हिमालय पर प्रकृति का कहर

धराली की बाढ़ ने सुप्रीम कोर्ट की चेतावनी को बनाया भयावह सच्चाई

विभा शर्मा

जब सुप्रीम कोर्ट ने चेताया था कि हिमाचल प्रदेश “हवा में गायब” हो सकता है, तो यह बात अतिशयोक्ति लग रही थी। लेकिन उत्तराखंड के धराली में यह भविष्यवाणी सच साबित हो गई, जब अचानक आई बाढ़ ने घर बहा दिए, भूगोल बदल दिया और यह सच्चाई उजागर कर दी कि नाजुक हिमालय  में जलवायु परिवर्तन और मानवीय लापरवाहियां से हिमालय की गोद में बसे राज्यों पर  प्रकृति का मार पड़ रही है।

भविष्यवाणी सच हुई!

सुप्रीम कोर्ट ने कहा था,” यदि वर्तमान रुझान जारी रहे तो हिमाचल प्रदेश “देश के नक्शे से हवा में गायब” हो सकता है “। उस समय किसी को यकीन नहीं आया था लेकिन  जब धराली गांव में अचानक आई बाढ़ ने घर, खेत और जीवन सब कुछ बहा दिया। भयभीत लोग पानी और मलबे के तेज़ बहाव से बचने के लिए संघर्ष करते रहे।

इसरो (ISRO) की सैटेलाइट तस्वीरों ने तबाही का भयावह दृश्य दिखाया: पंखे के आकार की तलछट और मलबे की परत,  नदी के टूटे हुए किनारे, डूबे हुए और तेज बहाव में बह गए घर।
बस्तियां सचमुच “हवा में गायब” हो गईं। प्रारंभिक रिपोर्ट में धराली और उत्तरकाशी जिले के सुखी टॉप इलाके में बादल फटने को मुख्य कारण बताया गया है।हालांकि कोर्ट की टिप्पणी हिमाचल की पारिस्थितिक स्थिति पर थी, लेकिन धराली, भले ही उत्तराखंड में है, उसी भू-वैज्ञानिक क्षेत्र में आता है — हिमालय, जो दुनिया का सबसे युवा और नाजुक पर्वत श्रृंखला है और इस समय इंसानों के लालच और जलवायु परिवर्तन के दोहरे हमले से जूझ रहा है।

उपमहाद्वीप की नाजुक रीढ़

हिमालय न केवल भारत की उत्तरी ढाल है, बल्कि दुनिया के सबसे पारिस्थितिक रूप से संवेदनशील क्षेत्रों में से एक है।करीब 5 करोड़ वर्ष पहले भारतीय और यूरेशियाई टेक्टॉनिक प्लेटों की टक्कर से बने ये युवा मोड़दार पर्वत आज भी बढ़ रहे हैं। खड़ी ढलानों, ढीले भूगर्भीय ढांचे और विविध सूक्ष्म जलवायु के कारण ये प्राकृतिक आपदाओं के प्रति अत्यधिक संवेदनशील हैं। यह इलाका भूकंप, भूस्खलन और हिमस्खलन जैसी आपदाओं के खतरों से हमेशा घिरा रहता है।  और जलवायु परिवर्तन के प्रभाव — जैसे ग्लेशियर पिघलना, वर्षा का रूख  बदलना आदि  इसे और अस्थिर बना रहे हैं।

प्रकृति की चेतावनी, इंसान की गलती

उत्तरकाशी जिले में धराली की बाढ़ के बाद 13 जून और 7 अगस्त 2025 की सैटेलाइट तस्वीरों की तुलना में चौड़ी हो चुकी नदी की धाराएं और बदल चुकी नदी की संरचना दिखाई दी।
वैज्ञानिक कारण खोज रहे हैं — संभव है कि भारी बारिश/बादल फटने से ग्लेशियर से जमा तलछट बह निकली हो, या किसी भूस्खलन से अस्थायी बांध बना हो जो अचानक टूट गया।

हिमाचल प्रदेश में ही जून-जुलाई 2025 के अंत में कई बादल फटने, बाढ़ और भूस्खलन से अनेक लोग  मर गए और हजारों लोग विस्थापित हुए। विशेषज्ञ एक बात पर सहमत हैं — इसमें मानव हस्तक्षेप अहम है। 2013 के केदारनाथ हादसे से हमने कोई सबक नहीं लिया। वन कटाई और निर्माण नियमों की ढिलाई ने तबाही को और विस्तार दिया । नदी के तल और बाढ़ क्षेत्र में अतिक्रमण सबसे बड़ी वजह मानी जा रही है।उत्तरकाशी में इस दौरान असाधारण वर्षा भी नहीं हुई थी, लेकिन मानव बस्तियों ने नदी का प्राकृतिक रास्ता रोक दिया था। जैसा कि कहा जाता है, नदी अपना रास्ता वापस ले ही लेती है, चाहे वहां कुछ भी बना हो।

