यूरोपियन यूनियन (ईयू) के जो सदस्य देश हैं उनके बीच द्वितीय विश्वयुद्ध के दौरान खूनी संघर्ष हुआ था. इन देशों के बीच की कटुता भी तब भारत-पाकिस्तान के बीच की कटुता से कम नहीं थी पर आपसी कटुता मिटाकर उन्होंने नई शुरुआत की. आज आप उनका लेवल ऑफ इकोनॉमिक काेआॅपरेशन देखिए. सबके यहां यूरो चल रहा है. इंग्लैंड को छोड़कर पूरे यूरोप में कॉमन वीजा है. कॉमन बॉर्डर हैं. इसी तरह जो पूर्व-पश्चिम जर्मनी का विवाद था, वो एक ही देश हो गया है. देखा ये जाता है कि लोग पिछला भुलाकर आगे बढ़ते हैं पर हमारे भारतीय उपमहाद्वीप में ऐसा नहीं है. हमारे यहां विभाजन के जख्म को बार-बार कुरेदकर और भी नई पेचीदगियां पेश की जाती हैं. ‘शत्रु संपत्ति अधिनियम’ का हालिया विवाद भी यही है. यह उन समस्याओं में से है जो बड़ी ही गंभीर और जटिल होती हैं. इनमें दो चीजें होती हैं. पहला राष्ट्रीय हित और दूसरा व्यक्तिगत आजादी व भारतीय नागरिकों के संवैधानिक अधिकार, दोनों में एक टकराव होता है. टकराव कुछ यूं होता है कि हमें राष्ट्रीय हित के लिए चाहते और न चाहते हुए भी अपनी व्यक्तिगत आजादी और संविधान प्रदत्त अधिकारों की कुर्बानी देनी पड़ती है.
जिस व्यक्ति का पाकिस्तान से दूर-दूर तक कोई नाता न हो. बस उसके परिवार का कोई सदस्य वहां जाकर बस गया हो, उसकी संपत्ति को शत्रु संपत्ति कहा जाए तो प्रश्न तो उठता ही है. लेकिन इसके पीछे की पृष्ठभूमि को समझना जरूरी है. पाकिस्तान में अपनी जमीन-जायदादें छोड़कर भारत आ बसे लोगों को वहां कुछ नहीं मिला. उनकी भी लाखों-करोड़ों की संपत्ति वहीं छूट गई. उन्हें कुछ नहीं मिल पाया. इसलिए राष्ट्रीय दृष्टिकोण से तर्क तो बनता है कि जो लोग अपनी संपत्ति यहां छोड़कर पाकिस्तान गए, उनको या उनके वारिसों को भी क्यों उससे कोई लाभ मिले. अब बात ये है कि जो वारिस हैं वो कहते हैं कि हम तो जन्म से भारतीय नागरिक हैं, देश कभी नहीं छोड़ा. पाकिस्तान की जमीन पर कदम तक नहीं रखा. इससे बात खड़ी होती है कि एक सभ्य समाज में एक व्यक्ति के जो व्यापक संवैधानिक अधिकार होते हैं, वो उसे मिलें.
शत्रु संपत्ति के संबंध में अदालत नहीं जा सकते पर मान लीजिए लाॅन्ड्री में कपड़े दिए हैं तो वो पर्ची पर भले ही लिखकर दे कि मेरी जिम्मेदारी नहीं है पर हमने तो कपड़े दिए हैं जिम्मेदारी तो बनती है न उसकी, लिखने का कोई मतलब नहीं होता है. इसलिए अदालत न जाने को सरकार बाध्य नहीं कर सकती.
सैद्धांतिक रूप से यह बात सही है कि अगर परिवार के दस लोगों में से कोई एक देश के बाहर चला गया तो उस एक की सजा सबको क्यों दी जाए. लेकिन विश्व भर में अंतरराष्ट्रीय कानून इस आधार पर होते हैं कि आप हमारे नागरिक, व्यापारी या कैदी के साथ जो सुलूक करेंगे हम भी आपके लोगों के साथ वही करेंगे. पहली बारगी तो देखने में यह जुल्म लगता है पर अगर गौर करें तो जो भारत आए उनकी संपत्ति तो पाकिस्तान ने ले ली. इसलिए यहां से जाकर वहां बसे लोगों की संपत्ति पर भारत का हक क्यों नहीं बनता है? यहां बात फंस जाती है. ये ऐसे गूढ़ प्रश्न हैं जिनका जवाब तलाशना आसान नहीं है. हम पश्चिम को लेकर हर मामले में नकल करते हैं पर उन लोगों का मानवीय दृष्टिकोण, समस्याओं को निपटाने का तरीका और लिबरल एटीट्यूड है, उस तरफ हम सोचना भी नहीं चाहते. जैसा ईयू का उदाहरण दिया कि वो पुराने मुद्दों को ही पकड़कर लकीर के फकीर नहीं बने रहे. इससे उसके सभी सदस्य देशों को ही फायदा मिला. उसका हम अनुसरण नहीं करना चाहते हैं. हम चीजों को जटिल बनाते हैं. जहां तक अध्यादेश के रास्ते विधेयक लाने की बात है तो पिछली बार कांग्रेस की सरकार भी ऐसा ही एक अध्यादेश लेकर आई थी. उस समय कैबिनेट में मतभेद पैदा हो गए थे. इसलिए तब आम राय नहीं बन पाई थी. अब वर्तमान सरकार इस पर जोर दे रही है. इसलिए विपक्ष के लिए विरोध करना बहुत मुश्किल होगा. संसद से तो कानून बनने की पूरी संभावना है. बस विरोध न्यायपालिका की तरफ से होगा क्योंकि न्यायपालिका पर कोई दबाव नहीं होता. वो तो बस कानूनी दृष्टिकोण से देखती है. राजा महमूदाबाद का भी केस देखें तो उन्हें भी न्यायपालिका से ही लाभ मिला.
