न उत्तरदायित्व, न काम

पंडित प्रेम बरेलवी

संसार में हर व्यक्ति अपने नियत कर्म से बँधा होता है। लेकिन सत्ता मिलने पर अय्याशी करने वाले बहरूपिया राजनेता न उत्तरदायित्व निभाते हैं और कोई काम करते हैं। दिन भर सजना-सँवरना, इधर-उधर घूमना, लफ़्फ़ाजी करना, जनकल्याण की जगह सिर्फ़ अपने आकाओं और अपने लिए धन लूटना; बस यही ऐसे भारत के राजनेताओं की ज़िन्दगी का मक़सद हो चुका है। ऐसा नहीं कि भारत में इस प्रवृत्ति का कोई एक नेता है। ऐसे नेताओं की आज देश भर में भरमार है, जो अपने उत्तरदायित्व की नहीं, बल्कि चंदे और धंधे की ही चिन्ता करते हैं।

ऐसे नेता अपने अपराधों को भी जायज़ मानते हैं। दुर्भाग्य से इस प्रवृत्ति के नेताओं की संख्या इतनी ज़्यादा हो चुकी है कि अब उनके हाथों से सत्ता छीन पाना बहुत मुश्किल है। ये नेता निर्लज्जता से सरेआम झूठ बोलते हैं। मनमानी करके देश को विकट नुक़सान पहुँचा रहे हैं। पूँजीपतियों के राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय भ्रष्टाचार के मामलों को निजी मामला बता देते हैं। विपक्षी पार्टियों की सरकारों को गिराने और परेशान करने के लिए षड्यंत्र रचते हैं। पत्रकारों के सवालों से ऐसे बचने लगते हैं, जैसे मेहनत से कोई आलसी कामचोर बचना चाहता है। सवाल पूछे जाने पर भारत के लोकतंत्र, संस्कृति, दर्शन और वसुधैव कुटुंबकम् की भारतीय धारणा की दुहाई देते हुए भ्रष्टाचार के मामलों को भी निजी और पारिवारिक बता देते हैं। देश को तर$क्क़ी के रास्ते पर ले जाने से लेकर दुनिया भर में उसका मान-सम्मान और क़द बढ़ाने की ज़िम्मेदारी निभाने की जगह दलाली का काम करते हैं। नैतिक ज़िम्मेदारियाँ निभाने की जगह हास्यास्पद ज्ञान बघारते फिरते हैं। हर काम का आभार और वाहवाही लूटने में माहिर हैं और दुर्घटनाओं पर मुँह में इतना दही जमा लेते हैं कि संवेदना तक प्रकट नहीं करते। देश के ईमानदार अधिकारियों को धमकाकर और रिश्वतख़ोर अधिकारियों को रिश्वत खाने की छूट देकर उनसे मनचाहे काम कराते हैं।

हाल ही में जब ऐसी ही आपराधिक प्रवृत्ति के नेताओं पर रोक लगाने की सोच से जब अधिवक्ता अश्विनी कुमार उपाध्याय ने सर्वोच्च न्यायालय में याचिका लगाकर आपराधिक प्रवृत्ति के सांसदों, विधायकों और नेताओं के चुनाव लड़ने पर आजीवन प्रतिबंध लगाने और उनके आपराधों पर न्यायिक फ़ैसले जल्द-से-जल्द करने की माँग की, तो सत्ता में बैठे अपराधियों ने तुरंत अपने बचाव में केंद्र सरकार की तरफ़ से जवाब दाख़िल करवाकर अपना बचाव कर लिया। केंद्र सरकार की तरफ़ से जवाब आया कि न्यायिक समीक्षा की सीमाएँ होती हैं। न्यायालय क़ानून की प्रभावशीलता के आधार पर संसद के फ़ैसले को चुनौती नहीं दे सकता। अपराधों पर प्रतिबंध की अवधि संसद की नीति का हिस्सा है। इसे चुनौती देकर किसी अपराधी पर आजीवन (चुनाव लड़ने पर) प्रतिबंध थोपना सही नहीं होगा।

अपराधियों पर प्रतिबंध लगने की आहट से ही यह बचाव इसलिए किया जा रहा है, क्योंकि संसद से लेकर विधानसभाओं तक में अपराधी भरे पड़े हैं। इनकी हिम्मत इतनी बढ़ चुकी है कि ये न्यायालय को चुनौती दे रहे हैं। इन अपराधियों को यह हिम्मत आँख बंद करके जाति, धर्म, पार्टी के नाम पर लोकलुभावने वादों के झाँसे में आकर मतदान करने वालों ने दी है। इसी हिम्मत के दम पर ये लोग संविधान द्वारा प्रदत्त संसद की शक्तियों का दुरुपयोग कर रहे हैं और सर्वोच्च न्यायालय को एक प्रकार की धमकी दे रहे हैं कि वह इस मामले में दख़ल न दे। क्योंकि अपराध के रास्ते सत्ता तक पहुँचने वाले ये लोग इतने ताक़तवर हो चुके हैं और बहुमत में हैं कि हर प्रकार की मनमानी पर उतारू हैं। अपराधियों के लिए राजनीतिक पक्ष की क़ानूनी अवधारणा इतनी कमज़ोर और सस्ती हो चुकी है कि कोई भी शातिर अपराधी संसद की सीढ़ियाँ आसानी से चढ़ जाता है। जो जितना बड़ा शातिर अपराधी होता है, वह उतनी ही बड़ी सत्ता पा जाता है। लेकिन इसमें सिर्फ़ जनता का ही दोष नहीं है, बल्कि कौड़ियों के भाव ईमान बेचने वाले संवैधानिक संस्थाओं में बैठे मठाधीश, अफ़सर, पत्रकार और बुद्धिजीवी भी बहुत बड़े दोषी हैं। लेकिन इन सबके लालच की भेंट अंत में जनता ही चढ़ती है। 

सत्ता की ताक़त के आगे सर्वोच्च न्यायालय की लाचारी इतनी बढ़ चुकी है कि वह अब आपराधिक बहुमत के राजनीतिक क़िलों पर टिप्पणी ही कर सकता है, सत्ता में पहुँच चुके अपराधियों को जेल नहीं भिजवा सकता। संवैधानिक पदों पर बैठे हुए लोग षड्यंत्र रच रहे हैं। अपने और अपनी सत्ता के बचाव के लिए देश से लगातार झूठ बोल रहे हैं। खुलेआम देश की संपदा और जनता की मेहनत की कमायी लूट रहे हैं। मूर्ख लोग नियति और राजनीतिक परंपरा की दुहाई देते हुए बड़ी आसानी से कह देते हैं कि हर सरकार में भ्रष्टाचार होता है। निर्बलों को इसकी परवाह नहीं है। जो बोलते हैं, वे एकजुट नहीं हैं। यही कारण है कि सरकारों में बहुमत में बैठे दाग़ी शासकों की हिम्मत इतनी बढ़ चुकी है कि वे बड़ी आसानी से न्यायालयों के फ़ैसलों में हस्तक्षेप कर देते हैं। फिर भी जनता ही सर्वशक्तिमान है; लेकिन यह जनता तभी कुछ कर सकती है, जब वह ख़ुद न्यायप्रिय, जागरूक, लालच से दूर, देश और जनहित की समझ रखने वाली होगी।