त, 2016 में पूर्व इसरो प्रमुख जी. माधवन नायर और अन्य वरिष्ठ अधिकारियों पर ग़लत तरीक़े से देवास को 578 करोड़ रुपये का लाभ दिलाने का आरोप लगा। इसके बाद सीबीआई ने इस मामले में आरोप-पत्र दाख़िल किया। सितंबर, 2017 में इंटरनेशनल चैंबर ऑफ कॉमर्स (आईसीसी) ने विदेशी निवेशकों की अपील पर देवास को 1.3 अरब डॉलर का मुआवज़ा देने का आदेश दिया।

दो साल बाद जून, 2019 में अंतरराष्ट्रीय व्यापार क़ानून पर संयुक्त राष्ट्र आयोग (यूएनसीआईटीआरएएल) न्यायाधिकरण ने कहा कि भारत ने देवास के विदेशी शेयरधारक डॉयचे टेलीकॉम एजी की शुरू की गयी मध्यस्थता में जर्मनी की द्विपक्षीय निवेश सन्धि का उल्लंघन किया है। जनवरी, 2020 में तीन मॉरीशस-आधारित संस्थाओं सीसी/देवास (मॉरीशस) लिमिटेड, देवास एम्प्लॉइज मॉरीशस प्रा. लि. और टेलीकॉम देवास मॉरीशस लि., जिन्होंने देवास में 37.5 फ़ीसदी हिस्सेदारी रखी; ने अमेरिका के कोलंबिया ज़िला न्यायालय में यूएनसीआईटीआरएएल के आदेश की पुष्टि की माँग की।

इसके बाद अक्टूबर, 2020 में वाशिंगटन के अमेरिकी संयुक्त न्यायालय (फेडरल कोर्ट) ने आईसीसी के अवॉर्ड की पुष्टि की, जिसमें इसरो की एंट्रिक्स को देवास को 1.2 बिलियन डॉलर का भुगतान करने का निर्देश दिया गया था। नवंबर, 2020 में भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने अमेरिकी न्यायालय के आदेश पर रोक लगा दी और दिल्ली हाई कोर्ट को आदेश को लागू करने के ख़िलाफ़ दलीलें सुनने का निर्देश दिया। बाद में जनवरी, 2021 में कॉरपोरेट मामलों के मंत्रालय ने एंट्रिक्स को कम्पनी अधिनियम के तहत देवास के ख़िलाफ़ एक समापन याचिका शुरू करने का निर्देश दिया।

एनएलसीटी ने देवास के ख़िलाफ़ एंट्रिक्स की याचिका मंज़ूर कर ली और अनंतिम परिसमापक (प्रोविजनल लिक्‍वि‍डेटर) नियुक्त किया। उसी साल सितंबर में एनसीएलएटी ने देवास मल्टीमीडिया को बन्द करने के एनसीएलटी के आदेश को बरक़रार रखा। साल के आख़िरी दो महीनों में दो अलग-अलग आदेशों में, सौदा रद्द करने के यूपीए सरकार के फ़ैसले के बाद विदेशी निवेशक भारत सरकार के ख़िलाफ़ कनाडा कोर्ट में चले गये। यहाँ यह बताना भी दिलचस्प है कि 2011 में इन निवेशकों की याचिकाओं के आधार पर दस साल बाद 2021 में कनाडा की न्यायालय ने एयर इंडिया (एआई) और एयरपोर्ट अथॉरिटी ऑफ इंडिया (एएआई) की सम्पत्ति ज़ब्त करने का आदेश दे दिया। हालाँकि अब जनवरी में कनाडा की न्यायालय ने अपने उस फ़ैसले पर फ़िलहाल रोक लगाकर आईएटीए के पास पड़ी एएआई सम्पत्तियों को फ्रीज करने पर रोक हटा दी।

एक अन्य आदेश में कनाडा की न्यायालय ने अपने फ़ैसले में संशोधन किया और आईएटीए के पास पड़ी एआई सम्पत्तियों का केवल 50 फ़ीसदी देवास निवेशकों को अधिग्रहण करने की अनुमति दी। फिर 17 जनवरी को भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने ट्रिब्यूनल के ख़िलाफ़ कम्पनी की अपील को ख़ारिज़ करके देवास को बन्द करने के एनसीएलएटी के फ़ैसले को बरक़रार रखा।

देवास मल्टीमीडिया ने इंटरनेशनल चैंबर्स ऑफ कॉमर्स (आईसीसी) में फ़ैसले के ख़िलाफ़ मध्यस्थता कार्रवाई शुरू की थी। इसके अलावा देवास के निवेशकों ने दो अन्य मध्यस्थता कार्रवाई भी शुरू कीं। भारत को तीनों मामलों में हार का सामना करना पड़ा और नुक़सान की भरपाई के लिए कुल 1.29 अरब डॉलर का भुगतान करने को कहा गया।

देवास के शेयरधारकों ने 1.29 अरब डॉलर की वसूली के लिए विदेशों में भारतीय सम्पत्तियों को ज़ब्त करने के प्रयास तेज़ कर दिये हैं। देवास को इस धनराशि की भरपाई का आदेश अंतरराष्ट्रीय मध्यस्थता न्यायाधिकरणों ने दिया था। देवास को पेरिस में भारतीय सम्पत्तियों को ज़ब्त करने के लिए फ्रांसीसी न्यायालय ने आदेश दिया है और कम्पनी कनाडा में एयर इंडिया के धन को ज़ब्त करने की माँग भी कर रही है।

बता दें आज जो काम स्टारलिंक के ज़रिये एलन मस्क भारत में करना चाह रहे हैं, वैसा ही 2005 में देवास ने करने का सपना दिखाया था। देवास मल्टीमीडिया का उद्देश्य सैटेलाइट के इस्तेमाल से संचार (मोबाइल पर बातचीत) सिस्टम को बेहतर करना था। इसे यह होना था कि आज हर दूसरा उपभोक्ता जिस तरह कमज़ोर इंटरनेट या मोबाइल सिग्नल की शिकायत करता है, वह शायद सेटेलाइट मोबाइल के होने से नहीं होती, क्योंकि देवास मल्टीमीडिया का लक्ष्य सैटेलाइट से ही सीधे कहीं किसी से भी बात कर पाना संभव करना था। कह सकते हैं कि देवास ने हर हाथ में सैटेलाइट मोबाइल का सपना लोगों को दिखाया था, जो कम-से-कम उस ज़माने में तो चमत्कार जैसा ही होता।

“कैबिनेट को 2005 में हुए इस सौदे के विवरण के बारे में पता नहीं था, जिसमें एक निजी कम्पनी को एक मामूली राशि के लिए प्रमुख एस-बैंड स्पेक्ट्रम की एक बड़ी राशि तक पहुँच की अनुमति दी थी। व्यक्तिगत अनुबन्ध कैबिनेट के सामने नहीं आते हैं। कैबिनेट ने जो मंज़ूरी दी थी, वह केवल दो उपग्रहों का प्रक्षेपण था। अब अनुबन्ध रद्द कर दिया है।”

कपिल सिब्बल

यूपीए सरकार में तत्कालीन संचार मंत्री, (12 फरवरी, 2011 का बयान)

 

कांग्रेस ने राष्ट्रीय सुरक्षा दाँव पर लगायी : सीतारमण

वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने सर्वोच्च न्यायालय का फ़ैसला आने के बाद यूपीए की पूर्व सरकार पर गम्भीर आरोप लगाये। उन्होंने देवास मल्टीमीडिया को राष्ट्रीय सुरक्षा उद्देश्य से इस्तेमाल होने वाला एस-बैंड स्पेक्ट्रम देने को देश के साथ धोख़ाधड़ी की और निंदनीय बताया। सीतारमण ने कहा कि सरकार अब करदाताओं के पैसे बचाने के लिए न्यायालयों में लड़ रही है, अन्यथा यह राशि मध्यस्थता फ़ैसले के भुगतान में चली जाती; जो देवास ने सन् 2005 के सौदे को रद्द करने पर जीता है।

सीतारमण ने कहा कि सर्वोच्च न्यायालय ने 17 जनवरी को देवास मल्टीमीडिया के परिसमापन को इस आधार पर बरक़रार रखा कि इसे धोखाधड़ी के इरादे से किया गया था। सीतारमण ने एंट्रिक्स और देवास के बीच 2005 में हुए सौदे पर कहा कि यह देश के लोगों के साथ, देश के साथ धोखाधड़ी थी। एस-बैंड स्पेक्ट्रम का इस्तेमाल सिर्फ़ रक्षा उद्देश्यों के लिए किया जाता है, और उसे थोड़े से धन के बदले दे दिया गया।

सीतारमण ने कहा कि देवास ने ऐसी बातें करने का वादा कर दिया, जो उसके अधिकार में ही नहीं थीं। उन्होंने कहा कि तत्कालीन कांग्रेस के नेतृत्व वाली यूपीए सरकार को इस धोखाधड़ी को भाँपने में छ: साल लग गये और बाद में यह समझौता रद्द कर दिया गया। लेकिन इस मामले में फिर मध्यस्थता शुरू हो गयी; क्योंकि निजी कम्पनी ने भारत सरकार से लाखों डॉलर का दावा किया जो कि भ्रष्टाचार का एक बेहद घृणित कार्य था। एंट्रिक्स-देवास समझौते पर 2005 में हस्ताक्षर किये गये थे और छ: साल के विवादों के बाद इसे 2011 में रद्द कर दिया गया था। इस समझौते पर विभिन्न सरकारी एजेंसियों और विभागों ने गम्भीर आपत्तियाँ उठायी थीं; क्योंकि इसने देवास मल्टीमीडिया प्रा. लि. को एस-बैंड का उपयोग करने के लिए अधिकृत किया था। यह बहुत ही संवेदनशील बैंडविड्थ है, जिसका इस्तेमाल ज़्यादातर सैन्य बलों द्वारा अपने संचार के लिए किया जाता है तथा इस प्रकार यह मामला सीधे राष्ट्रीय सुरक्षा से सम्बन्धित था। सीतारमण ने कहा कि कांग्रेस को अपने क्रोनी कैपिटलिज्म पर बोलने का कोई नैतिक अधिकार नहीं है; क्योंकि उसने राष्ट्रीय सुरक्षा को दाँव पर लगाया था। उन्होंने कहा- ‘लेकिन भ्रष्टाचार की बेशर्मी यहीं नहीं रुकी। क्योंकि बार-बार अनुरोध करने के बाद भी सरकार का पक्ष रखने के लिए तत्कालीन संप्रग सरकार ने मध्यस्थ की नियुक्ति तक नहीं की थी। सीतारमण ने कहा कि यह यूपीए सरकार की आधी-अधूरी भागीदारी को दर्शाता है, जिसने परोक्ष रूप से निवेश के बहाने देवास मल्टीमीडिया की देश में आने की रणनीति का समर्थन किया। कम्पनी ने अमेरिका आधारित सहायक कम्पनी, आईटी सेवाएँ शुरू और अंतरराष्ट्रीय न्यायालयों में क़ानूनी लड़ाई लडऩे के नाम पर 488 करोड़ रुपये की हेराफेरी की।

अपर्णा ने घटा दी अखिलेश की परेशानी!

उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव में दूसरी पार्टियों के कद्दावरों को अपनी पार्टी में शामिल करने की हौड़ अब कुछ-कुछ ठंडी पड़ती दिख रही है। पार्टियों में यह हौड़ तब और लगी, जब भारतीय जनता पार्टी के कद्दावर नेताओं ने उसे छोडक़र समाजवादी पार्टी का दामन थामने शुरू किया। इसके बाद भारतीय जनता पार्टी ने सपा संरक्षक और प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री नेताजी यानी मुलायम सिंह यादव के परिवार में सेंधमारी कर डाली।

भारतीय जनता पार्टी ने अपने क़रीब एक दर्ज़न से अधिक नेताओं के बदले मुलायम सिंह की बाग़ी बहू अपर्णा यादव के अलावा उनके साढ़ू प्रमोद गुप्ता भारतीय जनता पार्टी में शामिल हो गए। प्रमोद गुप्ता समाजवादी पार्टी में विधायक थे। हालाँकि भारतीय जनता पार्टी के लोग इसे समाजवादी पार्टी की बड़ी हार बताते नहीं थक रहे हैं, मगर इस सेंधमारी से समाजवादी पार्टी के अध्यक्ष अखिलेश यादव को राहत ही मिली है। क्योंकि अखिलेश यादव अपने परिवार में टिकट देना नहीं चाहते थे, ख़ासकर अपने सौतेले और छोटे भाई प्रतीक यादव, उनकी पत्नी अपर्णा यादव और उनके मायके के किसी भी सदस्य को।

प्रचार यह किया जा रहा है कि अखिलेश अपने सौतेले भाई और परिवार से बग़ावत करने वाली उनकी पत्नी अपर्णा यादव को अपने मुक़ाबले नहीं देखना चाहते। ऐसे लोगों को 2017 के विधानसभा चुनावों की हलचल के पन्ने पटलने की ज़रूरत है, जब अखिलेश यादव ने लखनऊ कैंट से अपर्णा यादव को टिकट तो दिया ही, साथ ही उनके लिए चुनाव प्रचार किया। लेकिन अपर्णा अपनी सीट नहीं बचा पायीं। यह वह दौर था, जब मुलायम के एकजुट परिवार में पार्टी की कमान सँभालने को लेकर भयंकर फूट पड़ी हुई थी और अखिलेश पर अपने पिता से पार्टी मुखिया का पद छीनने का आरोप था। इसके अतिरिक्त अखिलेश अपने को इस बार चुनाव में ख़ुद को परिवारवादी के आरोप से बचाना चाहते थे। यही वजह है कि वे इस बार अपने कुनबे के अन्य लोगों को भी टिकट नहीं देना चाहते हैं।

इसके अतिरिक्त अखिलेश यादव अपने छोटे और सौतेले भाई प्रतीक यादव और उनकी पत्नी अपर्णा यादव से इसलिए भी कतराते हैं, क्योंकि उन पर पहले भी कई तरह के आरोप रहे हैं। इतना ही नहीं अपर्णा के मायके के लोगों पर भी घोटालों के आरोप रहे हैं। पिछले वर्ष समाजवादी पार्टी के मुखिया अखिलेश यादव के परिवार पर 16 फ़र्ज़ी कम्पनियाँ चलाने का आरोप लगा। यह ख़ुलासा विश्वनाथ चतुर्वेदी ने करते हुए दावा किया था कि सुप्रीम कोर्ट के वकील और मुलायम के परिवार पर आय से अधिक सम्पत्ति है। विश्वनाथ चतुर्वेदी इस मामले का मुक़दमा चला रहे हैं। उनका दावा है कि लखनऊ में अखिलेश के परिजनों की 16 बेनामी कम्पनियाँ हैं, जिनका एक ही पता और मोबाइल नंबर है और इन कम्पनियों के मालिक विवेक यादव, प्रशांत सिंह और मनोज कुमार हैं।

जानकारों का कहना है कि इन कम्पनियों के पीछे प्रतीक यादव और उनकी पत्नी अपर्णा यादव ही हैं। इसके अलावा विश्वनाथ ने अखिलेश के सौतेले भाई प्रतीक यादव के साले अमन सिंह बिष्ट पर भी एक दर्ज़न से अधिक कम्पनियाँ बनाकर आय से अधिक सम्पत्ति जोडऩे का आरोप लगाया है। उन्होंने सीबआई को भी पत्र लिखकर इस बारे जाँच करने की माँग की है।

अंदरूनी सूत्रों का कहना है कि भारतीय जनता पार्टी अपने कद्दावरों के समाजवादी पार्टी में जाने से खिन्न थी और इसका बदला चाहती थी, जिसमें उसे मुलायम परिवार की सबसे कमज़ोर कड़ी अपर्णा यादव, उनके पति प्रतीक यादव और अपर्णा यादव के रिश्तेदार दिखे। कुछ जानकारों का कहना है कि प्रतीक यादव को डर था कि अगर वे पत्नी को लेकर भारतीय जनता पार्टी में नहीं गये, तो उनके यहाँ भी दूसरे सपा नेताओं की तरह छापेमारी हो सकती है। इसके अतिरिक्त प्रतीक यादव की पत्नी अपर्णा यादव लखनऊ के कैंट क्षेत्र से टिकट भी चाहती हैं, जो अखिलेश इस बार उन्हें देने को तैयार नहीं थे। ऐसे में भारतीय जनता पार्टी ने उन्हें न्योता दिया और वे बिना देरी किये परिवार को बिना बताये पति प्रतीक यादव के साथ सीधे लखनऊ पहुँच गयीं, जहाँ से वे भाजपा के इशारे पर सीधे दिल्ली पहुँचीं और अगले ही दिन भाजपा में शामिल होने का ऐलान कर दिया।

लेकिन अब इस मामले में मोड़ यह आ गया है कि अपर्णा को भारतीय जनता पार्टी से भी टिकट मिलने की उम्मीद पर पानी फिरता नज़र आ रहा है; क्योंकि भाजपा अब उन्हें टिकट देने के मूड में नहीं लगती। यह तब है, जब अपर्णा खुलकर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ उर्फ़ अजय बिष्ट की जमकर तारीफ़ कर चुकी हैं। मगर उनके रास्ते में उन्हें 2017 में विधानसभा चुनावों में हरा चुकी भारतीय जनता पार्टी की रीता बहुगुणा जोशी ही रोड़ा नज़र आ रही हैं। इस बात की पुष्टि इस बात से भी होती है कि पहले तो देश के गृह मंत्री और भारतीय जनता पार्टी के बड़े निर्णायक अमित शाह ने उन्हें पार्टी में शामिल करने के लिए दिल्ली तक बुलाया, मगर जैसे ही वे भारतीय जनता पार्टी में शामिल हो गयीं, अमित शाह ने उन्हें मिलने का समय तक नहीं दिया। भारतीय जनता पार्टी में शामिल होने के बाद अमित शाह से यह उनकी पहली ही मुला$कात थी और पहले ही दिन अपर्णा यादव को 10 घंटे इंतज़ार करना पड़ा, बावजूद इसके गृह मंत्री उनसे नहीं मिले और यादव परिवार की यह बहू भाजपा मुख्यालय से नाउम्मीदी लिए लौट गयी। जानकार कहते हैं कि अपर्णा यादव को यह मायूसी हाथ लगनी ही थी, क्योंकि अमित शाह ने अपने कद्दावर नेताओं को तोडऩे का बदला तो समाजवादी पार्टी से ले लिया, लेकिन यह दाँव भारतीय जनता पार्टी को नहीं, बल्कि समाजवादी पार्टी को $फायदा पहुँचाने वाला साबित हुआ है। क्योंकि अखिलेश जिस काँटे को पाँव से निकालना चाहते थे, वह भारतीय जनता पार्टी ने ख़ुद ही निकाल दिया। अब भारतीय जनता पार्टी में अपर्णा को टिकट मिलेगा या नहीं, यह जानने के लिए इंतज़ार तो करना ही पड़ेगा। हो सकता है कि अपर्णा के लिए योगी आदित्यनाथ कुछ करें; क्योंकि अपर्णा यादव के पिता अरविंद सिंह बिष्ट ख़ुद उत्तराखण्ड से हैं और अजय बिष्ट यानी योगी आदित्यनाथ की जाति के हैं और योगी आदित्यनाथ पर तो वैसे भी जातिवादी होने का ठप्पा लगा हुआ है।

मगर सवाल यह है कि अगर अपर्णा यादव को भारतीय जनता पार्टी से भी टिकट नहीं मिला, तो उनकी फ़ज़ीहत होनी ही है; मेहनत पर भी पानी फिरेगा। क्योंकि अपर्णा यादव लखनऊ कैंट के क्षेत्र में जीत के लिए विकट मेहनत कर रही हैं।

ऐसे में सवाल यह भी है कि अगर उन्हें भारतीय जनता पार्टी से टिकट नहीं मिला, तो क्या अपर्णा यादव का राष्ट्रवाद और भारतीय जनता पार्टी के प्रति अचानक उमड़ा जबरदस्त प्रेम लम्बे समय तक ज़िन्दा रह पाएगा? या फिर समाजवादी पार्टी की तरह ही जल्दी से टूट जाएगा। वैसे विद्वतजन कहते हैं कि जो अपने परिवार का नहीं होता, वो पड़ोसियों का कभी नहीं होता। देश में ऐसे कई नेता हैं, जो अपने ही परिवार को धोखा दे चुके हैं और राष्ट्र की सेवा का दम्भ भरते हैं। मगर यह तो जनता को सोचना होगा कि ऐसे लोगों पर भरोसा करना कितना उचित है? रही अपर्णा की बात, तो उन्होंने भारतीय जनता पार्टी में शामिल होकर भी परिवार का मोह नहीं छोड़ा है। इस बात की पुष्टि भारतीय जनता पार्टी में शामिल होने के बाद अपने ससुर और समाजवादी पार्टी के संस्थापक मुलायम सिंह यादव से अपर्णा यादव के आशीर्वाद लेने से साबित होती है।

प्रतीक यादव से प्रेम विवाह करने वाली अपर्णा यादव के अपने परिवार के प्रति बाग़ी तेवर होना कोई नयी बात नहीं है, मगर उन्होंने परिवार से नाता भी कभी नहीं तोड़ा और मुलायम सिंह से लेकर अखिलेश यादव तक उनके प्रति काफ़ी स्नेह रखते हैं। 2011 में यादव परिवार की बहू बनी अपर्णा बिष्ट ने अपना सरनेम हटाकर यादव सरनेम स्वीकार करने के बाद ससुर मुलायम को पिता की तरह ही माना और वे कई आयोजनों में पूरे परिवार के साथ दिखी हैं। अखिलेश भी उन्हें कभी उदास नहीं करते, 2017 में लखनऊ कैंट से अपर्णा यादव को टिकट देकर उनके पक्ष में प्रचार करना इस बात की ठोस गवाही है।

मगर इस बार उन्होंने अपर्णा यादव को टिकट नहीं दिया। जानकारों का कहना है कि इस बार अखिलेश किसी भी हाल में उत्तर प्रदेश की सत्ता हाथ से नहीं जाने देना चाहते। यही वजह है कि वे किसी भी तरह के झगड़े और आरोप से भी बचना चाहते हैं। पिछले साल दिसंबर में समाजवादी पार्टी के कई विधायकों, नेताओं के यहाँ हुई छापेमारी और अखिलेश के छोटे भाई प्रतीक यादव और उनकी पत्नी अपर्णा यादव पर फ़र्ज़ी कम्पनियों को चलाने के आरोप लगने लगे थे।

इसके अतिरिक्त अखिलेश यादव इस बार कांग्रेस की तरह परिवारवाद के भाजपा के आरोपों से समाजवादी पार्टी को मुक्त करना चाहते हैं। मगर अपर्णा यादव इस बात को नहीं समझ सकीं और एक टिकट के चक्कर में पडक़र तुरन्त भारतीय जनता पार्टी में चली गयीं। हालाँकि अपर्णा यादव राजनीति की पढ़ाई कर चुकी हैं, मगर देखना यह है कि उनकी राजनीति की पढ़ाई यहाँ कितना काम आती है?

