मार्कण्डेय काटजू: ब्लॉग पर बवाल

New Imageप्रेस काउंसिल ऑफ इंडिया के अध्यक्ष और पूर्व न्यायाधीश मार्कण्डेय काटजू के आरोपों के बीच वर्तमान मुख्य न्यायाधीश आरएम लोढ़ा ने कहा है कि न्यायपालिका की छवि बिगाड़ने की मुहिम चलाई जा रही है. एक याचिका की सुनवाई के दौरान जस्टिस लोढ़ा ने कहा कि इससे न्यायपालिका के प्रति असम्मान बढ़ रहा है और उसकी छवि को भारी नुकसान हो रहा है. जजों के चुनाव के लिए कोलेजियम की व्यवस्था को सही ठहराते हुए उन्होंने कहा कि वे खुद कोलेजियम के जरिए आए हैं और अगर यह व्यवस्था सही नहीं है तो वे भी सही नहीं हैं.

गौरतलब है कि सर्वोच्च न्यायालय के पूर्व न्यायाधीश काटजू अपने ब्लॉग के जरिये लगातार न्यायपालिका में भ्रष्टाचार से जुड़े मामले उठा रहे हैं. अपने हालिया ब्लॉग में उनका कहना है कि जब वे इलाहाबाद उच्च न्यायालय में थे तो उन्होंने वहां काम कर रहे कई भ्रष्ट जजों के बारे में सुप्रीम कोर्ट के तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश एसएच कपाड़िया को बताया था, लेकिन कपाड़िया ने इस पर कोई कार्रवाई नहीं की. काटजू के लगाए आरोपों का जवाब देते हुए पूर्व मुख्य न्यायाधीश एचएस कपाड़िया का कहना है कि उन्होंने भ्रष्टाचारी जजों के खिलाफ सबसे ज्यादा कदम उठाए हैं. एक अखबार से बातचीत में उनका कहना है कि जब भी काटजू किसी जज की शिकायत लेकर उनके पास आए उन्होंने संबंधित जज का तबादला कर दिया. उधर, काटजू के मुताबिक इस मामले में होना यह चाहिए था कि मुख्य न्यायाधीश को आरोपी जज से इस्तीफ़ा मांगना चाहिए था और इस्तीफ़ा नहीं देने पर महाभियोग के लिए उनके नाम को राष्ट्रपति के पास भेजना चाहिए था.


जस्टिस काटजू अपने ब्लॉग सत्यम ब्रूयात् पर लिखी कुछ विवादास्पद टिप्पणियों के लिए चर्चा में हैं. वे अपने इस ब्लॉग पर लगातार और जीभर कर लिखते हैं. उनके ब्लॉग पर लिखी कुछ टिप्पणियां विवादास्पद हैं तो कुछ शिक्षाप्रद और कुछ बेहद रोचक भी. उनकी कुछ टिप्पणियों के हिंदी अनुवाद इस और आगे के कुछ पन्नों पर हैं 

शुक्रवार, 25 जुलाई 2014

क्रिकेट मैचों की हेराफेरी

जब मैं इलाहाबाद में था तो वहां इलाहाबाद हाई कोर्ट के जजों और वकीलों के बीच हर 26 जनवरी को एक क्रिकेट मैच हुआ करता था. जब तक मैं वहां एक वकील था वकीलों की टीम की कप्तानी किया करता था.

मैच शुरू होने से पहले मैं अपनी टीम के सदस्यों को बुलाता और उनसे कहता, ‘देखो आप लोगों को पता है कि आपकी रोजी-रोटी कहां से आती है तो भगवान के लिए कोई मैच जीतने की बेवकूफी मत करना नहीं तो कल से आपके सारे मामले बर्खास्त हो जाएंगे. ये जज लोग अपनी बीवियों के सताए हुए, दुखी प्राणी हैं. इसलिए इन्हें मैच जीतकर थोड़ा खुश हो जाने दो फिर देखना कि कल से आपको कई सारे स्टे ऑर्डर और जमानतें मिलने लगेंगी.’

