‘मल्टीप्लेक्स पॉपकॉर्न बेचने के लिए खोले गए हैं, उनके लिए बाजीराव मस्तानी या चौरंगा कोई मतलब नहीं रखता’

P

फिल्म को  ‘चौरंगा’  नाम क्यों दिया? इसका अर्थ क्या है?

इसकी दो वजहें हैं. एक तो चौरंगा का मतलब ही होता है चार रंग. दूसरा फिल्म एक तरह से हमारी वर्ण व्यवस्था से जुड़ी हुई है. हिंदू वर्ण व्यवस्था के अनुसार समाज को चार जातियों में बांटा गया है- ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र. यह व्यवस्था ऐतिहासिक रूप से हमारी संस्कृति और समाज का हिस्सा रही है, लेकिन पुराने समय में शायद जातियों के बीच दीवार नहीं रही होगी. ऐसा कहानियों में आता है कि वाल्मीकि शूद्र थे. वे डकैत हुआ करते थे. बाद में उन्होंने तपस्या की और फिर रामायण लिखी. इस तरह से वह शूद्र से ब्राह्मण हो गए. इसी तरह विश्वामित्र क्षत्रिय थे. उन्होंने तपस्या की और ब्राह्मण बन गए. धर्मशास्त्रों में कहा गया है, ‘जन्मना जायते शूद्रः संस्कारात्भवेत द्विजः, वेद पाठात्भवेत्विप्रः ब्रह्म जानातीति ब्राह्मणः.’ मोटी-मोटा इसका अर्थ ये है कि व्यक्ति जन्म से शूद्र होता है लेकिन अपने कर्मों से बाह्मण हो जाता है. हालांकि समाज में जैसे-जैसे कर्मकांड बढ़ता गया वैसे-वैसे रूढ़िवादिता कायम होती चली गई. आप किसी भी परिवार (जाति) में पैदा हो जाएं और कुछ भी कर लें लेकिन आप उसी जाति के होकर ही मरेंगे. भले ही कर्म से आप कुछ भी बन जाएं. यानी अगर आप शूद्र पैदा हुए तो जीवनभर शूद्र ही रहेंगे. इससे गैर-बराबरी आई और ये व्यवस्था समाज में अपनी जड़ें और गहरी जमाती गई. हमारे यहां चुनाव के समय जातीय गठबंधन होते हैं और हम लोकतांत्रिक देश में रहते हैं. गांव या छोटे शहरों में आप देख सकते हैं कि हर कोई आपके घर नहीं आ सकता है. अगर कोई आता है तो आप उसको खिला सकते हैं या नहीं, वो आपके घर खा सकता है या नहीं, इसके बारे में अब भी सोचा जाता है. आप किसी भी अखबार के मेट्रीमोनियल पेज को देख लें उसमें जाति के साथ उपजाति और गोत्र तक समान होना चाहिए तब शादी की बात आगे बढ़ती है. ये हमारे आज के समाज की सच्चाई है. चौरंगा की कहानी इसी जाति व्यवस्था पर चोट करती है. यह चौदह साल के एक बच्चे की प्रेम कहानी है, जो चार रंगों से अपना पहला प्रेम पत्र लिखता है. चार रंगों वाला  पेन उसका बड़ा भाई उसे देता है. इन्हीं वजहों से हमारी फिल्म को चौरंगा नाम मिला.

फिल्म का मुख्य किरदार 14 साल का एक बच्चा है. बाल कलाकारों को केंद्र में रखकर फिल्म बनाते समय कलाकारों का चयन मुश्किल होता है. अक्सर बाल कलाकार फिल्मों में दोहराये नहीं जाते. आपने इन्हें कैसे ढूंढा? किसका अभिनय ज्यादा पसंद आया?

