कोलकाता के दो रहस्य कभी नहीं खुलेंगे. एक बाॅटनिकल गार्डन के वट वृक्ष का और दूसरा महाश्वेता देवी का. वट वृक्ष का हर एक तना मूल होने का अहसास देता है. लेकिन कहा जाता है कि उसका मूल (जड़) तो बहुत पहले आंधी-तूफान में गिर गया पर खासियत यह है कि उसकी दर्जनों शाखाएं मूल होने का अहसास देती हैं. उसी तरह महाश्वेता देवी का कद भी इतना बड़ा लगता था कि उनकी किस रचना और किस संघर्ष को उनके व्यक्तित्व का मूल माना जाए कह पाना कठिन है.
महाश्वेता देवी की देह भले ही 28 जुलाई, 2016 को निष्क्रिय हो गई हो लेकिन उनकी रचना और संघर्ष की शाखाएं हर जगह उनके होने और मूल की तरह होने का अहसास कराती हैं. जिस तरह बॉटनिकल गार्डन के उस वृक्ष की उम्र तय कर पाना कठिन है उसी तरह 91 वर्ष की आयु सीमा में महाश्वेता देवी के रचना कर्म को बांधा नहीं जा सकता. इस संसार में जब से मानवता का संघर्ष चल रहा है तब से महाश्वेती देवी हैं और जब तक चलेगा तब तक वे रहेंगी. वे वेद व्यास की तरह ही आदिम सभ्यता और आधुनिक सभ्यता के संघर्ष की गाथाकार हैं और इस संघर्ष में जब तक न्याय की विजय नहीं होगी तब तक उनकी प्रशाखाएं प्रस्फुटित होती रहेंगी और उनकी प्रेरणा से उनके जैसे रचनाकार, कार्यकर्ता, आंदोलन और रचनाएं जन्म लेती रहेंगी.
हिंदुस्तान अखबार ने जब महाश्वेता देवी से हर रविवार को कॉलम लिखवाने का निर्णय किया तब हिंदी की पहली महिला संपादक मृणाल पांडे चाहती थीं कि कोई बड़ा लेखक काॅलम लिखे क्योंकि पहले के स्तंभकार (संभवतः कमलेश्वर जी) के काॅलम बंद होने के बाद वह स्थान कमजोर पड़ रहा था. मृणाल जी के मन में ऐसी ही कोई बात थी और संयोग से मैंने महाश्वेता जी का नाम लेकर उनके मुंह की बात छीन ली. मेरे सुझाव को उन्होंने तत्काल मान लिया. मृणाल जी की मां और हिंदी की प्रसिद्ध लेखिका गौरा पंत शिवानी शांतिनिकेतन में महाश्वेता जी की सीनियर थीं और उस नाते उनका एक घनिष्ठ रिश्ता था.
इस संसार में जब से मानवता का संघर्ष चल रहा है तब से महाश्वेता देवी हैं और जब तक चलेगा तब तक वे रहेंगी. वे आदिम सभ्यता और आधुनिक सभ्यता के संघर्ष की गाथाकार हैं
पुराने साथी कृपाशंकर चौबे कोलकाता में हिंदुस्तान का प्रतिनिधित्व कर रहे थे. उनका भी महाश्वेता जी से प्रगाढ़ रिश्ता था. उन्होंने ‘महाअरण्य की मां’ शीर्षक से उनकी जीवनी लिखी है. कुल मिलाकर संयोग ऐसा बना कि महाश्वेता जी तैयार हो गईं और कृपाशंकर जी के अनुवाद के साथ मूलतः बांग्ला में लिखा जाने वाला उनका स्तंभ ‘परख’ हिंदी जगत में हिट हो गया. उससे हिंदुस्तान अखबार की साख बढ़ी. साथ ही हिंदी के कई लेखकों-पत्रकारों को उन्होंने अपने उस काॅलम में आशीर्वाद भी दिया, जिनमें केदार नाथ सिंह, नवीन जोशी और अरविंद कुमार सिंह जैसे नाम उल्लेखनीय हैं. इस कॉलम के माध्यम से उन्होंने कई ऐसे मुद्दे उठा दिए जिन पर उदारीकरण के लोभ में फंसा हमारा देश बात करने से घबराने लगा था. सिंगूर में टाटा की नैनो कार की फैक्टरी लगाए जाने