इसके बाद मैं उन्हें अपनी रणनीति बताता – जब भी जज बैटिंग कर रहे हों तो कैच छोड़ दो, उन्हें रन-आउट करने की कोशिश मत करो, अंपायरों को समझा दो ताकि वह एलबीडब्ल्यू न दे दें आदि. जब वकील बैटिंग कर रहे हों तो उन्हें आसान से कैच देने चाहिए, अंधाधुंध बल्ला घुमाना चाहिए जिससे कि बॉल बैट पर नहीं लगे और बल्लेबाज आउट हो जाए.

इस तरह से जजों की टीम हमेशा मैच जीत जाती थी.

जब मैं जज बना तब भी मैं दिल से वकीलों के साथ ही था. इसलिए मैं वकीलों की टीम के कप्तान को बुलाता और उससे कहता कि वह अपने साथियों को ऊपर लिखी रणनीति अपनाने के लिए समझाए. फिर से जजों की टीम जीत जाती.

इस तरह से जजों की टीम हमेशा जीतती थी और जज खुश हो जाते थे. जजों के बारे में मशहूर है कि वे बीवी के गुलाम होते हैं तो उन्हें यह अच्छा लगता था जब अदालत में वकील केस के बारे में बातें करने के बजाय उनके क्रिकेट के मैदान के पिछले दिन के प्रदर्शन की तारीफ करते. इससे वकीलों को अपने पक्ष में अंतरिम आदेश लेने में आसानी हो जाती थी.


बुधवार, 16 जुलाई 2014

मेरी अदालत की दो कहानियां

मैं आपको सुप्रीम कोर्ट में मेरे कोर्टरूम में क्या हुआ इस बारे में दो कहानियां सुनाता हूं.

पहली कहानी पूर्व अटॉर्नी जनरल श्री सोली सोराबजी के बारे में है. एक दिन वे एक केस के सिलसिले में अदालत में मेरे सामने पेश हुए. इससे पहले कि वे अपनी जिरह की शुरुआत करते मैंने कहा, ‘मिस्टर सोराबजी क्या आपको पता है कि आप किस बात के लिए मशहूर हैं?’

पहले वे थोड़ा हैरान हुए फिर उन्होंने पूछा, ‘वह क्या है माई लॉर्ड?’

मैंने कहा ‘आपके बारे में मशहूर है कि आप एक “लेडीज मैन” (महिलाओं में बेहद दिलचस्पी लेने वाला व्यक्ति) हैं.’

इसपर वे झेंप गए और फिर केस से जुड़ा काम करने लगे.

शाम को उन्होंने मुझे फोन किया और कहा ‘आपने मुझे आज बहुत शर्मिंदा किया. जब आपने मुझपर वह टिप्पणी की तो अदालत में मौजूद कई बुरी-सी दिखने वाली महिलाओं ने मुझे घूरना शुरू कर दिया जिससे मुझे बड़ा अजीब सा लगने लगा.’

दूसरी कहानी श्री रामजेठमलानी के बारे में है (एक और लेडीज मैन).

एक दिन वे मेरी अदालत में एक कोने में बैठे हुए अपने केस की बारी आने का इंतजार कर रहे थे. एक दूसरा वकील एक मामले में जिरह कर रहा था जिसमें उसके मुवक्किल पर बलात्कार करने का आरोप था.

जिरह करते हुए वकील का कहना था कि उसका मुवक्किल 65 साल का है इसलिए वह बलात्कार कैसे कर सकता है?

मैंने जवाब दिया कि जब मैं इलाहाबाद हाईकोर्ट में एक नया-नया वकील था तो मैंने एक बेहद वरिष्ठ क्रिमिनल लॉयर, श्री पीसी चतुर्वेदी, से पूछा कि किस उम्र में सेक्स करने की इच्छा खत्म हो जाती है? उनका कहना था ’30 और 80 के बीच किसी भी समय.’

इतना कहने के बाद मैंने कहा ‘ यहां राम जेठमलानी जी भी बैठे हुए हैं जिनको इन मामलों में बड़ा अनुभव है.’ (जेठमलानी जी तब 85 वर्ष के करीब रहे होंगे और अभी वे 90 से ऊपर हैं.)

