नाबार्ड के दावे और ग्रामीणों की हक़ीक़त

– राष्ट्रीय कृषि एवं ग्रामीण विकास बैंक ने अपनी रिपोर्ट में ग्रामीणों की आय और बचत में बढ़ोतरी का किया है दावा

योगेश

राष्ट्रीय कृषि एवं ग्रामीण विकास बैंक (नाबार्ड) ने अपने अखिल भारतीय ग्रामीण वित्तीय समावेशन सर्वेक्षण (एनएएफआईएस) 2021-22 में गाँव के लोगों की वार्षिक आय 9.5 प्रतिशत बढ़ने का दावा किया है। नाबार्ड ने रिपोर्ट में बताया है कि गाँवों में रहने वाले लोगों की औसत आय वित्त वर्ष 2016-17 में 8,059 रुपये महीने की थी और यह औसत आय वित्त वर्ष 2021-22 में बढ़कर 12,698 रुपये महीना हो गयी है। पाँच साल के औसत में ग्रामीण लोगों की आय में यह वृद्धि 57.6 प्रतिशत है, जो हर साल 9.5 प्रतिशत के हिसाब से बढ़ी है। नाबार्ड ने ग्रामीण लोगों की आय में इस वृद्धि को चक्रवृद्धि वार्षिक वृद्धि दर का संकेत बताया है।

इस दौरान बचत में भी वृद्धि देखी गयी है। इसके अलावा नाबार्ड ने यह भी बताया है कि वित्त वर्ष 2021-22 में ग्रामीण लोगों की हर साल की औसत घरेलू बचत 13,209 रुपये हुई है, जबकि वित्त वर्ष 2016-17 में ग्रामीण लोगों की हर साल की औसत घरेलू बचत 9,104 रुपये ही थी। नाबार्ड ने रिपोर्ट में बताया है कि वित्त वर्ष 2021-22 में 66 प्रतिशत ग्रामीण परिवारों की बचत की सूचना के आधार पर यह साफ़ है कि ग्रामीण लोगों की आय बढ़ी है। लेकिन नाबार्ड की रिपोर्ट में ग्रामीण लोगों पर क़ज़र् बढ़ने के अलावा उनका ख़र्चा बढ़ने की भी बात कही है। नाबार्ड की रिपोर्ट में बताया गया है कि वित्त वर्ष 2016-17 में 47.4 प्रतिशत क़ज़र् था, जो वित्त वर्ष 2021-22 में बढ़कर 52 प्रतिशत हो गया है। इसी तरह ग्रामीणों का औसत घरेलू ख़र्च वित्त वर्ष 2016-17 में 6,646 रुपये महीना था, जो वित्त वर्ष 2021-22 में बढ़कर 11,262 रुपये महीना हो गया। नाबार्ड ने बताया है कि ग्रामीणों का ख़र्च खाद्य पदार्थों पर चार प्रतिशत घटा है, जबकि अन्य चीज़ों पर बढ़ा है। नाबार्ड ने बताया है कि ग्रामीण परिवारों में कम-से-कम एक सदस्य का बीमा कराने वालों की संख्या भी अप्रत्याशित रूप से बढ़ी है। नाबार्ड की रिपोर्ट में बताया गया है कि वित्त वर्ष 2016-17 में बीमा कराने वालों की संख्या 25.5 प्रतिशत थी, जो वित्त वर्ष 2021-22 में 80.3 प्रतिशत हो गयी।

नाबार्ड की रिपोर्ट में ग्रामीणों की आय बढ़ी हुई दिखायी ज़रूर गयी है, पर गाँवों में बसने वाले लोगों की आय का अंदाज़ा इसी से लगाया जा सकता है कि उन्हें गाँवों के ही कुछ पैसे वाले लोगों से 10 से 12 प्रतिशत ब्याज पर क़ज़र् उठाना पड़ता है। कई ग्रामीणों ने बताया कि उनकी आय नहीं बढ़ी है, उन्हें तो हर दिन एक-एक पैसे के लिए दि$क्क़तों का ही सामना करना पड़ता है।

ओंकार नाम के एक ग्रामीण ने बताया कि उनके पास न तो ज़्यादा खेती है और न ही कोई रोज़गार है। तीन बच्चों की पढ़ाई और पालने का ख़र्च बहुत ज़्यादा है। मज़दूरी कभी-कभी मिल जाती है, जिससे गुज़ारा भी नहीं हो पता। मोहन स्वरूप नाम के एक किसान ने बताया कि उनकी सात बीघा खेती है, पर गुज़ारा नहीं हो पाता। बेटी की शादी में क़ज़र् लिया था, चार साल हो गये और अभी क़ज़र् नहीं चुका पाया है। एक बेटा है, जो बाहर रहकर फैक्ट्री में नौकरी करता है, पर उसकी उतनी तन$ख्वाह नहीं है कि वो हमारी मदद कर सके। कुछ लोगों को छोड़कर दूसरे ज़्यादातर ग्रामीणों की भी कुछ ऐसी ही दशा है।