फिल्म में मुख्य किरदार चौदह साल का संतू है. यह किरदार सोहम मैत्रा ने निभाया है. इसके अलावा ऋद्धि सेन उसके बड़े भाई बजरंगी और एना साहा मोना के किरदार में हैं, जिससे संतू को प्यार होता है. ये तीनों बंगाली सिनेमा के जाने-पहचाने नाम हैं. हिंदी में ये उनकी पहली फिल्म है. ये तीनों मंजे हुए कलाकार हैं. ऋद्धि ने इससे पहले फिल्म ‘कहानी’ में भी काम किया है. और ऐसा नहीं है कि बच्चों को एक फिल्म के बाद दूसरी में नहीं लिया जाता. होता ये है कि बच्चे बहुत जल्दी बड़े होते हैं. किसी फिल्म के लिए आपको लगता है कि कोई बच्चा फिट है, लेकिन जब तक फिल्म शुरू होती है वह बच्चा बड़ा हो जाता है. ऐसा कोई परहेज नहीं है कि किसी बच्चे को दोबारा किसी फिल्म में नहीं लिया जा सकता. ये तीनों बच्चे ऑडिशन के जरिये आए. इससे पहले बहुत सारे बच्चों के साथ वर्कशॉप की थी. सबसे पहले ऋिद्ध मिला. सोहम एक ऐसे समय मिला जब लगा था कि उसके रोल के लिए कोई मिल ही नहीं पाएगा. एक बच्चे के साथ काम शुरू किया था, लेकिन ऐन वक्त उसे स्कूल से छुट्टी नहीं मिली पर किस्मत से सोहम मिल गया. वैसे ये तीनों अलग तरह के कलाकार हैं. सोहम बहुत ही स्वतः स्फूर्त, स्वाभाविक और सहज कलाकार है. ऋद्धि ने लंदन के रॉयल एकेडमी ऑफ आर्ट्स में ट्रेनिंग ली है. वह स्थितियों को बहुत ही अच्छे से समझता है और उसे बहुत ही इमोशनल तरीके से अपने अभिनय में उतार देता है. एना ने टीवी में काफी काम किया है. आजकल वह दक्षिण भारतीय फिल्मों में भी काम कर रही हैं.

छोटी जाति के लड़के और ऊंची जाति की लड़की के बीच प्रेम के मुद्दे पर फिल्म बनाने का विचार कैसे आया?

यह फिल्म एक असल घटना से प्रेरित है. 2008 में बिहार के कैमूर जिले के एक गांव में छोटी जाति के एक लड़के ने ऊंची जाति की एक लड़की को लव लेटर दे दिया था, जिसके बाद गांववालों ने बहुत ही बेरहमी से उसे ट्रेन के आगे फेंक दिया था और उसकी मौत हो गई. इसी घटना ने मुझे ‘चौरंगा’ लिखने के लिए प्रेरित किया. हां, लेकिन चौरंगा में बिल्कुल वही घटना नहीं है. इसमें बहुत बदलाव किए गए हैं. मैं झारखंड के एक गांव से आता हूं. मैंने कल्पना की कि अगर वह दर्दनाक हादसा मेरे गांव में होता तो क्या होता. मैंने फिल्म की कहानी मेरे गांव के हिसाब से बुनी है.

निर्देशक ओनीर और संजय सूरी का साथ कैसे मिला?

2010 की बात है. ओनीर मुझे एनएफडीसी के स्क्रीन राइटर्स लैब में मिले थे, जहां चौरंगा की स्क्रिप्ट पहली बार चुनी गई थी. ये उनसे पहली मुलाकात थी. ओनीर को चौरंगा की कहानी पसंद आई. उन्होंने फिल्म बनाने में मेरी मदद की बात कही और फिल्म के प्रोड्यूसर बन गए. उस समय वो फिल्म ‘आई एम’ बना रहे थे जो क्राउड फंडिंग से बनी भारत की पहली फिल्म है. उनके पास पैसे नहीं थे, लेकिन उन्होंने कहा कि हमें धैर्य रखने की जरूरत है. एक न एक दिन ‘चौरंगा’ जरूर बनेगी. आज उनकी बात बिल्कुल सच निकली. संजय ओनीर के साथ मिलकर काम करते हैं. इस तरह दोनों का साथ मिल गया.

रिलीज से पहले ही  ‘चौरंगा’  कई पुरस्कार जीत चुकी है. ओनीर ने तो यहां तक कह दिया है कि इसे राष्ट्रीय पुरस्कार मिलना चाहिए?