मेरे इतना कहते ही जेठमलानी जी उठ खड़े हुए और थोड़ा शरारती स्वर में बोले ‘मैं अपना अपराध स्वीकार करता हूं, माई लॉर्ड.’


शनिवार, 12 जुलाई 2014

अदालत की अवमानना

मुझे यह किस्सा मेरे चाचा ब्रह्मनाथ काटजू, जो बाद में इलाहाबाद हाई कोर्ट के चीफ जस्टिस बने, ने सुनाया था. किस्सा 1950-60 के दशक का है. उस समय उन्होंने इलाहाबाद हाई कोर्ट में वकालत की प्रैक्टिस बस शुरू ही की थी. जूनियर वकीलों के पास अमूमन कोई काम नहीं रहता तो ऐसे में मेरे चाचा अक्सर अदालत में बैठकर सीनियर वकीलों की बहसें सुना करते थे.

उन्हीं दिन कोर्ट में चीफ जस्टिस, जस्टिस मूथम, जो अंग्रेज थे (मैं  इंग्लैंड में उनके घर पर उनसे 1994 में मिल चुका हूं तब वे तकरीबन 90 साल के थे), और जस्टिस पीएन सप्रू की बेंच के सामने एक मामला आया. उत्तर प्रदेश सरकार की तरफ से महाअधिवक्ता पंडित कन्हैया लाल मिश्रा पैरवी कर रहे थे. मेरे चाचा भी अदालत में थे और एक तरह से जो भी घटनाएं उस समय हुईं उनके चश्मदीद गवाह थे.

मामला यूं था कि मेरठ जिले के 75 साल के एक ग्रामीण व्यक्ति ने मेरठ जिला न्यायालय के जज को एक पोस्टकार्ड भेजा था. अपने पत्र में उस व्यक्ति ने लिखा था कि भारतीय न्यायप्रणाली आज भी ब्रिटिश उपनिवेशवादी अदालती तंत्र की तर्ज पर व्यवहार कर रही है जबकि भारत 1947 में ही  आजाद हो चुका है. जिला जज ने यह पोस्टकार्ड हाई कोर्ट में भेज दिया और हाई कोर्ट ने उस गांव वाले के नाम से सम्मन जारी कर दिया. पहले जमानती वारंट भेजा गया लेकिन वह अदालत में हाजिर नहीं हुआ. इसके बाद उसके नाम से गैरजमानती वारंट जारी हुआ और पुलिस उसके गांव जाकर उसे गिरफ्तार करके इलाहाबाद ले आई.

चीफ जस्टिस के हिसाब से यह मामला बहुत छोटा था और इसे तूल देने की जरूरत नहीं थी. उस ग्रामीण ने अपनी बात सिर्फ पोस्टकार्ड में कही थी और वह किसी अखबार में प्रकाशित नहीं हुई थी. अदालत की अवमानना का विषय जज के विवेकाधीन होता है इसलिए भले ही अदालत की अवमानना हुई हो लेकिन ऐसे सभी मामलों में हाई कोर्ट  कार्रवाई करे यह जरूरी नहीं है.

हालांकि जस्टिस सप्रू इस मामले को इतने हल्के में नहीं लेना चाहते थे. आखिरकार उन्होंने उस ग्रामीण से पूछा कि जब सम्मन या जमानती वारंट उसे मिला तो वह कोर्ट में हाजिर क्यों नहीं हुआ. ग्रामीण का जवाब था कि वह बहुत गरीब आदमी है और यदि गैर जमानती वारंट जारी होता है तो पुलिस खुद उसे लेने आएगी और वह सरकारी खर्चे पर मेरठ से इलाहाबाद तक पहुंच जाएगा. इसके बाद दोनों जज मुस्काराए और उन्होंने कहा कि वह अपने घर जा सकता है. इस पर उस गांव वाले का कहना था कि वह घर कैसे जाए? उसके पास तो ट्रेन की टिकट खरीदने का पैसा भी नहीं है.

