समान नागरिक संहिता लागू करने में कोई तकनीकी मुश्किल नहीं है, बल्कि राजनीतिक मुश्किल है. इस मुद्दे का राजनीतिकरण हुआ है. संविधान सभा में इस पर बहुत बहस हुई थी. डॉ. आंबेडकर ने इसके बारे में बहुत विस्तार से इसके पक्ष में संविधान सभा में बोला था. बहुत बहस-मुबाहिसे के बाद इसे संविधान के नीति निदेशक तत्वों में रखा गया. यह पहले से ही संविधान के नीति निदेशक तत्वों में दिया हुआ है. संविधान राज्य को निर्देश देता है कि समान नागरिक संहिता लागू की जाए. लेकिन क्यों नहीं लाया जा सका है, सुप्रीम कोर्ट ने इस पर एक-दो सवाल किए. यह अभी तक नहीं लाया जा सका है, इसके कारण राजनीतिक हैं, वोट बैंक पॉलिटिक्स है. जिन समुदायों के पर्सनल कानून हैं, वे समुदाय नाराज न हो जाएं, इसलिए इसे नहीं लाया जा रहा है.
विचार तो पिछले 70 साल से चल रहा है. विचार करने में कोई कठिनाई नहीं है. विचार, वाद-विवाद हो सकता है. देश भर में चर्चा भी शुरू की जा सकती है. लेकिन मेरा निजी विचार ये है कि कानून लागू करने के लिए राजनीतिक परिप्रेक्ष्य को भी ध्यान में रखा जाए, वैधानिक परिप्रेक्ष्य को भी ध्यान में रखा जाए तो होना यह चाहिए कि इसकी मांग उस समुदाय के अंदर से उठनी चाहिए और इसको जेंडर जस्टिस के रूप में लिया जाना चाहिए. हिंदू-मुसलमान का सवाल नहीं है. और समान नागरिक संहिता का मतलब ये नहीं है कि किसी के ऊपर हिंदू कोड बिल लागू किया जा रहा है. समान नागरिक संहिता में यह भी हो सकता है कि मुस्लिम लॉ की जो भी अच्छी बातें हों, वे सब उसमें शामिल हों. क्रिश्चियन लॉ की अच्छी बातें हैं, वे भी शामिल हों. यूनीफॉर्म सिविल कोड क्या है, अभी तो कुछ पता ही नहीं है. अभी उसका कोई प्रारूप नहीं है. जब प्रारूप बनेगा तो हो सकता है कि उसमें किसी पर्सनल लॉ की बातें ज्यादा आएं, यह चांस की बात है.
सैद्धांतिक तौर पर यह है कि संविधान के समक्ष सब लोग समान होने चाहिए. जो संविधान की धारा 14 है, उसके मुताबिक कानून के समक्ष समता होनी चाहिए. पुरुष और महिला के अधिकार समान होने चाहिए. यूनीफॉर्म सिविल कोड ज्यादातर मामलों में तो पहले से है. सिविल कोड कॉमन है. पीनल कोड कॉमन है. तो यूनीफॉर्म सिविल कोड लागू है, सिर्फ विवाह, तलाक, उत्तराधिकार-इनका झगड़ा है और ये तीनों मामले महिला अधिकारों से संबंधित हैं. इसलिए इस मामले को लैंगिक न्याय के मामले के रूप में उठाया जाना चाहिए और उसके लिए लड़ाई लड़ी जानी चाहिए. खासकर यह लड़ाई महिलाओं को लड़नी चाहिए. जिस समुदाय की महिलाओं को अधिकार प्राप्त नहीं हैं, उस समुदाय से यह मांग उठनी चाहिए.
वाद-विवाद से बचते हुए सही मसले पर बात होनी चाहिए. बिना किसी झगड़े के जिस बिंदु पर सहमति बने, वैसा किया जाना चाहिए.
(लेखक लोकसभा के पूर्व महासचिव एवं संविधान विशेषज्ञ हैं)