के विरुद्ध विस्थापित होने वाले किसान भड़क उठे. वह दौर उदारीकरण का स्वर्ण युग था और भारतीय उद्योग जगत और उसका सहोदर कॉरपोरेट मीडिया वैश्वीकरण की उपलब्धियों का बखान करने से थकते नहीं थे. जो लोग प्रधानमंत्री डाॅ. मनमोहन सिंह की कड़ी आलोचना करते हैं, वे ही उनकी बल्ले-बल्ले कर रहे थे. उदारीकरण का प्रताप इतना तेज था कि राष्ट्रीय स्तर पर उसकी आलोचना करने वाली माकपा ने भी पश्चिम बंगाल की अपनी सरकार को उसी रास्ते पर डाल दिया था. बाजार को ध्यान में रखकर काम करने वाले मीडिया प्रबंधन और उसके इशारे पर चलने वाले पत्रकारों के कारण दिल्ली के मुख्यधारा के मीडिया में सिंगूर के किसानों के आंदोलन और उदारीकरण के बुरे प्रभावों पर टिप्पणी करना दुष्कर होता जा रहा था. महाश्वेता जी ने अपने कॉलम में वह बैरियर तोड़ दिया. उन्होंने पश्चिम बंगाल की वाम मोर्चा सरकार की कड़ी आलोचना की और किसानों के पक्ष में खड़ी हो गईं. विडंबना देखिए कि अखबार प्रथम पृष्ठ पर ‘नैनों में बस गई नैनो’ शीर्षक से टाटा की परियोजना के पक्ष में खबरें छाप रहा था और भीतर महाश्वेता जी के कॉलम में उसी की आलोचना हो रही थी. यह किसी अखबार की लोकतांत्रिक खूबसूरती होती है और काॅरपोरेट सीमाओं में भी वह प्रतिबद्धता मृणाल पांडे के संपादकीय व्यक्तित्व में दिखती थी.
महाश्वेता जी के कॉलम में सिंगूर जैसे बहुफसली क्षेत्र में टाटा की औद्योगिक परियोजना की आलोचना से मेरा साहस भी बढ़ा और मैंने संपादकीय पेज पर एक कड़ी किंतु विश्लेषणात्मक टिप्पणी लिख डाली. उन्हें वह टिप्पणी जंची और उसका बांग्ला अनुवाद भी करवाया और कोलकाता के बांग्ला पत्रों में प्रकाशित करवाया. फिर तो उन्होंने अपनी बांग्ला पत्रिका ‘वर्तिका’ के हिंदी संस्करण के संपादन का दायित्व भी मुझे दिया और उसका पहला अंक ‘सिंगूर-नंदीग्राम से निकले सवाल’ शीर्षक से प्रकाशित हुआ. उसके बाद खाद्य संकट की चुनौती, परमाणु करार के खतरे, माओवादी या आदिवासी, भ्रष्टाचार और अन्ना आंदोलन जैसे कई विषयों पर वर्तिका के अंक उनके साथ संपादित करने का सुअवसर मिला और उन सभी अंकों में वैश्वीकरण और उदारीकरण की कमियों और उसके खतरों की पड़ताल करके उसे हिंदी के पाठकों तक पहुंचाने का काम हुआ.
सिंगूर और नंदीग्राम के मुद्दे पर जब उन्होंने किसानों के आंदोलन में भागीदारी की उसी दौरान उनसे दिल्ली और कोलकाता में मिलना हुआ. उनसे मिलना उनकी ममता की बारिश में नहा लेने जैसा था. दोनों बार मैं परिवार और रिश्तेदारों के साथ मिला. उसी दौरान वे दिल्ली के सीआर पार्क की महिलाओं को मंच से सीख दे रही थीं कि तुम लोग साड़ी, गहना और सौंदर्य प्रसाधन पर बहुत खर्च करती हो, इससे कुछ हासिल नहीं होगा. बेहतर हो किताबें खरीदो और पढ़ो. गरीबों की मदद करो और समाज के अधिकार विहीन लोगों के लिए लड़ो. उनकी बातों से लगा कि वे उदारीकरण से उपजे भारतीय मध्य वर्ग को उसी तरह संबोधित कर रही हैं जैसे ‘1084वें की मां’ में सुजाता करती और भोगती है.
