प्रख्यात नाटककार, कथाकार, जाने-माने संस्कृतिकर्मी और चिंतक मुद्राराक्षस का बीते 13 जून को लखनऊ में देहावसान आज के इस आक्रांता समय में हिंदी समाज के एक बुलंद प्रतिरोधी स्वर का मौन हो जाना है. दरअसल मुद्राराक्षस मात्र एक लेखक न होकर एक ऐसे सार्वजनिक बुद्धिजीवी थे जो हाशिये के समाज के मुद्दों, मुहिम और संघर्षों के सक्रिय सहभागी थे. मार्क्सवाद, लोहियावाद और आंबेडकरवाद से अपनी वैचारिक मनोभूमि निर्मित करते हुए उन्होंने अंततः अपने व्यक्तित्व को ‘आॅर्गेनिक इंटलेक्चुअल’ की जिस भूमिका में ढाला था वह उनका अपना चयन था. यह करते हुए बिना किसी बड़े ओहदे और कुलीन विरासत के मुद्रा जी ने हिंदी के वृहत्तर समाज में अपनी जो गहरी पैठ बनाई थी वह विरल है. विवाद, आमने-सामने की मुठभेड़, महानताओं का मर्दन, सत्ता-प्रतिष्ठान का प्रतिपक्षी होना उनके व्यक्तित्व की कुछ खास विशेषताएं थीं. अज्ञेय, दिनकर से लेकर धर्मवीर भारती और नामवर सिंह तक से वैचारिक समर करते हुए उन्होंने कुलीन संस्कृति और सुखासीन समाज का जो प्रतिपक्ष रचा वह उनकी मौलिकता थी. आज से 55 वर्ष पूर्व 1961 में जब मुद्रा जी मात्र 27 वर्ष के युवा थे तब डॉ. नामवर सिंह ने अपने एक पत्र में उन्हें लिखा था, ‘आपमें ‘प्रतिभा’ है, इसे कई लोग मानते हैं, लेकिन ‘प्रतिभा’ की अपनी व्याधियां भी होती हैं. भुवनेश्वर भी तो ‘जीनियस’ थे. उग्र भी किसी समय ‘जीनियस’ कहे जाते थे. इसलिए जब किसी को ‘जीनियस’ कहलाते देखता हूं तो अंदर ही अंदर आत्मा कांप उठती है. किसी युवक की कलम से उग्रता और तीक्षणता देखकर प्रायः लोग उसे ‘जीनियस’ की संज्ञा प्रदान करते हैं ताकि जल्द ही उस तेज धार पर वह स्वयं कट मरे. एक मित्र के नाते मेरा आपसे अनुरोध है कि आप हमेशा के लिए नहीं तो कुछ दिनों के लिए ही सही सामाजिक विकृतियों के उद्घाटन का मसीहाई बाना उतार दीजिए. कलकत्ता आप छोड़ेंगे नहीं, मैं कहूंगा भी नहीं… लेकिन ऐसा लगता है कि कलकत्ते की ही कुछ खूबी है जो हिंदी के सशक्त लेखकों को ‘जीनियस’ बना देता है.’ यहां डॉ. नामवर सिंह के पत्र के अंतर्निहित संकेत मुद्रा जी के व्यक्तित्व को समझने की कुंजी है.