वहीं विधेयक में यह प्रावधान भले ही हो कि शत्रु संपत्ति के संबंध में अदालत नहीं जा सकते पर मान लीजिए लाॅन्ड्री में कपड़े दिए हैं तो वो पर्ची पर भले ही लिखकर दे कि मेरी जिम्मेदारी नहीं है पर हमने तो कपड़े दिए हैं जिम्मेदारी तो बनती है न उसकी, लिखने का कोई मतलब नहीं होता है. इसलिए अदालत न जाने को सरकार बाध्य नहीं कर सकती. आपातकाल के दौरान भी बहुत सारे ऐसे कानून पास किए गए थे जिनमें कहा गया था कि इनमें जूडिशियल रिव्यू नहीं होगा पर वे चले नहीं, अदालतों ने उसकी व्याख्या की. आम तौर पर जो सरकारी कानून होते हैं उनकी न्यायालयों में विवेचना होती है. इस पूरे विधेयक या इसके इस बिंदु पर भी कोई भी अदालत जा सकता है. जो प्रावधान हैं इस कानून में वो डिफेंस ऑफ इंडिया एेक्ट 1962 के तहत हैं. उनमें शत्रु की परिभाषा दी गई है. इन तमाम चीजों का अदालत संज्ञान तो लेती ही है. अब अगर कोई कह दे कि इसमें आप अदालत में नहीं जा सकते तो वो पर्याप्त नहीं होता.
विवाद यह है कि इससे एक बड़ी आबादी प्रभावित हो रही है. सरकार अब इसे कैसे लागू कर पाएगी, उसके सामने यह एक चुनौती होगी क्योंकि काम करने का न्यायालय का एक अपना ढंग होता है. कई बार सरकार के चाहने न चाहने से कुछ नहीं होता. प्रभावित लोगों को न्यायालय से उम्मीदें हैं कि सरकार भले ही नागरिकों के संवैधानिक हितों को गौण मानकर चले पर न्यायालय न्यायसंगत फैसला करेगा. कानून बनाना आसान काम होता है. अध्यादेश लाना और भी आसान होता है. लेकिन अदालत में इसे साबित करना बड़ा मुश्किल भरा होता है. जहां तक प्रभावित लोगों की बात है तो अदालत अगर यह भी मान लेती है कि वो लोग जिस संपत्ति पर काबिज हैं वो शत्रु संपत्ति है तब भी सरकार को लचीला रुख अपनाना होगा. वह वर्षों से उस संपत्ति पर कानूनन बसे लाखों लोगों को एकदम से बेदखल नहीं कर सकती क्योंकि जो लोग आज इन संपत्ति यों पर काबिज हैं उनका इस सबसे कोई लेना-देना नहीं था. ये सारी चीजें सरकार को देखनी पड़ेंगी. निपटारे सरकार औने-पौने दाम पर कब्जेधारियों को ही वो संपत्ति बेचकर या उनसे कोई सुपुर्दगी लेकर कर सकती है. पर यह सब आसान नहीं होगा. मामला लंबा खिंच सकता है. अदालत में कोई चीज आती है तो अदालतें उसकी हर स्तर पर जांच करती हैं. मामले की जड़ तक जाती हैं और जब जड़ में गईं तो कई चीजें सामने आएंगी. सरकार को लगता है कि इन संपत्तियों से उसे एक लाख करोड़ मिल जाएंगे तो वो इतना आसान नहीं है. नौकरशाह और राजनेताओं के काम करने का तरीका कई बार जनहित में नहीं होता पर अदालत के पास संविधान है, उसकी व्याख्या करना उसका काम है.
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं )
(दीपक गोस्वामी से बातचीत पर आधारित)