जनगणना के बहाने…

शिवेन्द्र राणा

इस बार जाति की लड़ाई से संसद हलकान रही। ऐसा लगा कि राष्ट्रीय स्तर पर विमर्श का एक ही और सबसे प्रमुख मुद्दा शेष है- जाति। जाति जनगणना, जाति आधारित आरक्षण, जाति आधारित प्रतिनिधित्व इत्यादि। एक देश की लोकतांत्रिक व्यवस्था के लिए जातिवाद से अधिक शर्मनाक स्थिति नहीं हो सकती। कोई राहुल गाँधी की जाति पूछ रहा है, तो कोई सरकारी सचिव की। जबसे मोबाइल का डेटा सर्वसुलभ हुआ है, तबसे सड़कछाप इतिहासकारों की एक ऐसी प्रजाति पैदा हो गयी है, जो प्राचीन राजवंशों, सम्राटों की ही नहीं, बल्कि स्वतंत्रता आन्दोलन के क्रांतिकारियों की भी जाति निर्धारित कर रही है।

ख़ैर, मूल राजनीतिक विवाद का केंद्र बिन्दु है- जाति आधारित जनगणना। 2024 के आम चुनावों में कांग्रेस-सपा गठबंधन के अप्रत्याशित सफलता के बाद दोनों ही दलों ने जाति जनगणना को आधार बनाकर आक्रामक रूप से सरकार पर दबाव बनाने का प्रयास किया है, जबकि सरकार इस मुद्दे पर नकारात्मक दृष्टिकोण रखती है। लेकिन इसमें कोई दो-राय नहीं कि भाजपा ने भी जातिवाद का खेल कम नहीं खेलती है। विपक्ष से जनता को ढेरों उम्मीदें हैं कि वह एक सकारात्मक भूमिका निभाएगा; लेकिन उसके पास सरकार की कमियों और नाकामियों पर पूछने के लिए सैकड़ों सवाल होते हुए भी सवाल नहीं हैं। मेक इन इंडिया, मेड इन इंडिया, स्मार्ट सिटी, स्मार्ट गाँव, दो करोड़ रोज़गार, बढ़ती ग़रीबी, बढ़ती भुखमरी, चीन की घुसपैठ, आत्महत्या के बढ़ते मामले, सरकारी पदों को ख़त्म करने, सरकारी संपत्तियों की नीलामी, हर ज़िले में भाजपा के फाइव और सेवन स्टार होटलनुमा आलीशान कार्यालय, देश से पैसा लेकर भागने वालों की लंबी लिस्ट, देश पर बढ़ता क़र्ज़, ख़ाली होते बैंक, पूँजीपतियों की क़ज़र्माफ़ी, संसद की छत टपकना, किसानों पर अत्याचार, पेपरलीक, बढ़ती नशा$खोरी, शिक्षा क्षेत्र का महँगा होना, कम होते सरकारी स्कूल, शिक्षा पर जीएसटी, मणिपुर, चुनाव में गड़बड़ी, विपक्षी नेताओं को जेल भेजने से लेकर न जाने कितने ही ऐसे मुद्दे हैं, जिन पर विपक्ष सवाल पूछ सकता है। लेकिन उसे अपने वोट बैंक की चिन्ता है और इसी के चलते वह जातिवाद पर अड़ा हुआ है। असल में विरासत में मिली राजनीति सत्ता प्राप्ति का हमेशा आसान विकल्प तलाशती है, जहाँ ज़मीन पर उतरकर ग़रीबी, अभाव, अवसंरचना, शिक्षा, स्वास्थ्य के मुद्दे पर संघर्ष के बजाय जाति, धर्म के आसान ज़हरीले वाचिक बातों से सत्ता का मार्ग तलाशा जाता है। इस समय कांग्रेस-सपा गठबंधन के नेतृत्व की भी यही स्थिति है। इसलिए सत्ता पक्ष के एक नेता ने नेता प्रतिपक्ष की जाति पूछी, तो सपा अध्यक्ष उत्तेजित हो गये कि आप उनकी जाति कैसे पूछ सकते हो? लेकिन यह महानुभाव देश के नागरिकों की जाति पूछने का कार्य संवैधानिक रूप से करना चाहते हैं।