झारखण्ड तक दिख रही उत्तर प्रदेश चुनाव की तपिश

देश में पाँच राज्यों उत्तर प्रदेश, उत्तराखण्ड, पंजाब, गोवा और मणिपुर में विधानसभा चुनाव की हलचल है। तारीख़ों का ऐलान हो चुका है और जैसे-जैसे मतदान नज़दीक आते जा रहे हैं, चुनावी तपिश बढ़ती जा रही है। देश के 28 राज्य और नौ केंद्र शासित प्रदेशों में उत्तर प्रदेश सियासी तौर पर सबसे महत्त्वपूर्ण रहा है; क्योंकि दिल्ली की सत्ता का रास्ता यहीं से होकर गुजरता है। उत्तर प्रदेश चुनाव पर सभी की नज़रें टिकी हैं। इससे झारखण्ड में राजनीति करने वाले और राजनीति में रुचि रखने वाले लोग भी अछूते नहीं हैं। उत्तर प्रदेश की सीमाएँ झारखण्ड से सटी हुई हैं।

ज़ाहिर है कि जब उत्तर प्रदेश की चुनावी तपिश बढ़ती है, तो उसकी तपिश झारखण्ड तक पहुँचने लगती है। वैसे भी उत्तर प्रदेश और झारखण्ड का आपस में कई मायनों में गहरा रिश्ता है। लिहाज़ा अन्य चार चुनावी राज्यों की अपेक्षा उत्तर प्रदेश को राज्य स्तर से ज़िला और प्रखण्ड स्तर तक के मीडिया में ज़्यादा तवज्जो मिलता है। चौक-चौराहों पर चुनावी चर्चा और राजनीतिक दल, ख़ासकर भाजपा और कांग्रेस की सियासी गतिविधियाँ तेज़ हो गयी हैं।

झारखण्ड का गढ़वा ज़िला ख़ास महत्त्व रखता है। राज्य का यह एक मात्र ज़िला है, जिसकी सीमाएँ पड़ोस के तीन राज्यों उत्तर प्रदेश, बिहार और छत्तीसगढ़ की सीमाओं से लगती हैं। गढ़वा के उत्तर में बिहार का रोहतास व कैमूर ज़िला, दक्षिण में छत्तीसगढ़ का सरगुजा ज़िला और पश्चिम में उत्तर प्रदेश का सोनभद्र ज़िला है; जबकि पूर्व में ख़ुद झारखण्ड के पलामू और लातेहार ज़िले मौज़ूद हैं। यानी उत्तर प्रदेश की कई गतिविधियाँ झारखण्ड में गढ़वा ज़िले के रास्ते से प्रवेश करती हैं। फ़िलहाल उत्तर प्रदेश में चुनावी सरगर्मी बढ़ गयी है, तो झारखण्ड में गढ़वा ज़िले के रास्ते यह सरगर्मी पूरे प्रदेश तक पहुँचने लगी है।

दोनों प्रदेशों का सियासी नाता

उत्तर प्रदेश के सोनभद्र में चार विधानसभा सीट घोरावल, राबट्र्सगंज, ओबरा और दुद्धी हैं। इन सीटों पर तो झारखण्ड का सीधा प्रभाव पड़ता है। इसके अलावा पूर्वांचल की कई सीटों पर बिहार और झारखण्ड का असर रहता है। क्योंकि पूर्वोत्तर के राज्यों की राजनीति जाति, धर्म, सम्प्रदाय, आरक्षण आदि के इर्द-गिर्द घूमती है। ख़ासकर उत्तर प्रदेश, बिहार और झारखण्ड जैसे राज्यों की राजनीति की पृष्ठभूमि में तो यही है। इसलिए भी इन राज्यों में चुनाव होने पर सीमा से सटे राज्यों में गतिविधियाँ तेज़ हो जाती हैं। कांग्रेस और भाजपा के कई नेता मूल रूप से उत्तर प्रदेश के हैं। भाजपा के सांसद संजय सेठ, भाजपा के संगठन महामंत्री धर्मपाल, राजेश शुक्ला, गणेश मिश्रा समेत कई नेता मूल रूप से उत्तर प्रदेश के हैं। वहीं कांग्रेस के पूर्व विधायक स्व. राजेंद्र सिंह का परिवार, धनबाद के सिंह मेंशन का परिवार समेत कई अन्य नेताओं का उत्तर प्रदेश से गहरा नाता है। प्रदेश के कई आईएएस, आईपीएस समेत अन्य अधिकारी, कर्मचारी और आम लोगों का उत्तर प्रदेश के मूलनिवासी होने के कारण उनका नाता है। उत्तर प्रदेश और झारखण्ड में एक और समानता है। झारखण्ड की तरह उत्तर प्रदेश के कुछ विधानसभा सीटें आदिवासी (एसटी) बाहुल  हैं। जैसे इलाहाबाद के करछना से अलग होकर 2012 में बनी कोरांव विधानसभा सीट या सोनभद्र ज़िलाया फिर जौनपुर, ललितपुर, बलिया आदि इलाकों एसटी वोट किसी भी उम्मीदवार कीजीत-हार में बहुत मायने रखता है। इसलिए इन ज़िलों में झारखण्ड के नेताओं और कार्यकर्ताओं का महत्त्व बढ़ जाता है।

झारखण्ड के मन्दिरों में आस्था

चुनाव से पहले और जीत के बाद कई नेता अपने-अपने धर्म स्थली पर मत्था टेकने ज़रूर जाते हैं। झारखण्ड के चार धर्म स्थल उत्तर प्रदेश के नेताओं, विशेषकर पूर्वांचली नेताओं के लिए ख़ास मायने रखते हैं। देवघर का बाबा बैद्यनाथ मन्दिर, बासुकीनाथ मन्दिर, रामगढ़ स्थित रजरप्पा की माँ छिन्मस्तिका मन्दिर और नगर उंटारी स्थित श्री वंशीधर महाप्रभु का मन्दिर इनमें ख़ास हैं। यहाँ उत्तर प्रदेश के कई नेता चुनाव से पहले और चुनाव जीतने के बाद दर्शन और पूजन के लिए आते हैं। चुनाव की घोषणा के साथ ही नेताओं का धीरे-धीरे आना-जाना भी शुरू हो गया है। इन जगहों के पुजारियों और पण्डों का कहना है कि अभी कोरोना संक्रमण की वजह से राज्य में कई तरह की पाबंदियाँ हैं। मन्दिर में प्रवेश और पूजा-अर्चना को लेकर कई तरह के नियम बनाये गये हैं। इस वजह से अभी आवाजाही कम है। अभी कम संख्या में उत्तर प्रदेश के नेताओं का आना शुरू हुआ है। पर उम्मीद है कि संक्रमण कम होने के बाद हर बार की तरह इस बार फिर उत्तर प्रदेश के कई सांसद, विधायक और चुनाव के प्रत्याशी पूजा-अर्चना और आशीर्वाद लेने पहुँचने लगेंगे।

नेताओं का प्रवास शुरू

उत्तर प्रदेश में चुनावी सरगरमी धीरे-धीरे बढ़ रही है। कोरोना संक्रमण को देखते हुए चुनाव आयोग ने प्रचार को लेकर दिशा-निर्देश जारी किये गये हैं। सभाओं, रैलियों और अन्य कई तरह गतिबिधियों में ज़्यादा भीड़ जुटाने पर पाबंदियाँ लगी हुई हैं। अभी कम संख्या में दर-दर (डोर-टू-डोर) जाने की अनुमति मिली है। चुनाव आयोग ने कहा है कि समय-समय पर कोरोना स्थिति के आकलन के बाद पाबंदियों को घटाया जा सकेगा। यानी ज्यों-ज्यों पाबंदियाँ हटेंगी, चुनावी सरगरमी तेज़ होती जाएगी। इन सभी बातों को देखते हुए उत्तर प्रदेश चुनाव के लिए भाजपा और कांग्रेस ने अपने-अपने नेताओं और कार्यकर्ताओं की भूमिका तय करनी शुरू कर दी है। दोनों दलों के नेताओं व कार्यकर्ताओं का उत्तर प्रदेश में प्रवास शुरू हो गया है। भाजपा की पहली टीम में संगठन महामंत्री धर्मपाल सिंह, प्रदेश महामंत्री प्रदीप वर्मा, सांसद सुनील सिंह, विधायक भानु प्रताप शाही, सत्येंद्र तिवारी समेत क़रीब 70 लोग शामिल हैं। काफ़ी संख्या में नेता और कार्यकर्ता उत्तर प्रदेश चले गये हैं।

ये नेता काशी के चंदौली, सोनभद्र व मिर्जापुर में चुनावी प्रबन्धन में सहायता कर रहे हैं। वहीं भाजपा की दूसरी टीम भी तैयार है, जिनका दौरा जल्द शुरू होगा। इनमें केंद्रीय मंत्री अर्जुन मुंडा, केंद्रीय राज्यमंत्री अन्नपूर्णा देवी, पूर्व मुख्यमंत्री एवं राष्ट्रीय उपाध्यक्ष रघुवर दास, पूर्व मुख्यमंत्री एवं भाजपा विधायक दल के नेता बाबूलाल मरांडी, सांसद व प्रदेश अध्यक्ष दीपक प्रकाश और अन्यनेताओं की जवाबदेही तय की जाएगी।

दूसरी ओर कांग्रेस की पहली टीम में विधायक प्रदीप यादव, अंबा प्रसाद, नमन विक्सल कोंगाड़ी, पूर्व विधायक जे.पी. गुप्ता, केशव महतो कमलेश, काली चरण मुंडा आदि शामिल हैं। जबकि दूसरी टीम में कांग्रेस के प्रदेश अध्यक्ष राजेश ठाकुर, मंत्री आलमगीर आलम, बन्ना गुप्ता, बादल पत्रलेख और अन्य विधायकों को रखा गया है।

