छत्तीसगढ़ की लड़ाई नक्सलवादियों के खिलाफ कतई नहीं है. यह खनिजों, जंगलों, नदियों पर कब्जे के लिए किया जाने वाला युद्ध है. ऐसा मैं इसलिए कह रहा हूं कि भारत में आजादी से लेकर आज तक अमीर कंपनियों के लिए सारी जमीनों पर कब्जा पुलिस की लाठी और बंदूकों के दम पर ही किया गया है. जहां नक्सली नहीं होते वहां भी सरकारी बंदूकों के दम पर गरीबों को डराकर या मारकर उनकी जमीनों पर कब्जा करके अमीरों को सौंपने का काम किया जाता. चाहे वह ओडिशा के जगतसिंहपुर में कोरियन कंपनी पोस्को के लिए जमीन छीनने का किस्सा हो या दिल्ली के नजदीक नोएडा में जमीन छीनने का मामला, हर जगह किसानों के घर जलाए गए, किसानों को मारा गया और जेलों में डाल दिया गया.
इसलिए हम सबको यह साफ-साफ समझ लेना चाहिए कि छत्तीसगढ़ की लड़ाई भी खनिजों के लिए लड़ी जा रही है. इस लड़ाई में एक तरफ बड़ी कंपनियां हैं. कंपनियों की तरफ सरकार है, कंपनियों की तरफ सरकार की पुलिस है, कंपनियों की तरफ सरकार की अदालतें हैं और कंपनियों की तरफ मीडिया का एक बड़ा वर्ग है. इस युद्ध में दूसरी तरफ आम आदिवासी हैं. आदिवासी की तरफ गांधीवादी लोग भी हैं. वामपंथी लोग हैं. सही सोच वाले न्यायप्रिय लोग भी आदिवासियों की तरफ हैं. इत्तफाक से नक्सली भी आदिवासी की तरफ हैं.
सरकार एक चालाक खेल खेलती है. सरकार कहती है कि चूंकि नक्सली भी आदिवासियों की तरफ हैं इसलिए सारे आदिवासी नक्सली हैं. सरकार और ज्यादा चालाकी से कहती है कि चूंकि गांधीवादी और वामपंथी भी आदिवासियों की तरफ हैं इसलिए वामपंथी और गांधीवादी भी नक्सली हैं और इसलिए सारे सही सोचने वाले लोग भी नक्सली हैं.
सरकार अपनी चालाकी की आड़ में अपने सारे अत्याचारों और मानवाधिकार हनन को राष्ट्रहित में किया गया काम बताती है. सरकार कहती है कि चूंकि हम जनता की रक्षा करने के लिए नक्सलियों से लड़ाई कर रहे हैं इसलिए नक्सली समर्थक लोग सरकारी सुरक्षा बलों को बदनाम करते हैं.
लेकिन हकीकत यह है कि सरकारी सुरक्षा बल इन इलाकों में आदिवासियों को जमीनों से भगाने के लिए एक योजना के तहत अत्याचार कर रहे हैं ताकि आदिवासियों के दिलों में खौफ पैदा किया जा सके. आदिवासी महिलाओं के साथ सिपाहियों द्वारा सामूहिक बलात्कारों को एक रणनीति के तहत लागू किया जा रहा है. अभी हाल ही में कई सारे सामूहिक बलात्कार के मामले हुए हैं, जिनमें सिपाहियों के बचाव में पूरी सरकार लग गई है. मेरे द्वारा 500 से ज्यादा मामले सर्वोच्च न्यायालय को सौंपे गए हैं. लेकिन आज तक एक भी मामले में किसी सिपाही को सजा नहीं दिलाई जा सकी. मीना खलखो के साथ सामूहिक बलात्कार मामले में तो जांच आयोग ने भी बलात्कार की पुष्टि की. लेकिन एफआईआर होने के आठ महीने बाद भी आज तक किसी सिपाही को गिरफ्तार नहीं किया गया है. उलटा सोनी सोरी को थाने में ले जाकर उसके गुप्तांगों में पत्थर भरने वाले पुलिस अधिकारी को राष्ट्रपति वीरता पुरस्कार दिया गया.
इसलिए हमें साफ-साफ यह समझ लेना चाहिए कि छत्तीसगढ़ में एक युद्ध चल रहा है. इसमें एक तरफ अमीरों की सेना है जो गरीबों की जमीनें छीनने के लिए भेजी गई है और दूसरी तरफ आदिवासी हैं. जो इस समय छत्तीसगढ़ में हो रहा है वैसा दुनिया के अनेक देशों में पहले हो चुका है. अमेरिका में लाखों नेटिव अमेरिकियों ने आदिवासियों की हत्या की और उनकी जमीनों पर कब्जा कर लिया.
कनाडा, आॅस्ट्रेलिया, न्यूजीलैंड समेत दुनिया के 65 देशों में आदिवासियों को मारकर उनकी जमीनों पर कब्जा किया गया है. हम भी जानते हैं कि अगर हमें कारों और शॉपिंग माल वाला ऐशो-आराम का जीवन चाहिए तो आदिवासियों की जमीनों को छीनना ही पड़ेगा. इसलिए हम अपने ‘लुटेरे’ सिपाहियों की तरफ हैं. इस युद्ध में कानून, नैतिकता, संविधान का कोई स्थान ही नहीं है. इसलिए जो आज संविधान और कानून की बात कर रहे हैं उन्हें देशद्रोही और नक्सली समर्थक कहा जा रहा है.
डर एक ही है कि अगर एक बार सरकार को इस तरह संविधान को कुचल-कर सफल होने की आदत पड़ गई तो फिर सरकार हर जगह इसी तरह से आतंक के माध्यम से अमीरों के लिए लूटपाट करेगी. सारे देश के किसानों की जमीनों पर इसी तरह बड़ी कंपनियों के लिए कब्जा करने का अभियान चलाया जाएगा. यानी अमीरों के फायदे के लिए गरीब पर हमला किया जाएगा और उस हमले को राष्ट्रवाद का नाम दे दिया जाएगा. फासीवाद ऐसे ही आता है और दशकों बाद हमें समझ में आता है कि हम असल में लुटेरे बन चुके हैं. छत्तीसगढ़ के माध्यम से हम देश के संविधान को ही बचाने की कोशिश कर रहे हैं.