इसके बाद जजों ने अपने बटुए खोले और 15-15 रुपये उस ग्रामीण को दिए. पंडित कन्हैया लाल मिश्रा ने भी 15 रुपये दिए ताकि वह आदमी वापस मेरठ जा पाए.

यह किस्सा उन सभी जजों के लिए है जो अदालत की अवमानना के नोटिस जारी करने के लिए बहुत उत्साहित रहते हैं. लेकिन यह ध्यान रखा जाए कि ऐसे में लेने के देने पड़ सकते हैं!


इस आलेख के बाद जस्टिस काटजू के ब्लॉग पर उनके लिए अपमानजनक टिप्पणियों की भरमार हो गई थी. इसमें उन्होंने एकतरफा धर्मनिरपेक्षता पर सवाल खड़े किए थे

रविवार, 19 जुलाई 2014

कश्मीरी पंडित

मैंने तमाम ऐसे लोगों को ब्लॉक कर दिया है जिन्होंने मेरे पिछले ब्लॉग पर अपमानजनक और अभद्र टिप्पणियां की थीं. मैं काफी हद तक लोकतंत्रिक व्यक्ति हूं और मुझे ऐसे लोगों से कोई परेशानी नहीं होती जो मेरी राय से इत्तेफाक नहीं रखते, लेकिन मैं अभद्रता और अपमान कतई स्वीकार नहीं कर सकता. मैं क्यों करूं?

मैंने सिर्फ इतना ही कहा था कि अत्याचार या दमन किसी का नहीं होना चाहिए चाहे वह हिंदू हो, मुसलिम हो, ईसाई हो या किसी अन्य समुदाय का. जब भी मुसलमानों के साथ किसी तरह की ज्यादती हुई है मैं देश का पहला आदमी था जिसने इसका विरोध किया, आप मेरा पिछला इतिहास खंगाल सकते हैं. लेकिन मैंने देखा है कि जब भी हिंदुओं, ईसाइयों, अहमदिया या शियाओं के ऊपर पाकिस्तान, कश्मीर या बांग्लादेश में किसी तरह की जोर-जबर्दस्ती होती है तब इक्का-दुक्का मुसलिम ही इसके खिलाफ आवाज उठाते हैं. मैंने इसका कड़ा विरोध किया था.

मुझे आज भी याद है, एक बार अपने एक मुसलिम दोस्त से मैंने कहा कि जब भी कभी मुसलिमों के साथ कोई ज्यादती होती है मैं उनके पक्ष में खड़ा रहता हूं लेकिन जब कश्मीर में कश्मीरी पंडितों के साथ जुल्म हो रहा है तब कोई मुसलमान इसका विरोध क्यों नहीं कर रहा? उसने मुझसे पूछा कि मैं क्या कर सकता हूं? मैंने उसे जवाब दिया कि तुम स्थानीय अखबार में इसके विरोध में पत्र लिख सकते हो, मैं उसे छपवाने में तुम्हारी मदद करूंगा. लेकिन उसने कुछ नहीं किया.

मुझे कश्मीरी पंडितों की यातना का अंदाजा है क्योंकि मैं खुद एक कश्मीरी पंडित हूं. मेरी पत्नी और तमाम रिश्तेदार कश्मीरी हैं. सैंकड़ों कश्मीरी पंडितों को चुन-चुनकर मार दिया गया. कश्मीरी पंडित पूरे राज्य की आबादी का सिर्फ तीन फीसदी थे और वे किसी के लिए किसी तरह का खतरा नहीं थे. लेकिन अक्सर देखा गया कि कश्मीर के गांवों में जहां एक हजार की आबादी थी और सिर्फ बीस कश्मीरी पंडित थे वहां हथियारबंद लोग पहुंचते थे और चुनकर उन बीस पंडितों की हत्या कर देते थे. इस तरह की तमाम घटनाएं हैं. मेरे एक रिश्तेदार जो आजकल दिल्ली में डॉक्टर हैं, ने मुझे बताया कि जब वे कश्मीर के एक मेडिकल कॉलेज में डॉक्टरी की पढ़ाई कर रहे थे उस समय कुछ लोग उनके घर में घुस आए. उन्होंने चिल्ला-चिल्लाकर कहा कि घर के सारे पुरुष कश्मीर छोड़कर चले जाएं, महिलाओं को यहीं छोड़कर. कश्मीरी पंड़ितों के साथ दुर्व्यवहार की ऐसी अनगिनत कहानियां हैं. इस खौफ में वे अपना घर-बार त्यागकर जल्दबाजी में कश्मीर से चले गए. ऐसे तमाम परिवार आज भी जम्मू और दिल्ली स्थित राहत शिविरों में अमानवीय स्थितियों मे रह रहे हैं. इन अत्याचारों की निंदा करने की बजाय तमाम कश्मीरी मुसलमानों ने पंडितों के पलायन के लिए जगमोहन को जिम्मेदार ठहराया. यह सरासर झूठ था. वास्तव में छोटे से कश्मीरी पंडित समुदाय की सुरक्षा न कर पाने की जिम्मेदारी उन्हें अपने ऊपर लेनी चाहिए.

