क्या यह कहना सही नहीं होगा कि आपको साहित्य अकादमी पुरस्कार तब मिला जब आपके लिए इसका कोई मतलब नहीं रह गया है?
यह काफी हद तक सही है. पर, मुझे खुशी इस बात की है कि यह पुरस्कार ‘मिलजुल मन’ को मिला. यह पारंपरिक ढंग का उपन्यास नहीं है. इसमें शिल्पगत और भाषागत प्रयोग बहुत हैं. उर्दू शब्दों का भी खूब इस्तेमाल किया गया है. इस उपन्यास का पुरस्कृत होना इस बात का संकेत है कि अकादेमी अपने खांचे से बाहर निकल रही है और लीक से हटकर लिखे गए उपन्यासों के लिए भी द्वार खुल रहे हैं. मैं सोचती हूं कि यह पुरस्कार मुझे बहुत पहले ‘अनित्य’ (1980) पर मिल जाता तो क्या होता? क्या मैं ज्यादा लिखती या जो लिखा है उससे अलग लिखती? मेरा उत्तर है बिल्कुल नहीं. हां, इतना जरूर है कि मेरी रचनाओं का अन्य भाषाओं में अनुवाद बहुत पहले हो जाता जो आज हो रहा है. इतने साल जो मेरे साथ अन्याय हुआ वह नहीं होता. मेरा ठीक से मूल्यांकन नहीं हुआ, शायद वह हुआ होता.
आप ‘चित्तकोबरा’ उपन्यास के कारण साहित्य जगत में चर्चित हुईं. इस उपन्यास पर अश्लीलता का आरोप लगा. उस समय सारिका के संपादक रहे कन्हैयालाल नंदन ने अपनी पत्रिका में आपके तथाकथित अश्लील लेखन के विरुद्ध अभियान चलाया. इन सब ने आपके लेखकीय व्यक्तित्व और साहित्य समाज में आपकी स्थिति को किस कदर प्रभावित किया?
यह बिल्कुल गलत धारणा है कि मैं चित्तकोबरा के कारण चर्चित हुई. मेरे पहले उपन्यास ‘उसके हिस्से की धूप’ की खूब चर्चा हुई. इस उपन्यास से मैं पूरी तरह चर्चित हो गई थी. चित्तकोबरा से पहले ‘डेफोडिल्स जल रहे हैं’ जैसी मेरी कहानियां धूम मचा चुकीं थीं. मैं उस समय की महत्वपूर्ण पत्रिकाओं में बड़े-बड़े रचनाकारों के साथ छप चुकी थी. ‘चित्तकोबरा’ पर हुए विवाद ने मेरे लेखकीय व्यक्तित्व को एकदम नहीं प्रभावित किया. बल्कि मैं और ज्यादा निडर हो गई कि ‘भाड़ में जाएं सब.’ मैंने महसूस किया कि विरोध करने वालों में कोई अकल नहीं है. इसके बाद मेरे मन में इनके लिए कोई इज्जत नहीं रही. इनके विरोध को दरकिनार करके मैंने अपना लेखन जारी रखा. हां, यह जरूर है कि इससे मेरी साहित्यिक स्थिति पर बहुत बुरा प्रभाव पड़ा. इन्हें एक डंडा मिल गया मुझे पीटने के लिए. अनेक लोगों ने सुनी-सुनाई बातों पर बिना पढ़े मेरा विरोध शुरू कर दिया. एक महत्वपूर्ण राजनीतिक उपन्यास होने के बावजूद लोगों ने ‘अनित्य’ का जिक्र करना छोड़ दिया.
आपका विरोध स्त्री रचनाकारों ने भी कम नहीं किया है. आपकी पीढ़ी की ही अन्य स्त्री रचनाकार आपके लेखन से असहमत रही हैं. समकालीनों द्वारा अपने विरोध का आप क्या कारण मानती हैं?
जिस ईर्ष्या के तहत पुरुषों ने मेरा विरोध किया उसी ईर्ष्या के कारण महिलाओं ने भी मेरा विरोध किया. स्त्री रचनाकारों की ईर्ष्या का पता इसी से चलता है कि मेरे साहित्य अकादमी पुरस्कार समारोह में कोई नहीं आई. यहां तक कि मुझे बधाई देने या मेरे घर चाय पीने तक नहीं आईं. ये लोग चित्तकोबरा का विरोध करती हैं, पर इन्हें आजतक समझ में नहीं आया कि वह किस तरह का उपन्यास है. मैं तो कहती हूं कि ममता कालिया, चित्रा मुद्गल, राजी सेठ इनमें से कोई ‘चित्तकोबरा’ जैसा उपन्यास तो छोड़िए उस मिजाज की कोई कहानी भी लिख दें तो मैं अपना साहित्य अकादेमी अवार्ड लौटा दूंगी.