हमारा देश एक कृषि प्रधान देश होने के बाद भी किसानों का जीवन-यापन आसान नहीं है। खेती पर निर्भर किसानों और मज़दूरों की आर्थिक दशा बहुत अच्छी नहीं है। गाँवों में संख्या भी उन्हीं की ज़्यादा है। हमारे देश के सभी राज्यों में ज़्यादातर किसानों और मज़दूरों की स्थिति बहुत दयनीय है। उनकी आय उनके ख़र्च से बहुत कम है। किसानों को हर दिन आय नहीं होती है। सब्ज़ियाँ उगाने वाले किसानों को भी सप्ताह या महीने में ही कुछ पैसा देखने को मिलता है। लेकिन खेती में लागत हर दिन लगती है। बुवाई, बीज, खाद, पानी, दवाई, जुताई, निकाई, गुड़ाई, ढुलाई, कटाई और बाज़ार में फ़सलें बेचने जाने तक किसान को पैसा ख़र्च करना पड़ता है। साथ ही खेती में हर दिन परिश्रम की ज़रूरत रहती है, जो किसान परिवार ख़ुद ही ज़्यादातर करता रहता है। महँगाई और लागत बढ़ने के हिसाब से किसानों की आय नहीं बढ़ी है, दोगुनी आय की तो बात ही नहीं है। लेकिन नेशनल बैंक फॉर एग्रीकल्चर ऐंड रूरल डेवलपमेंट (नाबार्ड) के ऑल इंडिया रूरल फाइनेंशियल इन्क्लूजन सर्वे 2021-22 में ऐसा ही दिखाया गया है। ये सर्वे धरातल पर कितने सही हैं और हुए हैं कि नहीं, इस बारे में नाबार्ड ही बेहतर जाने। ग्रामीणों तो बता रहे हैं कि उनकी आय नहीं बढ़ी है, जितनी आय बढ़ी है, उससे ज़्यादा ख़र्चे बढ़े हैं।

नाबार्ड ने बताया है कि देश में सबसे ज़्यादा आय पंजाब के किसानों की है, जहाँ का हर किसान परिवार हर महीने औसतन 31,433 रुपये कमाता है। इसके बाद हरियाणा के किसान परिवारों की आय दूसरे नंबर पर है, जहाँ हर किसान परिवार की औसत आय 25,655 रुपये महीने तक है। केरल भी किसान परिवारों की आय में आगे है, जहाँ हर किसान परिवार की आय 22,757 रुपये महीना है। वहीं देश के सबसे बड़े राज्‍य उत्तर प्रदेश में किसान परिवारों की औसत आय 10,847 रुपये महीना ही है। देश में सबसे कम आय बिहार के किसानों की है, जहाँ हर किसान परिवार 9,252 रुपये महीने की ही औसत आय पर गुज़ारा कर रहा है। नाबार्ड ने बताया है कि वित्त वर्ष 2016-17 में 18 राज्यों के किसान परिवारों की औसत आय 10,000 रुपये महीने से भी कमा थी। नाबार्ड ने बताया है कि उत्तर प्रदेश में पाँच वर्षों में किसान परिवारों की आय 63 प्रतिशत बढ़ी है। वित्त वर्ष 2016-17 में उत्तर प्रदेश में कृषि परिवारों की औसत आय 6,668 रुपये महीने ही थी। दूसरी तरफ़ नाबार्ड ने अपने सर्वेक्षण एनएफएमएस में बताया है कि वित्त वर्ष 2021-22 में ग्रामीण लोगों पर क़ज़र् वित्त वर्ष 2016-17 की अपेक्षा 47.4 प्रतिशत बढ़ गया है। नाबार्ड ने बताया है कि वित्त वर्ष 2024-25 में बैंकों ने कृषि क़ज़र् का रिकॉर्डतोड़ वितरण किया है, पर यह क़ज़र् 20 ट्रिलियन रुपये के लक्ष्य के साथ अस्थिर बना हुआ है। अब नाबार्ड पूरे देश में विभिन्न पायलट एसोसिएट्स को लागू कर रहा है, जिसमें वह कृषि क़ज़र् के कारोबार में तेज़ी करेगा और इसके लिए नाबार्ड रिजर्व बैंक की इकाई भारतीय रिजर्व बैंक की भागीदारी लेकर सहायता लेगा। नाबार्ड ने क्लाइमेट स्ट्रेटेजी 2030 तैयार की है, जिसमें हमारे देश की हरित आधारभूत ज़रूरतों को पूरा करने का उद्देश्य है। लेकिन ग्रामीणों को क़ज़र् की व्यवस्था करने के अलावा ग्रामीण विकास में नाबार्ड का कोई योगदान ऐसा नहीं है, जिससे किसानों की आर्थिक मज़बूती बढ़ सके।