बरसात के नए स्वरूप  

पिछले दशक में हिमालय में वर्षा के स्वरूप  में  खतरनाक बदलाव आया है। पहले जो हल्की बारिश हफ्तों तक होती रहती थी, अब अचानक और बेहद ज्यादा होती है। खास खतरा यह है कि ये बारिश अब बर्फ की रेखा (स्नो लाइन) पर हो रही है, जहां पिघलती बर्फ पानी के बहाव को कई गुना बढ़ा देती है। वैज्ञानिक इस बढ़ोतरी को वैश्विक तापमान वृद्धि से जोड़ते हैं, जिससे वायुमंडल में अधिक नमी जमा होकर कम समय में भारी बारिश होती है। गंगोत्री और यमुनोत्री जैसे पवित्र ग्लेशियर भी  तेज़ी से पिघल रहे हैं, जिससे ढलान अस्थिर हो रहे हैं और अचानक बाढ़ का खतरा बढ़ रहा है।

मानवीय लापरवाहियां

जलवायु परिवर्तन मंच तैयार करता है, लेकिन इंसान अंधाधुध विकास और लालच के चक्कर में पहाड़ो का दोहन कर रहे हैं। बिना योजना के निर्माण, वनों की कटाई, और लापरवाह पर्यटन ढलानों को कमजोर कर रहे हैं, मिट्टी का कटाव तेज़ कर रहे हैं और जल निकासी के रास्ते रोक रहे हैं। जल विद्युत परियोजनाएं, भले ही स्वच्छ ऊर्जा के नाम पर हों, भारी पारिस्थितिक कीमत वसूलती हैं।
बिना उचित ढलान सुदृढ़ीकरण के पहाड़ों में सड़कें काटी जा रही हैं; नदी तल से रेत और बजरी निकाली जा रही है; बाढ़ क्षेत्र में होटल और कस्बे बसाए जा रहे हैं — यह सब मानसून के पानी को सुरक्षित ढंग से बहने देने की क्षमता को खत्म कर देता है।

क्यों इतने असुरक्षित हैं हिमालय

  • भूगर्भीय रूप से युवा और अस्थिर, अब भी ऊंचाई लेते हुए, भूकंप प्रभावित
  • खड़ी ढलान और ढीली मिट्टी, जो भारी बारिश या निर्माण से आसानी से खिसकती है
  • जलवायु परिवर्तन से पिघलते ग्लेशियर और अनियमित वर्षा
  • मानव अतिक्रमण और निर्माण से बिगड़ा संतुलन

जलवायु टकराव बिना तैयारी के उड़ान

गर्म और नमी भरे वातावरण की टक्कर कमजोर पारिस्थितिकी से हो रही है।
अत्यधिक तापमान से भरे मानसूनी बादल अचानक भारी बारिश कर देते हैं, जिससे नदियां उफान पर आ जाती हैं, भूस्खलन और बाढ़ मिनटों में गांव तबाह कर देती है।

कई पहाड़ी राज्यों में मौसम निगरानी, बाढ़ पूर्वानुमान और त्वरित संचार प्रणाली की कमी है। नतीजा — खतरा दिखते ही बहुत देर हो जाती है।

सबक जो धराली सिखा रहा है

सुप्रीम कोर्ट की चेतावनी सिर्फ हिमाचल के लिए नहीं, बल्कि उत्तराखंड, सिक्किम, अरुणाचल और पश्चिमी घाट जैसे अन्य संवेदनशील क्षेत्रों के लिए भी है।
धराली ने याद दिलाया है कि “प्राकृतिक” आपदाएं अक्सर प्रकृति की अनदेखी का नतीजा होती हैं।

क्या करना जरूरी है

  • बाढ़ क्षेत्र, भूस्खलन-प्रभावित ढलान और ग्लेशियर पिघलने के रास्तों पर निर्माण पर सख्त प्रतिबंध
  • जलवायु-प्रतिरोधी बुनियादी ढांचा
  • मौसम और नदी निगरानी नेटवर्क का विस्तार
  • वनीकरण और ढलान सुदृढ़ीकरण
  • पर्यटन की क्षमता सीमा तय करना, खासकर मानसून में
  • स्कूल शिक्षा में पारिस्थितिकी संवेदनशीलता शामिल करना

सुप्रीम कोर्ट का “हवा में गायब” वाला रूपक कोई कविता नहीं, बल्कि कड़वी सच्चाई है।
धराली की तबाही चेतावनी है कि अगर तुरंत कदम नहीं उठाए गए तो पूरी घाटियां, कस्बे और संस्कृति हमारी आंखों के सामने मिट सकते हैं — सदियों में नहीं, बल्कि हमारे जीवन काल में।

पहाड़ अब भी उठ रहे हैं, लेकिन पानी, मलबा और खतरा भी। अगर विकास को पारिस्थितिकी के अनुरूप नहीं बनाया गया, तो आज की एक गांव की त्रासदी कल पूरे क्षेत्र की तबाही बन सकती है।
और अगली चेतावनी शायद अदालत से नहीं, पहाड़ों से आएगी।