अब ये लगभग सिद्ध हो गया है कि मीडिया उद्योग द्वारा आत्म नियमन के जरिए खुद को दुरूस्त करने के तमाम दावे नाकाम हो चुके हैं. वैसे तो आत्मनियमन हकीकत से ज्यादा रूमानियत भरी कल्पना थी, एक भ्रम था और उसके लिए कोई जरूरी ढांचा तो था ही नहीं इसलिए ऐसा होना ही था. एक सदिच्छा जरूर थी लेकिन वह केवल पत्रकारों या मीडियाकर्मियों में थी, जो सरकारी दखलअंदाजी रोकने के लिए और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की रक्षा करने के लिए कुछ कोशिशें करते रहते थे. जब तक बाजार का जोर नहीं था तो मीडिया घरानों के मालिकान भी इसका समर्थन करते थे, इसलिए नहीं कि उनकी इनमें श्रद्धा थी, बल्कि इससे उन्हें लाभ होता था. वे अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का इस्तेमाल अपने व्यापारिक हितों को साधने के लिए करते थे. इसीलिए जब न्यूज चैनलों के संपादकों ने आत्म नियमन का शोर मचाया तो उन पर आरोप लगा कि वे मालिकों के कहने पर ऐसा कर रहे हैं.
बहरहाल, सच्चाई चाहे जो हो लेकिन ये तो स्पष्ट हो चुका है कि मौजूदा परिस्थितियों में आत्म नियमन से मीडिया को सुधारना संभव नहीं है. ऐसा इसलिए भी कि मीडिया पर पत्रकारों का जो थोड़ा-बहुत प्रभाव होता था, वह भी खत्म हो चुका है और स्वामित्व सर्वशक्तिमान बन चुका है. स्वामित्व पर तरह-तरह से लाभ कमाने का लोभ सवार हो चुका है और उसने आत्मनियमन की न्यूनतम मांग से भी खुद को मुक्त कर लिया है. उसने उन पत्रकारों-संपादकों को भी बाहर का रास्ता दिखा दिया है जो नैतिकता, दायित्व और सरोकारों आदि की बातें करते हैं. उन्हें ऐसे दलाल चाहिए जो थाना स्तर से लेकर प्रधानमंत्री कार्यालय तक उनके स्वार्थ साधने में मददगार साबित हों और उनके मीडिया प्रतिष्ठानों को लाभप्रद बनाने के लिए काम करें.
यदि आज मीडिया उद्योग एक तरह की अराजकता और दायित्वहीनता से गुजर रहा है तो उसकी यही सबसे बड़ी वजह है. वह लोकतंत्र के चौथे खंभे के बजाय मीडिया स्वामियों और बाजार का उपकरण बन चुका है और उसी के हितों के लिए काम करने पर तैनात हो गया है. उसके उद्देश्य बदल चुके हैं. जन सरोकारों से उसका रिश्ता बहुत पहले ही कमजोर था, अब वह पूरी तरह टूट चुका है. जो थोड़ा-बहुत बचा है वह दिखावे के लिए. इसलिए ये जरूरी हो गया है कि आत्मनियमन के भ्रमजाल से निकला जाए और नियमन की दिशा में ठोस कदम उठाए जाएं.
नियमन की वकालत करने का मतलब अकसर ये निकाला जाता है या इसे इस तरह से प्रचारित भी किया गया है मानो ये अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को सीमित-बाधित करने का प्रयास हो. वास्तव में उल्टा है. मीडिया स्वछंदता में धारा 19-1-ए के तहत भारतीय नागरिकों को मिले संवैधानिक अधिकार का तरह-तरह से दुरुपयोग कर रहा है. यही नहीं, इसके साथ जो दायित्व जुड़े हुए हैं, उनकी अवहेलना भी वह किए जा रहा है. उसकी इस प्रवृत्ति ने मीडिया की साख को बेहद कमजोर किया है और जाहिर है कि अभूतपूर्व विस्तार के जरिए शक्ति हासिल करने के बावजूद वह घृणा का पात्र बन चुका है. ये स्थिति न तो मीडिया के लिए अच्छी है और न ही लोकतंत्र के लिए.