यहाँ किसानों को जान लेना चाहिए कि नाबार्ड सीधे व्यक्तिगत रूप से किसानों को सीधे क़ज़र् कभी नहीं देता है। उसने ग्रामीण और सहकारी बैंकों के द्वारा ही किसानों को क़ज़र् देने का काम किया है। वह वित्तीय संस्थानों और ग्रामीण क्षेत्रों से जुड़े बैंकों को ही वित्तीय मदद देता है, जिसे नाबार्ड द्वारा लिये जाने वाले ब्याज से ज़्यादा पर बैंक उठाते हैं। इससे किसानों पर नाबार्ड का नहीं, बैंकों का दबाव रहता है। नाबार्ड ने वित्त वर्ष 2023-24 के दौरान झारखण्ड के विकास के लिए 6,200 करोड़ रुपये का क़ज़र् देने की पेशकश की थी। हर राज्य को नाबार्ड क़ज़र् देने का काम करता है, जिससे ग्रामीणों पर क़ज़र् बढ़ता जा रहा है। हमारे देश में घनी आबादी वाले ग्रामीण इलाक़ों में कृषि और कृषि आधारित उद्योग जलवायु पर निर्भर हैं। इससे किसानों को फ़सलों की मनचाही उपज नहीं मिल पाती। इसके अलावा किसानों को फ़सलों का सही मूल्य नहीं मिल पता। इन सबके चलते ज़्यादातर किसान समय पर बैंक का क़ज़र् नहीं उतार पाते हैं और क़ज़र्दार होते चले जाते हैं।

उद्योगपति कभी नहीं चाहते कि ग्रामीण लोग ख़ुशहाल हों और वो छोटे-छोटे कृषि सम्बन्धी उद्योग भी चला सकें। अगर ऐसा होता है, तो उद्यमियों की बढ़ी हुई आय घटने लगेगी और उन्हें अमीरी पर ख़तरा मँडराता दिखने लगता है। इसलिए ग्रामीण क्षेत्रों को उद्यमों से दूर रखने की भी साज़िश होती है, जिससे ग्रामीण लोग आत्मनिर्भर न बन सकें। नाबार्ड ने यह ज़रूर कह दिया है कि वह ग्रामीण लोगों की आय बढ़ते देख रहा है और नाबार्ड इसमें अपना योगदान भी दिखा रहा है, पर ग्रामीणों की आय धरातल जितनी बढ़ी है, उससे ज़्यादा उनका ख़र्च बढ़ा है। ग्रामीण क्षेत्रों में अगर ख़ुशहाली आयी भी है, तो उसके पीछे घर में किसी-न-किसी सदस्य को बाहर रहकर नौकरी करके या फिर व्यापार करना है। इसमें नाबार्ड की कोई ख़ास पहल नहीं मानी जा सकती। नाबार्ड 2024-25 में पोलैंड में सोशल बैंक जारी करने की योजना बना रहा है; पर हमारे देश के कई राज्यों में किसान और मज़दूर क़ज़र् में भी डूब रहे हैं। किसानों के क़ज़र् को माफ़ करने का काम भी नहीं हो रहा है। उचित एमएसपी के इंतज़ार में आज भी किसान हैं और उन्हें इसके लिए कई वर्षों से केंद्र सरकार से संघर्ष करना पड़ रहा है। नाबार्ड ने ग्रामीण परिवारों की आय बढ़ने के दो साल पहले के आँकड़े इस साल दिये हैं। लेकिन ग्रामीणों की समस्याओं और आर्थिक तंगी को लेकर अभी सच बाहर नहीं आया है। ग्रामीण युवाओं के पास रोज़गार की कमी है, जिसे लेकर नाबार्ड को बताना चाहिए था। अभी ग्रामीणों को सरकार की काफ़ी मदद की ज़रूरत है, जिससे उनका जीवन स्तर ऊँचा उठ सके और वे ख़ुशहाल हो सकें।