भट्ट कैंप की छाप वाली आजू-बाजू खड़ी दो फिल्मों के संगीत में कितना अंतर है. ‘सिटीलाइट्स’ और ‘एक विलेन’. दोनों ही फिल्मों ने अपने-अपने हिस्से के दर्द को अलग-अलग जिंदगियों से चुना है. सिटीलाइट्स का दर्द सच्चा-अपना है तो एक विलेन के ज्यादातर गीत मैन्यूफैक्चर्ड दर्द पर आत्ममुग्ध हैं. एक विलेन अपने संगीत के लिए उस सिलबट्टे को चुनती है जिसपर पीसकर दर्द ज्यादा गाढ़ा निकलता है, और नैराश्य इतना महीन कि उसे दर्द का मांझा बना रूह के जिस हिस्से को आप चाहो, काट सको. इस प्रक्रिया में कई गीत गहरे उतर कर भी रूखे और सूखे रह जाते हैं.
फिल्म का सबसे अच्छा गाना, जाहिर है, ‘गलियां’ ही है. इतनी बार सुन चुके हैं कि अच्छा लगने लगा है कहना यहां सही नहीं है, वो दलील हिमेश के गानों के लिए ही अच्छी रहती है.‘गलियां’ में अंकित तिवारी अपने सितार, बांसुरी, गायकी और संगीत को इतनी नफासत से उनकी तयशुदा जगहों पर रखते हैं कि गाना सुनने में मजा आता है. दर्द इसका भी मशीन-निर्मित है, लेकिन बर्दाश्त की हद में रहता है, बुरा नहीं लगता. एक अच्छा गीत. इसका अनप्लग्ड वर्जन खासतौर पर श्रद्धा कपूर गाती हैं, और उनकी आवाज गाना नहीं सीख पाई एक छोटी बच्ची के रुंधे गले की आवाज है. नहीं गाना था. दूसरा अच्छा गीत अरिजीत का है, ‘हमदर्द’, धुनें पुरानी हैं लेकिन अरिजित अपनी आवाज में जाने कौन-सी चाशनी लपेटते हैं कि गाना मीठा भी लगता है और दर्द भी होता है. इसके अलावा दो और गाने हैं जिन्हें लिख मिथुन ने संगीत दिया है, दोनों ही झूठे दर्द से लबालब भरे हुए. गायक मुस्तफा जाहिद और मोहम्मद इरफान को अरिजित से सीखना चाहिए, दर्द को अपना बनाना. आखिरी गीत सोच बैंड का ‘आवारी’ है, कैलाश खेर की याद ज्यादा दिलाता है, एलबम का दुखद अंत करता है.