उत्तर प्रदेश में होगा झारखण्ड के कामकाज का प्रचार

झारखण्ड में गठबन्धन की सरकार है, जिसमें कांग्रेस भी शामिल है। वहीं भाजपा मुख्य विपक्षी दल है। ज़ाहिर है यहाँ के नेता उत्तर प्रदेश के चुनावी प्रचार के दौरान अपने राज्य की बात रखने से नहीं चूकेंगे। प्रचार के लिए जाने वाले नेताओं ने बातचीत में कहा कि पार्टी द्वारा जो ज़िम्मेदारी मिलेगी, उसके साथ झारखण्ड की बातों से भी उत्तर प्रदेश की जनता को अवगत कराएँगे, जिससे लोग हमारी पार्टी के पक्ष में मतदान करें। भाजपा के नेता उत्तर प्रदेश चुनाव में सिंगल इंजन और डबल इंजन की महत्ता को जनता को बताएँगे। राज्य में पूर्व की भाजपा सरकार में हुए विकास कार्यों को गिनाएँगे। वर्तमान सरकार की ख़ामियों की भी चर्चा करेंगे। साथ ही बिगड़ती विधि व्यवस्था, उग्रवादी घटनाओं, महिला अत्याचार और अवरुद्ध विकास जैसे मुद्दों को गिनाएँगे।

वहीं कांग्रेस नेताओं की टीम झारखण्ड में मॉब लिंचिंग के ख़िलाफ़ बने क़ानून, किसानों के हितों में उठाये गये क़दमों, किसान क़र्ज़ माफ़ी योजना और हाल ही में पेट्रोल पर ग़रीब तबक़े को दी जाने वाली 25 रुपये की राहत जैसे कार्यों को जनता को बताएगी।

 

“पार्टी के कई नेताओं, पदाधिकारियों और कार्यकर्ताओं का उत्तर प्रदेश प्रवास शुरू हो गया है। झारखण्ड के नेता व कार्यकर्ता उत्तर प्रदेश के पार्टी प्रत्याशियों कार्यकर्ताओं के सहयोगी बन रहे हैं। ख़ासकर झारखण्ड सीमा से लगी विधानसभा सीटों में यहाँ के कार्यकर्ताओं का विशेष सहयोग लिया जाता है। ज्यों-ज्यों चुनाव कार्य आगे बढ़ेगा, प्रदेश के वरिष्ठ नेता, सांसद, विधायक सभी उत्तर प्रदेश की ओर रूख़ करेंगे। इसके लिए राष्ट्रीय स्तर से एक कार्य-योजना तैयार की जा चुकी है।”

दीपक प्रकाश

सांसद एवं भाजपा प्रदेश अध्यक्ष

 

“दिसंबर में प्रियंका गाँधी ने उत्तर प्रदेश को लेकर एक बैठक की थी। इस बैठक में प्रदेश से कई नेता शामिल हुए थे। इसमें उत्तर प्रदेश की चुनाव में सहयोग को लेकर भी बात हुई थी। पहले चरण में कई विधायकों को उत्तर प्रदेश बुलाया गया है। यहाँ से पार्टी के विधायकों, पदाधिकारियों और कार्यकर्ताओं का उत्तर प्रदेश जाना शुरू हो गया है। दूसरे चरण में सरकार के मंत्री और अन्य वरिष्ठ नेता उत्तर प्रदेश जाएँगे। मेरा ख़ुद का भी कार्यक्रम है। सभी नेता उत्तर प्रदेश में पार्टी उम्मीदवारों की जीत सुनिश्चित करेंगे।”

राजेश ठाकुर

कांग्रेस प्रदेश अध्यक्ष

खुलकर सामने नहीं आ रहे कोरोना के मामले

सरकार के पास नहीं किट के ज़रिये ख़ुद से जाँच करने वाले कोरोना संक्रमितों की सही जानकारी

कोरोना वायरस के मामले आये दिन बढ़ते जा रहे हैं। देश में हर रोज़ हज़ारों कोरोना संक्रमण के मरीज़ सामने आ रहे हैं। इसकी मुख्य वजह कोरोना वायरस के संक्रमण को रोकने का कोई समुचित उपाय न होने के साथ-साथ इलाज की उचित व्यवस्था न होना भी है। हालाँकि राहत की बात यह है कि ओमिक्रॉन नामक कोरोना वायरस की इस तीसरी लहर में दूसरी लहर के मुक़ाबले मौतें कम हो रही हैं। लेकिन फिर भी अगर देखें, तो मौज़ूदा समय में स्वास्थ्य व्यवस्था का लगभग वही हाल है, जो पहले था। जबकि कोरोना की इस तीसरी लहर के बढऩे की आशंका लगातार बढ़ रही है। चाहिए तो यह था कि केंद्र सरकार समेत राज्य सरकारें पिछली ग़लतियों से सीख लेकर अस्पतालों में व्यवस्था दुरुस्त करतीं; लेकिन अस्पतालों की स्थिति ढाक के वही तीन पात जैसी ही है।

मौज़ूदा समय में जब सभी सरकारें बेहतर स्वास्थ्य व्यवस्था का दावा कर रही हैं, उसमें तमाम ख़ामियाँ सामने आ रही हैं। मौज़ूदा समय में सरकार ने कोरोना से लडऩे और बचाव के लिए घर बैठे जाँच के लिए जो किट दवाख़ानों (मेडिकल स्टोर्स) में उपलब्ध करायी है। इसके बावजूद भी कोरोना के सही आँकड़े सामने नहीं आ रहे हैं। क्योंकि घर बैठे जाँच करने पर जिनको कोरोना होने की पुष्टि होती है, उनमें से अधिकतर लोग डर या इस सोच के चलते कि घर में ही ठीक हो जाएँगे, छूत की इस महामारी को छिपाकर अपने तरीक़े से घर बैठे इलाज कर रहे हैं। ऐसी सोच वाले अधिकतर लोग मेडिकल स्टोर से दवा लेकर अपना स्वास्थ्य ठीक करने में लगे हैं। इससे कोरोना के मामले सही तरीक़े से सामने नहीं आ पा रहे हैं। कोरोना की किट जो मेडिकल स्टोर पर उपलब्ध है।

बड़ी बात यह है कि किट के नाम पर मेडिकल स्टोर वाले जमकर चाँदी काट रहे हैं। किट दामों में अलग-अलग मेडिकल स्टोर्स पर बड़ा अन्तर देखने को मिल रहा है। जितने मेडिकल स्टोर पर किट ख़रीदने जाओ, उतने ही अलग-अलग दाम किट के बताये जाते हैं। किसी मेडिकल स्टोर पर 200 रुपये में यह किट उपलब्ध है, तो कहीं 250 रुपये में, तो कहीं 300 रुपये में मेडिकल वाले इसे बेच रहे हैं। इससे ख़रीदारों को काफ़ी परेशानी का सामना करना पड़ रहा है।

कोरोना वायरस के बढ़ते प्रकोप को लेकर लोगों में सावधानी, सतर्कता तो बढ़ी है। लेकिन डर नहीं रहा है। डॉक्टर्स का कहना है कि कोरोना जबसे सियासी लोगों के लिए लाभ-हानि का कारण बना है, तबसे देश में कोरोना को लेकर लोगों के बीच में एक बात सामने आयी है कि कोरोना वायरस से ज़्यादा सियासी वायरस फैल रहा है। यह सियासी वायरस लोगों के स्वास्थ्य के साथ खिलवाड़ तो कर ही रहा है, मानसिक तौर पर भी बीमार कर रहा है।

आईएमए के पूर्व संयुक्त सचिव व कोरोना विशेषज्ञ डॉक्टर अनिल बंसल का कहना है कि कोरोना वायरस के कई ऐसे मामले हर रोज़ ऐसे लोगों के भी आ रहे हैं, जिनको कोरोना वायरस की पहली लहर में संक्रमण हुआ था। कुछ को तो पहली के बाद दूसरी लहर में भी कोरोना हुआ था और अब तीसरी लहर में भी कोरोना हुआ है। और तो और उन्होंने कोरोना की दोनों ख़ुराक भी ली (दोनों टीके भी लगवाये) हैं। ऐसे में इन कोरोना मरीज़ों का इलाज भी चल रहा है।

मतलब साफ़ है कि कोरोना अब ज़्यादा घातक नहीं है। बस ज़रूरत है, तो सही समय पर सही तरीक़े से इलाज करवाने की। ताकि कोरोना वायरस के संक्रमण को रोका जा सके और किसी प्रकार की स्वास्थ्य हानि या जान की हानि न हो सके।

डॉक्टर अनिल बंसल ने कहा कि विदेशों में कई-कई स्वास्थ्य एजेंसियाँ बीमारियों पर काम करती हैं। कोरोना पर भी कर रही हैं। ये एजेंसियाँ बीमारियों को लेकर अपनी राय रखती हैं और इलाज व बचाव के लिए सुझाव देती हैं। लेकिन भारत देश में स्वास्थ्य एजेंसियों से ज़्यादा सरकार के कुछ शक्तिशाली लोग ही एजेसियों का काम कर रहे हैं। वे जो कह रहे हैं, वही हो रहा है। इससे कोरोना पर क़ाबू पाना और भी मुश्किल हो रहा है। क्योंकि कोरोना पर डॉक्टरों और विशेषज्ञों के ज़्यादा राजनीतिक लोग ये मानते हैं कि अगर कोरोना के बड़े हुए मामले सामने आये या दिखाये गये, तो सरकार की बदनामी होगी। इसलिए न कोरोना की ज़्यादा जाँच करवाओ, और न कोरोना के मामले बड़ी संख्या में सामने लाओ। यह एक घातक सोच है, जिसका देर-सवेर देशवासियों को सामना ज़रूर करना पड़ेगा।

कोरोना वायरस को लेकर समय-समय पर जागरूक करने वाले डॉक्टर दिव्यांग देव गोस्वामी ने बताया कि जब तक देश के गाँव-गाँव में स्वास्थ्य का बुनियादी ढाँचा सही नहीं होगा, तब तक देश से कोरोना को हरा पाना मुश्किल होगा। क्योंकि जो सरकार ने किट के ज़रिये फिट रहने का फार्मूला (सूत्र) दिया है, उससे कोरोना के रोगियों की संख्या तो दिख रही है; लेकिन यह संख्या सरकारी आँकड़ों में दर्ज नहीं हो पा रही है। गाँव-गाँव में जानकारी के अभाव में लोग कोरोना का भी खाँसी-जुकाम समझकर इलाज कर रहे हैं। उनको डर लगता है कि कोरोना होने की अगर पुष्टि हो गयी, तो निश्चित तौर पर वे अलग-थलग पड़ जाएँगे और अस्पताल में भर्ती होना पड़ सकता है। उनमें यह भी मान्यता घर कर रही है कि अगर अस्पताल पहुँच गये, तो सही होने की सम्भावना कम ही होती है। इसलिए वे कोरोना का इलाज न के बराबर कराकर समाज में परिवार में संक्रमण को फैला रहे हैं। इसलिए सरकार को जल्दी-से-जल्दी कोई ठोस कारगर क़दम उठाने होंगे।