कोलकाता में उनके घर में जाकर देखा तो सब कुछ वैसा ही मिला जो वे मंच से कह रही थीं. एक आदिवासी परिवार सदस्य की तरह उनके घर में रह रहा था. उनके बेटे नवारुढ़ भट्टाचार्य और बेटे जैसा ही स्नेह पाने वाले कृपाशंकर चौबे के साथ चारपाई पर बैठकर मूढ़ी खा रहा था तभी एक बच्चा दादी मां कहते हुए अपनी काॅपी जंचवाने आ गया. उस बच्चे की काॅपी उन्होंने पूरे धैर्य के साथ जांची और आगे भी कुछ लिखने को दिया. बातचीत के दौरान उन्होंने खिड़की से बाहर बिजली के खंभों की ओर इशारा करके बताया कि नक्सलबाड़ी आंदोलन के दौरान इन्हीं के पास नौजवान खड़े रहते थे और उनसे छिप-छिपकर मिलते थे. उन युवकों ने अनुरोध किया कि हमारे लिए भी कुछ लिखिए. हमारा बहुत दमन हो रहा है. हमें फर्जी मुठभेड़ों में मारा जा रहा है. पुलिस हमारे पीछे पड़ी है. तब ‘1084वें की मां’ का सृजन हुआ. उनके वर्णन के साथ 1084वें की मां के अंतिम वाक्य सामने साक्षात उपस्थित हो गए- ‘कहां-कहां फिर से भागेगा व्रती? कहां भागेगा? कहां नहीं हैं हत्यारे, कहां नहीं है गोली, पुलिस-वैन और जेल? यह महानगरी, गंगापुत्र बंगाल में, उत्तर बंगाल में, जंगल, पहाड़, बर्फ ढंके प्रांत, राढ़ देश के कंकरीले बांध, सुंदर वन के खारे पोखर, वन, शस्य, खेत, कल-कारखाने, कोयला-खान, चाय-बागान, कहां-कहां भागेगा व्रती? कहां खो जाएगा फिर से? भाग मत व्रती, मेरे पास लौट आ, लौट आ व्रती, मत भाग अब.’
नक्सल आंदोलन से जुड़े युवकों ने अनुरोध किया कि हमारे लिए भी कुछ लिखिए. हमारा बहुत दमन हो रहा है. हमें फर्जी मुठभेड़ों में मारा जा रहा है. तब ‘1084वें की मां’ का सृजन हुआ
महाश्वेता देवी को देखकर मन में दो भाव जगते थे. एक तो यह कि एक लेखिका के तौर पर कितनी चमकदार उपलब्धियां हैं. क्या करिअर है इस लेखिका का, जिसकी लोकप्रियता अपार है और जिसकी झोली में पुरस्कार भरे हुए हैं. साहित्य अकादेमी, ज्ञानपीठ पुरस्कार और मैग्सेसे सम्मान. बस नोबेल बाकी है. संभवतः 2009 में उसकी भी चर्चा जोर-शोर से चली थी. ऊपर से कई बड़े नेता और उद्योगपति पैर छूते हैं. लेकिन दूसरी तरफ लगता था कि ये तो अग्निशिखा की तरह जलने वाली झांसी की रानी हैं जिन्हें इस बात की कोई फिक्र नहीं है कि उन्हें कौन-से पुरस्कार मिले और कौनसे न मिले. उन्हें तो अपने उन आदिवासियों की चिंता है जिसके लिए वे लिखती थीं और जिनके लिए जीती थीं. उन्हें अपने उन किसानों की चिंता थी जिनके संघर्ष में अस्सी पार करने के बाद भी उतर पड़तीं और इंसुलिन का इंजेक्शन लेकर सिंगूर और नंदीग्राम पहुंच जाती थीं, चाहे लौटकर अस्पताल में ही भर्ती होना पड़े. पुरस्कार तो अपने आप मिल जाता है. अगर उन्हें पुरस्कार चाहिए तो अपने आदिवासियों को देने के लिए. अगर प्रसिद्धि चाहिए तो अन्याय के विरुद्ध इस व्यवस्था पर दबाव बनाने के लिए. अगर संपर्क हैं तो किसी लाचार की मदद करने के लिए, आॅपरेशन ग्रीन हंट रुकवाने के लिए.
