बीमारी की तरह फैल रहा है सोशल मीडिया का दुरुपयोग : ओम थानवी

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जब नई तकनीकें आती हैं, तो वे अपने साथ वरदान भी लेकर आती हैं और अभिशाप भी. आपको उसके फायदे नजर आते हैं और नुकसान भी. यहां तक कि लोकतंत्र के भी अपने फायदे और नुकसान हैं और तानाशाही के भी अपने फायदे-नुकसान हैं. ये होता है कि तानाशाही में नुकसान बहुत ज्यादा होते हैं और लोकतंत्र में फायदे बहुत ज्यादा होते हैं. लेकिन ऐसा कहना कि तानाशाही में फायदे नहीं होंगे, एक तरह का अनुशासन तो आ ही जाता है, लोकतंत्र में नुकसान है कि एक तरह की अराजकता आ ही जाती है.

सोशल मीडिया की जो तकनीक आई है ​ये अपने साथ बहुत अच्छाई लेकर आई है. संचार तुरंत होने लगा है- ज्ञान का, जानकारी का. लोग संचार माध्यमों- अखबार और टीवी के भरोसे नहीं हैं. सोशल मीडिया के ​जरिए आपको बारिश तक की जानकारी तुरंत मिलती है. अखबारों और टीवी चैनलों के भी पोर्टल बने हुए हैं जिनके जरिए तुरंत जानकारियां मिलती हैं. पर यह तकनीक जो अभिशाप लेकर आई है, वह है कि आप उसका इस्तेमाल देश में आग लगाने के लिए भी कर सकते हैं, दंगे भड़काने के लिए भी कर सकते हैं, चरित्र हनन के लिए भी कर सकते हैं. ये इसका अभिशाप है. इसे शत-प्रतिशत तो काबू नहीं कर सकते हैं, लेकिन बिल्कुल काबू नहीं कर सकते, ऐसा भी नहीं है. इसकी कोशिश भी हमारे यहां बहुत अधिक नहीं हुई है. एक कानून बन गया, लेकिन हमारे यहां लोग आम तौर पर कानूनी झमेले में पड़ते नहीं हैं. लेकिन कभी भी किसी की भी टोपी उछाली जा सकती है, कभी भी दंगे भड़काने की कोशिश की जा सकती है. संगठित तौर पर जो राजनीतिक दल हैं, हम जानते हैं कि चुनाव लड़ने के लिए मोदी जी ने सोशल मीडिया का जमकर इस्तेमाल किया. जाहिर है ​यह अमेरिकी कंपनी की सलाह होगी जो उन्होंने हायर की थी. बड़ी तादाद में लोगों को हायर किया गया जो बाकायदा फौज की तरह उनके लिए लड़ने का काम कर रहे हैं. और जैसा कहा जाता है कि प्यार और युद्ध में सब जायज है तो लड़ाई में दुश्मनों पर हमला, झूठी तस्वीरें बनाकर प्रचार करना, उनके बारे में झूठी जानकारियों का प्रसार करना, ये सारा शुरू हुआ है. मोदी जी के चुनाव में यह सिलसिला शुरू हुआ, उसके बाद यह एक आदत में तब्दील हो रहा है. दूसरे दल भी कर रहे हैं. अगर आप कहें कि दूसरे दल नहीं कर रहे हैं तो यह भूल होगी.

सोशल मीडिया पर लिखने को पत्रकारिता मैं नहीं मानता. यहां तथ्य चेक करने का प्रावधान नहीं है. पत्रकारों की ट्रेनिंग होती है कि वे सूचनाओं को चेक करें

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आपको जिस तरह की अफवाहें गांधी और नेहरू के बारे में मिलेंगी, तस्वीरें जिस तरह से तोड़-मरोड़कर बनाई हुई मिलती हैं, जिसमें गांधी जी आपको कैबरे करते हुए मिल जाएंगे. नेहरू जी स्वीमिंग पूल में सुंदरियों के साथ नहाते हुए मिल जाएंगे. जाहिर ​है कि ये नकली तस्वीरें हैं. इस तरह से दीनदयाल उपाध्याय के बारे में ऐसी जानकारियां, श्यामा प्रसाद मुखर्जी के बारे में, गोलवलकर के बारे में आपको मिल जाएंगी. ये चीजें सोशल मीडिया के प्रसार के साथ एक बीमारी या बुराई की तरह फैल रही हैं.

एक सीमा तक तो आप कह सकते हैं कि कोई भी मान नहीं सकता कि गांधी जी कैबरे करते थे या कोई मान नहीं सकता कि नाथूराम गोडसे पुण्यपुरुष था. इस तरह की चीजों को तो आप चाहकर भी स्थापित नहीं कर सकते. ऐसी चीजों को लोग समझ जाते हैं और उन्हें नजरअंदाज करते हैं. लेकिन जैसा मुजफ्फरनगर में हुआ, दंगे भड़काने के लिए जिस तरह सोशल मीडिया का इस्तेमाल हुआ, ऐसी चीजें चिंताजनक हैं. चरित्र हनन के लिए जो लोग इस दुनिया में नहीं हैं, उनको छोड़ें, पर जो लोग मौजूद हैं, उनके बारे में गैरजिम्मेदारी के साथ कुछ उछाल दिया जाता है. ये उम्मीद करना कि हमने तो कानून बना रखा है, वह आदमी अदालत जा सकता है, इतना ही समस्या का निराकरण नहीं है. इससे अधिक इसकी निगरानी की व्यवस्था होनी चाहिए. अब क्या निगरानी हो सकती है, तकनीकी जानकारी रखने वाले लोग इसका रास्ता निकालेंगे.

