देश में आजकल एक खास किस्म का सिलसिला चल रहा है. मैं उसका शिकार बना. वो पहले से जाल बिछाए बैठे थे, मैं फंस गया. सबसे परेशान करने वाली बात कि पाकिस्तान हो या बांग्लादेश, वहां पर बहुत दमन रहा है. हमारे यहां आपातकाल को छोड़ दें तो शायरों या लेखकों का दमन बहुत कम हुआ है. लोग जेल भी गए हैं. फैज़ अहमद फैज़ से लेकर हबीब जालिब तक पाकिस्तान में तर्कवादियों की हत्याएं हुई हैं, बांग्लादेश में भी तर्कवादियों को मारा गया है, लेकिन इन सारी चीजों में संलिप्तता स्टेट यानी सरकार की रही है. सरकारी तंत्र और उसकी मशीनरी शामिल रही है. जिया उल हक की सरकार ने हबीब जालिब को पकड़कर बंद किया. हमारे यहां रूढ़िवादियों ने कई लोगों को मारने की कोशिश की है, कलबुर्गी को और पानसरे को मारने में सफल भी रहे. ये सिलसिला पिछले कुछ समय में दिखाई देता रहा है.
ऐसा पहली बार हुआ है कि मीडिया चैनल ही ऐसे हमले करने का बीड़ा उठा लें. पाकिस्तान में मीडिया हमेशा फैज, हबीब जालिब या डीगर, लेखक और वैज्ञानिकों के साथ रहा है. बांग्लादेश में भी मीडिया साथ रहा है. उनको ढाढस दिया, भरोसा दिलाया कि अवाम आपके साथ है. यहां उल्टा हुआ है. यहां मेरे ऊपर लांछन स्टेट नहीं लगा रहा कि आपने हमारे खिलाफ नज्म कही और हम आपको सजा देंगे. यहां पर तो मीडिया प्रोएेक्टिव (अति सक्रिय) हो गया. मैं बताता हूं कि क्यों ये लोकतंत्र के लिए ज्यादा खतरनाक है. राज्य अगर दमन करे तो आप लड़ सकते हैं. आपके खिलाफ मीडिया अगर खड़ा हो जाए, चैनल्स बिक जाएं, जिस तरह यह बिका हुआ चैनल है तो परेशानी यह है कि आपका दुश्मन पहचाना नहीं जा सकता. मेरा दुश्मन कौन है, मैं नहीं जानता. मैं पान की दुकान पर हूं, मैं बाजार में हूं, मैं कहां हूं और कहां से कौन हमला कर देगा, यह मैं नहीं जानता. कोई भी आकर मुझ पर हमला कर सकता है. मेरी सुरक्षा पूरी तरह से खत्म है उस वक्त जब से मीडिया मेरे खिलाफ हो गया क्योंकि दूसरा कोई साथ खड़े होने को तैयार नहीं है. लोग डर जाते हैं.
दूसरी परेशानी इस बात की है कि किसी भी समाज के अंदर उसका जिस्म यानी समाज का बदन, समाज के दिमाग के खिलाफ खड़ा हो जाए. जो सोचने-समझने, दिशा निर्धारित करने वाले लोग हैं, पढ़ाने वाले, फिल्में बनाने वाले, उन लोगों के खिलाफ आपका समाज खड़ा हो जाए तो ये ऐसा ही है कि कोई इंसान अपने ही बालों को नोचने लगे. तीसरी बात ये है कि जब आप किसी समाज में रहते हैं और उस समाज के अंदर कुछ तत्वों को ऐसी जगह मिली है जो उन्हें नहीं मिलनी चाहिए. मीडिया में तमाम लोग ऐसे बैठे हैं जिनको वहां नहीं होना चाहिए लेकिन वे हैं और पुरस्कृत हो रहे हैं. समझौता करने में सबसे आगे होता है अपराधी. अगर मीडिया का अपराधीकरण हो जाए तो एक आम आदमी के लिए कोई रास्ता नहीं बचता. किसी आदमी पर आपराधिक हमला होगा तो उम्मीद की जाती है कि सबसे पहले मीडिया खड़ा होगा, पुलिस और राज्य बाद में. राज्य की भूमिका अच्छी है तो भी मीडिया पहले खड़ा हो जाता है. अगर वो ही अपराधी की भूमिका में है, वो ही जजमेंट देना शुरू कर देता है, उसका ही आपराधीकरण हो जाता है तो यह खतरनाक स्थिति है.