दरअसल महाश्वेता देवी का मन एक प्रकार से झांसी की रानी का मन था, जिसमें देशप्रेम, बहादुरी कूट-कूट कर भरी थी. उसमें ‘जिन्हें मैं झांसी नहीं दूंगी’ जैसा स्वार्थ देखना हो देखें लेकिन वे तो भारत के सतत विद्रोह की रणस्थली थीं, जिसमें बिरसा मुंडा के विद्रोह से लेकर सिंगूर और नंदीग्राम के विद्रोह तक की आग धधकती रही. वे साम्राज्यवाद के विरुद्ध विद्रोही मन हैं. वे सामंतवाद के विरुद्ध विद्रोही मन हैं. वे पूंजीवाद के विरुद्ध विद्रोह करने वाली चेतना हैं और वे उसके नए रूप उदारीकरण और वैश्वीकरण के विरुद्ध एक ललकार हैं.
1956 में ‘झांसी की रानी’ लिखने के बाद जब महाश्वेता देवी ने ‘जली थी अग्निशिखा’ लिखी तो उसमें अंग्रेज अधिकारी ह्यूरोज के मन के उस द्वंद्व को व्यक्त किया जो भारतीय नारी के लिए चल रहा होता है. ‘नहीं, समझा नहीं सका. रानी ने एक मनुष्य के रूप में मेरे मन को लंबे समय तक आस्थावान बनाए रखा है. कितनी परिस्थितियों में ही तो देखा है. बीच-बीच में लगता था कि मनुष्य उसकी बातों को समझेगा नहीं इसलिए घोड़ी के साथ बातें करती थीं. घोड़ी से तो इतना प्यार करती है, उसे रक्तपिशाच क्यों मानते हैं सभी लोग? ये लोग क्या समझेंगे? अंग्रेज स्त्रियों और बच्चों की हत्या रानी के नाम पर एक घृणास्पद अपराध है. लड़ाई होती है, हो किंतु उसके नाम के साथ किसी घृणित अपराध का कलंक लगा रहे, वही उसे सहन नहीं हो रहा है. उसी कारण बार-बार लिखा है. मृत्यु दंड से वह दंडित होगी यह जानकर भी लिखा है. किसी दिन क्या कोई सत्य बात लिखेगा नहीं?’
उन्हें उन किसानों की चिंता थी जिनके संघर्ष में 80 पार करने के बाद भी उतर पड़तीं और इंसुलिन लेकर सिंगूर और नंदीग्राम पहुंच जाती थीं, लौटकर भले अस्पताल में ही भर्ती होना पड़े
संभव है ह्यूरोज जैसा प्रश्न इस व्यवस्था का कोई हिमायती महाश्वेता देवी के बारे में करे. वैसा करने वालों में बुद्धदेब भट्टाचार्य भी हो सकते हैं. प्रकाश करात भी हो सकते हैं, सीताराम येचुरी भी हो सकते हैं. उनके अलावा ममता बनर्जी भी हो सकती हैं. यह प्रश्न करने वाले वे नक्सलवादी भी हो सकते हैं जिन्हें उनका स्नेह और आशीर्वाद मिला है. माकपा के लोग पूछ सकते हैं कि आखिर क्यों वामपंथी होते हुए महाश्वेता देवी ने पश्चिम बंगाल से वामपंथ का विनाश करने वाली ममता बनर्जी की राजनीति का समर्थन किया. ममता बनर्जी जिन्होंने महाश्वेता देवी का राजकीय सम्मान के साथ अंतिम संस्कार करवाया वे पूछ सकती थीं कि क्यों उन्होंने माओवादी किशन जी के मारे जाने पर पत्र लिखे और मनमुटाव कायम किया या उनके कई फैसलों का विरोध किया. इसी तरह माओवादी पूछ सकते हैं कि आखिर क्यों पश्चिम बंगाल में माओवाद पर ममता के दमनचक्र का डटकर विरोध नहीं किया या आदिवासियों और माओवादियों की हितैषी होते हुए भी उन्होंने राजकीय सम्मान के साथ अपना अंतिम संस्कार करने की मनाही क्यों नहीं की थी? माओवादी मैग्सेसे पुरस्कार पर भी आपत्ति कर सकते हैं और महाश्वेता जी के इंदिरा गांधी से लेकर तमाम राजनेताओं से संबंधों पर भी.