हालाँकि इसमें कोई शक नहीं कि भारत के सार्वजनिक जीवन में एक दौर ऐसा रहा है, जब समाज के एक बड़े वर्ग को जन्मना सार्वजनिक जीवन में भेदभाव सहना पड़ा, उसे विकास के लाभ से वंचित रखा गया। लेकिन आज जो लोग रुदाली बने हुए हैं, वे न इसके भुक्तभोगी हैं और न जिन पर आरोप लगाये जा रहे हैं, वे इसके आरोपी हैं। हालाँकि कुछ उदाहरण हो सकते हैं, जिसमें उनके साथ अन्याय हुआ है और कई पिछड़े इलाक़ों में आज भी हो रहा है। लेकिन ज़्यादातर मामलों में वे अपने पूर्वजों की भूलों का परिमार्जन करते हुए, अपनी योग्यता और मैरिट को अपमानित करते हुए, आरक्षण के दावों को स्वीकार करते हुए सामाजिक समरसता में योगदान कर रहे हैं। लेकिन तब भी कुछ घटनाओं के लिए समूचे सवर्ण समाज दोषी क़रार देना भी तो ग़लत है। ज़रा सोचिए, आज आप जब सड़क पर गोलगप्पे, चाट खाने जाते हैं, किसी होटल में जाते हैं, तो क्या यह जानने का प्रयास करते हैं कि इसे बनाने और परोसने वाला कौन हैं? या कि आपकी बग़ल में खा रहा शख़्स कौन हैं? क्या स्कूल, कॉलेज, सिनेमा हॉल या किसी सार्वजनिक स्थल पर जाति परिचय के आधार पर प्रवेश दिया जाता है? असल में ऐसा नहीं होता। लेकिन आज जब जातिवाद काफ़ी हद तक ख़त्म होने की स्थिति में दिखायी देता है और केवल रिश्ता करने तक ज़्यादातर सीमित है, तब भी छुआछूत की भ्रामक दुष्प्रचार के आख्यान चरम पर सुनाये जाते हैं।

दुनिया विकास की राह पर दौड़ रही है, सभ्यता आधुनिकता के नये प्रतिमान गढ़ रही है; लेकिन भारत में पिछड़ा, अति पिछड़ा और दलित बनने की होड़ लगी है। कई सामान्य वर्ग के लोग भी आरक्षण के चक्कर में उनमें शामिल हो रहे हैं। हालाँकि अब तो सरकार ने सवर्ण ग़रीबों को भी ईडब्ल्यूएस के तहत 10 फ़ीसदी आरक्षण दिया हुआ है, जिसकी ग़रीबी का मानक निचले तबक़ों की अमीरी के मानक से तक़रीबन मेल खाता है। यानी यहाँ भी असमानता का एक पैमाना साफ़ दिखायी देता है। इसका मतलब यह है कि भारत में सत्ता पक्ष और विपक्ष, दोनों ही जातिवाद  के भेदभाव की राजनीति से अछूते नहीं हैं।

संभवत: भारतीय समाज दुनिया में इकलौता ऐसा समाज है, जहाँ पिछड़ेपन, वंचना को ग्लोरिफाइड एवं ग्लैमराइज किया जाता है। उस जातिवाद में भी धर्म का तड़का अलग ही है। अयोध्या बलात्कार कांड में आरोपी सपा का नेता मुसलमान है, इसलिए न कोई कांग्रेस-सपा का पिछड़ा नेता पहुँचा और न ही भीम आर्मी के दलित मसीहा। क्यों? क्योंकि यहाँ आरोपी कोई सवर्ण नहीं है। इसी तरह जब कोई सवर्ण अपराध करता है, तो भाजपा नेताओं में ख़ामोशी छा जाती है। यानी दोनों ही तरफ़ जातिवाद का समर्थन है। इसलिए भारत में जातिवाद छोड़कर एकता और एकतरफ़ा आपराधिक विद्रोह की कोई संभावना नहीं है। न ही पिछड़ा-अल्पसंख्यक राजनीतिक लामबंदी या दलित-पिछड़ा जातियों के ध्रुवीकरण की संभावना है। इसके साथ ही सभी पार्टियों को ज़्यादा जाति वाले गढ़ में उनकी नाराज़गी का डर रहता है, इसलिए कोई नहीं बोलता। मुसलमानों की नाराज़गी का भी ख़तरा किसी को कम नहीं है; ख़ासकर विपक्ष को ज़्यादा है।

वास्तव में देश में आरक्षण की सुविधा और सामाजिक न्याय को लेकर राजनीतिक दोमुहापन सदैव चरम पर रहा है। उदाहरणस्वरूप, अभी पिछले दिनों हुआ जब एससी / एसटी वर्ग के आरक्षण को संपन्न और सुविधा भोगियों (क्रीमिलेयर) द्वारा हड़पे जाने के विरुद्ध निर्णय देते हुआ सर्वोच्च न्यायलय ने 01 अगस्त 2024 को अनुसूचित जाति-जनजाति वर्ग के अंतर्गत वर्गीकरण को उचित माना। लेकिन उसके बाद सत्ता पक्ष और विपक्ष, सभी इस निर्णय के विरोध में खड़े हो गये और सबका साथ, सबका विकास के नारे वाली सरकार ने घोषणा कर दी कि वह इसे लागू नहीं होने देगी। क्या यह सामाजिक समानता के दावों का अपमान नहीं है? सरकार और विपक्ष समेत यह पूरी राजनीतिक जमात किस मुँह से बाबा साहेब अंबेडकर के सपने और सामाजिक उत्थान और समरसता के दावे करते हैं? लगातार कई पीढ़ियों से सुविधाभोगी अपने ही वर्ग के ग़रीबों की संवैधानिक सुविधाएँ छीन रहे हैं। वे इस क्रीमीलेयर को छोड़ना नहीं चाहते। यही कारण है कि पिछली कई पीढ़ियों से निचले तबक़ों के ग़रीब आज भी ग़रीब हैं। यह सिर्फ़ निचले तबक़ों में ही नहीं है, बल्कि सवर्णों में भी है। यहाँ भी अमीर सवर्ण ग़रीब सवर्णों का हक़ मारने में ज़रा भी संकोच नहीं करते। और ग़रीब सवर्णों से उसी तरह घृणापूर्ण व्यवहार तरते हैं, जैसा व्यवहार वे निचले तबक़े के ग़रीबों से करते हैं। इसी वजह से करोड़ों के संपत्तिधारी, जो उच्च शिक्षा लेने के अलावा विदेश से प्राप्त डिग्रियाँ होने के बावजूद पिछड़ा, दलित बनने में लगे हुए हैं। क्योंकि वे जानते हैं कि अमीर होने पर कोई भेदभाव नहीं रहता और जातिवाद के बंधन से लगभग सभी मुक्त हो जाते हैं।