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फेसबुक पर आजकल मैं नहीं हूं क्योंकि समय बहुत जाता है. गाली वहां बहुत पड़ती रही, उसकी मैंने कभी परवाह नहीं की. आपने सबके सामने खड़े होकर एक संवाद शुरू किया है तो इस तरह का भी काम होता है. उनकी मंशा ये होती है कि वो आपको बदनाम करें, डराएं ताकि आप उनके बारे में ऐसी टिप्पणियां करना बंद कर दें जिससे उनको लगता है कि नुकसान है क्योंकि आपकी साख ज्यादा है. वह उनकी लड़ाई का एक हिस्सा है. उसे मैंने कभी सफल नहीं होने दिया. मैं कम से कम विचलित नहीं हुआ हूं. हां, एक मर्यादा के बाद गाली-गलौज पर लोगों को ब्लॉक जरूर कर दिया है. लेकिन ऐसे लोगों की तादाद बहुत अधिक है. ब्लॉक करने पर यह कहा गया कि यह व्यक्ति तो ब्लॉक कर देता है, लेकिन आपको यह अधिकार हासिल है कि किसी को अपने घर में आने दें. आप अपनी वॉल पर बात करते हैं, कोई सुने या न सुने. यह सब मुझे बुरा नहीं लगा.

अफवाह फैलाने की घटना का एक उदाहरण है. डॉ. नामवर सिंह के जन्मदिन के वक्त मैं एक कार्यक्रम में गया था. वहां दो वरिष्ठ संपादक थे विष्णु नागर और पंकज बिष्ट, दो कवि थे, बड़े कथाकार थे. उनके बीच कोई भी अफवाह फैलाना लगभग असंभव बात है. लेकिन अफवाह फैला दी गई कि मेरे साथ झगड़ा हो गया और मारपीट की गई. सबसे अजीब बात ये थी कि जिम्मेदार लोग जिनसे आप जिम्मेदारी की अपेक्षा करते हैं, टीवी या अखबारों के संपादक उन्होंने ऐसा किया. जी न्यूज के संपादक हैं सुधीर चौधरी. उन्होंने भी ट्वीट किया कि संपादक ने कोई हल्की बात की, इसलिए उनकी पिटाई हो गई. अगर ऐसा है तो बुरी बात है. ‘अगर ऐसा है’ कहकर संपादक बात कर रहा है. अरे भाई, फोन करके मुझसे पूछ लीजिए. चार लोग वहां मौजूद हैं, उनसे पूछ लीजिए कि वो क्या कहते हैं. बाद में समयांतर के संपादक पंकज बिष्ट ने एक लंबा लेख लिखा कि सोशल मीडिया मूर्खों का अड्डा बन गया है जिसमें संपादक के बारे में एक चीज चल गई. जबकि वहां कई लोग मौजूद हैं, लेकिन वह बात चल गई तो कई लोग लिख रहे हैं. इस अफवाह में दूसरा नाम था दूरदर्शन के एक अधिकारी कृष्ण कल्पित. हालांकि बाद में यह मसला ठंडा इसलिए पड़ गया ​कि जो लोग वहां मौजूद थे, उन्होंने इससे इनकार किया कि वहां कुछ ऐसा हुआ. लेकिन लोगों ने इस तरह चरित्र हनन की कोशिश की. बहरहाल वह बात ज्यादा नहीं चल पाई क्योंकि झूठ ज्यादा दिन तक नहीं चल सकता. अब देखिए कि एक कवि और दूसरा चैनल का संपादक, अगर वही ऐसी अफवाह फैलाता है, चरित्र हनन की कोशिश करता है तो आप मानिए कि इस तरह की अफवाहों में बड़े लोग भी शामिल हैं. आप सिर्फ यह नहीं कह सकते कि बीजेपी या कांग्रेस ने कुछ ऐसे लोग हायर कर रखे हैं जो अफवाहें फैलाने का काम करते हैं. जिम्मेदार लोग भी ऐसा कर रहे हैं. जबकि पत्रकारों की ट्रेनिंग ही यही होती है कि सूचनाओं को चेक करें. यह पत्रकार को सिखाया जाता है. इसलिए मैं सोशल मीडिया पर लिखने को पत्रकारिता नहीं मानता. सोशल मीडिया में तथ्य चेक करने का कोई प्रावधान नहीं है. दूसरी बात, जो लिखता है वही उसको प्रसारित कर देता है, जबकि पत्रकारिता में एक दूसरा व्यक्ति होता है, जिसे आप संपादक कह सकते हैं, जो उसको जांचता है. वह नैतिक रूप से, कानूनी रूप से उसका जिम्मेदार होता है. अखबार में छपा होता है कि कानूनी रूप से संपादक खबरों के चयन के लिए जिम्मेदार है. लिखने वाला जिम्मेदार नहीं है. सोशल मीडिया में तो कोई संपादक है नहीं, वह खुद ही लेखक है, खुद ही संपादक है. ऐसे में उस माध्यम के दुरुपयोग की संभावना बढ़ जाती है. लेकिन ऐसे मामलों में जब जिम्मेदार लोग उसका दुरुपयोग करते हैं, किसी पर हमला करने के लिए, दुष्प्रचार के लिए, किसी से दुश्मनी निकालने के लिए, तब मानना चाहिए कि सोशल मीडिया जो ज्ञान, सूचना, समझ और जानकारियों को साझा करने के लिए बेहतर माध्यम बन सकता है, वह माध्यम बन जाता है बुराइयों के संप्रेषण का. इसको कैसे चेक किया जाए, सरकार को इस पर सोचना चाहिए. समाज को भी सोचना चाहिए ताकि मिलकर कोई रास्ता निकले.

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं)

(बातचीत पर आधारित)