ये वे प्रश्न हैं जो किसी लेखक को पूरी तरह क्रांतिकारी या किसी क्रांतिकारी को पूरी तरह लेखक बनने से रोकते हैं. संभवतः किसी एक्टिविस्ट और लेखक का जीवन ऐसा ही होता है और इसी दायरे में वह समाज को संवेदनशील बनाने और व्यवस्था के भीतर आदिवासी, दलित, स्त्री और वंचित के हितों के लिए जगह बनाता है.
यह सवाल आदिवासियों के एक और हितैषी और उनके विकास के सिद्धांतकार डाॅ. ब्रह्मदेव शर्मा के बारे में भी लोग उठाते हैं. लोग कहते हैं कि डाॅ. ब्रह्मदेव शर्मा राजनीतिक कार्यकर्ताओं के बीच अफसर बन जाते थे और अफसरों के बीच राजनीतिक कार्यकर्ता. वे इमरजेंसी में इंदिरा गांधी के विश्वासपात्र अधिकारी थे. इसके बावजूद इस बात से कौन इनकार करेगा कि अनुसूचित जाति/जनजाति के आयुक्त के रूप में अपनी 28वीं और 29वीं रपट में दलितों और आदिवासियों की स्थिति रखते हुए उन्होंने नर्मदा आंदोलन खड़ा करने में, मोर्स बर्गर कमेटी की रपट तैयार करवाने में, भूरिया कमेटी की रपट बनवाने में और पेसा कानून का मसविदा तैयार करवाने में अपना अमूल्य योगदान दिया.
लेकिन चाहे ब्रह्मदेव शर्मा हों या महाश्वेता देवी वे बिरसा तो नहीं हैं. वे जंगल के दावेदार के वकील जैकब हो सकते हैं या अमलेश बाबू? या इससे ज्यादा कहें तो बेरियर एल्विन? शायद आदिवासियों की तरफ से देखें तो वे और ज्यादा लगें लेकिन दूसरी तरफ से देखें तो वे अमलेश बाबू की तरह कहीं से निराश लगते हैं. क्योंकि बाद में ब्रह्मदेव शर्मा कहते थे कि ताकत नहीं है, नहीं तो बंदूक उठा लेता. उसी तरह महाश्वेता देवी के अंतिम दिनों की क्या पीड़ा थी यह तो वे ही जानें या अंतिम दिनों में लिखी गई उनकी रचनाएं. क्योंकि ममता बनर्जी मां, माटी, मानुष के जिस सपने के साथ आई थीं और जिस नारे को गढ़ने में महाश्वेता जी का योगदान था वह पूरा नहीं हुआ. बल्कि छला गया.
तभी ‘जंगल के दावेदार’ के अमलेश बाबू बिरसा के मरने पर और आदिवासियों का मुकदमा खत्म होने के बाद कहते हैं, ‘उसके बाद मैंने नौकरी से इस्तीफा दे दिया.’ जैकब पूछता है, ‘क्यों?’
वे जवाब देते हैं, ‘क्यों, यह क्या मुझे भी खुद खाक-धूल पता है? मैं इसी शिक्षा व्यवस्था, समाज-व्यवस्था का आदमी हूं. यह व्यवस्था न तो देती है मौलिक अधिकार, न सिखाती है विवेक-बोध. मुंडा विद्रोह के मामले में बंगाली किरस्तान अमूल्य अब्राहम को क्यों तकलीफ होती है? क्यों मुकदमे के खत्म होने पर मैंने नौकरी छोड़ दी.’