हालांकि ये एक विश्वव्यापी परिघटना है और मीडिया के इस ढहते चरित्र से हर जगह हाहाकार मचा हुआ है. ब्रिटेन स्वतंत्र मीडिया का झंडाबरदार माना जाता है, लेकिन रूपर्ट मर्डोक की पत्रिका न्यूज ऑफ द वर्ल्ड के फोन हैकिंग कांड के बाद वहां इस मसले पर लंबा वाद-विवाद चला और वह आज भी जारी है. लॉर्ड जस्टिस लेवसन ने इस मामले की जांच के बाद मीडिया के चरित्र की पोल खोलते हुए कड़े नियमन की सिफारिश की. इन सिफारिशों के आधार पर ब्रितानी संसद ने रॉयल चार्टर तैयार किया जिसे लागू करने की कोशिश की जा रही है. ध्यान रहे ऑफकॉम पहले ही वहां एक नियामक की भूमिका अदा कर रहा था, इसके बावज़ूद स्थितियां इस क़दर बिगड़ीं की सरकारी हस्तक्षेप की वजह बन गईं. भारत में तो ऐसा कोई नियमन ढांचा या संस्था है ही नहीं और अगर कल को सरकार अपनी ओर से कुछ करने पर आमादा हो जाए तो क्या होगा? बल्कि पिछली सरकार तो कंटेंट कोड लागू करने पर आमादा हो गई थी और इसके लिए उसने इंस्पेक्टर राज व्यवस्था कायम करने का फैसला भी कर लिया था. अगर मीडिया इस तरह के हमलों से बचना चाहता है तो उसे आत्मनियमन की बहानेबाजी से बाहर आकर स्वतंत्र नियमन के पक्ष में काम करना चाहिए.
दुर्भाग्य ये है कि हमारे देश में अधिकांश उद्योग-धंधों के लिए एक तो नियमन की कोई व्यवस्था है नहीं और अगर नियामक बनाए भी गए हैं तो उन्हें काम नहीं करने दिया जाता. उद्योगों और सरकार के दबाव में वे नाकारा हो जाते हैं. मसलन, भारतीय प्रेस परिषद को ले लीजिए. एक तो उसका दायरा केवल प्रिंट मीडिया तक ही सीमित है. दूसरे, वह एक नख-दंत विहीन संस्था है. उसके पास इस तरह के अधिकार ही नहीं हैं कि वह उन पत्र-पत्रिकाओं के ख़िलाफ काम कर सके जो पत्रकारीय मानदंडों का उल्लंघन करते हैं या उनके विरूद्ध काम कर रहे हैं. पेड न्यूज का उदाहरण हमारे सामने है. प्रेस परिषद ने इसके लिए एक कमेटी बैठाई, जिसने अपनी रिपोर्ट भी दे दी. लेकिन प्रेस परिषद में मालिकों का वर्चस्व है और उसमें सांसदों का भी प्रतिनिधित्व है. बस उन्होंने मिलकर रिपोर्ट को जारी ही नहीं होने दिया. जद्दोजहद के बाद उसे काट-छांटकर जारी किया गया. हालांकि पूर्ण रिपोर्ट अनाधिकारिक तौर पर भी जारी कर दी गई लेकिन इससे परिषद की हैसियत का पता तो चलता ही है.
टेलीविजन चैनलों के मीडिया कंटेंट को नियमित करने के लिए नेशनल ब्रॉडकास्टर्स एसोसिएशन (एनबीए) भी काम कर रही है. लेकिन उसका कोई खास असर नहीं देखा गया. अव्वल तो ज्यादातर न्यूज चैनल इसके सदस्य ही नहीं हैं. फिर यदि किसी चैनल को उसकी कोई बात पसंद नहीं होती तो वह उससे बाहर हो जाता है. एनबीए के पास कोई विशेष अधिकार भी नहीं है. वह एक तरह की एडवायजरी भूमिका निभा रही है. वह कभी-कभार चैनलों को हल्के दंड दे देती है जिसे चैनल आंख बंद करके स्वीकार कर लेते हैं, मगर उनके चाल-चलन में इससे कोई फर्क नहीं पड़ता. इसी तरह न्यूज चैनलों के संपादकों ने ब्रॉडकास्ट एडिटर्स एसोसिएसन (बीईए) का गठन किया था, मगर वह भी पूरी तरह से नाकाम साबित हो चुकी है.