साकेत मैक्स के फेफड़े प्रत्यारोपण विशेषज्ञ डॉक्टर राहुल चंदौला ने बताया कि कोरोना हो या अन्य बीमारी हो, समय पर इलाज होना चाहिए। रहा कोरोना पर क़ाबू पाने का सवाल, तो इसके लिए हमें कोरोना से बचाव के लिए जारी दिशा-निर्देश का पालन करना होगा। मास्क लगाकर चलें और दो गज़ दूरी का पालन करें। जब भी किसी से बात करें, तो मुँह को मास्क से ढँककर ज़रूर रखें, ताकि किसी प्रकार का वायरस किसी को कोई नुक़सान न पहुँचा सके।

कैथ लैब के निदेशक डॉक्टर विवेका कुमार का कहना है कि कोरोना, हृदय और अस्थमा के मामले लगभग एक जैसे होते हैं। इनमें स्वास्थ्य की जाँच बहुत ज़रूरी होती है। लोगों को चाहिए कि वे घबराएँ नहीं। अगर बुख़ार के साथ गले में खिंचाव हो और बैचेनी हो, तो तुरन्त डॉक्टर से परामर्श लें; ताकि बीमारी को समय रहते पहचाना जा सके और इलाज हो सके। डॉक्टर विवेका कुमार का कहना है कि अगर कोरोना के बढ़े हुए मामले सामने आ रहे हैं, तो इसकी वजह है कि कम ही लोगों ने टीके लगवाये हैं। जिनको कोरोना हो रहा है, उसकी वजह उनमें रोग प्रतिरोधक क्षमता का कम होना है।

स्वास्थ्य मिशन से जुड़े आलोक कुमार का कहना है कि कोरोना को लेकर लोगों में एक आदत-सी बन गयी है कि कोरोना लम्बे समय तक रहने वाला है। ऐसे में डरने की बजाय बचने की ज़रूरत पर लोग ख़ुद बल दे रहे हैं। उनका कहना है कि कोरोना में ओमिक्रॉन नाम का जो नया स्वरूप सामने आया है, उसकी जाँच तो महानगरों में हो रही है। अगर ज़िला स्तरीय और तहसील स्तर पर भी जाँच होने लगे, तो सही-सही पता चल सकेगा कि ओमिक्रॉन नामक बीमारी है कि नहीं।

इससे काफ़ी हद तक कोरोना पर क़ाबू पाया जा सकता है। सरकार को इस मामले में गम्भीरता से कोई कारगर क़दम उठाने की ज़रूरत है। अन्यथा कोरोना लोगों के स्वास्थ्य को तो बर्बाद कर ही रहा है, बल्कि देश की अर्थ-व्यवस्था को भी चौपट कर देगा, जिससे ज़्यादा तबाही के हालात बनेंगे।

बजट : आयकर स्लैब राहत नहीं, 60 लाख नई नौकरियां, 5G इसी साल से होगा शुरू

राकेश रॉकी

बजट को अगले 25 साल का ब्लू प्रिंट बताते हुए वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने मंगलवार को लोकसभा में माली साल 2022-23 के लिए 39.45 लाख करोड़ रूपये का बजट पेश पेश किया। इसमें आयकर स्लैब में कोई राहत नहीं दी गयी है, लेकिन कई दूसरी बड़ी घोषणाएं की गयी हैं। ‘मेक इन इंडिया’ के तहत 60 लाख नई नौकरियों को सृजित करने और  इस साल संचार में 5G लागू करने की बात कही गयी है। कांग्रेस नेता राहुल गांधी ने इसे ‘जीरो सम बजट’ जबकि बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने ‘पेगासस स्पिन’ बजट बताया है।

बजट में कारपोरेट टैक्स को 18 फीसदी से घटाकर 15 फीसदी करने जबकि सरचार्ज को 12 फीसदी से घटाकर 7 फीसदी करने का प्रस्ताव है ताकि सहकारी संस्थाओं को बढ़ावा दिया जा सके। क्रिप्टो करेंसी से होने वाली आमदनी पर अब 30 फीसदी टैक्स लगेगा जबकि वर्चुअल करेंसी पर एक फीसदी टीडीएस भी लगेगा। बजट में इनकम टैक्स स्लैब में कोई बदलाव नहीं किया गया है। लॉन्ग टर्म केपिटल  गेन पर 15 फीसदी का सरचार्ज लगेगा।

गरीबों को राहत देते हुए पीएम आवास योजना 2022-23 में 80 लाख घर लोगों को मुहैया कराएं जाएंगे और 48 हजार करोड़ रुपये इसके लिए आवंटित किए गए हैं। इसके लिए राज्य सरकारों के साथ मिलकर काम किया जाएगा, ताकि जरूरतमंदों को घर दिया जा सके। बजट के अनुसार चमड़े के सामान सस्ता होंगे, कपड़ा भी सस्ता होगा। इसके अलावा मोबाइल चार्जर और मोबाइल लेंसेस सस्ते होंगे। इसके अलावा खेती का सामान सस्ता होगा और पॉलिश्ड हीरा सस्ता होगा।

एनपीएस में अब 10 फीसदी  की जगह 14 फीसदी योगदान होगा। सरकारी कर्मचारियों के लिए एनपीएस योजना में टैक्स छूट का दायरा बढ़ा। नया टैक्स रिफॉर्म लाने की योजना है और कर्मचारियों के पेंशन पर भी टैक्स छूट मिलेगी। एनपीएस में केंद्र और राज्य का योगदान अब 14 फीसदी होगा।

वित्त मंत्री ने कहा – ‘रिजर्व बैंक डिजिटल रुपया 2022-23 में लागू करेगा। बिटकॉइन से निपटने के लिए सरकार का यह बड़ा कदम है। ग्रीन बॉन्ड के जरिए पैसे जुटाए जाएंगे। ब्लैक चेन तकनीक पर डिजिटल करेंसी जारी की जाएगी। निजी निवेश को प्रेरित करके लिए सरकार कदम उठाएगी।’

रक्षा क्षेत्र में अनुसंधान और विकास के लिए रक्षा क्षेत्र में अनुसंधान के बजट को 25 फीसदी आरएंडडी के लिए रखा गया है। डीआरडीओ और अन्य संस्थाएं तकनीक को विकसित कर सकती हैं। ये तमाम वे क्षेत्र हैं जहां भारतीय उद्योगों को और ज्यादा दक्ष बनाया जा सकता है। रक्षा क्षेत्र में अनुसंधान के लिए स्टार्टअप को मौका दिया जाएगा। डिफेंस सेक्टर में 65 फीसदी स्वदेसी तकनीक को बढ़ावा दिया जाएगा।

सेज की जगह नया कानून लाया जाएगा। सौर ऊर्जा उत्पादन के लिए 19,500 करोड़ रुपये दिए जाएंगे। राज्यों को बिना ब्याज के 50 साल के लिए कर्ज दिया जाएगा। राज्यों की मदद के लिए एक लाख करोड़ रुपये का प्रस्ताव है।

देश के ग्रामीण और दूर दराज के क्षेत्रों के लिए बैंक और मोबाइल आधारित सुविधाओं के लिए एक सर्विस एलोकेशन फंड मुहैया कराया जाएगा। सरकार का विजन है कि देश के सभी गांव और वहां रहने वाले लोग डिजिटल साधन का इस्तेमाल कर सकें। एक राष्ट्र एक रजिस्टरीकरण पॉलिसी को लागू किया जाएगा। गांवों में ब्रॉड बैंड सर्विस को बढ़ावा दिया जाएगा।

वित्त मंत्री ने कहा कि ई-पासपोर्ट की सुविधा शुरू की जाएगी। वित्त वर्ष 2022-23 में चिप वाले पासपोर्ट दिए जाएंगे। साल 2022 से 5जी सर्विस को शुरू किया जाएगा। 59 स्पेक्ट्रम की नीलामी की जाएगी इसके बाद निजी फर्म 2022-23 में 5जी सर्विस शुरू करेंगे।

कंपनियों को बंद करने की योजना को जिसमें अभी दो साल का वक्त लगता है उसे घटाकर 6 महीने किया जाएगा। पारदर्शिता को बढ़ाने और देरी को कम करने के लिए ऑनलाइन ई-बिल सिस्टम सभी केंद्रीय मंत्रालयों में खरीद के लिए लागू किया जाएगा। यह सिस्टम कॉन्ट्रैक्टर्स और आपूर्तिकर्ता को डिजिटल बिल हासिल हो सकेंगे। बैंक गारंटी की जगह श्योरिटी बॉन्ड को सरकारी खरीद के मामले में स्वीकार किया जाएगा।

सीतारमण ने कहा – ‘पुराने ढर्रे पर शहरी प्लानिंग को आगे नहीं बढ़ाया जाए। इसके लिए संस्थानों की जरूरत है। बिल्डिंग बाई लॉज को आधुनिक बनाया जाएगा। टाउन प्लानिंग को भी सुधारा जाएगा। इस तरीके की प्लानिंग होगी कि आवाजाही में आसानी होगी। अमृत योजना इसे लागू करने के लिए लाया जाएगा। शहरी विकास को भारतीय जरूरतों के अनुसार बनाया जाए सके इसके लिए 5 मौजूदा संस्थानों को चिन्हित करके उन्हें सेंटर ऑफ एक्सिलेंस का दर्जा दिया जाएगा। इन सभी संस्थानों को 2500 करोड़ का फंड दिया जाएगा। प्रदूषण मुक्त परिवहन के साधनों को बढ़ावा दिया जाएगा।’

वित्त मंत्री ने कहा कि पोस्ट ऑफिस खातों के जरिए किसानों को सुविधा मुहैया कराई गई है। सरकार का प्रयास है कि डिजिटल बैंकिंग की सुविधा को देश के सभी इलाके में सही तरीके से पहुंचाए जा सके। देश के 75 जिलों 75 बैकिंग यूनिट स्थापित करेंगे। ताकि लोग अधिक से अधिक डिजिटल भुगतान कर सके। पोस्ट ऑफिस और बैंक को आपस में जोड़ा जाएगा। आपस में पैसों का लेनदेन होगा। पोस्ट ऑफिस में भी अब ऑनलाइन ट्रांसफर होगा।

वित्त मंत्री ने कहा – ‘हम विश्वास आधारित कर व्यवस्था बनाने चाहते हैं। गलतियों को दूर करने के लिए करदाताओं को अतिरिक्त भुगतान की सुविधा के साथ इनकम टैक्स रिटर्न को अपडेट करने की सुविधा होगी। टैक्स सिस्टम में सुधार की प्रक्रिया जारी रहेगी। अब करदाता अपने रिटर्न को अपडेट कर सकता है।’
रेलवे में अगले तीन साल में 400 नई वंदेभारत ट्रेन चलाने की घोषणा भी बजट में की गयी है।

पंजाब में भर्ती प्रक्रिया में गड़बड़ी पर चला न्यायिक डंडा

सरकारी शक्तियों का ग़लत इस्तेमाल करके की गयी थीं सहायक ज़िला अधिवक्ता की नियुक्तियाँ, पंजाब और हरियाणा उच्च न्यायालय ने कीं रद्द