मुद्राराक्षस के ‘जीनियस’ होने का जो संकेत डॉ. नामवर सिंह के इस पत्र में संकेतित है वह उस दौर के कलकत्ता की पृष्ठभूमि पर लक्षित है जो उन दिनों राजकमल-मलयराय चौधरी की मंडली के प्रतिष्ठान विरोधी और नकारवादी आंदोलनों का गर्भगृह थी. अपनी चर्चित कविता ‘मुक्तिप्रसंग’ में राजकमल चौधरी ने मुद्रा जी को संदर्भित भी किया है. हालांकि लखनऊ छोड़ने के पूर्व ही मुद्रा जी ने अपने साहित्यिक जीवन के पहले ही लेख द्वारा अज्ञेय के ‘तारसप्तक’ को अमेरिकी प्रयोगवादी कवियों के संग्रह ‘एक्सपेरिमेंटल राइटिंग इन अमेरिका’ की नकल सिद्ध करके जिस तरह से ध्वस्त किया था उससे उनके ‘जीनियस’ होने का प्रमाण समूचे हिंदी जगत को मिल गया था. मुद्राराक्षस के शिक्षक उस दौर के प्रख्यात आलोचक व दर्शनशास्त्रवेत्ता डॉ. देवराज ने अपनी पत्रिका ‘युगचेतना’ में उस लेख को मुद्रा जी के वास्तविक नाम सुभाष चंद्र आर्य के नाम से न प्रकाशित करके छद्मनाम ‘मुद्राराक्षस’ के साथ प्रकाशित किया. यह लेख इतना चर्चित और विवादित हुआ था कि डॉ. देवराज द्वारा प्रदत्त छद्मनाम ही ‘मुद्राराक्षस’ के वास्तविक नाम के रूप में स्वीकृत हो गया. कलकत्ता में ‘ज्ञानोदय’ में सहायक संपादक की नौकरी के बाद जब वे साठ के दशक के अंतिम वर्षों में आकाशवाणी की नौकरी के सिलसिले में दिल्ली बसे तो ‘नकारवादी’ मुहावरे के बावजूद उनकी वैचारिकता सकारात्मक मूल्य चेतना से युक्त हो चुकी थी. अमेरिकी साम्राज्यवाद विरोधी वियतनामी संघर्ष और नक्सलवादी संघर्ष चेतना से स्वयं को संबद्ध करते हुए उन्होंने जो सत्ता विरोधी राह चुनी उसकी अंतिम परिणति हाशिये के समाज की जिस उग्र पक्षधरता में हुई वह उनका व्यक्तित्वांतरण सरीखा था. दलित समाज और बुद्धिजीवियों के बीच उनकी जो स्वीकार्यता और लोकप्रियता थी वह अभूतपूर्व थी. यद्यपि वे स्वयं जन्मना दलित नहीं थे लेकिन दलित और आंबेडकरवादी संगठनों ने उन्हें ‘शूद्राचार्य’ और ‘आंबेडकर रत्न’ की उपाधि और सम्मान से विभूषित किया था.
मुद्रा जी जिस नैतिक आभा और स्वाभिमान के साथ जिए वह हिंदी समाज में विरल है. वे जैसे थे अद्वितीय थे. नाम के छद्म के अतिरिक्त उनका समूचा जीवन एक खुली किताब था
लखनऊ में उनकी शवयात्रा के दौरान ‘जय भीम’, ‘लाल सलाम’ और ब्राह्मणवाद-साम्राज्यवाद विरोधी नारे जिस ओज और बुलंदी के साथ लगे वह किसी गैर-दलित लेखक के लिए संभवतः पहली बार था. मुद्राराक्षस के व्यक्तित्व में मार्क्सवाद और आंबेडकरवाद का जो सम्मिश्रण था उसकी भरपूर बानगी इस अवसर को यादगार बना रही थी. यह दृश्य मगहर में कबीर की भी याद दिला रहा था क्योंकि जहां मुद्रा जी के मार्क्सवादी मित्र और प्रशंसक उनकी नास्तिकता के अनुकूल बिना किसी कर्मकांड के उन्हें अंतिम विदा देना चाहते थे वहीं कुछ दलित बुद्ध अनुयायी बौद्ध रीति का भी निर्वहन करना चाहते थे और उन्होंने किया भी. इस तरह अपने अंतिम प्रयाण में भी ‘लाल सलाम’ और ‘जय भीम’ के नारों के बीच मुद्रा जी लाल और नीले की एकता का सूत्र पिरोकर गए.