अच्छा, ऐसा बोला ओनीर ने… देखिए, होता क्या है जब उनसे पूछा गया होगा कि फिल्म को राष्ट्रीय पुरस्कार मिलना चाहिए तो उन्होंने कहा होगा कि हां, बिल्कुल मिलना चाहिए. जब कोई फिल्म बनाता है तो उसकी हमेशा इच्छा होती है कि फिल्म को हर तरह की सफलता मिले. अब कोई पूछेगा कि क्या आपकी फिल्म सौ करोड़ क्लब में शामिल हो पाएगी. अब हमें मालूम है कि नहीं जा पाएगी, लेकिन इच्छा की बात करें तो बिल्कुल इच्छा होती है. ओनीर ने जब ये कहा होगा कि राष्ट्रीय पुरस्कार मिलना चाहिए तो दो चीजें हैं इसमें. एक तो ये है कि उन्हें फिल्म पर पूरा भरोसा है. दूसरा इस तरह की इच्छा हर फिल्म बनाने वाले की होती है.

‘चौरंगा’ जातिगत प्रेम पर आधारित फिल्म  ‘मसान’  और मराठी फिल्म  ‘फंड्री’  से आपकी फिल्म किस तरह से अलग है?

आपने सही कहा कि मसान में भी बहुत हद तक ये मसला आया है, लेकिन कोई फिल्म किसी एक मसले पर ही नहीं होती. चौरंगा का जो किरदार है वो मसान और फंड्री के किरदार से बहुत अलग है. इसकी कहानी भी अलग है. मुझे लगता है कि चौरंगा दूसरी फिल्मों से इसलिए अलग है क्योंकि यह एक ऐसी जगह की कहानी है जहां की कहानी शायद ही आपने देखी होगी. यह झारखंड के एक गांव की कहानी है. झारखंड और गांव दोनों ही हिंदी सिनेमा से लगभग नदारद हैं. जहां तक मुझे हिंदी सिनेमा का इतिहास पता है मेरे जेहन में ऐसी कोई फिल्म नहीं आती है, जिसमें चौदह साल का एक दलित किरदार हीरो है. इस मायने में मुझे लगता है कि चौरंगा अलग है. मसले के लिहाज से फंड्री और मसान में भी ये मुद्दा महत्वपूर्ण था. कुछ हद तक फिल्म कोर्ट में भी इस मुद्दे पर चर्चा हुई थी. मुझे बहुत ही अच्छा लगता है जब ऐसी फिल्मों के साथ चौरंगा का नाम जोड़ा जाता है, क्योंकि ये बहुत ही अच्छी फिल्में हैं और ऐसे लोगों ने बनाई हैं, जिन्हें मैं निजी तौर पर जानता हूं. मुझे अच्छा लगता है कि इन लोगों के बीच मुझे भी जगह मिल रही है.

पिछले कुछ सालों में क्षेत्रीय सिनेमा (खासकर मराठी और दक्षिण भारतीय फिल्मों) ने राष्ट्रीय स्तर पर बहुत ही मजबूत उपस्थिति दर्ज कराई है. क्या बॉलीवुड के लिए यह खतरे की घंटी है?

इस समय हिंदी सिनेमा की जो दिशा है वो ये है कि अच्छी विषयवस्तु वाली फिल्में अच्छा कर रही हैं. सिर्फ स्टारकास्ट के दम पर फिल्में नहीं चलतीं अच्छी फिल्मों के लिए अच्छी स्क्रिप्ट बहुत जरूरी मानी जाती है. इसे अब पूरी इंडस्ट्री स्वीकार कर रही है. ऐसा नहीं है कि आप शाहरुख खान या सबसे बड़े फिल्मकार के साथ फिल्म बना दें तो वह चल जाएगी. कहानी अच्छी होगी, दर्शक उससे जुड़ पाएंगे तभी वह चल पाएगी. मुझे लगता है कि पूरी इंडस्ट्री इसी दिशा में आगे बढ़ रही है. हिंदी सिनेमा के हिसाब से ये बहुत ही सकारात्मक बदलाव है क्योंकि पहले बहुत अराजनीतिक फिल्में बनती थीं. लोग हर ऐसी चीज से दूर रहना चाहते थे जिसे लेकर कोई राजनीतिक बहस शुरू हो सकती थी, लेकिन फिल्मकारों की जो नई पीढ़ी आई है वह बहुत ही जागरूक और सक्रिय है. वे तमाम मसलों पर अपना पक्ष रखते हैं. मुझे लगता है कि अच्छी कहानी और अच्छी कहानियां कहने वालों के लिए अच्छा वक्त आ रहा है.