पंजाब और हरियाणा उच्च न्यायालय ने पंजाब के अनुबन्ध आधार से नियमित हो चुके 98 सहायक ज़िला अधिवक्ता (असिस्टेंट डिस्ट्रिक्ट अटार्नी) यानी एडीए की नियुक्ति को रद्द करते हुए नये सिरे से भर्ती प्रक्रिया अपनाने को कहा है। आदेश में राज्य सरकार से इन पदों के लिए ज़्यादा-से-ज़्यादा एक वर्ष के अन्दर चयन प्रक्रिया को पूरा कर लेने का कहा गया है। यह मामला न्यायिक व्यवस्था में राजनीतिक साँठगाँठ से जुड़ा है, जिसमें सरकारी शक्तियों का बेजा इस्तेमाल कर अभ्यर्थियों को फ़ायदा पहुँचाया गया।

अक्टूबर, 2009 में पंजाब सरकार ने अनुबन्ध आधार पर 98 सहायक ज़िला अधिवक्ता के लिए रिक्तियाँ निकाली थीं। अलग-अलग ज़िलों में इसकी भर्ती प्रक्रिया हुई। चयन समिति सदस्यों में ज़िला उपायुक्त, वरिष्ठ पुलिस अधीक्षक और ज़िला अधिवक्ता को शामिल किया गया। इस चयन प्रक्रिया में 20 नंबर का साक्षात्कार भी रखा गया था। राज्य के अलग-अलग ज़िलों से चयन प्रक्रिया पूरी होने के बाद इसकी संयुक्त तौर पर वरीयता सूची नहीं बनायी, नतीजा यह रहा कि साक्षात्कार में 20 में से 18 नंबर लेने वाला नहीं चुना गया, जबकि किसी ज़िले में 16 नंबर वाला चुन लिया गया। इस चयन प्रक्रिया में कुछ योग्य वंचित रह गये। नियुक्तियाँ स्पष्ट तौर पर अनुबन्ध आधार पर निकाली गयी थी, इन्हें नियमित नहीं किया जा सकता था। लेकिन सरकारी नीति का बेजा इस्तेमाल कर सन् 2013 में इन 98 चयनित लोगों को नियमित कर दिया गया।

उधर, पंजाब लोक सेवा आयोग की इन पदों के लिए भर्ती प्रक्रिया लगभग पूरी हो चुकी थी। चूँकि अनुबन्ध आधार वालों को नियमित कर उन्हें सुरक्षित किया जाना था, लिहाज़ा आयोग की सीधी भर्ती प्रक्रिया तेज़ी से नहीं हो सकी या स्पष्ट कहें, तो उस होने नहीं दिया गया। यह मामला पंजाब में शिरोमणि अकाली दल की सरकार के समय का है। सरकार के क़रीबी लोगों को पहले अनुबन्ध आधार पर फिर सरकारी नीतियों का अपने तौर पर इस्तेमाल से उन्हें नियमित कर सहायक ज़िला अधिवक्ता जैसे अहम पद पर बैठाना था।

अनुबन्ध आधार पर हुई चयन प्रक्रिया किसी भी तरह से पारदर्शी नहीं थी। लिहाज़ा तब इसे लेकर तब काफ़ी हो-हल्ला हुआ था। लेकिन हुआ वही, जो सरकार चाहती थी। बाद में पंजाब लोक सेवा आयोग ने भी चयनित लोगों की सूची जारी कर दी। लेकिन उससे पहले 98 पदों पर चुने गये लोगों को नियमित कर दिया गया। सन् 2016 में सरकार के नियमित करने के फ़ैसले को ग़लत बताते हुए इस न्यायालय में चुनौती दी गयी। लगभग पाँच साल तक मामला न्यायालय में चला आख़िरकार फ़ैसला चुनौती देने वालों के पक्ष में आया है। इस फ़ैसले से साबित होता है कि सरकारी स्तर पर किस तरह अपनी ताक़त का इस्तेमाल अपने हिसाब से किया जा सकता है!

सरकारी नौकरियों के चयन में पूरी तरह पारदर्शिता होनी चाहिए, ताकि उसे किसी न्यायालय में चुनौती न दी जा सके। लेकिन ऐसा होता नहीं है। सत्ता पक्ष क़रीबी रसूख़दार लोगों को फ़ायदा पहुँचाने के लिए अपनी ही बनायी नीतियों में बदलाव बड़ी आसानी से कर देता है। सहायक ज़िला अधिवक्ता (एडीए) पद द्वितीय समूह (ग्रुप बी) में आता है। प्रथम समूह (ग्रुप ए) और द्वितीय (बी) पदों की भर्ती के लिए पंजाब लोक सेवा ही अधिकृत है, जो सीधे तौर पर चयन प्रक्रिया अपनाती है।

सवाल यह भी है कि सन् 2009 में क्या राज्य सरकार ने 98 पदों की रिक्तियाँ क्या किसी ख़ास मक़सद के लिए निकाली थीं? सत्ता पक्ष से जुड़े कुछ लोगों को इसके माध्यम से पहले अनुबन्ध आधार पर और बाद में नियमों और नीतियों की आड़ में उन्हें स्थायी करना था। पहला आरोप तो यही है कि ज़िला स्तर पर हुई चयन प्रक्रिया मनदण्डों के अनुसार नहीं थी। दूसरा हर ज़िले की अलग-अलग रिपोर्ट थी। पूरे राज्य की संयुक्त तौर पर वरीयता सूची बनायी जाती, तो कम-से-कम भेदभाव का आरोप तो नहीं लगता। लेकिन जहाँ तक बात अनुबन्ध आधार वालों को नियमित करने की है, वह पूरी तरह से ग़लत था।

मज़ेदार बात यह कि अनुबन्ध आधार पर चुने गये बहुत से अभ्यर्थी इस पद के लिए पंजाब लोक सेवा आयोग की सीधी भर्ती परीक्षा पास नहीं कर सके। कई वंचित लोग चाहे अनुबन्ध आधार पर अपनी योग्यता साबित नहीं कर सके; लेकिन वे सीधी भर्ती मेज़ चुने गये। जबकि कुछेक तो राज्य की न्यायिक सेवा परीक्षा पास करने में सफल रहे। यह कैसे सम्भव हुआ कि अनुबन्ध आधार पर तो कुछ ने बहुत अच्छे अंक पाकर वरीयता सूची में स्थान बना लिया; लेकिन आयोग की परीक्षा में वे फिसड्डी साबित हुए। योग्यता का पैमाना सभी के लिए बराबर रखा गया। लेकिन बहुत-से वरीयता सूची में वही आये, जिन्हें समायोजित (एडजस्ट) किया जाना था। उच्च न्यायालय के 25 पेज के फ़ैसले से स्पष्ट होता है कि अनुबन्ध आधार वालों को नियमों और नीतियों को अपने अनुसार बदलकर उन्हें नियमित किया जाना ग़लत है। चूँकि मामला आठ साल पुराना है और मौज़ूदा सरकार का इससे कोई लेना-देना नहीं है। फ़ैसला इस सरकार या किसी भी आने वाली सरकार के लिए सबक़ के तौर पर है। न्यायिक व्यवस्था में इस तरह के राजनीतिक और अन्य प्रभाव से समायोजित करना पूरे तंत्र के लिए गम्भीर बात है। सामान्य नौकरी में भी योग्यता की उपेक्षा कर चहेतों को समायोजित करना किसी के साथ अन्याय है, फिर न्यायिक व्यवस्था में किसी अहम पद पर ऐसा करना बेहद गम्भीर है। योग्यता को दर-किनार कर समायोजित होने वाले लोग न्यायिक सेवा में जाएँगे, तो क्या हो सकता है? इसका सहज अंदाज़ा लगाया जा सकता है।

पंजाब लोक सेवा आयोग की सीधी भर्ती से चुने गये एक सहायक ज़िला अधिवक्ता के मुताबिक, उच्च न्यायालय का फ़ैसला बहुत-ही सराहनीय है। कोई भी सरकार हो, द्वितीय समूह (ग्रुप बी) के पद की नियुक्ति को किसी भी तरह की नीति अपनाकर उन्हें नियमित नहीं कर सकती। अगर वह ऐसा करती है, तो वह न्यायालय में अपने पक्ष को मज़बूती से नहीं रख सकेगी। इंसाफ़ के लिए लड़ाई लम्बी चली; लेकिन सच की जीत हुई है। जब सहायक ज़िला अधिवक्ता (एडीए) पदों के लिए पंजाब लोक सेवा आयोग भर्ती प्रक्रिया चल रही है, तो अनुबन्ध आधार वालों को चुने गये लोगों की सूची जारी होने से पहले नियमित करने की क्या जल्दी थी?

इससे आयोग द्वारा चुने गये सफल लोग अब तक उनसे जूनियर ही रहे। उच्च न्यायालय के फ़ैसले ने बहुत राहत दी है। फ़ैसले के बाद अब आयोग की नयी चयन प्रक्रिया से उन्हें गुज़रना पड़ेगा और नियुक्त होने वाले वरिष्ठ नहीं रहेंगे। उच्च न्यायालय का फ़ैसला पक्ष में आने के बाद वरिष्ठ अधिवक्ता कपिल कक्कड़ कहते हैं कि उनका पक्ष शुरू से ही मज़बूत था, उन्हें और उनके पक्ष को जीत का भरोसा था। इस मामले में कुछ चहेतों को फ़ायदा पहुँचाने के लिए शुरू से लेकर नियमित होने तक जिस तरह से सरकारी तंत्र का इस्तेमाल किया गया, वह सामने आ गया।

यह बिल्कुल स्पष्ट है कि प्रथम समूह (ग्रुप ए) और द्वितीय समूह (ग्रुप बी) के पदों के लिए सीधी भर्ती के लिए केवल राज्य का लोक सेवा आयोग ही अधिकार रखता है। सहायक ज़िला अधिवक्ता (एडीए) पद के लिए रिक्तियों के अनुसार आयोग काम कर रहा है; लेकिन उसी दौर में अनुबन्ध आधार वालों को नियमित करने का काम तेज़ी से हो रहा है। मतलब स्पष्ट है कि आयोग की वरीयता सूची जारी होने से पहले अनुबन्ध आधार पर नियुक्त लोगों को हर हालत में नियमित कर दिया जाए। उच्च न्यायालय के फ़ैसले से आठ साल से कार्यरत सहायक ज़िला अधिवक्ता (एडीए) में निराशा है। नियुक्तियाँ रद्द होने के बाद अब उन्हें नये सिरे से अपनी योग्यता साबित करनी होगी। उन्हें फिर से परीक्षा में बैठने और उम्र में छूट देने का प्रावधान रहेगा। फ़ैसले से नये लोगों को सरकारी सेवा में आने का मौ$का भी मिलेगा।

आयोग भी कम नहीं

तृतीय समूह (ग्रुप सी) और चतुर्थ समूह (ग्रुप डी) के लिए राज्यों में अधीनस्थ सेवा बोर्ड और प्रथम समूह (ग्रुप ए) और द्वितीय समूह (ग्रुप बी) के लिए राज्य लोक सेवा आयोग भर्ती कराता है। इनकी चयन प्रक्रिया को लेकर सवाल उठते रहे हैं। पहले भी इसे लेकर मामले न्यायालयों में जाते रहे हैं और सरकारों की किरकिरी भी होती रही है। बावजूद इसके अन्दरख़ाने बहुत कुछ होता है। एक दौर में पंजाब लोक सेवा आयोग की छवि भी धूमिल हुई थी। जब भ्रष्टाचार का बहुत बड़ा मामला सामने आया था। तब न केवल आयोग के अध्यक्ष रवि सिद्धू की बदनामी हुई, बल्कि राज्य सरकार की भी काफ़ी आलोचना हुई। पिछले दिनों हरियाणा में भ्रष्टाचार का मामला सामने आया, जिसमें घूस के बदले नौकरी देने के आरोप राज्य लोक सेवा आयोग के एक अहम पद पर बैठे अधिकारी पर लगे।

विवाह और बलात्कार!