कोई भी व्यक्ति जिस स्थान पर पीढ़ियों से रहता आ रहा हो वह उसे छोड़ना नहीं चाहता. यह अपने आप में कश्मीरी पंडितों के साथ हुई भयावह ज्यादती का प्रमाण है. चूंकि यह छोटा सा समुदाय है, जिसका कोई वोटबैंक नहीं है, इसलिए किसी को इनकी परवाह नहीं है. बमुश्किल ही किसी मुसलमान ने इन अत्याचारों या फिर पाकिस्तान में अहमदिया मुसलमानों के साथ हुए दमन के खिलाफ कोई आवाज उठाई है. हिंदू लड़कियों को जबरन उठाकर उनका धर्म परिवर्तन कर दिया जाता है, हिंदुओं का अपहरण करके उनसे फिरौती वसूली जाती है. ईशनिंदा कानून का इस्तेमाल ईसाइयों के खिलाफ किया जा रहा है, अक्सर उनकी हत्या कर दी जाती है और किसी वकील में हिम्मत नहीं होती उनका केस लड़ने की. जिन लोगों ने हिम्मत दिखाई उन्हें भी मार दिया गया. भारत में शायद ही किसी मुसलमान ने इन अत्याचारों के खिलाफ कोई आवाज उठाई हो, लेकिन जब गाजा पर कोई हमला होता है तब वे आसमान सिर पर उठा लेते हैं.

मैं यह नहीं कह रहा कि गाजा के लोगों के साथ हो रहे भेद-भाव के खिलाफ आवाज नहीं उठानी चाहिए. मेरा कहना सिर्फ इतना भर है कि कश्मीर और पाकिस्तान भारत के कहीं ज्यादा करीब हैं. भारत के मुसलमानों को पाकिस्तान के अहमदी और कश्मीर के गैर मुसलिमों के खिलाफ हो रही ज्यादती के खिलाफ भी आवाज उठानी चाहिए. मैंने देश के तमाम शहरों में मुसलिमों द्वारा गाजा के लोगों के समर्थन में निकाले जा रहे जलूसों की तस्वीरें अखबारों में देखी हैं. लेकिन मुसलमानों द्वारा अहमदी और कश्मीरी पंडितों पर हो रहे अत्याचारों के खिलाफ कोई प्रदर्शन नहीं देखा.

मेरा मानना है कि धर्मनिरपेक्षता की धारा एकतरफा नहीं बह सकती. हर तरह के अत्याचार का प्रतिरोध होना चाहिए. इसके बावजूद मैं उन सभी लोगों को, जिन्हें मैंने ब्लॉक कर दिया है, एक बार फिर से अनब्लॉक करने के लिए तैयार हूं अगर वे बिना शर्त माफी मांग लें. वे मेरे फेसबुक पन्ने पर संदेश भेज सकते हैं या कोई और तरीका भी चुन सकते हैं.  मैं स्वभाव से ही उदार और क्षमाशील हूं.


 

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कुछ जवाब जस्टिस काटजू को भी देने हैं.

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