यह कहना अतिशयोक्ति न होगा कि दलित समाज और संगठन मुद्राराक्षस को अपने अघोषित बौद्धिक प्रवक्ता के रूप में मानते थे. ‘हिन्दू धर्मग्रंथों का पुनर्पाठ’ उन्होंने जिस बेबाकी और नए तर्कों के साथ किया वह उनके गहन अध्ययन और बौद्धिक मेधा का परिचायक था. समाज के सर्वाधिक शोषित मुसहर समुदाय पर केंद्रित उनका उपन्यास ‘दंडविधान’ तब प्रकाशित हुआ था जब हिंदी में दलित विमर्श शुरू भी नहीं हुआ था. उग्र हिंदू सांप्रदायिकता पर डेढ़ दशक पूर्व लिखित उनकी कहानी ‘दिव्यदाह’ तो जैसे आज की स्थितियों का पूर्वकथन ही हो. अपने विपुल वैचारिक और साहित्यिक लेखन के माध्यम से मुद्रा जी ने हिंदी की मुख्यधारा के वैचारिक और साहित्यिक चिंतन की रिक्तियों की जो भरपाई की वह उनका अप्रतिम योगदान है.
अपने समूचे व्यक्तित्व और कृतित्व में मुद्राराक्षस वाद-विवाद-संवाद के ज्वलंत उदाहरण थे. वामपंथी होने के बावजूद वे वामपंथ की सीमाओं को उजागर करने और उस पर बहस करने में कभी संकोच नहीं करते थे. अपने अंतिम उपन्यास ‘अर्धवृत्त’ में जहां उन्होंने उग्र हिंदू सांप्रदायिकता को ‘हिंदू कसाईबाड़े’ के रूप में प्रस्तुत किया है वहीं वामपंथ की दलित ‘दृष्टिबाधा’ को भी लक्षित किया है. कई बार वे बौद्धिक अतिवाद को भी अपनी तर्क पद्धति में अपनाने से पीछे न रहते थे. जब दलित लेखकों के एक वर्ग ने प्रेमचंद को खारिज करने का अभियान शुरू किया तब मुद्रा जी ने प्रेमचंद के विरुद्ध जो तर्क दिए उससे प्रगतिशील लेखकों का बड़ा समूह उनसे अप्रसन्न हुआ, लेकिन मुद्रा जी इससे बेपरवाह अपने तर्कों पर अंत तक कायम रहे. मुद्रा जी के व्यक्तित्व की सबसे बड़ी विशेषता थी किक वे बौद्धिक असहमति का सम्मान करते थे. उनसे कटुता की सीमा तक असहमत होते हुए भी मैत्रीपूर्ण संबंध रखे जा सकते थे. वर्ष 2005 में जब उन्होंने प्रेमचंद की 125वीं जयंती के अवसर पर एक दलित लेखक संगठन द्वारा ‘रंगभूमि’ को जलाने और प्रेमचंद को दलित विरोधी सिद्ध करने के अभियान का समर्थन किया तो मेरी उनसे तीव्र असहमति हुई. मैंने उन दिनों ‘कुपाठ और विरोध के शोर में प्रेमचंद’ और ‘प्रेमचंद के निंदक’ शीर्षक दो लंबे लेख लिखे जो मुद्रा जी के तर्कों की काट ही नहीं करते थे बल्कि ध्वस्तकारी भी थे. मेरे उस लेख से मुद्रा जी आहत तो अवश्य हुए थे लेकिन जब उनकी 75वीं वर्षगांठ के अवसर पर एक पत्रिका ने अपना अंक केंद्रित किया तो उन्होंने शर्त रखी कि पत्रिका में मेरे द्वारा लिखित वह ध्वस्तकारी लेख जरूर शामिल किया जाए. मुद्रा जी द्वारा असहमति और विरोध का यह सम्मान सचमुच विरल था.
वीपी सिंह की मौजूदगी वाले एक जलसे में सुरक्षा जांच किए जाने के बाद नाराज मुद्रा जी ने कहा, ‘जिस दल के नेता को मुझसे ही सुरक्षा का खतरा है, उस दल में रहने का क्या अर्थ!’
मुद्राराक्षस के लिए आपातकाल उनकी रचनात्मकता का ही नहीं बल्कि जीवन का भी नया प्रस्थानबिंदु था. उन्हें अपने व्यवस्था विरोधी विचारों के चलते आकाशवाणी की नौकरी के साथ-साथ दिल्ली भी छोड़नी पड़ी थी. लखनऊ में उनकी घरवापसी एक लेखक और संस्कृतिकर्मी के रूप में उनका पुनरोदय भी थी. ‘मरजीवा’, ‘तिलचट्टा’ और ‘तेंदुआ’ सरीखे पश्चिम की ‘एब्सर्ड’ नाट्य-विधा और ‘मेरा नाम तेरा नाम’ सरीखे उपन्यास के आक्रामक हवाई मुहावरे को तिलांजलि देकर यह उनके नए रचनाकार व्यक्तित्व के पुनराविष्कार का वह समय था जब उन्होंने ‘हम सब मंसाराम’, ‘शांतिभंग’ और ‘दंडविधान’ सरीखे उपन्यास लिखे और विपुल वैचारिक लेखन किया. आपातकाल की पृष्ठभूमि पर केंद्रित उनका उपन्यास ‘शांतिभंग’ सत्ता के निरंकुश स्वरूप को बेपर्दा करने के साथ-साथ सामान्यजन की जिजीविषा और संघर्ष चेतना को भी लक्षित करता है. यह अनायास नहीं है कि उत्तर आपातकाल के ही इस दौर में उन्होंने दलित, स्त्री और अल्पसंख्यक के मुद्दों को अभियान की हद तक वैचारिक और रचनात्मक स्वर प्रदान किए. उन्होंने अपने इस दौर के लेखन में हिंदी साहित्य की प्रभुत्वशाली धारा और समृद्ध समाज को हाशिये के लोगों की निगाह से देखने का जो जतन किया उसने जहां दलित समाज के बौद्धिकों और सामान्य पाठकों के बीच उन्हें चर्चित और लोकप्रिय बनाया वहीं सत्ता प्रतिष्ठान, अभिजन समाज और प्रभुत्वशाली लेखकों के कोपभाजन के भी वे शिकार हुए. इस सबसे आह्लादित और विचलित हुए बिना साम्राज्यवाद, सांप्रदायिकता, सामंतवाद और अभिजनवाद का सतत विरोध एवं उसके बरक्स परिवर्तनकामी प्रगतिशील मूल्य चेतना उनके समूचे वैचारिक चिंतन का मूल आधार रही. उन्होंने अपनी वैचारिक निष्पत्तियों द्वारा धर्म, पूंजी, साम्राज्यवाद और वर्णाश्रमी-जातिश्रेष्ठता के अंतर्संबंधों का खुलासा जिस सहज पदावली में किया उससे उनकी सामान्य पाठकों में गहरी पैठ बनी. अखबारों-पत्रिकाओं में उनके लेखों और स्तंभों का बड़ा पाठक वर्ग था. समसामयिक मुद्दों पर वे जिस तीखे, बेलाग और प्रहारात्मक शैली में लिखते थे उससे उनकी जो जनपक्षधर, निडर, साहसिक और सत्ता विरोध की बौद्धिक छवि बनी वह उनके व्यक्तित्व की अलग पहचान थी.