जहां तक क्षेत्रीय सिनेमा की बात है तो इससे हिंदी सिनेमा को खतरा नहीं. हिंदी सिनेमा के साथ एक बहुत बड़ी दिक्कत है जो क्षेत्रीय सिनेमा के साथ नहीं है. हिंदी सिनेमा है तो क्षेत्रीय लेकिन इससे राष्ट्रीय स्तर की अपेक्षाएं की जाती हैं. मराठी फिल्म मराठी लोग बनाते हैं, मराठी कलाकारों के साथ बनाते हैं और उसे मराठी बोलने और समझने वाले देखते हैं. लेकिन हिंदी सिनेमा हिंदी बोलने वाले लोगों की तरह विस्थापित लोगों का सिनेमा है. जैसे मैं झारखंड का हिंदी भाषी हूं. फिल्म बनाने के लिए मुझे अपना शहर छोड़कर मुंबई आना पड़ता है, नहीं तो मेरी फिल्म हिंदी दर्शकों तक पहुंच ही नहीं पाएगी. हिंदी सिनेमा चूंकि विस्थापित लोगों का सिनेमा है इसलिए यह अलग तरह से विकसित हो रहा है.

[box]

Untitled-1मैं पत्रकार रहा हूं. दिल्ली में जी-न्यूज में काम किया. फिर मुंबई आ गया सीएनबीसी आवाज में. इससे पहले छोटे-बड़े कई अखबारों में भी काम कर चुका था. ज्यादातर काम हिंदी अखबारों में किया है. हजारीबाग में ‘हजारीबाग टाइम्स’ व जमशेदपुर के एक सिंगल एडिशन अखबार में काम किया. रविवार को जनसत्ता का परिशिष्ट आता था ‘सबरंग’, उसमें मैं कहानियां लिखा करता था. प्रभात खबर अखबार में भी कभी-कभी लेख लिखता था

बिकास रंजन मिश्रा

[/box]

गत वर्षों में लगातार अर्थपूर्ण फिल्में आ रही हैं? क्या आपको लगता है कि मुद्दा या विषय आधारित फिल्में समाज की सोच बदल रही हैं?

देखिये, मुझे इस बात से दिक्कत है जब आप बोलते हैं कि चौरंगा विषय आधारित फिल्म हैं. मैं कहता हूं कि बाजीराव मस्तानी भी विषय आधारित फिल्म हैं. यह एक ब्राह्मण पेशवा की कहानी है. यह भी जात-पात के बारे में है और हर फिल्म एक तरह से जात-पात के बारे में होती है. हर फिल्म का हीरो ऊंची जाति का एक हिंदू होता है. हर फिल्म मुद्दा आधारित होती है, कुछ मुद्दों को नजरअंदाज करके मुद्दे बन जाते हैं, लेकिन जब आप चौदह साल के एक दलित बच्चे की कहानी सुनाते हो तो लोग कहते हैं कि ये फिल्म दलित मुद्दे पर बनी है. जब आप ऊंची जाति के युवा को लेकर फिल्म बनाते हैं तब आप नहीं बोलते हैं कि यह उच्च वर्ग के हिंदू की कहानी है. बाजीराव मस्तानी के बारे में कोई नहीं बोलता है कि यह बहु-पत्नी प्रथा पर आधारित कहानी है. ये एक दोहरा रवैया है कि जब आप हाशिये के लोगों की बात करते हो तो फिल्म को उस पर ही आधारित बता दिया जाता है, लेकिन जब बड़े बजट की फिल्म की बात होती है तो इस तरह के मुद्दे गायब हो जाते हैं.