‘चित्तकोबरा’ के जिस अंश पर अश्लीलता का आरोप है, उसमें आपने यौन क्रिया का बहुत ही स्थूल वर्णन किया है. सवाल यह है कि वर्णन की इस भाषा और पोर्नोग्राफी में क्या अंतर है?
पोर्नोग्राफी रोमांचित करता है जबकि वह प्रकरण स्त्री की यंत्रणा को अभिव्यक्त करता है. अगर मुझे सनसनी के लिए लिखना होता तो मैं उस स्थिति में स्त्री को प्रेमी के साथ नहीं दिखाती? मैंने तो उसे पति के साथ दिखाया है. उस वर्णन में न तो रोमांच है न रस है बल्कि यह यांत्रिक और उबाऊ है. वह ‘सेंसुअल’ तो है लेकिन ‘सेक्सुअल’ नहीं है. वह यौन इच्छा को मारता है उसे उत्तेजित नहीं करता. क्या ऐसा पोर्नोग्राफी में होता है? उस वर्णन में पति-पत्नी के बीच सेक्स की यांत्रिकता को दिखाया गया है जो अधिकांश घरों में घटित होता है. वह उस यंत्रणा का वर्णन है जिसमें स्त्री अपने मस्तिष्क से शरीर को अलग कर लेती है.
यह आम धारणा रही है कि पुरुष की यौन संतुष्टि के लिए उसके शरीर और मन का एक होना आवश्यक नहीं है, जबकि स्त्री के लिए ऐसा जरूरी माना जाता है. आप इस बात की जोरदार वकालत करती रही हैं कि स्त्री के लिए भी यह आवश्यक नहीं है. आपका स्त्री के संदर्भ में मन और शरीर के द्वैत पर बल देने का आधार क्या है?
स्त्रियों के लिए मन और शरीर का द्वैत ही परिवार के भीतर यांत्रिक सेक्स की समस्या से निपटने का उपाय है. इस विचार के साथ पासा पलट जाता है. अब तक पुरुष, स्त्री को देह मानता आया है. स्त्री जब मस्तिष्क को शरीर से अलग करती है तो पुरुष उसके लिए सिर्फ देह हो जाता है. कहने का तात्पर्य यह है कि स्त्री भी पुरुष को देह मानकर चल सकती है. अधिकांश घरों में स्त्रियां यही करती हैं. हिंदुस्तान में तो अधिकांश शादियां ‘अरेंज’ होती हैं, यहां तो प्रेम होता ही नहीं है. इसलिए मैं कहना चाहती हूं कि शारीरिक सुख के लिए प्रेम की अनिवार्यता नहीं है बशर्ते कि हिंसा और नफरत न हो. इसका कोई प्रमाण नहीं है कि स्त्री को यौन संतुष्टि के लिए शरीर और मन का मिलना अनिवार्य है. दरअसल पुरुष की यौन संतुष्टि दिखती है. वह इसके बारे में झूठ नहीं बोल सकता. स्त्रियों का दिखता नहीं है.
आपके उपन्यास ‘कठगुलाब’ में जितने भी प्रमुख पुरुष पात्र हैं, सभी स्त्रियों के प्रति लोलुप और यौन हिंसा करने वाले हैं. क्या सभी पुरुष ऐसे ही होते हैं? कोई अच्छा नहीं होता?
सभी नहीं पर अधिकांश पुरुष ऐसे ही होते हैं. किंतु आप देखिए कि उस उपन्यास में बिपिन नाम का पुरुष पात्र भी है. बिपिन एक तरह से सभी बुरे पुरुष पात्रों का जवाब है. उसमें अर्द्ध नारीश्वर का तत्व है. उसमें पुरुष और स्त्री दोनों की संवेदनाओं का मिश्रण है. अगर पुरुष बिपिन की तरह होने की कोशिश करें तो स्त्रियों को कोई समस्या नहीं होगी. मारियन का पिता भी एक उदात्त चरित्र है.
‘मेरे साहित्य अकादमी पुरस्कार समारोह में कोई स्त्री रचनाकार नहीं आईं. यहां तक कि मुझे बधाई देने या मेरे घर चाय पीने तक भी कोई नहीं आया’
इस उपन्यास में असीमा सर्वाधिक विरोधी पात्र है. शुरू में अन्य स्त्री पात्रों की तुलना में उसकी स्थिति ठीक है. किंतु अंत में वह एक असफल पात्र में तब्दील हो जाती है. क्या आपकी नजर में पितृसत्ता से समझौता किए बिना स्त्री का कोई भविष्य नहीं है?