अभी जो ट्रेंड दिखाई दे रहा है, उसमें ये तो साफ है कि मीडिया अपने दायित्व से हटकर एक अपराधिक भूमिका में है. आप सारे नियम-कानून और नैतिकता छोड़कर अपने ही बुद्धिजीवियों के खिलाफ खड़े हो गए. ऐसे में स्टेट अगर फासीवादी है तो आप क्या ही उम्मीद करेंगे, लेकिन अगर लोकतांत्रिक स्टेट है तो जाहिर है कि उसको खड़ा होना चाहिए. उसको जरूर सख्त कार्रवाई करनी चाहिए. गलत हमलों से लेकर मीडिया ट्रायल तक, उसके खिलाफ खड़ा होना राज्य का दायित्व है. एक फुटेज को देखकर सरकार लोगों को गिरफ्तार करने दौड़ पड़ी, (जेएनयू मामले में) इसकी जगह यह देखना चाहिए कि क्या हमें उन लोगों को गिरफ्तार करने की जरूरत है या उनको जो यह आरोप लगा रहे हैं. मैं समझता हूं कि सरकार का दायित्व था कि सबसे पहले पुलिस जांच करती कि क्या ये टेप सही हैं या डॉक्टर्ड और अगर हैं तो इसके लिए कौन जिम्मेदार है.
ऐसा पहली बार हुआ है कि भारत में मीडिया चैनल हमले का बीड़ा उठा लें. पाकिस्तान और बांग्लादेश में मीडिया हमेशा लेखक और वैज्ञानिक के साथ रहा है
एक चीज और बहुत खतरनाक है जो मैं कहना चाहता हूं. हमारे उपमहाद्वीप में एक लंबी परंपरा है मुशायरों की. यह अद्भुत परंपरा है जो सदियों पहले अरब से आई. यह वहां तो तकरीबन खत्म हो गई लेकिन हमने इसे जिंदा रखा. यहां अहम बात है कि यह अकेला ऐसा स्पेस है जहां नागरिक और बुद्धिजीवी, वो एक क्षेत्र के ही सही, कविता के ही सही, एक-दूसरे के सामने होते हैं. ये इसलिए अद्भुत परंपरा है. हर रोज हमारे देश में, पाकिस्तान-बांग्लादेश में हजारों ऐसे मुशायरे और कवि-गोष्ठियां होती हैं. आप जब हमला कर रहे हैं तो दो तरह से हमला कर रहे हैं. एक तो इस परंपरा पर हमला कर रहे हैं. दूसरा, आप हमला कर रहे हैं आयोजकों और शायरों-लेखकों पर. इसका अंजाम होगा कि लोग आयोजन करने से बचेंगे. पहली प्रतिक्रिया यह होगी कि वे करेंगे नहीं, करेंगे भी तो सुनिश्चित करेंगे कि ऐसे शायरों को बुलाएं जो उन्हें परेशानी में न डालें. आपने चैनल की वो टैगलाइन देखी होगी. उसमें मुशायरे पर सीधा हमला है. चैनल ने ‘अफजल प्रेमी गैंग का मुशायरा’ लिखा. यह मुशायरे की परंपरा पर हमला है. अगर मान लिया मुशायरा हो भी जाता है तो शायर घबराएंगे कि कल को कहीं मेरे ऊपर उंगली न उठ जाए.