जाति जनगणना की ओछी सोच भले ही क्षुद्र लाभ की रणनीति में प्रभावकारी दिखती हो; लेकिन व्यावहारिक दृष्टि से निकृष्ट ही है। यह मानसिकता लोगों को पिछड़ा, दलित बनाये रखने का कुत्सित षड्यंत्र है, ताकि समाज में जाति आधारित विभेद बना ही रहे। क्या किसी ने भी हासिये पर पड़े उस अन्तिम दलित, वंचित या किसी ग़रीब सवर्ण व्यक्ति से जानने की कोशिश की कि वह क्या सोचता है? क्या चाहता है? नहीं। क्योंकि इन्हें शुरू से ही अमीरों यानी कथित सम्भ्रांत वर्ग के पीछे खड़ा रहने वाला वोट बैंक माना गया है और मात्र राजनीतिक ग़ुलामी करायी गयी, जिसका चलन आज भी है।

विपक्ष की जाति जनगणना की माँग इस तर्क पर आधारित है कि इसके द्वारा प्राप्त आँकड़ों के आधार पर सरकारी नौकरियों में आरक्षण का प्रतिशत बढ़ाया जाए। लेकिन जातिगत जनगणना लुप्त हो रही जाति आधारित पहचान को और पुख़्ता करेगी। इससे सामाजिक टकराव उत्पन्न होगा, जिसका नकारात्मक असर लंबे समय तक राष्ट्रीय एकता पर पड़ेगा। कहने का तात्पर्य है कि आज जब बदलते युग के साथ जाति आधारित पहचान एवं सामाजिक रूढ़ियाँ दिनोंदिन शिथिल होती जा रही हैं, तब जाति जनगणना जातीय एवं वर्गीय विभाजन को मज़बूत करेगी। इससे अगले कई दशकों तक देश का सामाजिक जीवन विषाक्त कर देगा। असल में जाति आधारित एक ऐसा ज़हरीला कुण्ड है, जिससे नफ़रत का ज़हर निकलने के सिवाय कभी भी प्यार का अमृत नहीं निकलेगा।

हालाँकि आज के उग्र जातिगत ध्रुवीकरण के राष्ट्रव्यापी माहौल में ऐसे वैचारिक तर्क देना और सुनना, दोनों ही अपराध हैं। अब राजनीति के विघटनकारी उन्मादी माहौल में सामाजिक एकता के तर्क स्वीकृत नहीं किये जाते। इसलिए जाति जनगणना हो ही जानी चाहिए। इससे पिछड़ा वर्ग के आरक्षण पर हावी यादव, कुशवाहा, कुर्मी जैसी जातियों के तथा दलित वर्ग में मीणा, जाटव जैसी सशक्त जातियों के आरक्षण पर एकाधिकार की विवेचना ज़रूर हो सकेगी। जाति जनगणना से यह पता लगाना भी संभव होगा कि आख़िर 70 वर्षों में आरक्षण का लाभ सर्वव्यापी क्यों नहीं हुआ? किन जातियों ने आरक्षण की धार को अपनी सुदृढ़ राजनीतिक और सामाजिक प्रभुता के बूते बाधित कर रखा है? वैसे भी संविधान के अनुच्छेद-340 के तहत गठित रोहिणी आयोग (2017) की रिपोर्ट भी तैयार है और इसके लागू होते ही पिछड़ावाद के ध्रुवीकरण की मुहिम हमेशा के लिए ध्वस्त हो जाएगी। उसके बाद आरक्षण के लाभ के सबसे तीव्र एवं कटु संघर्ष पिछड़ा वर्ग की जातियों का आतंरिक ही होगा। यक़ीन मानिए, इसके बाद यही जाति जनगणना के मुरीद जातिवादी नेता और बौद्धिक जमात ही अपनी राजनीतिक साख और सम्मान बचाते दिखेंगे। तब देखना होगा कि इनके पास सामाजिक समानता एवं आरक्षण को उसके वास्तविक ज़रूरतमंदों तक पहुँचाने के पक्ष में इनके पास कितना तर्क शेष है?