संभवतः मुद्राराक्षस हिंदी के उन गिने-चुने लेखकों में थे जिनका देश के शीर्ष बुद्धिजीवियों और राजनेताओं से एक साथ संवाद रहा था. आकाशवाणी की ट्रेड यूनियन के गठन और नेतृत्व के दौरान वे शीर्ष कम्युनिस्ट नेता श्रीपाद अमृत डांगे के संपर्क में आए तो डॉ. राममनोहर लोहिया का सानिध्य उन्हें दिल्ली के काफी हाउस व गुरुद्वारा रकाबगंज के नजदीक लोहियाजी के निवास की बैठकी और समाजवादी पत्रिकाओं ‘जन’ और ‘मैनकाइंड’ में लेखन के दौरान मिला. उत्तर आपातकाल के जनता दल के शासन के दौरान वे पूर्व प्रधानमंत्री विश्वनाथ प्रताप सिंह के संपर्क में आए और कुछ समय तक स्थानीय जनता दल के अध्यक्ष भी रहे. लेकिन एक बार हुआ यह कि लखनऊ में जनता दल के एक जलसे में विश्वनाथ प्रताप सिंह आए हुए थे, मुद्राराक्षस को आयोजन की अध्यक्षता करनी थी. पूर्व प्रधानमंत्री की उपस्थिति के चलते आयोजन में शिरकत करने वालों को मेटल डिटेक्टर से होकर गुजरना था. मुद्रा जी ने सुरक्षाकर्मियों को बताया कि उन्हें ही जलसे की अध्यक्षता करनी है लेकिन फिर भी उन्हें मेटल डिटेक्टर से होकर गुजरना पड़ा. सुरक्षा जांच के बाद मुद्रा जी ने कहा, ‘हो गई, सुरक्षा जांच. अब मैं वापस जा रहा हूं. जिस दल के नेता को मुझसे ही सुरक्षा का खतरा है, उस दल में रहने का क्या अर्थ!’ वापस होते मुद्रा जी पर विश्वनाथ प्रताप सिंह की भी निगाह पड़ी. लोग उन्हें रोकने के लिए दौड़े, लेकिन मुद्रा जी थे कि यह जा, वह जा और ओझल हो गए. उसके बाद जनता दल से भी उन्होंने मुक्ति पा ली. वे दो बार निर्दलीय उम्मीदवार के रूप में चुनाव भी लड़े एक बार लोकसभा का और दूसरी बार विधानसभा का. दोनों चुनावों में उनकी जमानत जरूर जब्त हुई लेकिन बाबा नागार्जुन, डॉ. नामवर सिंह से लेकर कुंवर नारायण तक उनके इस अभियान में शामिल हुए थे. जितना प्रचार प्रमुख राजनीतिक दलों के प्रत्याशियों को मिला था, उससे कुछ कम मुद्रा जी के हिस्से में नहीं आया था. हम सब उनके इस अभियान के सहभागी थे.
साहित्य, रंगमंच से लेकर राजनीति तक विस्तृत मुद्राराक्षस का वैविध्यपूर्ण व्यक्तित्व समय-समय पर विवादों और बहसों का केंद्र रहा, लेकिन उन्होंने कभी भी अपने व्यक्तित्व को उपेंद्रनाथ अश्क की तर्ज पर परचून की दुकान खोलने की नाटकीयता के साथ दयनीय नहीं बनाया. वे न कभी अपनी किताबों की सरकारी खरीद के लिए प्रयत्नशील हुए और न कभी पद, प्रतिष्ठा, पुरस्कार के लिए सरकार के मुखापेक्षी ही हुए, जबकि आजीविका का एकमात्र साधन स्वतंत्र लेखन होने के चलते उनकी स्थिति ‘रोज कुआं खोदने और पानी पीने’ सरीखी थी. सही अर्थों में उनके जीवन का प्रेरणा सूत्र ‘न दैन्यं न पलायन’ था. मुद्रा जी जिस नैतिक आभा और स्वाभिमान के साथ जिए वह हिंदी समाज में विरल है. स्वीकार करना होगा कि वे जैसे थे एकमात्र और अद्वितीय थे. नाम के छद्म के अतिरिक्त उनका समूचा जीवन एक खुली किताब था. उनकी अनुपस्थिति को समूचा हिंदी समाज लंबे समय तक महसूस करेगा. वे सचमुच योद्धा लेखक थे. उन्हें अंतिम सलाम!
(लेखक साहित्यकार आैैर आलोचक हैं)