बहुत दिन से एक तरह की प्रोफाइलिंग चल रही है और यह कोई नया नहीं है कि मुसलमान है तो आतंकी है या देशद्रोही है. इससे तो आपको राजनीतिक रूप से लड़ना होगा. यह राजनीतिक दलों का काम है. यह इतनी आसानी से खत्म होने वाला नहीं है. मेरे ख्याल से यह लंबी लड़ाई है. जो तात्कालिक लड़ाई है वो ये है कि क्या हम ऐसे स्पेस को बचा पाएंगे. क्या हम मुशायरों-सम्मेलनों को उतना ही मुक्त रख सकेंगे जितना उन्हें होना चाहिए? कितनी भी प्रोफाइलिंग की जाए पर हमारे यहां परंपरा है कि आखिर में बैठा हुआ एक बच्चा उंगली उठा ही देता है, आप कितना भी अच्छा लेक्चर दें वो सवाल पूछेगा. तो यह प्रोफाइलिंग हमारे ख्याल से एक हद तक ही सफल हो सकती है. लेकिन ये स्पेस बचाए रखना कि हमारा कवि मुक्त होकर खुद को व्यक्त कर सके, डरे नहीं. हमारा शिक्षक जब क्लास में जाए तो मुक्त महसूस करे. हमारा लेखक जब किताब लिख रहा है तो उससे यह न लिखवाया जाए कि तुम कुछ भी सरकार के खिलाफ नहीं लिख सकते. सिर्फ सरकार के ही खिलाफ नहीं, किसी के खिलाफ हो, आप यह न कहें कि हम आपका हाथ पकड़कर कलम चलवाएंगे. इसी को मैं कह रहा हूं कि जिस्म अगर दिमाग के खिलाफ हो जाए तो यह खतरनाक होगा. अभी सरकार की ओर से एक फाॅर्म जारी हुआ है कि उर्दू लेखक हलफनामा दें कि वे सरकार के खिलाफ नहीं लिख रहे. मेरे ख्याल से आगे यह सबके साथ होगा. हिंदी के साथ, अंग्रेजी के साथ भी.
एक चीज और समझने की जरूरत है, अगर हम पाकिस्तान को देखें तो वहां जो सबसे कट्टरपंथी ताकतें थीं, उनको शुरुआत में जो दुश्मन की तलाश थी, उसमें हिंदू फिट हुए. फिर उन्होंने कहा कि इनसे काम नहीं चल रहा, तब उन्होंने मुहाजिर (शरणार्थी) की तलाश शुरू की. उनसे भी काम नहीं चला तो कादियानों को दुश्मन बनाया. उनसे भी काम नहीं चला तो शियाओं को चुना. अब उनसे भी काम नहीं चल रहा तो उसमें बरेलवी जोड़ लिए गए.
हमारे यहां अगर आप देखें तो सन 1947 के बाद मुसलमान उनके दुश्मन हैं. उसके बाद जोड़े जाते हैं ईसाई. एक छोटे से काल में सिख, उसके बाद सेक्युलर और अब एंटीनेशनल. ये घेरा बढ़ता जा रहा है. इसमें सिर्फ मुसलमान नहीं हैं. प्रोफाइलिंग तो ईसाइयों की भी करने की कोशिश की गई. धर्म परिवर्तन का जो पूरा मामला था, वह यही था. युवाओं की प्रोफाइलिंग किस तरह से की जा रही है. मेरा मानना है कि जब किसी मुल्क में फासीवादी ताकतें होती हैं तो किसी एक दुश्मन पर रुकती नहीं हैं. दुश्मनों की बास्केट भरती नहीं है, बढ़ती रहती है. आज हिंदुस्तान में एक बड़ी बास्केट है दुश्मनों की, जिनमें अब हर वो आदमी जो आपको लगता है कि वो भारत माता की जय नहीं कहेगा, वह दुश्मन है. इसमें सिर्फ मुसलमान नहीं हैं. बहुत सारे लोग जय हिंद कहेंगे. आंकड़ा है कि 94 फीसदी युवा भगत सिंह को अपना हीरो मानता है, वह इंकलाब जिंदाबाद कहना चाहेगा. अगर कोई भारत माता की जय नहीं कहेगा, तो वह देशद्रोही ठहरा दिया जाएगा. यह बास्केट बढ़ाने का सिलसिला तेजी से चल रहा है. इसका अंजाम होगा कि हम पाकिस्तान हो जाएंगे. जर्मनी को दोहराना मुश्किल है. लेकिन अगर जर्मनी न भी हुआ तो हम पाकिस्तान जरूर बन जाएंगे. खतरा ये है कि पाकिस्तान छोटा मुल्क है. उसे संभालना आसान है. हिंदुस्तान बहुत बड़ा मुल्क है. इस धरती पर रहने वाला हर सातवां आदमी हिंदुस्तानी है. यहां कुछ ऐसा होता है तो फिर ये मानवता के लिए सबसे बड़ा संकट होगा. दूसरे विश्वयुद्ध के बाद इतनी बड़ी ट्रेजडी दूसरी नहीं होगी.