इसके अलावा फिल्म से समाज बदलता है या नहीं, अपने आप में यह सवाल विवादास्पद है. ये शोध का मुद्दा है लेकिन सिनेमा कहीं न कहीं लोगों और उनकी सोच पर प्रभाव जरूर डालता है. फर्क इतना है कि सिनेमा लोगों के पहनावे और भाषा पर ज्यादा असर डालता है. लोग उसे फैशन के तौर पर अपनाते हैं. समाज की सोच पर प्रभाव पड़ता है या नहीं यह तो धीरे-धीरे पता चलेगा, लेकिन मुझे लगता है कि कहीं न कहीं फर्क तो पड़ता है, लेकिन ऐसा नहीं है कि अच्छी फिल्में बनाकर आप एक अच्छा समाज बना देंगे. ये है कि कई मुद्दे हैं जिन पर बात नहीं होती थी, अगर वे बातचीत का मुद्दा बन जाएं तो ये अपने आप में बहुत बड़ी बात होती है. अगर कॉलेज का कोई छात्र चौरंगा देखने पहुंचता है और उससे विचलित होता है तो यह मेरी फिल्म के लिए बहुत बड़ी उपलब्धि होगी.

मल्टीप्लेक्स में फिल्में देखना लगातार महंगा होता जा रहा है. बड़ी बजट की फिल्मों की ही टिकट दर छोटी फिल्मों की भी रखनी पड़ती है. ऐसे में छोटी फिल्मों को नुकसान उठाना पड़ता है. क्या टिकट दर अलग-अलग होने चाहिए?

अभी मैंने एक रिपोर्ट पढ़ी जिसके मुताबिक, 2014 के मुकाबले 2015 में हिंदी सिनेमा का व्यापार छह से सात प्रतिशत तक नीचे आ गया और इसके लिए बड़ी फिल्में जिम्मेदार हैं, उनका बिजनेस कम हो गया. अच्छा बिजनेस छोटी फिल्मों ने किया. खैर यह एक पहलू है. मुझे लगता है कि इस मामले में सरकार को थोड़ी मदद करनी चाहिए. अभी सरकार फिल्मों से सिर्फ वसूली का काम करती है. फिल्म का जो बजट होता है उसका तकरीबन 40 प्रतिशत सरकार सर्विस टैक्स ले लेती है और टीडीएस कटता है. इसके बाद जब फिल्म बनकर आती है तो सरकार 40 से 100 प्रतिशत तक मनोरंजन कर लगाती है. इस पैसे से फिल्म इंडस्ट्री में वापस कुछ नहीं आता. हालांकि चौरंगा के मामले में मैं खुशनसीब हूं कि मुझे सरकार से पैसे मिले हैं. एनएफडीसी हमारी फिल्म की प्रोड्यूसर है. मुझे लगता है कि सरकार अगर इतना टैक्स लेती है तो उसे थोड़ा सहयोग भी करना चाहिए. बड़ी फिल्मों जैसे- दिलवाले, बाजीराव मस्तानी से सरकार पैसे कमाए, लेकिन जब छोटी फिल्में आएं तो उन्हें मनोरंजन कर से मुक्त रखना चाहिए. इसका फायदा दर्शकों को मिलेगा. इससे ज्यादा दर्शक आएंगे, इस तरह की फिल्में देखेंगे और एक बातचीत शुरू होगी.

दूसरी ओर मल्टीप्लेक्स पॉपकॉर्न बेचने के लिए खोले गए हैं. उनके लिए बाजीराव मस्तानी या चौरंगा कोई मतलब नहीं रखता. उनके लिए मतलब रखता है कि जो लोग आ रहे हैं वे कितना पॉपकॉर्न खा रहे हैं. उन्होंने मल्टीप्लेक्स बनाने में बहुत पैसा खर्च किया है और उन्हें उसकी भरपाई करनी है. इसलिए वहां टिकट महंगे होते हैं. यहां पर सोचने वाली बात ये भी है कि सरकार क्यों छोटी और बड़ी फिल्म के बीच भेद नहीं करती, सभी फिल्मों पर एक समान टैक्स क्यों लगाती है?

एक बच्चे की प्रेम कहानी पर आधारित चौरंगा को  ‘ए’  सर्टिफिकेट मिला है. सेंसर बोर्ड ने किन बातों पर आपत्तियां जताईं?