विवाहित जोड़े के बीच बिना सहमति सम्भोग को अपराध मानने का न्यायालय में है मामला

नारीवादी लम्बे समय से वैवाहिक बलात्कार (पति पत्नी के बीच) को अपराध की श्रेणी में लाने की माँग करते रहे हैं; क्योंकि उनका मत है कि विवाह आजीवन सहमति नहीं है। दरअसल भारत दुनिया के उन 36 देशों में से एक है, जहाँ वैवाहिक बलात्कार को अपराध की श्रेणी में नहीं रखा गया है। हालाँकि नारीवादी और महिला अधिकार कार्यकर्ता लम्बे समय से इसके लिए आवाज़ उठा रहे हैं। दिल्ली उच्च न्यायालय अब देश में वैवाहिक बलात्कार के अपराधीकरण और बलात्कार के लिए पतियों को प्रदान की जाने वाली सुरक्षा के ख़िलाफ़ कुछ याचिकाओं पर सुनवाई कर रहा है।

दिल्ली उच्च न्यायालय की दो सदस्यीय पीठ ने पाया कि निर्णय पर पहुँचने से पहले यह नाम मात्र की ही खुली चर्चा कर रहा है। पीठ ने कहा कि एक पति पत्नी को मजबूर नहीं कर सकता। लेकिन न्यायालय इस बात को नज़रअंदाज़ नहीं कर सकती कि अगर वह इस अपवाद को ख़ारिज़ कर देती है, तो क्या होता है? पीठ ने कहा कि अगर पति एक बार भी ऐसा करता है, तो उसे 10 साल के लिए जेल जाना होगा। हमें इस मुद्दे पर बहुत गहन विचार की ज़रूरत है। चूँकि पत्नी से बलात्कार अपराध की श्रेणी में नहीं आता, इसलिए राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो (एनसीआरबी) वैवाहिक बलात्कार पर कोई अलग से आँकड़े नहीं रखता है।

सन् 2000 में विधि आयोग ने वैवाहिक बलात्कार को अपराध घोषित करने का विरोध करते हुए तर्क दिया था कि यह वैवाहिक सम्बन्धों के साथ अत्यधिक हस्तक्षेप करने जैसा हो सकता है। सन् 2013 में जे.एस. वर्मा समिति ने वैवाहिक बलात्कार को अपराध घोषित करने की सिफ़ारिश की थी। लेकिन चार साल बाद एक संसदीय स्थायी समिति ने इसका इस आधार पर विरोध किया कि अगर इसे अपराध के तहत लाया गया, तो पूरी परिवार व्यवस्था तनावपूर्ण हो जाएगी।

घरेलू हिंसा एक ऐसा अपराध है, जो बड़े पैमाने पर है। लेकिन इसकी रिपोर्ट बहुत कम होती है। इसलिए विवाह में यौन हिंसा की आपराधिकता को स्वीकार किया जाना चाहिए और विवाह को आजीवन सहमति के रूप में नहीं माना जाना चाहिए। नारीवादियों और महिला अधिकार समूहों की लम्बे समय से वैवाहिक बलात्कार को अपराध की श्रेणी में लाने की माँग रही है। रूढि़वादी सोच यह है कि शादी के बाद महिला का शरीर उसके पति की सम्पत्ति है। दूसरे शब्दों में एक महिला, चाहे वह इसे पसन्द करे या न करे; विवाह के बाद पति को स्थायी सहमति और सहवास (सम्भोग) की अनुमति देती है। कुछ समय पहले छत्तीसगढ़ उच्च न्यायालय ने कहा था कि एक पति द्वारा अपनी पत्नी के साथ सम्भोग करना बलात्कार नहीं होगा, भले ही वह पत्नी की सहमति के विरुद्ध हो।

सन् 2018 में कांग्रेस सांसद शशि थरूर द्वारा लोकसभा में एक निजी विधेयक पेश किया गया था, जिसमें वैवाहिक बलात्कार को अन्य अधिकारों के साथ अपराध की श्रेणी में लाने की माँग की गयी थी। हालाँकि निर्वाचित सरकार से इसके लिए समर्थन हासिल करने में विफल रहने के कारण यह मसला ठण्डे बस्ते में चला गया। भारत के बलात्कार क़ानूनों में बदलाव की सिफ़ारिश करते हुए निर्भया बलात्कार मामले के बाद गठित न्यायमूर्ति जे.एस. वर्मा समिति ने सन् 2013 में कहा था कि पति-पत्नी के बीच जबरन यौन सम्बन्ध को भी बलात्कार माना जाना चाहिए और इसमें एक अपराध की तरह दण्ड का प्रावधान होना चाहिए।

हालाँकि सरकार ने इस तर्क को इस आधार पर स्वीकार नहीं किया कि इस तरह के क़दम से विवाह नाम की संस्था नष्ट हो जाएगी। महिलाओं के ख़िलाफ़ भेदभाव के उन्मूलन पर संयुक्त राष्ट्र समिति ने सन् 2007 और सन् 2014 में भारत से वैवाहिक बलात्कार को अपराध घोषित करने के लिए कहा था। इसके ख़िलाफ़ इस्तेमाल किये जा रहे तर्कों में से एक यह है कि यदि यह क़ानून लागू होता है, तो महिलाएँ इसका दुरुपयोग कर सकती हैं और वे अपने पतियों के ख़िलाफ़ बलात्कार के झूठे मामले दर्ज करवा सकती हैं।

न्यायपालिका को भारतीय दण्ड संहिता के तहत वैवाहिक बलात्कार को अपराध के रूप में रखने की तत्काल आवश्यकता है। अब दिल्ली उच्च न्यायालय एनजीओ आरआईटी फाउंडेशन, ऑल इंडिया डेमोके्रटिक वीमेन्स एसोसिएशन और दो अन्य लोगों की जनहित याचिका पर सुनवाई कर रहा है, जिन्होंने भारतीय क़ानून में अपवाद को ख़त्म करने की माँग करते हुए कहा है कि विवाहित महिलाओं के साथ उनके पतियों द्वारा यौन उत्पीडऩ उनके ख़िलाफ़ भेदभाव के रूप में रखा जाए। दलील यह है कि भारतीय दण्ड संहिता की धारा-375 एक पुरुष द्वारा अपनी पत्नी के साथ जबरदस्ती सम्भोग की छूट देती है।

लिहाज़ा बलात्कार के अपराध को उत्पीडऩ के ज़रिये के रूप में देखा जाना चाहिए। आईपीसी की धारा-375 वैवाहिक बलात्कार को अपराध की श्रेणी से बाहर करती है और यह अनिवार्य करती है कि एक पुरुष का अपनी पत्नी, जिसकी उम्र 15 वर्ष से कम नहीं है; के साथ सम्भोग बलात्कार नहीं है। न्यायमूर्ति राजीव शकधर और न्यायमूर्ति सी. हरि शंकर की पीठ के समक्ष बहस करते हुए वरिष्ठ अधिवक्ता रेबेका जॉन ने कहा कि न्यायालय महिलाओं की शारीरिक अखण्डता को महत्त्व देते हुए लोगों को यह सन्देश दे कि वैवाहिक साथी की सहमति का सम्मान किया जाना चाहिए। जॉन ने तर्क दिया कि खण्ड-2 में जो लिखा गया है, जो 200 साल पहले हमारे औपनिवेशिक आकाओं का प्रतिपादित सिद्धांत है, जो हम पर थोप दिया गया है। यह न भारतीय पुरुष और न ही भारतीय महिला को दर्शाता है, निश्चित रूप से भारतीय विवाह को तो बिल्कुल भी नहीं। औपनिवेशिक आकाओं ने इसे शुरू किया और हम इस विरासत को ढोये जा रहे हैं।

उन्होंने तर्क दिया कि यह धारा विवाह में पति या पुरुष को प्रभुत्व देती है, जबकि पत्नी द्वारा नहीं कहने की पूरी तरह अवहेलना करते हुए उसे गठबन्धन में एक अधीनस्थ भागीदार बना दिया जाता है। उन्होंने आगे कहा कि यदि न्यायालय इसे असंवैधानिक मान लेती है, तो ऐसा करके वह कोई नयी आपराधिक धारा नहीं बनाएगी। क्योंकि यह पहले से ही मौज़ूद है। हाँ, व्यक्तियों का एक वर्ग, जो वर्तमान में अभियोजन से क़ानूनी प्रतिरक्षा का आनन्द लेता है; वह ज़रूर इसे खो देगा।

उन्होंने तर्क दिया कि विवाह के भीतर सम्भोग या सार्थक वैवाहिक सम्बन्ध की अपेक्षा उचित है और किसी दिये गये मामले में सम्भोग के लिए एकतरफ़ा अपेक्षा भी हो सकती है। जॉन ने कहा कि यदि वह अपेक्षा पूरी नहीं होती है, तो पति या पत्नी को नागरिक उपायों का सहारा लेने का पूरा अधिकार है। हालाँकि जब शादी के रिश्ते में इच्छा जबरदस्ती और बल के आधार पर ज़ोर-जबरदस्ती वाली गतिविधि में बदलकर ग़ैर-सहमति के कारण नुक़सान या चोट पहुँचाती है, तो निश्चित ही लैंगिक गतिविधि को अपराध के दायरे में लाया जाना चाहिए।

जॉन ने इसके परिणामों का ज़िक्र करते हुए पूछा कि क्या न्यायालय एक पति, जो एक यौन रोग से पीडि़त है; को ऐसा दावा करने की अनुमति देगी और ऐसे मामले में भी अनुमति देगी, जहाँ एक महिला बीमार है और यौन सम्बन्ध उस पर हानिकारक प्रभाव डाल सकता है?