पिछले दो-तीन सालों में भारतीय दूरसंचार नियामक प्राधिकरण (ट्राई) ने मीडिया के नियमन के लिए कई महत्वपूर्ण कदम उठाने की कोशिशें की हैं लेकिन वह पूरी तरह से नाकाम रहा. मसलन, उसने सन् 1995 के केबल अधिनियम के प्रावधानों का हवाला देकर चैनलों को एक घंटे में बारह मिनट से अधिक विज्ञापन न दिखाने का निर्देश दिया. लेकिन ये आज तक लागू नहीं किया जा सका है क्योंकि उसे चुनौती दे दी गई और सरकार ने भी उसे इस पर अमल न करने के लिए दबाव डाला. इसी तरह उसने उद्योग से जुड़े सभी पक्षों से विचार-विमर्श करने के बाद संपादकीय विभाग की स्वतंत्रता और क्रॉस मीडिया ओनरशिप जैसे अति महत्वपूर्ण मुद्दों पर अपनी सिफारिशें सरकार को भेजीं, लेकिन आज भी वे सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय में धूल खा रही हैं.
जाहिर है कि शक्तिशाली मीडिया घरानों ने उस पर दबाव बना रखा है इसलिए वह उन सिफारिशों को लागू करना नहीं चाहती. वैसे ट्राई के साथ एक तो मुश्किल ये है कि उसके अधिकार क्षेत्र को लेकर ही भ्रम बने हुए हैं इसलिए उसके हर निर्णय या सिफारिश पर तुरंत सवाल खड़े कर दिए जाते हैं जिससे मामले लटक जाते हैं.
अब चाहे प्रेस परिषद को मीडिया परिषद में तब्दील करने का सुझाव हो या फिर ट्राई को अधिक अधिकार देने का मसला, निर्णय लेने का समय आ गया है. सच्चाई तो ये है कि इसमें पहले ही काफी देर हो चुकी है और अब और अधिक देरी आत्मघाती होगी. नियमन की शुरुआत के लिए ब्रिटेन के जस्टिस लेवसन ने मीडिया नियमन के लिए जो सिफारिशें की हैं, उन्हें आधार बनाया जा सकता है. कोई जरूरी नहीं कि हम ब्रितानी संसद द्वारा बनाए गए रॉयल चार्टर की हू-ब-हू नकल करें, लेकिन भारतीय परिस्थितियों को ध्यान में रखकर उससे उपयोगी चीजों को स्वीकार कर लेने में कोई हर्ज नहीं है. एक बात तो ये समझ ली जानी चाहिए कि मीडिया का विस्तार इस पैमाने पर हो गया है कि कोई एक नियामक संस्था हर तरह के मीडिया का नियमन नहीं कर सकती. प्रिंट, इलेक्ट्रॉनिक एवं इंटरनेट, तीनों माध्यमों के अपने विशिष्ट गुण एवं आवश्यकताएं हैं इसलिए उन सबको एक बंडल में बांधने के बजाय अगर उनका अलग-अलग नियमन किया जाए तो वह ज्यादा कारगर होगा.
नियमन के बारे में सबसे ज्यादा वाद-विवाद इस मुद्दे को लेकर है कि उसे कैसे किया जाए और कौन करे. लेकिन ये बहस बेमानी है. इसमें तो किसी तरह का संदेह होना ही नहीं चाहिए कि नियमन सरकारी प्रभाव से पूरी तरह मुक्त होना चाहिए और स्वतंत्र व्यक्तियों द्वारा ही किया जाना चाहिए. इसमें उन पत्रकारों और संपादकों को भी शामिल नहीं किया जा सकता जो सरकार या मीडिया मालिकों के हितों के रक्षक बन सकते हैं और न किसी भी रूप में सरकार या नौकरशाही के नुमांइदे नहीं होने चाहिए. विभिन्न क्षेत्रों के जाने-माने विद्वानों को अगर ये जिम्मेदारी सौंपी जाएगी तो वे सामाजिक हितों को ध्यान में रखकर बेहतर परिणाम देने में सक्षम होंगे.
अच्छी बात ये है कि विधि आयोग विभिन्न पक्षों से नियमन पर विचार-विमर्श कर रहा है और उम्मीद करनी चाहिए कि वह जल्द ही एक ठोस प्रारूप तैयार कर लेगा. ये भी उम्मीद की जानी चाहिए कि उसमें इस तरह के कानूनी प्रावधान होंगे कि नियमन सबके लिए बाध्यकारी हों और नियामक के पास ऐसे अधिकार भी हों कि जरूरत पड़ने पर वह चैनलों के लाइसेंस निलंबित या रद्द कर सके. मीडिया जगत से भी यही उम्मीद की जाएगी कि वह किंतु-परंतु छोड़कर नियमन को लागू करने में मदद करे, न कि उसकी राह में नई अड़चनों की चालबाजियों में उलझे.
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं)