यूं ही लुढ़क जाएगी गर्दन
सबसे ज्यादा दुख सिर्फ चश्मे को होगा
खो जाएगा उसका चेहरा
अपनी कमानियों से ब्रह्मांड को जैसे तैसे थामे
और
य र ल व श व ल र य
अभी धुआं है
अभी आग है
अभी खाक है
थोड़ा तो वक्त लगेगा संयत होने में, अलविदा
कवि, शिक्षक व पत्रकार वीरेन डंगवाल नहीं रहे. मेरी समझ से उन्हें एक अपराजेय कवि के रूप में याद किया जाना चाहिए, जिनकी कविताएं 90 के दशक के बाद कड़े प्रतिरोध के साथ मनुष्यता के हक में खड़ी हुईं और जनआंदोलनों में गाई गईं. अभी पांच सितंबर की ही बात है. गांधी शांति प्रतिष्ठान, दिल्ली में जन संस्कृति मंच की ओर से वीरेन डंगवाल की कविताओं का पाठ रखा गया था. लंबे समय से कैंसर से जूझ रहे वीरेन दा वहां कैसे पहुंचेंगे इसमें संशय था लेकिन वे पहुंचे. अपनी कविताएं सुनाईं हालांकि पूरी न सुना सके. बीच में आवाज बैठने लगी तो किसी और ने उस कविता को पूरा किया. यह उनका आखिरी कार्यक्रम होगा किसी को नहीं मालूम था.
उस वक्त वीरेन दा किसी तरह बरेली जाना चाहते थे. उनकी जिद थी. अपने शहर पहुंचने की. वे दिल्ली में मरना नहीं चाहते थे. हुआ भी यही. बरेली आए तो उसके दूसरे दिन फिर से बीमार पड़े. मेडिकल काॅलेज में भर्ती कराया गया तो सुधार भी हुअा, लेकिन वहीं सोते वक्त उनकी सांसें थम गईं. वो चेहरा चला गया जो चश्मे को थामे था, अपनी कमानियों से, अलविदा… अभी संयत होने में थोड़ा वक्त लगेगा. इससे पहले इसी साल फरवरी माह में इसी हालत में वीरेन दा दिल्ली के प्रगति मैदान में लगने वाले विश्व पुस्तक मेले में जाकर अपनी कविताएं सुना आए थे. यह उनके अंदर के बैठे कवि का संघर्ष था, जो लगातार फासिज्म के खिलाफ लड़ता रहा. यही उनके कवि होने की ताकत थी. वीरेन डंगवाल ऐसे वक्त के कवि थे, जब कविता की मौत पर मसौदे पास किए जा रहे थे. सब कुछ गड्ड-मड्ड होकर एक अंधेरी सुरंग की तरफ बढ़ रहा हो और आगे रोशनी का एक कतरा भी दिखाई न दे. ऐसे वक्त में जब मनुष्यता पर संकट खड़ा हो, हमारे असभ्य और बर्बर होते जाने की खबरें रोजाना तैर रही हों, तब उनकी कविता हमें किसी लालटेन की तरह उम्मीदों के उजास से भर देती है.
2001 में शाहजहांपुर में मैंने उन्हें ‘कविता और हमारा समय’ नाम की एक गोष्ठी में हिस्सा लेने के लिए बुलाया था. सवाल कविता के भविष्य का उठा तो उन्होंने मुझसे कहा था, ‘हमारे समय में कविता को आस्वादों की कमी के संकट से गुजरना पड़ रहा है. यह संकट सभी कलाओं के सामने है लेकिन हिंदी कविता से तो पाठक बहुत दूर चले गए.’ उन्होंने उस वक्त निराला को याद किया था और कहा था, ‘पिछले साठ सालों में कविता ने भी पाठक से अपना दामन छुड़ाने का काम किया है.’ हालांकि वे यह मानते थे कि वैचारिक रूप से कविता मजबूती से सांप्रदायिकता और बाजार के खिलाफ खड़ी है. वे कहते भी थे, ‘वैश्वीकरण भाषाओं, संस्कृतियों और कविता का शत्रु है. उसका स्वप्न एक ऐसी मनुष्यता है, जो उसी के गांव में बसती है, उसी की तरह रहती, सोचती, पहनती है. एक रासायनिक संस्कृति बोध से लैस इस वैश्विक मनुष्यता का आदर्श भी अंतर्राष्ट्रीयवाद है. जीवन की अनुकृति बनाने वाली कविता उसे रास नहीं आती है.’ ऐसे वक्त में उन्होंने उम्मीद की कविता रची.
आकाश उगलता अंधकार फिर एक बार/संशय विदीर्ण आत्मा राम की अकुलाती/होगा वह समर, अभी होगा कुछ और बार/तब कहीं मेघ ये छिन्न भिन्न हो पाएंगे/आएंगे, उजले दिन जरूर आएंगे!
युवा कवि अमृत सागर के अनुुुसार, ‘प्रतिरोध के कवि वीरेन डंगवाल ने 1970-75 के दौर में ही खौफनाक बिम्बों को बेखौफ तरीके से पकड़ते हुए अपनी कविता ‘राम सिंह’ में जो कुछ कहा, वह नसों को पिघलाने के लिए काफी है.’ वीरेन दा की कविताओं में यह समय दर्ज है. बेहद आम भाषा में नए बिंबों में गढ़ी गई उनकी कविताई उन्हीं की तरह सहज है. एक बात और उनके जैसा इंसान होना मुश्किल काम है इसीलिए उनके जैसी कविताएं भी अब शायद लिखी जा सकें. उनके सबसे करीबी मित्र मंगलेश डबराल के शब्दों में, ‘वीरेन के जीवन पर यह बात पूरी तरह से लागू होती थी कि एक अच्छा कवि पहले एक अच्छा मनुष्य होता है.’ तमाम जिंदगियों को वह पटरी पर ले आए. हमेशा आगाह करते रहे आसन्न खतरों से. खबर संपादित कर रहे होते तो बेटियों को समाज में बैठे भेड़ियों से आगाह करते थे. हमारे जैसे नौसिखियों को आगाह करते थे. हम उन्हें जीने की उम्मीद से लबालब कविताओं के लिए याद करेंगे. उन्हें ‘कटरी की रुकमिनी’ जैसी कविता के लिए याद करेंगे, जो न लिखी जाती तो हम समझ नहीं पाते कि रामगंगा किनारे लोकतंत्र सड़ांध मार रहा है और सामाजिक न्याय किस चिड़िया का नाम है.
2009 में लोकसभा चुनाव के दौरान एक फायर ब्रांड युवा नेता को ‘अमर उजाला’ में हद से ज्यादा तवज्जो दे दी गई थी. यह तवज्जो उसकी सीधी जय-जयकार थी. अखबार पहले पन्ने से अंदर तक रंगा हुआ था. वर्चस्ववादी राजनीति ने हिन्दी पत्रकारिता का दरवाजा खटका दिया था और यह किसी नए खतरे का संकेत था. शायद वे समझते थे इस बात को. उस दिन उन्हें बाबरी मस्जिद विध्वंस के दौरान कुछ अखबारों का चेहरा याद हो आया था जब सब कुछ हिन्दुुुत्व में बह गया, वे फिर भी ‘अमर उजाला’ को बचा ले गए थे, लेकिन उस दिन ‘अमर उजाला’ के संपादक के तौर पर वे आखिरी बार न्यूज रूम में आए. पहली बार उन्हें गुस्से में देखा था. वे चले गए तो फिर कभी नहीं लौटे.
बरेली काॅलेज से नौकरी पूरी करने बाद ‘डाॅ. डैंग’ (उनके कुछ दोस्तों का दिया नाम), जब विदा ले रहे थे तो उनको काॅलेज प्रबंधन की ओर से शाॅल और गीता भेंट की गई. गीता लेने से उन्होंने बड़ी सहजता से मना कर दिया. बोले, ‘गीता रहने दीजिए. अभी मैं मोह माया से मुक्त नहीं होना चाहता हूं. अभी भरपूर जीवन जीना है.’