पीठ के समक्ष बहस करते हुए वरिष्ठ अधिवक्ता राजशेखर राव ने तर्क दिया कि बलात्कारी रिश्ते के बावजूद बलात्कारी रहता है। जैसा कि उन्होंने वर्मा समिति की रिपोर्ट में पढ़ा था, जिसमें वैवाहिक बलात्कार को अपराध के दायरे में लाने की सिफ़ारिश की गयी थी। इस प्रकार वैवाहिक बलात्कार एक क़ानूनी कल्पना पैदा करता है, भले ही इसमें बलात्कार के तहत आने वाली तमाम आपराधिक गतिविधि वाली गतिविधि हुई हों। क़ानून इसे इसलिए बलात्कार नहीं मानता है; क्योंकि एक पक्ष विवाहित हैं और महिला की आयु भी 15 वर्ष से ऊपर है।

दिल्ली के एक वकील और उच्च न्यायालय के समक्ष एक याचिका का मसौदा तैयार करने वाले गौतम भाटिया ने कहा कि अगर शादी की औपचारिकता से पाँच मिनट पहले यौन हमला होता है, तो यह बलात्कार है। लेकिन पाँच मिनट बाद वही गतिविधि ऐसी (बलात्कार) नहीं है। निर्विवाद तथ्य यह है कि वैवाहिक बलात्कार का अर्थ है कि इसमें सवाल उठा सकने वाली सहमति अप्रासंगिक है। केवल इसी कारण से न्यायालय, जिसका कार्य सभी के समान व्यवहार और ग़ैर-भेदभाव के अधिकार को बनाये रखना और उसकी पुष्टि करना है; को इसे रद्द कर देना चाहिए।

रोज़गार माँगने की क़ीमत पिटाई!

भर्तियों में देरी और रोज़गार माँगने के बदले युवाओं की पिटाई से खुल सकता है बड़े आन्दोलन का रास्ता 

बिहार में रेलवे भर्ती के नतीजों में धाँधली के आरोपों के बाद शुरू हुआ छात्र आन्दोलन क्या देश भर में रोज़गार के मुद्दे को एक बड़े रूप में खड़ा कर सकेगा? यह अभी कहना मुश्किल है। लेकिन छात्रों / युवाओं ने जिस तरह इस मुद्दे को उठाने की हिम्मत दिखायी है और सत्ताधीशों ने इसे कुचलने की कोशिश की है, उससे यह तो साफ़ है कि चुनाव से ऐन पहले शुरू हुए इस आन्दोलन ने सत्ता में बैठे राजनीतिक दलों की नींद उड़ा दी है। फ़िलहाल यह रिपोर्ट लिखे जाने तक बिहार से शुरू हुआ छात्र विरोध उत्तर प्रदेश में भी पाँव पसार रहा है। हो सकता है कि विधानसभा चुनावों के बाद यह नये रूप में सामने आये और सरकारें इससे मुश्किल में पड़ती दिखें।

आन्दोलन बिहार में रेलवे भर्ती में नतीजों में धाँधली के विरोध में शुरू हुआ। ज़ाहिर है इससे पता चलता है कि किस स्तर पर भ्रष्टाचार योग्य उम्मीदवारों को उनके हक़ से वंचित कर रहा है। सबसे ख़राब बात यह रही कि रोज़गार का हक़ माँगने सडक़ों पर उतरे युवाओं को पुलिस ज़ुल्म का शिकार बनाया गया। उन्हें लाठियों से लहूलुहान करके उनकी आवाज़ दबाने की कोशिश की गयी।

आन्दोलन के बीच ही कांग्रेस नेता राहुल गाँधी ने इन छात्रों के प्रति अपना समर्थन ज़ाहिर किया। लेकिन मीडिया और बाक़ी राजनीतिक दल इस विरोध पर ख़ामोशी अख़्तियार किये रहे। दिन-रात राजनीतिक चाटुकारिता में मग्न मीडिया को यह कोई बड़ी ख़बर नहीं लगी, जबकि सच्चाई यह है कि यही इस देश के असली मुद्दे हैं। बिहार बन्द के दिन 28 जनवरी को जाकर राजनीतिक दलों ने छात्रों के नाम पर अपनी दुकान चमकाने की कोशिश की। जबकि आन्दोलन के दौरान जब छात्र सडक़ों पर पुलिस के हाथों लहूलुहान हो रहे थे, तब उनकी भूमिका शून्य ही थी।

छात्रों का कहना था कि उन्होंने 10 दिन तक लगातार ट्वीट किये। एक करोड़ ट्वीट हुए; लेकिन सरकार सोयी रही। इसके बाद हमें मजबूरी में सडक़ पर उतरना पड़ा। सरकार के इस मामले में समिति बनाने को भी छात्र शंका की दृष्टि से देखते हैं। उनका कहना है कि सरकार समिति बनाकर हमारे ग़ुस्से को ठंडा करना चाहती है, ताकि उत्तर प्रदेश और दूसरे राज्यों के चुनावों पर असर न हो और बेरोज़गार शान्त रहें। हम सरकार की साज़िश समझ रहे हैं।

बिहार की राजधानी पटना और कई शहरों में ग़ुस्साये छात्रों के प्रदर्शन का असर उत्तर प्रदेश में भी दिखायी दिया है। कई स्थानों पर हिंसा हुई है। ट्रेनों को जलाया गया है। बड़ी संख्या में छात्र गिरफ़्तार किये गये हैं। उन पर पुलिस के लाठीचार्ज का सर्वत्र विरोध हुआ है। कांग्रेस नेता राहुल गाँधी ने छात्रों पर लाठीचार्ज के बाद इसकी कड़ी निंदा करते हुए छात्रों के समर्थन का ऐलान किया। छात्रों का ग़ुस्सा तब भडक़ा, जब 14 जनवरी को रेलवे रिक्रूटमेंट बोर्ड (आरआरबी) ने नॉन टेक्निकल पॉपुलर कैटेगरी (एनटीपीसी) परीक्षा के नतीजे घोषित किये। उन्होंने नतीजों में बड़े पैमाने पर धाँधली के आरोप लगाये। बड़ी संख्या में छात्र इनके ख़िलाफ़ मैदान में उतर आये। छात्रों का आरोप था कि इन नतीजों में गड़बड़ी है और इसके चलते ऐसे छात्र बाहर हो जाएँगे, जिनके पास मेरिट है।

छात्रों का कहना था कि परीक्षा की तैयारी के लिए हरेक छात्र के ज़्यादा नहीं, तो चार से पाँच लाख रुपये तो ख़र्च हुए ही थे। मगर जब नतीजे आये, तो उनके पाँव तले ज़मीन खिसक गयी। छात्रों के मुताबिक, नतीजों में गड़बड़ी ने उनकी सारी उम्मीदों पर पानी फेर दिया है। आन्दोलन के दौरान छात्रों और पुलिस के बीच पत्थरबाज़ी से लेकर लाठीचार्ज तक हुआ। पुलिस ने छात्रों को पकड़-पकडक़र मारा, जिससे दर्ज़नों छात्र लहूलुहान भी हुए। छात्रों का आरोप है कि परीक्षा के नतीजों में भ्रष्टाचार ने उनके भविष्य पर सवालिया निशान लगा दिया है।

छात्रों के आन्दोलन और प्रदर्शन के बाद केंद्र सरकार को मजबूरन जाँच समिति गठित करनी पड़ी। जल्दी में किये गये इस फ़ैसले का बड़ा कारण उत्तर प्रदेश के विधानसभा चुनाव भी थे। छात्रों को भी लगता है कि समिति बनाने का फ़ैसला उनके ग़ुस्से को शान्त करने का तरीक़ा मात्र था। हालाँकि छात्रों ने इस समिति को ख़ारिज़ कर दिया और आरोप लगाया कि यह समिति नहीं, उत्तर प्रदेश चुनाव तक बेरोज़गारी के ठंडा रखने की साज़िश है। छात्रों के मुताबिक, किसानों की तरह सरकार छात्रों को भी झुनझुना पकड़ाकर चुप करके बैठा देना चाहती है, ताकि एक बार चुनाव निकल जाएँ और फिर वो अपना असली रूप दिखाए।

नतीजों में धाँधली के अलावा छात्र रिक्तियाँ समय पर नहीं निकलने के कारण भी नाराज़गी है। छात्रों के मुताबिक, रिक्तियाँ निकालने में भी देरी की जा रही है। आज से पहले रेलवे की भर्ती सन् 2019 में निकली थी। तब लोकसभा के चुनाव होने वाले थे। अभी तक उसके नतीजे नहीं निकले हैं। छात्रों के पास भर्ती परीक्षाओं और नतीजों का कैलेंडर तक नहीं है, जिससे कि उन्हें पता चल सके कि सीबीटी-2 (कम्प्यूटर बेस्ड टेस्ट), स्किल टेस्ट और इंटरव्यू कब होगा? नतीजे कब आएँगे?

सवाल यहाँ यह उठता है कि क्या बिहार में शुरू हुआ छात्रों का यह विरोध एक बड़े आन्दोलन में तब्दील हो पाएगा? निश्चित ही बेरोज़गारी देश में आज सबसे बड़ा मुद्दा है। लेकिन यह मुद्दा आन्दोलन का रूप नहीं ले पाया है। बहुत-से जानकार मानते हैं कि छात्रों के इस ग़ुस्से को थामा नहीं गया, तो ये बड़े आन्दोलन में तब्दील हो सकता है। देश में हाल के वर्षों में बेरोज़गारी की कतार इतनी लम्बी हो गयी है कि छात्र और युवा बेक़ाबू होने लगे हैं। इस ग़ुस्से को थोड़ी-सी भी हवा मिली, तो इसके बड़े आन्दोलन में बदलते देर नहीं लगेगी।

यह स्थिति सिर्फ़ बिहार तक सीमित नहीं है, कमोवेश पूरे देश में है। अभी तक भले इस विरोध आन्दोलन का कोई नेतृत्व नहीं है; लेकिन यदि यह भडक़ा और बड़े स्तर पर फैला तो नेतृत्व आते देर नहीं लगेगी। कई संगठन हैं, जो रोज़गार को लेकर असन्तोष के स्तर पर हैं। यह सभी साथ मिल गये, तो बड़ा आन्दोलन खड़ा होते देर नहीं लगेगी। फिर राजनीति भी इससे जुड़ जाएगी। सन् 1973 में ऐसा देखने को मिला था, जब छात्रों का आन्दोलन सन् 1974 आते-आते छात्र राजनीति के रूप बदल गया था।

जैसे किसान आन्दोलन स्थगित तो हो गया है; लेकिन किसानों की तरह सरकार पर छात्रों को भी भरोसा नहीं है। सरकार और छात्रों के बीच संवाद का गम्भीर अभाव है। इसका कारण यह है कि हाल के वर्षों में सरकार मामलों को लटकाने की नीति अपनाती रही है। रोज़गार के मामले में यह सबसे ज़्यादा हो रहा है। भर्तियाँ रुकी पड़ी हैं। अनुबन्ध (कॉन्ट्रेक्ट) व्यवस्था ने नौकरी की आस में बैठे छात्रों / युवाओं में असुरक्षा की भावना भर दी है। यहाँ तक की नतीजे आने के बाद भी नियुक्तियाँ नहीं हो रही हैं, या उनमें लम्बा व$क्त लगने लगा है।