देखिए, असीमा ने कुछ भी बदलने की कोशिश नहीं की बल्कि अपने अंदर की संवेदनाओं को मारने का प्रयास किया. जो भी प्रकृति के विरुद्ध चलेगा वह हारेगा ही. इसमें अस्वाभाविक कुछ नहीं है. रास्ता किसी तरह के अतिवाद में नहीं है बल्कि वह नकार और स्वीकार के बीच से है. पुरुष के नकार से कोई समाधान नहीं निकलेगा. कहीं न कहीं सामंजस्य तो आवश्यक है. यह समझौता नहीं है बल्कि जीवन के लिए अनिवार्यता है. जिसे आप समझौता कहते हैं उसे मैं जीवन कहती हूं. समाधान स्त्री-पुरुष मिलकर ही कर सकते हैं, विरोध या मुकाबले से नहीं.
आप स्त्री मन और पुरुष मन जैसी किसी चीज को नहीं मानती हैं. इसी कारण लेखन के क्षेत्र में स्त्री-पुरुष विभाजन को भी अस्वीकार करती हैं?
मैं स्त्री का अनुभव, स्त्री दृष्टि आदि जैसी किसी चीज को नहीं मानती हूं. इसके बरक्स मैं लेखकीय अनुभव और लेखकीय दृष्टि को महत्व देती हूं. मेरा स्पष्ट मानना है कि स्त्री-पुरुष का विभाजन सिर्फ जैविक विभाजन है और स्त्री-पुरुष के बीच अंतर भी सिर्फ जैविक है, बाकी जो अंतर दिखता है वह संस्कारगत है जिसे खत्म किया जा सकता है. इसलिए मैं कहती हूं कि रचनाकार सिर्फ रचनाकार होता है उसे स्त्री और पुरुष में विभाजित करना ठीक नहीं है. रही बात अनुभव की तो प्रत्येक के अनुभव की एक सीमा होती है. बहुतों को बहुत सारे अनुभव नहीं होते. कोई भी लेखक हर विषय पर नहीं लिख सकता. दूसरी बात यह है कि केवल अनुभव होने मात्र से न तो कोई लेखक बन सकता और न ही कोई रचना लिखी जा सकती है. एक और बात समझने की है कि रचनाकार के लिए परकाया प्रवेश अति आवश्यक है. वही रचनाकार महान होता है जो अपनी संवेदना का अधिक से अधिक विस्तार कर पाता है. मेरा मानना है कि असल सवाल जेंडर का नहीं, संवेदनशीलता का है, परकाया प्रवेश का है, रचनात्मकता का है और अहं के विसर्जन का है.
आपका कहना है कि आत्मकथा लिखने की जरूरत उनको पड़ती है जो रचना में अपने आत्म को खुलकर अभिव्यक्त नहीं कर पाते हैं. इसी कारण आपने स्वयं आत्मकथा लिखने से इंकार किया है. तो क्या आपके लेखन को विशुद्ध आत्मकथात्मक माना जाए?
मैंने लेखन में अपने आत्म को खुलकार अभिव्यक्त किया है. उसमें मेरी आकांक्षाओं और सपनों की अभिव्यक्ति है. उसमें मेरी जीवन की घटनाएं नहीं हैं. दरअसल, मैंने अनेक रचनाकारों की आत्मकथाएं पढ़ी हैं. वे मुझे निहायत उबाऊ लगीं. मुझे एक लेखक के लिए आत्मकथा लिखने का कोई तर्क समझ में नहीं आता है. लेखक का जो अनुभूत होता है, उसे वह रचनात्मक रूप देता है. जिन्हें लगता है कि उन्होंने नहीं दिया है, उन्हें लिखना चाहिए. इसी संदर्भ में मैं कहना चाहूंगी कि दलित आत्मकथाओं की बात दूसरी है. अधिकांश दलित रचनाकारों ने पहले-पहल आत्मकथा ही लिखी है. वह उनके लिए एक तरह से उपन्यास कहानी लिखने की पूर्व तैयारी की तरह है. पर, बीस-तीस साल लिख चुकने के बाद कोई आत्मकथा लिखता है तो समझ से परे है.
आपको हमेशा शिकायत रही कि आपका मूल्यांकन ठीक से नहीं हुआ. क्या कारण मानती हैं आप?
मनोहर श्याम जोशी ने मुझसे कहा था कि तुम्हारा कभी ठीक से मूल्यांकन नहीं हो सकता, क्योंकि तुम न तो किसी का कुछ बुरा कर सकती हो और न भला. मुझे यह बात सौ फीसदी सच लगती है. हिंदी का साहित्यिक समाज भय और लालच, मुख्यतः दो ही चीजों से संचालित होता है.