मेरे ख्याल से जो लोग जोर-शोर से कह रहे हैं कि ऐसा करने वाले फ्रिंज एलीमेंट (हाशिये के लोग) हैं, वे खुद फ्रिंज एलीमेंट हैं. ये तो सेंटर स्टेज (अहम लोग) हैं, जो चीख-चीखकर कह रहे हैं कि ये फ्रिंज एलीमेंट हैं, वे सिर्फ चैनल पर हैं. जिन्हें फ्रिंज एलीमेंट कहा जा रहा है वे तो गलियों-चौराहों में घुस-घुसकर मार रहे हैं. वे फ्रिंज एलीमेंट कैसे हुए? वे सेंटर स्टेज हैं. देश में फासीवाद अभी स्पष्ट रूप से हो न हो, लेकिन फासीवादी ताकतें जरूर हैं. उनकी चेतना भी फासीवादी है. वो किसी को भी बर्दाश्त नहीं करना चाहतीं. वो लगातार एक नया दुश्मन तलाश करती हैं. उनका सत्ता और अपराधियों के साथ जो रिश्ता है, वह साफ दिख रहा है. इसलिए मैं कह रहा हूं कि वे फ्रिंज एलीमेंट से सेंटर स्टेज की ओर चले गए हैं. मुझे फासीवाद का खतरा बिल्कुल साफ दिखाई देता है. यही बात मैंने उस कविता में कही है, ‘यूरोप जिस वहशत से अब भी सहमा सहमा रहता है, खतरा है वो वहशत मेरे मुल्क में आग लगाएगी.’
पश्चिमी यूपी में देखिए, जहां तक तनाव का सवाल है तो 1947 के बाद कुछ जगहों पर तनाव रहे हैं, कुछ जगहों पर नहीं. कुछ जगहों पर ज्यादा रहे कुछ जगह कम. मेरठ, मुजफ्फरनगर और मलियाना में ऐसा हुआ. लेकिन 1970 के बाद मैंने यूपी में बड़े स्तर पर कोई उन्माद नहीं देखा. उसके बाद अभी मुजफ्फरनगर में जो हुआ, वहां पर बड़े स्तर पर धार्मिक उन्माद दिखाई देता है. जाहिर है कि 1970 के बाद भाईचारे, शांति और विकास चाहने वाली जो ताकतें थीं वे एक साथ हो गईं. तब सोच यह थी कि अगर अमन नहीं होगा तब तक निवेश नहीं होगा, हम सिर्फ नुकसान उठाएंगे. यह सबको समझ में आ रहा था. अब जो नया ट्रेंड शुरू हुआ है, उसमें बड़े धीरज के साथ बंटवारा कराने का काम किया गया है. दिमागों का बंटवारा करने की कोशिश की गई. ऐसे में अगर स्टेट मशीनरी साथ हो जाए तो बहुत थोड़े से ही लोग उन्माद फैला सकते हैं. ऐसा बिहार में भी नहीं हुआ. मतलब आपको ज्यादा बड़ी भीड़ नहीं चाहिए. ये ट्रेंड मुझे यूपी में दिखाई दे रहा है कि स्टेट मशीनरी ने पूरी तरह से हाथ खींच लिए हैं. जो लोग ऐसी चीजों को अंजाम दे रहे हैं, उनको बजाय सजा देने और रोकने के एक तरह से वे खुद उनका फायदा उठाना चाहते हैं. मैं समझता हूं तात्कालिक तौर पर शायद किसी को इस बंटवारे का फायदा हो जाए, लेकिन लंबे समय में हम सब सिर्फ गंवाते हैं. चाहे वह निचला तबका हो या ऊपर का, अल्पसंख्यक या बहुसंख्यक, इसमें सबका नुकसान है.
(कृष्णकांत से बातचीत पर आधारित)