मुझे लगता है कि उन्होंने अपने लिए कविता का मोर्चा चुना था. इसी मोर्चे पर वे जूझे. फिर भी उन्होंने हमारे जैसे नए पत्रकारों के लिए जमीन तैयार की. पता नहीं क्यों उन्हें भी लगने लगा था कि इन विचारों की जगह अब अखबारों में नहीं बची है. कई बार खबरों पर की गई बातचीत के बाद वे असहज हो जाते थे. यह वह दौर था जब खबरें बिकने लगी थीं और पैकेज तय होने लगे थे. बाजार के इस चेहरे से अनजान जो नए लोग पत्रकारिता में आते थे, वह कहीं बिला जाते थे. इसी तरह आम आदमी का चेहरा कहीं लोप हो रहा था, क्योंकि उसके बचाने की जिद पत्रकारिता में नहीं बची थी. मैंने उन्हें ऐसे खतरों से हमेशा नए पत्रकारों को आगाह करते देखा है. मेरे एक वरिष्ठ साथी राजशेखर ने उस दिन उनके न रहने की खबर सुनी तो बोले, ‘वीरेन दा के बाद हिंदी में संपादक नहीं रहे.’
‘अमर उजाला’ के दिनों में मैं बरेली काॅलेज की बीट कवर करता था और वे हिन्दी विभाग में व्याख्याता थे. शाम को वे मेरे संपादक होते थे. बरेली काॅलेज की खबरों को लेकर उनका ऐसा कोई हस्तक्षेप नहीं होता था, बल्कि उनकी ओर से पूरी आजादी थी. वे कहते थे, ‘खबर तुम्हारी है यार… रिपोर्टर तुम हो. जो लिखो सही-सही लिखना.’ मैं भी महसूस करता हूं कि उनके बाद हिंदी में ऐसा कोई संपादक नहीं बचा. एक ऐसा खालीपन है, जो कभी नहीं भरेगा. एक बार उन्होंने कहा था, ‘ये कविता-शविता के चक्कर में पड़ गए तो पत्रकार नहीं बन पाओगे बेट्टा… या फिर किस गधे ने तुमसे कह दिया पत्रकार बनने को.’ अपनी एक कविता में वे नए पत्रकारों के छद्म दंभ को ठेंगा दिखाते हुए जीवन का अर्थ समझाते भी हैं…
60 प्वाइंट, काली चीख
‘इतने मरे’
यह थी सबसे आम, सबसे खास खबर
छापी भी जाती थी
सबसे चाव से
जितना खून सोखता था
उतना ही भारी होता था अखबार
जीवन
किन्तु बाहर था
मृत्यु की महानता की उस साठ प्वाइंट काली
चीख के बाहर था जीवन
वेगवान नदी हहराता
काटता तटबंध
तटबंध जो अगर चट्टान था
तब भी रेत ही था
अगर समझ सको, तो महोदय पत्रकार
पांच अगस्त 1947 को टिहरी गढ़वाल के कीर्तिनगर में पैदा हुए वीरेन डंगवाल ने इलाहाबाद विश्वविद्यालय से हिन्दी में डीफिल किया. 1971 में बरेली काॅलेज के हिन्दी विभाग में प्रवक्ता बन गए. बाद में विभागाध्यक्ष भी रहे. वीरेन दा का पहला कविता संग्रह 43 की उम्र में ‘इसी दुनिया में’ नाम से आया. दूसरा संकलन ‘दुष्चक्र में सृष्टा’ नाम से 2002 में आया, जिसके लिए 2004 में उन्हें साहित्य अकादमी सम्मान मिला. कुछ दुर्लभ अनुवाद भी उनके खाते में दर्ज हैं, जिनमें पाब्लो नेरूदा, बर्टोल्ट ब्रेख्त, नाजिम हिकमत के अनुवाद काफी चर्चित हुए. अमर उजाला, बरेली और कानपुर संस्करण के संपादक रहे. 2010 में बरेली काॅलेज से नौकरी पूरी करने बाद ‘डाॅ. डैंग’ (उनके कुछ दोस्तों का दिया नाम), जब विदा ले रहे थे तो उनको काॅलेज प्रबंधन की ओर से शाॅल और गीता भेंट की गई. गीता लेने से उन्होंने बड़ी सहजता से मना कर दिया. बोले, ‘गीता रहने दीजिए. अभी मैं मोह माया से मुक्त नहीं होना चाहता हूं. अभी भरपूर जीवन जीना है.’ लेखक सुधीर विद्यार्थी कहते हैं, ‘यह उनकी जिजीविषा ही थी कि बीमारी के दौरान उन्होंने अपनी सबसे सुंदर कविताएं लिखीं.’
ऐसे ‘डाॅ. डैंग’ को सलाम.