सेंसर बोर्ड ने फिल्म के कुछ सीन कटवा दिए हैं और कुछ डायलॉग्स में फेरबदल करवाए हैं. हाल ये है कि इस देश में फिल्म मस्तीजादे को भी ‘ए’ सर्टीफिकेट मिलता है और चौरंगा को भी. ऐसा क्यों होता है ये तो सेंसर बोर्ड जाने. समझ नहीं आता कि ये कैसे काम करता है. इस बोर्ड का नाम सेंसर बोर्ड नहीं है, उसका नाम है सेंट्रल बोर्ड ऑफ फिल्म सर्टिफिकेशन. इस लिहाज से इनको फिल्म को सर्टिफिकेट देने का काम करना चाहिए. उन्हें फिल्म के सीन काटने के लिए कहना ही नहीं चाहिए. वे हमें ‘ए’ सर्टिफिकेट दें इससे हमें कोई परेशानी नहीं है, लेकिन वे ये कहते हैं पहले आप पांच सीन हटाइए फिर आपको ‘ए’ सर्टिफिकेट देंगे. यहां हमें दिक्कत है. इसका मतलब ये हुआ कि अगर मैं कहूं कि मैं इसके लिए तैयार नहीं तो वे कहेंगे कि सर्टिफिकेट नहीं देंगे. यानी आपकी फिल्म बैन हो गई.

ये अच्छा माहौल नहीं है. जो लोग फिल्म बनाते हैं, चाहे वो एक्टर हो या डायरेक्टर, वे बहुत मेहनत करते हैं. इससे वे फिल्म बनाने की कला को सीखते हैं. लेकिन जो फिल्म को सर्टिफिकेट देते हैं उन्होंने क्या किया है? फिल्म में क्या दिखाना चाहिए और क्या नहीं, जो ये बताने वाले हैं उनकी योग्यता क्या है. जो लोग ये निर्णय लेते हैं उन्हें अभिभावक बनकर वहां नहीं बैठना चाहिए. अभी श्याम बेनेगल की अध्यक्षता में एक कमेटी बैठी हैं, जो इस पूरी प्रक्रिया की समीक्षा कर रही है. मैं उम्मीद करता हूं कि कमेटी की सिफारिशें आएं उसे लागू भी किया जाए. हालांकि अब तक ये सरकार सिर्फ वादों तक ही सीमित है. कई बार कहा गया था कि पहलाज निहलानी को हटा दिया जाएगा, लेकिन ऐसा कुछ हुआ नहीं है. पिछले साल सेंसर बोर्ड ने कुछ शब्दों के फिल्मों में इस्तेमाल पर प्रतिबंध लगा दिया था. बोर्ड ने चौरंगा से भी एक शब्द (गाली) हटाने के लिए कहा था. जबकि अब उस शब्द से प्रतिबंध हटा दिया गया है. साफ तौर पर कुछ समझ नहीं आता कि सरकार करना क्या चाहती है. आखिरकार उस शब्द को हमें फिल्म से हटाना ही पड़ा.

P

सेंसर बोर्ड द्वारा फिल्मों पर बैन और काट-छांट कहां तक सही है? क्या आप सिनेमा के लिए खतरा महसूस करते हैं?

हां, बिल्कुल खतरा महसूस करते हैं. आज हर कोई जेब में इंटरनेट लेकर घूम रहा है. ऐसे समय में फिल्मों पर बैन और काट-छांट मुमकिन ही नहीं. नई सरकार आई थी तो 276 पोर्न साइटों पर बैन लगा दिया था, वे स्वच्छ इंटरनेट कैम्पेन चला रहे थे लेकिन ये बैन हटाना पड़ा. सिनेमा में हर कोई अपनी नाक घुसेड़ना चाहता है. स्वास्थ्य मंत्रालय कहता है कि धूम्रपान के दृश्यों के समय स्क्रीन पर लिखना होगा कि यह हानिकारक है. सरकार फिल्मकारों को थोड़ी आजादी तो दे ताकि वे फिल्म बना सकें. ये ठीक बात है कि धूम्रपान से बहुत नुकसान होता है, लेकिन फिर आप सिगरेट बेचने क्यों देते हो, बंद कर दो!