‘मुझे अब और कुछ छोड़ने को नहीं रहा. मैं अब और कुछ कर नहीं सकता. मेरी उंगलियां कितनी पतली हैं. चमड़ा कितना मुलायम है. मैं न तो तीर छोड़ सकता हूं और न ही जानता हूं बलोया चलाना. मैं इतना ही कर सकता था. बाकी जीवन तुम्हें समझने की कोशिश करूंगा. तुम कौन हो? तुम समय से पहले पैदा हुए थे या समय ने तुम्हें पैदा किया था? तुम्हारा आंदोलन क्या था? मुंडा लोग क्या जंगल पर कभी अधिकार पा सकेंगे? उनके जीवन से महाजन, बनिया, जमींदार, जोतदार, हाकिम, अमले-थाना, बेगारी के पत्थरों का-सा भार तभी उतर पाएगा?’
उन्हें उन किसानों की चिंता थी जिनके संघर्ष में 80 पार करने के बाद भी उतर पड़तीं और इंसुलिन लेकर सिंगूर और नंदीग्राम पहुंच जाती थीं, लौटकर भले अस्पताल में ही भर्ती होना पड़े
ये गंभीर सवाल हैं जिनका जवाब महाश्वेता देवी अपने अगले उपन्यास ‘चोट्टि मुंडा और उसका तीर’ में देने की कोशिश करती हैं. इमरजेंसी में बेगार प्रथा समाप्त कर दी जाती है. लेकिन उसके लागू होने में पहले की तरह अड़चनें हैं. जो कांग्रेसी थे वही बाद में जनता दली बन जाते हैं और दमनकारी सामंतों और हाकिमों का गठजोड़ जस का तस रहता है. आखिर चोट्टि मुंडा जो स्वयं बेगार नहीं है लेकिन बिरसा के साथ लड़ने और घातक धनुर्धर होने के कारण पाबंदी झेल रहा है उसे तीर चलाना पड़ता है.
महाश्वेता देवी एक लेखिका और सामाजिक कार्यकर्ता के तौर पर आदिवासियों को वे सारे अधिकार दिलाने के लिए सक्रिय रहीं जो उन्हें मिलना चाहिए और जिसके लिए वे डेढ़ सौ साल से संघर्ष कर रहे हैं. उसके लिए वे कलम भी उठाती थीं और सड़क पर उतरती थीं. उनकी ताकत बड़ी थी तो उनकी पीड़ा भी छोटी नहीं थी. सारा जीवन किराये के मकान में रहना. पति विजन भट्टाचार्य का उन्हें त्याग कर अपर्णा सेन के साथ रहने चले जाना, असीत गुप्ता के साथ डेढ़ साल के लिए रहना, बेटे नवारुढ़ भट्टाचार्य से पहले मनमुटाव हो जाना और फिर उनके जीते जी नवारुढ़ का कैंसर से देहांत. यह सब अग्निपरीक्षा ही है किसी स्त्री के जीवन की. फिर भी अपने समय से खिड़की के पास रखे कुर्सी-मेज पर नियमित लिखने के लिए बैठ जाना. न कोई एसी और न ही कंप्यूटर. 14 जनवरी को जन्मदिन की बधाई देने के लिए फोन करो तो कहती थीं, ‘अरुण अब और कितने दिन हमें जिंदा रखना चाहते हो.’ भरपूर जीवन जीने का संतोष भी था तो गरीबों और मजलूमों को पूरा हक न मिलने का अधूरापन भी. वे एक महासमर में थीं, जिसमें उन्होंने लेखकों और कलमजीवियों को समाज के पक्ष में खड़े होने की प्रतिबद्धता दी और कौशल सिखाया. उन्होंने आदिवासियों और किसानों को लड़ाई लड़ना और जीतना भी सिखाया. उन्होंने युद्ध जीते और विजय दिवस भी मनाए. लेकिन उन्हें मालूम था कि वे महासमर में हैं इसलिए लड़ाई अभी जारी है. वे अपने पीछे लंबी लड़ाई छोड़ गई हैं जिसे इस सभ्य समाज को अपनों से लड़ना ही होगा.