देश और समाज में सब कुछ अच्छा चल रहा है, सिनेमा सिर्फ उतना दिखाने भर का माध्यम नहीं है. कई दफा ऐसा होता है कि आप कुछ देखते हैं, सोचते हैं, विचलित होते हैं. कुछ चीजें आपको इतना विचलित कर देती हैं कि आप उसकी कहानी दूसरों को सुनाना चाहते हो. ये जगह तो सरकार छीनती जा रही है. सरकार देश को सुधारे, वह सिनेमा को क्यों सुधारना चाह रही है? सिनेमा के अंदर देश की जो छवि दिखाई जाती है उसे वह क्यों सुधारने में लगी है? इससे कुछ नहीं होने वाला. ये झूठ होगा. ये सच होता तो उत्तर कोरिया विश्व का सबसे अच्छा देश होता. उन्हें कुछ मालूम ही नहीं कि उनके देश में क्या दिक्कतें हैं. एक ऐसा समाज क्यों बनाना चाहते हो जो भ्रम में रहता हो, जिसका सच्चाई से कोई राब्ता ही नहीं है. आप अच्छी दुनिया बनाओ तो हम अच्छी-अच्छी फिल्में बनाना शुरू कर देंगे, जिसमें सब कुछ अच्छा-अच्छा ही होगा.

 पत्रकार से फिल्मकार बनने के सफर के बारे में बताइए?

90 के दशक में मैं झारखंड के हजारीबाग में रहता था. मेरे बाबूजी एक सिनेमाघर के वकील हुआ करते थे. वहां वे खुद फिल्म देखते थे और जो अच्छी लगती थी मुझे भी दिखाने ले जाते थे. यहीं सिनेमा के साथ मेरा पहला वास्ता पड़ा. उसके बाद जमशेदपुर पढ़ाई करने के लिए आ गया. वहां कॉलेज के कैंपस में ही दो सिनेमाघर थे. उस दौरान वहां फिल्में ज्यादा देखी, पढ़ाई कम की. ये सिनेमाघर निर्देशक इम्तियाज अली का परिवार चलाता था. इम्तियाज अली हमारे कॉलेज में आए भी थे और स्क्रीन राइटिंग के बारे में वर्कशॉप भी की थी. फिल्म बनाने के बारे में यह मेरी औपचारिक शुरुआत थी. इसके अलावा जमशेदपुर में एक फिल्म सोसायटी थी, जहां देश-विदेश की फिल्में दिखाई जाती थीं. वहां मुझे विश्व सिनेमा के बारे में जानने-समझने का मौका मिला. उसके बाद आगे की पढ़ाई के लिए ‘जामिया’ दिल्ली में आ गया. यहां मास कॉम की पढ़ाई की तो बाकायदा फिल्म बनाने के बारे में एक दरवाजा खुला. मैं फिल्म बनाना चाहता था. दिमाग में ये था कि इसका रास्ता बहुत आसान नहीं है. सो पढ़ाई के साथ नौकरी करता रहा.

मैं पत्रकार रहा हूं. दिल्ली में जी-न्यूज में काम किया. फिर मुंबई आ गया सीएनबीसी आवाज में. इससे पहले छोटे-बड़े कई अखबारों में भी काम कर चुका था. ज्यादातर काम हिंदी अखबारों में किया है. हजारीबाग में ‘हजारीबाग टाइम्स’ में काम किया. जमशेदपुर के एक सिंगल एडिशन अखबार में काम किया. कलकत्ता से रविवार को जनसत्ता का परिशिष्ट आता था ‘सबरंग’, उसमें मैं कहानियां लिखा करता था. प्रभात खबर अखबार में भी कभी-कभी लेख लिखता था.

चौरंगा तक के सफर की बात करूं तो 2010 में इसकी स्क्रिप्ट लिखकर एनएफडीसी के स्क्रीनराइटर्स लैब भेजा, इसे चुन लिया गया. उन्होंने स्विटजरलैंड के लोकार्नो में हुई एक कार्यशाला में भेजा. यही पर ओनीर बतौर प्रोड्यूसर फिल्म से जुड़ गए. चौरंगा की यात्रा ऐसी रही कि काफी जगहों से अंतर्राष्ट्रीय सहयोग भी मिला. अक्टूबर 2014 में फिल्म बनकर तैयार हो गई. भारत के बाहर भी ये कई देशों में गई है और कई देशों में अवॉर्ड भी मिले हैं. अब फिल्म रिलीज हो गई है और लोगों को पसंद भी आ रही है, पर अभी ये शुरुआत भर ही है.